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संवाद संग्रह

शिष्यों से संवाद

स्वामी विवेकानंद


शिष्य से वार्तालाप [1]

[ स्थान : कलकत्ता, स्व० प्रियनाथ मुकर्जी का भवन, बागबाज़ार।

वर्ष : १८९७ ई० ]

तीन-चार दिन हुए, स्वामी जी प्रथम बार पाश्चात्य देशों से लौटकर कलकत्ते में पधारे हैं। बहुत दिनों बाद उनके पुण्य दर्शन होने से श्री रामकृष्ण के भक्तगण बहुत प्रसन्न हैं। उनमें से जिनकी अवस्था अच्छी है, वे स्वामी जी को सादर अपने घर पर आमंत्रित करके उनके सत्संग से अपने को कृतार्थ समझते हैं। आज मध्याह्न बागबाजार के अंतर्गत राजवल्ल्भ मुहल्ले में श्री रामकृष्ण के भक्त प्रियनाथ जी के घर पर स्वामी जी का निमंत्रण है। यह समाचार पाते ही, बहुत से भक्त उनके घर आ रहे हैं। शिष्य भी लोगों के मुँह से यह सुनकर प्रियनाथ जी के घर पर कोई ढाई बजे उपस्थित हुआ। स्वामी जी के साथ शिष्य का अभी तक कोई परिचय नहीं। अतः उसके अपने जीवन में स्वामी जी का यह प्रथम दर्शन है।

वहाँ उपस्थित होते ही स्वामी तुरीयानंद जी शिष्य को स्वामी जी के पास ले गए और उसका परिचय कराया। स्वामी जी जब विदेश से बेलूड़ मठ में पधारे थे, तभी शिष्यरचित एक श्री रामकृष्णस्त्रोत पढ़कर उसके विषय में सब जान गए थे और उन्होंने यह भी मालूम कर लिया था कि शिष्य का श्री रामकृष्ण के बड़े प्रेमी भक्त साधु नाग महाशय के पास आना जाना रहता है।

शिष्य जब स्वामी जी को प्रणाम करके बैठ गया तो स्वामी जी ने संस्कृत में संभाषण करते हुए नाग महाशय का कुशल-मंगल पूछा। नाग महाशय के लोकोत्तर त्याग, गंभीर ईश्वरानुराग और दीन भाव का प्रशंसा करते हुए उन्होंने कहा- वयं तत्त्वान्वेषान्मधुकर हतास्त्वम् खलु कृती [2] - और शिष्य को आज्ञा दी कि पत्र द्वारा इस संभाषण को उनके पास भेज दे। तदनंतर बहुत भीड़ लग जाने के कारण वार्तालाप करने का सुभीता न देखकर स्वामी जी शिष्य और तुरीयानंद जी को लेकर पश्चिम के एक छोटे कमरे में चले गए और शिष्य को लक्ष्य करके 'विवेकचूड़ामणि' का यह श्लोक कहने लगे-

मा भैष्ट विद्वंस्तव नास्त्यपायः
संसारसिन्धोस्तरणेऽस्त्युपायः।
येनैव याता यतयोऽस्य पारं
तमेव मार्गं तव निर्दिशामि॥

-'हे विद्वन! डरो मत; तुम्हारा नाश नहीं है, संसार-सागर के पार उतरने का उपाय है। जिस पाठ के अवलंबन से यती लोग संसार-सागर के पार उतरे हैं, वही श्रेष्ठ पथ मैं तुम्हें दिखाता हूँ!' ऐसा कहकर उन्होंने शिष्य को श्री शंकराचार्य कृत 'विवेकचूड़ामणि' ग्रंथ पढ़ने का आदेश दिया।

शिष्य इन बातों को सुनकर चिंता करने लगा-क्या स्वामी जी मुझे मंत्र दीक्षा लेने के लिए संकेत कर रहे हैं? उस समय शिष्य वेदांतवादी और आचार मार्गी था। गुरु से मंत्र लेने की प्रथा पर उसे कोई आस्था न थी और वर्णाश्रम धर्म का वह एकांत पक्षपाती तथा अनुयायी था।

फिर नाना प्रकार के प्रसंग चल रहे थे कि इतने में ही किसी ने आकार समाचार दिया कि 'मिरर' दैनिक पत्र के संपादक श्री नरेन्द्रनाथ सेन स्वामी जी के दर्शन के लिए आए हैं। स्वामी जी ने संवादवाहक को आज्ञा दी, 'उन्हें यहाँ लिवा लाओ।' नरेन्द्र बाबू ने छोटे कमरे में आकर आसन ग्रहण किया और वे अमेरिका, इंग्लैंड के विषय में स्वामी जी से नाना प्रकार के प्रश्न करने लगे। प्रश्नों के उतर में स्वामी जी ने कहा की अमेरिका के लोग जैसे सहृदय, उदारचित्त, अतिथिसेवी और नवीन भाव ग्रहण करने में उत्सुक हैं, वैसे संसार के किसी भी राष्ट्र के लोग नहीं हैं। अमेरिका में जो कुछ कार्य हुआ है, वह मेरी शक्ति से नहीं हुआ, वरन अत्यंत सहृदय होने के कारण ही अमेरिकीवासी इस वेदांत भाव को ग्रहण करने में समर्थ हुए हैं। इंग्लैंड के विषय में स्वामी जी ने कहा की अंग्रेज़ जाति की तरह प्राचीन रीति-नीतिपरायण और कोई जाति संसार में नहीं। पहले तो ये लोग किसी नए भाव को सहज में ग्रहण करना ही नहीं चाहते; परंतु यदि अध्यवसाय के साथ कोई भाव उनको एक बार समझा दिया जाए तो फिर उसे वे कभी भी नहीं-छोड़ते। ऐसा दृढ़ निश्चय किसी दूसरी जाति में नहीं पाया जाता। इसी कारण अंग्रेज़ जाति ने सभ्यता में और शक्ति-संचय में पृथ्वी पर सबसे ऊँचा पद प्राप्त किया है।

यह घोषित करते हुए कि यदि कोई सुयोग्य प्रचारक मिले तो अमेरिका की अपेक्षा इंग्लैंड में ही वेदांत -कार्य के स्थायी होने की अधिक संभावना है, उन्होंने आगे कहा, "मैं केवल कार्य की नींव डालकर आया हूँ, मेरे बाद के प्रचारक उसी मार्ग पर चलकर भविष्य में बहुत बड़ा काम कर सकेंगे।"

नरेन्द्र बाबू ने पूछा-"इस प्रकार धर्म-प्रचार करने से भविष्य में हम लोगों को क्या आशा है?"

स्वामी जी ने कहा-"हमारे देश में जो कुछ है वह वेदांत धर्म ही है। अन्य बातों की तुलना में पाश्चात्य सभ्यता के सामने हम नगण्य हैं; परंतु धर्म के क्षेत्र में यह सार्वभौम वेदांतवादी ही नाना प्रकार के मतावलंबियों को समान अधिकार दे रहा है। इसके प्रचार से पाश्चात्य सभ्य संसार को विदित होगा कि एक समय भारतवर्ष में कैसे आश्चर्यजनक धर्म-भाव का स्फुरण हुआ था और वह अब तक विद्यमान है। इस धर्म की चर्चा होने से पाश्चात्य राष्ट्रों की श्रद्धा और सहानुभूति हमारे प्रति बढ़ेगी-एक सीमा तक इनकी अभिवृत्ति हुई भी है। इस प्रकार उनकी यथार्थ श्रद्धा और सहानुभूति प्राप्त करने पर हम अपने ऐहिक जीवन के लिए उनसे वैज्ञानिक शिक्षा ग्रहण करके जीवन संग्राम में अधिक दक्षता प्राप्त करेंगे। दूसरी ओर वे हमसे वेदांत मत ग्रहण करके अपना परमार्थिक कल्याण करने में समर्थ होंगे।

नरेन्द्र बाबू ने पूछा-"क्या इस प्रकार के आदान प्रदान से हमारी राजनीतिक उन्नति की कोई आशा है?"

स्वामी जी ने कहा, "वे (पाश्चात्य राष्ट्र) महापराक्रमी विरोचन की संतान हैं। उनकी शक्ति से पंचभूत कठपुतली के समान उनकी सेवा कर रहे हैं। यदि आप लोग यह समझते हो कि उनके खिलाफ इसी भौतिक शक्ति के प्रयोग से किसी दिन हम उनसे स्वतंत्र हो जाएंगे तो आप लोग सरासर गलती पर हैं और इस शक्ति-प्रयोग की कुशलता में उनके सामने हम ऐसे ही हैं जैसे हिमालय के सामने एक सामान्य शिला-खंड। मेरा मत क्या है, जानते हैं? उक्त प्रकार से हम लोग वेदांत धर्म का-गूढ़ रहस्य पाश्चात्य जगत में प्रचार करके उन महा शक्तिशाली राष्ट्रों की श्रद्धा और सहानुभूति प्राप्त करेंगे और आध्यात्मिक विषय में सर्वदा उनके गुरुस्थानीय बने रहेंगे। दूसरी ओर वे अन्यान्य ऐहिक विषयों में हमारे गुरु बने रहेंगे। जिस दिन भारतवासी धर्म शिक्षा के लिए पाश्चात्यों के कदमों पर चलेंगे उसी दिन इस अध:पतित जाति का जातित्व सदा के लिए नष्ट हो जाएगा। 'हमें यह दे दो, हमें वह दे दो', ऐसे आंदोलन से सफलता प्राप्त नहीं होगी। वरन उपर्युक्त आदान-प्रदान के फलस्वरूप जब दोनों पक्षों में पारस्परिक श्रद्धा और सहानुभूति का आकर्षण पैदा होगा, तब अधिक चिल्लाने की अवश्यकता ही नहीं रहेगी। वे स्वयं हमारे लिए सबकुछ कर देंगे। मेरा विश्वास है कि वेदांत धर्म की चर्चा और वेदांत का सर्वत्र प्रचार होने से हमारा तथा उनका दोनों का ही विशेष लाभ होगा। इसके सामने राजनीतिक चर्चा समझ में निम्न स्तर का उपाय है। अपने इस विश्वास को कार्य में परिणत करने के लिए मैं अपने प्राण तक दे दूँगा। आप यदि समझते हैं कि किसी दूसरे उपाय से भारत का कल्याण होगा तो आप उसी उपाय का अवलंबन ग्रहण कर आगे बढ़ते जाइए।

नरेन्द्र बाबू स्वामी जी के विचारों से पूर्णत: सहमति प्रकट करते हुए थोड़ी देर बाद चले गए। स्वामी जी की पूर्वोक्त बातों को श्रवणकर शिष्य विस्मित हो गया और उनकी दिव्य मूर्ति की ओर टकटकी लगाए देखता रहा।

नरेन्द्र बाबू के चले जाने के पश्चात् गोरक्षण सभा के एक उद्धमी प्रचारक स्वामी जी के दर्शनों के लिए आए। वे साधु-संन्यासियों का सा वेश धारण किए हुए थे। मस्तक पर गेरुए रंग की पगड़ी थी। देखते ही जान पड़ता था कि वे पश्चिमोत्तर अंचल के हैं। इन प्रचारक के आगमन का समाचार पाते ही स्वामी जी कमरे से बाहर आए। प्रचारक ने स्वामी जी का अभिवादन किया और गौ माता का एक चित्र-उन्हें दिया। स्वामी जी ने उसे ले लिया और पास बैठे हुए किसी व्यक्ति को देकर प्रचारक से वार्तालाप करने लगे।

स्वामी जी-आप लोगों की सभा का उद्देश्य क्या है?

प्रचारक-हम देश की गोमाताओं को कसाई के हाथों से बचाते हैं। स्थान-स्थान पर गोशालाएँ स्थापित की गई हैं, जहाँ रोगग्रस्त, दुर्बल और कसाइयों से मोल ली हुई गउओं का पालन किया जाता है।

स्वामी जी-बड़ी उत्तम बात है। सभा की आय कैसे होती है?

प्रचारक-आप जैसे धर्मात्माओं की कृपा से जो कुछ प्राप्त होता है, उसी से सभा का कार्य चलता है।

स्वामी जी-आपकी जमा पूंजी कितनी है?

प्रचारक-मारवाड़ी वैश्य वर्ग इस कार्य में विशेष सहायता देता है। उन्होंने इस सत्कार्य में बहुत सा धन दिया है।

स्वामी जी-मध्य भारत में इस वर्ष भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा है। भारत सरकार ने घोषित किया है कि नौ लाख लोग अन्न कष्ट से मर गए हैं। क्या आपकी सभा ने इस दुर्भिक्ष में कोई सहायता करने का आयोजन किया है?

प्रचारक-हम दुर्भिक्षादि में कुछ सहायता नहीं करते। केवल गो माता की रक्षा करने के उद्देश्य से ही सभा स्थापित हुई है।

स्वामी जी-आपके देखते-देखते इस दुर्भिक्ष में आपके लाखों भाई कराल काल के चंगुल में फँस गए। पास में बहुत सा नक़द रुपया होते हुए भी क्या आप लोगों ने एक मुट्ठी अन्न देकर इस भीषण दुर्दिन में उनकी सहायता करना अपना कर्तव्य नहीं समझा?

प्रचारक- नहीं, मनुष्य के पाप कर्मफल से यह दुर्भिक्ष पड़ा था। जैसे कर्म, वैसा फल।

प्रचारक की बात सुनते ही स्वामी जी के क्रोध की ज्वाला भड़क उठी और ऐसा मालूम होने लगा कि उनके नयनप्रांत से अग्निकण स्फुरित हो रहे हैं। परंतु अपने को संभालकर उन्होंने कहा, "जो सभा-समिति मनुष्यों से सहानुभूति नहीं रखती, अपने भाइयों को बिना अन्न मरते देखकर भी उनकी रक्षा के निमित्त एक मुट्ठी अन्न की सहायता न दे, पर पशु-पक्षियों के निमित्त हज़ारों रुपये व्यय कर रही है, उस सभा-समिति से मैं लेशमात्र भी सहानुभूति नहीं रखता। उससे मनुष्य समाज का विशेष कुछ उपकार होगा, इसमें मुझे विश्वास नहीं। 'अपने कर्म-फल से मनुष्य मरते हैं!' इस प्रकार की बातों में कर्म-फल की दुहाई देने से जगत में कोई भी-उद्यम करना व्यर्थ प्रमाणित हो जाएगा। पशु-रक्षा का काम भी इसी के अंतर्गत आता है। कहा जा सकता है कि गो-माताएँ भी अपने कर्म-फल से ही कसाइयों के पास पहुँचती हैं और मारी जाती हैं; अतएव उनकी रक्षा का-उद्यम करना भी निष्प्रयोजन ही है"।

प्रचारक ने कुछ झेंपकर कहा-"हाँ महाराज, आपने जो कहा वह सत्य है, परंतु शास्त्र में लिखा है कि गौ हमारी माता है। स्वामी जी हँसकर बोले-"जी हाँ गौ हमारी माता है, यह मैं भली भाँति समझता हूँ। यदि ऐसा न होता तो ऐसी कृत-कृत्य संतान और दूसरी कौन प्रसव करती?"

प्रचारक इस विषय पर तो कुछ नहीं बोले। शायद स्वामी जी का व्यंग्य प्रचारक की समझ में नहीं आया। फिर मूल प्रसंग पर लौटकर उन्होंने कहा, "इस समिति की ओर से आपके सम्मुख भिक्षा के लिए उपस्थित हुआ हूँ।"

स्वामी जी-मैं ठहरा फकीर आदमी, रुपया मेरे पास कहाँ है कि मैं आपकी सहायता करूँ? परंतु यह भी कहे देता हूँ कि यदि कभी मेरे पास धन आए तो मैं उस धन को पहले मनुष्य-सेवा में व्यय करूँगा। सबसे पहले मनुष्य की रक्षा आवश्यक है-उन्हें अन्नदान, धर्मदान, विद्यादान करना पड़ेगा। इन कामों को करके यदि कुछ रुपया बचे तो आपकी समिति को कुछ दूँगा।

इन बातों को सुनकर प्रचारक स्वामी जी को नमस्कार कर चले गए। तब स्वामी जी हमसे कहने लगे, "देखो कैसे अचंभे की बात उन्होंने बतलायी! कहा कि मनुष्य अपने कर्म-फल से मरता है, उस पर दया करने से क्या लाभ होगा? हमारे देश के पतन का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है। तुम्हारे हिंदू धर्म का कर्मवाद कहाँ जा कर पहुँचा है! जिस मनुष्य का मनुष्य के लिए जी नहीं दुखता वह अपने को मनुष्य कैसे कहता है?" इन बातों को कहने के साथ ही स्वामी जी का शरीर क्षोभ और दु:ख से तिलमिला उठा।

इसके पश्चात् शिष्य से कहा, "फिर मुझसे मिलना।"

शिष्य-आप कहाँ रहेंगे? संभव है कि आप किसी बड़े आदमी के स्थान पर ठहरें, वहाँ हमको कोई घुसने न दे तो?

स्वामी जी-इधर मैं कभी-आलमबाजार मठ में, कभी काशीपुर के गोपाल-लाल शील की बगीचेवाली कोठी में रहूँगा, तुम वहाँ आ जाना।

शिष्य- महाराज, बड़ी इच्छा होती है कि एकांत में आपसे वार्तालाप करूँ।

स्वामी जी- बहुत अच्छा, किसी दिन रात्रि में आ जाओ; वेदांत की चर्चा होगी।

शिष्य- महाराज, मैंने सुना है कि आपके साथ कुछ अंग्रेज़ और अमेरिकन आए हैं। वे मेरे पहनावे और बातचीत से अप्रसन्न तो नहीं होंगे?

स्वामी जी- वे भी तो मनुष्य हैं। विशेष करके वे वेदांत धर्म में निष्ठा रखते हैं। वे तुम्हारे साथ मेल-मुलाकात से आनंदित होंगे।

शिष्य- महाराज, वेदांत अधिकारियों के जो सब लक्षण होने चाहिए, वे आपके पाश्चात्य शिष्यों में कैसे संभव हुए? शास्त्र कहता है-अधीतवेदवेदांत कृतप्रायश्चित्त , नित्यनैमित्तिक-कर्मानुष्ठानकारी (आहार-विहार में परम संयमी, विशेष करके चतु:साधन-संपन्न न होने से वेदांत का अधिकारी नहीं बनता)। आपके पाश्चात्य शिष्यगण प्रथम तो ब्राह्मण नहीं, दूसरे वस्त्र-भोजनादि में अनाचारी हैं, वे वेदांत वाद कैसे समझ गए?

स्वामी जी-वे वेदांत को समझे या नहीं, यह तुम उनसे मेल-मिलाप करने से ही जान जाओगे।

शायद स्वामी जी की अब समझ में आया कि शिष्य एक निष्ठावान, आचार-धर्मी हिंदू है।

इसमें बाद स्वामी जी श्री रामकृष्ण के भक्तों के साथ बलराम बसु के स्थान को गए। शिष्य भी बटतले मुहल्ले से 'विवेकचूड़ामणि' ग्रंथ मोल लेकर दर्जीपाड़े में अपने घर की ओर चल पड़ा।

[ स्थान: कलकत्ते से काशीपुर जाने का रास्ता और गोपाललाल शील का बाग। वर्ष: १८९७ ई० ]

आज मध्याह्न स्वामी जी श्रीयुत गिरीशचन्द्र घोष [3] के मकान पर आराम कर रहे थे। शिष्य ने वहाँ आकर स्वामी जी को प्रणाम किया और उनको गोपाललाल शील के महल को जाने के लिए प्रस्तुत पाया। गाड़ी खड़ी थी। स्वामी जी ने शिष्य से कहा, "मेरे साथ चल"। शिष्य के राजी होने पर स्वामी जी उसको लेकर गाड़ी में सवार हुए और गाड़ी चल दी। चितपुर मार्ग पर पहुँचकर गंगा दर्शन होते ही स्वामी जी मन ही मन गंगा-तरंग-रमणीय-जटाकलापम् आदि लय के साथ कहने लगे। शिष्य मुग्ध होकर इस अद्भुत स्वर-लहरी को चुपचाप सुनने लगा। इस प्रकार कुछ समय व्यतीत होने पर एक रेल के इंजन को चितपुर पुल की ओर जाते देख स्वामी जी ने शिष्य से कहा, "देखो, कैसा सिंह की भाँति जा रहा है!" शिष्य ने कहा, "यह तो जड़ है, उसके पीछे मनुष्य की चेतना शक्ति काम करती है और इसी से वह चलता है। इस प्रकार चलने से क्या उसका अपना बल प्रकट होता है?"

स्वामी जी- अच्छा, बतलाओ तो चेतना का लक्षण क्या है?

शिष्य- महाराज, चेतन वही है जिसमें बुद्धिप्रेरित क्रिया पायी जाती है।

स्वामी जी- जो कुछ प्रकृति के विरुद्ध लड़ाई करता है, वही चेतन है। उसमें ही चैतन्य का विकास है। यदि एक चींटी को मारने लगो तो देखोगे कि वह भी अपनी जीवन रक्षा के लिए एक बार लड़ाई करेगी। जहाँ चेष्टा या पुरुषार्थ है, जहाँ संग्राम है, वही जीवन का चिह्न और चैतन्य का प्रकाश है।

शिष्य- क्या यही नियम मनुष्य और राष्ट्रों पर भी लागू होता है महाराज?

स्वामी जी-लागू होता है या नहीं, यह संसार का इतिहास पढ़ कर देखो। यह नियम तुम्हारी जाति को छोड़कर सब जातियों के संबंध में ठीक है। आज-कल संसार भर में केवल-तुम्हीं लोग जड़ के समान पड़े हो। तुम बिलकुल सम्मोहित हो चुके हो। बहुत प्राचीन समय से औरों ने तुमको बतलाया कि तुम हीन हो, तुममें कोई शक्ति नहीं-और तुम भी यह बात सहस्त्र वर्षों से सुनते-सुनते कि हम हीन हैं, अपने को निकम्मा समझने लगे हो-ऐसा सोचते-सोचते तुम वैसे ही बन गए हो। (अपना शरीर दिखलाकर) यह शरीर भी तो इसी देश की मिट्टी से बना है, परंतु मैंने कभी ऐसी चिंता नहीं की। देखो, इसी कारण उसकी (ईश्वर की) इच्छा से, जो हमको चिर काल से हीन समझते हैं, -उन्होंने ही मेरा देवता के समान सम्मान किया और करते हैं। यदि तुम लोग भी सोच सको कि हमारे अंदर अनंत शक्ति, आपार ज्ञान, अदम्य उत्साह वर्तमान है, और अपने भीतर की शक्ति को जगा सको तो मेरे समान हो जाओगे।

शिष्य-महाराज, ऐसा चिंतन करने की शक्ति कहाँ से मिले? ऐसा शिक्षक या उपदेशक कहाँ जो लड़कपन से ही इन बातों को सुनता और समझाता रहे! हमने तो सबसे यही सुना और सीखा है कि आजकल का पठन-पाठन केवल नौकरी पाने के लिए है।

स्वामी जी-इसीलिए हम आए हैं दूसरे प्रकार से सिखलाने और दिखलाने के लिए। तुम सब इस तत्व को हमसे सीखो, समझो और अनुभव करो। फिर इस भाव को नगर-नगर, गाँव-गाँव, पुरवे-पुरवे में फैला दो। और सबके पास जा जा कर कहो, "उठो, जागो और सोओ मत। सारे अभाव और दु:ख नष्ट करने की शक्ति तुम्हीं में है, इस बात पर विश्वास करने से ही वह शक्ति जाग उठेगी।" यह बात सबसे कहो और साथ ही सरल भाषा में विज्ञान, दर्शन, भूगोल और इतिहास की मूल बातों को सर्वसाधारण में फैला दो। मेरा यह विचार है कि अविवाहित नवयुवकों को लेकर एक शिक्षा-केंद्र स्थापित करूँ। पहले उनको शिक्षा दूँ, तत्पश्चात उनके द्वारा इस कार्य का प्रचार कराऊँ।

शिष्य-महाराज, इस कार्य के लिए तो बहुत धन की अपेक्षा है और वह कहाँ से आएगा?

स्वामी जी-अरे, तू क्या कहता है? मनुष्य ही तो रुपया पैदा करता है। रुपये से मनुष्य पैदा होता है, यह भी कभी कहीं सुना है? यदि तू अपने मन और मुख तथा वचन और क्रिया को एक कर सके तो धन आप ही तेरे पास जलवत बह आएगा।

शिष्य-अच्छा महाराज, माना कि धन आ गया और आपने भी इस सत्कार्य का अनुष्ठान कर दिया। फिर इसके पूर्व भी तो कितने ही महापुरुष कितने सत्कार्यों का अनुष्ठान कर गए, वे सब (सत्कार्य) अब कहाँ है! निश्चय है कि आपके द्वारा प्रतिष्ठित कार्य भी भविष्य में ऐसी ही दशा होगी। तब ऐसे उद्दयम की आवश्यकता ही क्या?

स्वामी जी-भविष्य में क्या होगा, इसी चिंता में जो सर्वदा रहता है, उससे कोई कार्य नहीं हो सकता इसलिए जिस बात को तू सत्य समझता है, उसे अभी कर डाल; भविष्य में क्या होगा इसकी चिंता करने की क्या आवश्यकता? तनिक सा तो जीवन है; यदि इसमें भी किसी कार्य के लाभालाभ का विचार करते रहें तो क्या उस कार्य का होना संभव है? फलाफल देने वाला तो एकमात्र ईश्वर है। जैसा उचित होगा वैसा ही वह करेगा। इस विषय में पड़ने से तेरा क्या प्रयोजन है? तू इसकी चिंता न कर, अपना काम किए जा।

बातें करते-करते गाड़ी कोठी पर आ पहुँची। कलकत्ते से बहुत से लोग स्वामी जी के दर्शन के लिए वहाँ आए हुए थे। स्वामी जी गाड़ी से उतरकर कमरे में जा बैठे और सबसे बातचीत करने लगे। स्वामी जी के अंग्रेज़ शिष्य गुडविन साहब मूर्तिमान सेवा की भाँति पास ही खड़े थे। इनके साथ शिष्य का परिचय पहले ही हो चुका था, इसीलिए शिष्य भी उनके पास ही बैठ गए और दोनों मिलकर स्वामी जी के विषय में नाना प्रकार का वार्तालाप करने लगे।

संध्या होने पर स्वामी जी ने शिष्य को बुलाकर पूछा, "क्या तूने कठोपनिषद कंठस्थ कर दिया है?"

शिष्य-नहीं महाराज, मैंने शांकर-भाष्य के सहित उसका पाठ मात्र किया है।

स्वामी जी-उपनिषदों में ऐसा सुंदर ग्रंथ और कोई नहीं। मैं चाहता हूँ, तू इसे कंठस्थ कर ले। नचिकेता के समान श्रद्धा, साहस, विचार और वैराग्य अपने जीवन में लाने की चेष्टा कर, केवल पढ़ने से क्या होगा?

शिष्य-ऐसी कृपा कीजिये कि दास को भी उस सबका अनुभव हो जाए।

स्वामी जी-तुमने तो श्री रामकृष्ण का कथन सुना है? वे कहा करते थे कि 'कृपारूपी वायु सर्वदा चलती रहती है, तू पाल उठा क्यों नहीं देता?' बेटे, क्या कोई किसी के लिए कुछ कर सकता है? अपना भाग्य अपने ही हाथ में है। बीज ही की शक्ति से वृक्ष होता है। जलवायु तो उसके सहायक मात्र होते हैं।

शिष्य-तो देखिये न महाराज, बाहर की सहायता भी आवश्यक है?

स्वामी जी-हाँ, है। परंतु बात यह है कि भीतर पदार्थ न रहने पर बाहर की कितनी ही सहायता से कुछ फल नहीं होता। आत्मानुभूति के लिए एक अवसर सभी को मिलता है, सभी ब्रह्मा जो हैं। ऊँच-नीच का भेद ब्रह्म-विकास के तारतम्य मात्र से होता है। समय आने पर सभी का पूर्ण विकास होता है। शास्त्र में भी यही कहा गया है, कालेनात्मनि विदन्ति

शिष्य-महाराज, ऐसा कब होगा? शास्त्रों से जान पड़ता है, हमने बहुत जन्म अज्ञान में बिताये हैं।

स्वामी जी-डर क्या है? अब जब तू यहाँ आ गया है, तब इसी जन्म में तेरा बन जाएगा। मुक्ति, समाधि-ये सब ब्रह्मप्रकाश के पथ पर प्रतिबंध को दूर करने के नाम मात्र हैं, क्योंकि आत्मा तो सर्वदा ही सूर्य के समान चमकती रहती है। केवल अज्ञानरूपी बादल ने उसे ढक लिया है। वह हटा कि सूर्य भी प्रकट हुआ। तभी भिद्यते हृदयग्रंथि: यदि अवस्थाएँ आती हैं। जितने पाठ देखते हो वे सभी इस प्रतिबिंब रूपी मेघ को दूर करने का उपदेश देते हैं। जिसने जिस भाव से आत्मानुभव किया, वह उसी से उपदेश कर गया है, परंतु सबका उद्देश्य है आत्मज्ञान-आत्मदर्शन। इसमें सब जतियों को, सब प्राणियों को समान अधिकार है। यही सार्वभौम मत है।

शिष्य-महाराज, शास्त्र के इस वचन को जब मैं पढ़ता या सुनता हूँ, तब आत्मतत्व के अभी तक प्रत्यक्ष न होने के कारण मन छटपटाने लगता है।

स्वामी जी-इसी को 'व्याकुलता' कहते हैं। यह जितनी बढ़ेगी, प्रतिबंध रूपी बादल उतना ही नष्ट होगा, उतना ही श्रद्धाजनित समाधान-प्राप्त होगा। शनै: शनै: आत्मा 'करतलामलकवत' प्रत्यक्ष होगी। अनुभूति ही धर्म का प्राण है। कुछ आचार तथा विधि-निषेधों को सब मानकर चल सकते हैं। कुछ का पालन भी कर सकते हैं, परंतु अनुभूति के लिए कितने लोग व्याकुल होते हैं? व्याकुलता, ईश्वर-लाभ या आत्मज्ञान के निमित्त उन्मत होना ही यथार्थ धर्म प्रवणता है। भगवान श्री कृष्ण के लिए गोपियों की जैसी अदम्य उन्मत्ता थी, वैसी ही आत्मदर्शन के लिए होनी चाहिए। गोपियों के मन में भी स्त्री-पुरुष का किंचित भेद था, परंतु वास्तविक आत्मज्ञान में वह भेद जरा भी नहीं रहता। बात करते हुए स्वामी जी ने जयदेव लिखित 'गीतगोविन्द' के विषय में कहा-श्री जयदेव संस्कृत भाषा के अंतिम कवि थे। उनहोंने कई स्थानों में भाव की अपेक्षा श्रुति-मधुर पदविन्यास पर अधिक ध्यान दिया है। देखो, गीत-गोविन्द के-

पतति पतत्रे विचलति पत्रे शंकितभवदुपायनम।

रचयति शयन सचकितनयन पश्यती तव पंथानम।।

इन श्लोकों में कवि ने अनुराग तथा व्याकुलता की क्या पराकाष्ठा दिखलाई है! आत्मदर्शन के लिए हृदय में वैसी ही व्याकुलता होनी चाहिए।

फिर वृंदावन छोड़कर यह भी देखो की कुरुक्षेत्र में श्री कृष्ण कैसे हृदयग्राही हैं-भयानक युद्ध के कोलाहल में भी स्थिर, गंभीर तथा शांत। युद्धक्षेत्र ही अर्जुन को गीता का उपदेश दे रहे हैं। युद्ध के लिए, जो क्षत्रिय का स्वधर्म है, उनको उत्साहित कर रहे हैं।

इस भयंकर युद्ध के प्रवर्तक होकर भी कैसे श्री कृष्ण कर्महीन रहे, उन्होंने अस्त्र धरण नहीं किया। जिधर से देखोगे श्री कृष्ण के चरित्र को सर्वांग संपूर्ण पाओगे। ज्ञान, धर्म, भक्ति, योग इन सबके मानो वे प्रत्यक्ष रूप ही हैं। श्री कृष्ण के इसी भव की आजकल विशेष चर्चा होनी चाहिए। अब वृंदावन के वंशीधरी कृष्ण के ध्यान करने से कुछ न बनेगा, इससे जीव का उद्दार नहीं होगा। अब प्रयोजन है गीता के सिंहनादकारी श्री कृष्ण की, धनुषधारी श्री रामचन्द्र की, महावीर की, माँ काली की पूजा की। इसी से लोग महाउद्धम के साथ कर्म में लगेंगे और शक्तिशाली बनेंगे। मैंने बहुत अच्छी तरह विचार करके देखा है की वर्तमान काल में जो धर्म की रट लगा रहे हैं, उनमें से बहुत लोग पाशवी दुर्बलता से भरे हुए हैं, विकृतमस्तिष्क हैं, अथवा उन्मादग्रस्त। बिना रजोगुण के तेरा अब न इहलोक है और न परलोक। घोर तमोगुण से देश भर गया है। फल भी उसका वैसा हो रहा है-इस जीवन दासत्व और उसमें नरक।

शिष्य-पश्चात्यों में जो रजोभाव है उसे देखकर आपको आशा है कि वे भी सात्विक बनेंगे?

स्वामी जी-निश्चय बनेंगे, नि:संदेह बनेंगे। चरम रजोगुण का आश्रय लेनेवाले वे अब भोज कि आखिरी सीमा पर पहुँच गए हैं। उनको योग प्राप्त न होगा तो क्या तुम्हारे समान भूखे, उदर के निमित्त मारे मारे फिरनेवालों को होगा? उनके उत्कृष्ट भोगों को देख 'मेघदूत' के विदुद्वतं ललितवासना: इत्यादि चित्र का स्मरण आता है। और तुम्हारे भोग में आता है केवल सीलन की दुर्गंध वाले मकान में फटी पुरानी गुदड़ी पर सोना और हर साल सूअर के समान बंश बढ़ाना-भूखे भिखमंगों तथा दासों को जन्म देना! इसी से मैं कहता हूँ कि अब मनुष्यों में रजोगुण उद्दीप्त करके उनको कर्मशील करना पड़ेगा। कर्म-कर्म, केवल कर्म। न्याय: पंथा विद्यतेयनाय-उद्धार का अन्य कोई भी पथ नहीं है। शिष्य-महाराज, क्या हमारे पूर्वज भी कभी रजोगुण संपन्न थे ?

स्वामी जी-क्यों नहीं? इतिहास जो बतलाता है-कि उन्होंने अनेक देशों पर विजय प्राप्त की और वहाँ उपनिवेश भी स्थापित किए। तिब्बत, चीन, सुमात्रा, जापान तक धर्मप्रचारकों को भेजा था। बिना रजोगुण का आश्रय लिए उन्नति का कोई भी उपाय नहीं।

बातचीत में ज्यादा रात बीत गई। इतने में कुमारी मूलर आ पहुँची। यह एक अंग्रेज़ महिला थीं, स्वामी जी पर विशेष श्रद्धा रखती थीं। कुछ बातचीत करके कुमारी मूलर ऊपर चली गई।

स्वामी जी-देखता है, यह कैसी वीर जाति की है? बड़े धनवान की लड़की है, तब भी धर्मलाभ के लिए सब कुछ छोड़कर कहाँ आ पहुँची है!

शिष्य-हाँ महाराज, परंतु आपका क्रियाकलाप और भी अद्भुत है। कितने ही अंग्रेज़ पुरुष और महिलाएँ आपकी सेवा के लिए सर्वदा उद्यत हैं। आजकल यह बड़ी आश्चर्यजनक बात प्रतीत होती है।

स्वामी जी-(अपने शरीर की ओर संकेत करके) यदि शरीर रहा तो कितने ही और आश्चर्य देखोगे। कुछ उत्साही और अनुरागी युवक से मैं देश में उथल-पुथल मचा दूँगा। मद्रास में कुछ ऐसे युवक हैं, परंतु बंगाल से मुझे विशेष आशा है। ऐसे साफ दिमाग वाले और कहीं पैदा होते; किंतु इनकी मांस-पेशियों में शक्ति नहीं है। मस्तिष्क और शरीर की मांस-पेशियों का बल साथ साथ विकसित होना चाहिए। फौलादी शरीर हो और साथ ही कुशाग्र बुद्धि भी हो तो सारा संसार तुम्हारे सामने नतमस्तक हो जाएगा।

इतने में समाचार मिला की स्वामी जी का भोजन तैयार है। स्वामी जी ने शिष्य से कहा, "मेरा भोजन देखने चलो।" स्वामी जी भोजन करते करते कहने लगे, "भूत चर्बी और तैल से पका हुआ भोजन अच्छा नहीं। पूरी से रोटी अछि है। पूरी रोगियों का खाना है। ताजा शक अधिक मात्र में खाना चाहिए और मिठाई कम।" कहते कहते शिष्य ने पूछा, "अरे, मैंने कितनी रोटियाँ खा ली! क्या और भी खानी होगी?" कितनी रोटियाँ खायीं! उनको यह स्मरण नहीं रहा, और यह भी वह नहीं समझ पा रहे हैं की भूख है या नहीं। बातों बातों में शरीर-ज्ञान इतना जाता रहा।

कुछ और खाकर स्वामी जी ने अपना भोजन समाप्त किया। शिष्य भी विदा लेकर कलकत्ते को वापस लौटा। गाड़ी न मिलने से पैदल ही चला। चलते चलते विचार करने लगा कि न जाने कल फिर कब वह स्वामी जी के दर्शन को आएगा।

[स्थान : काशीपुर, स्व० गोपाललाल शील का-उद्यान। वर्ष: १८९७ ई०]

स्वामी जी विलायत से प्रथम बार घर लौटकर कुछ दिन तक काशीपुर में स्व० गोपाललाल शील के उद्यान विराजे। शिष्य का उस समय वहाँ प्रतिदिन आना-जाना रहता था। स्वामी जी के दर्शन के निमित्त केवल शिष्य ही नहीं वरन और बहुत से उत्साही युवकों की वहाँ भीड़ रहती थी। कुमारी मूलर स्वामी जी के साथ आकर पहले वहीं ठहरी थीं। शिष्य के गुरुभाई गुडविन साहब भी इसी-उद्यान-वाटिका जी के साथ रहते थे।

उस समय स्वामी जी का यश भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक फैल रहा था। इसी कारण कोई कौतुकाविष्ट होकर, कोई धर्म जिज्ञासा लेकर तो कोई स्वामी जी के ज्ञान की परीक्षा लेने को उनके पास आता था।

शिष्य ने देखा कि प्रश्न करनेवाले लोग स्वामी जी कि शस्त्र-व्याख्या को सुनकर मोहित हो जाते थे और उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा से बड़े बड़े दार्शनिक और-विश्वविद्यालयों के प्रसिद्ध पंडित विस्मित हो जाते थे; मानो स्वामी जी के कंठ में स्वयं सरस्वती ही विराजमान हो। इसी उद्यान में रहते समय उनकी अलौकिक योग-दृष्टि का परिचय समय समय पर होता रहता था?१

कलकत्ते के बड़े बाजार में बहुत से पंडित रहते थे, जिंका प्रतिपालन मारवाड़ियों के अन्न से होता था। इन सब वेदज्ञ और दार्शनिक पंडितों ने भी स्वामी जी कि कीर्ति सुनी। इनमें से कुछ प्रसिद्ध पंडित स्वामी जी से शास्त्रार्थ करने के निमित्त एक दिन इस बाग में आ पहुँचे। शिष्य उस दिन वहाँ उपस्थित था। आए हुए पंडितों में से प्रत्येक धाराप्रवाह संस्कृत भाषा में वार्तालाप कर सकता था। उन्होंने आते ही मंडलीवेष्ठित स्वामी जी को नमस्कार कर संस्कृत में उनसे वार्तालाप आरंभ किया। स्वामी जी ने भी मधुर संस्कृत में उत्तर दिया। उस दिन [4] कौन से विषय पर पंडितों का क्या वाद-विवाद हुआ था, यह अब शिष्य को स्मरण नहीं, इतना याद है कि लगभग सभी पंडितों ने एक स्वर से चिल्लाकर संस्कृत में दर्शनशास्त्र के कूट प्रश्न किये और स्वामी जी ने शांति तथा गंभीरता के साथ धीरे-धीरे उन सभी विषयों पर अपनी मीमांसा दी। यह भी याद आता है कि स्वामी जी कि संस्कृत पंडितों की संस्कृत से सुनने में अधिक मधुर तथा सरस थी। पंडितों ने भी बाद में इस बात को स्वीकार किया।

उस दिन संस्कृत भाषा में स्वामी जी का ऐसा धाराप्रवाह वार्तालाप सुनकर सब गुरुभाई भी मुग्ध हो गए थे, क्योंकि वे जानते थे कि छ: वर्ष यूरोप और अमेरिका में रहने से स्वामी जी को संस्कृत भाषा में चर्चा करने का कोई अवसर नहीं मिला। शास्त्रदर्शी पंडितों के साथ उस दिन स्वामी जी का शास्त्रार्थ सुनकर उन्होंने समझा कि स्वामी जी में अद्भुत शक्ति प्रकट हुई है। उस सभा में रामकृष्णानंद, योगानंद, निर्मलानंद, और तुरियानंद और शिवानंद स्वामी भी उपस्थित थे।

इस शास्त्रार्थ में स्वामी जी ने सिद्धांत पक्ष को ग्रहण किया था और पंडितों ने पूर्व पक्ष को। शिष्य को स्मरण है कि स्वामी जी ने एक स्थान पर 'अस्ति' के बदले 'स्वस्ति' का प्रयोग कर दिया था, इस पर पंडित लोग हँस पड़े। पर स्वामी जी ने तत्क्षण कहा, "पंडितना दसोहं क्षन्तव्यमेंतत स्खलनम" अर्थात मैं पंडितों का दास हूँ, व्याकरण की इस त्रुटि को क्षमा कीजिये। स्वामी जी कि ऐसी नम्रता से पंडित लोग मुग्ध हो गए। भूत वाद विवाद के पश्चात पंडितों ने सिद्धांत पक्ष की मीमांसा को ही यथेष्ट कहकर स्वीकार किया और स्वामी जी से प्रीतिपूर्वक विदा लेकर वापस जाने को उद्यत हुए। उपस्थित लोगों में से दो चार लोग पंडितों के पीछे-पीछे गए और उनसे पूछा, "महाराज, आपने स्वामी जी को कैसा समझा?" उनमें से एक वृद्ध पंडित थे उन्होंने उत्तर दिया, "व्याकरण में गंभीर बोध न होने पर भी स्वामी जी शास्त्रों के गूढ़ार्थद्रष्टा हैं; मीमांसा करने में उनके समान दूसरा कोई नहीं और अपनी प्रतिभा से वाद खंडन में उन्होंने अद्भुत पांडित्य दिखलाया है।

स्वामी जी पर उनके गुरुभाइयों का सर्वदा कैसा अद्भुत प्रेम पाया जाता था!

जब पंडितों से स्वामी जी का वाद-विवाद हो रहा था, तब शिष्य ने स्वामी रामकृष्ण जी को एकांत में बैठे जप करते हुए पाया। पंडितों के चले जाने पर शिष्य ने इसका कारण पूछने से उत्तर पाया कि स्वामी जी की विजय के लिए वे श्री रामकृष्ण से प्रार्थना कर रहे थे।

पंडितों के जाने के बाद शिष्य ने स्वामी जी से सुना कि वे पंडित पूर्व मीमांसा शास्त्र में निष्णात थे। स्वामी जी ने उत्तर मीमांसा का अवलंबन कर ज्ञानकांड की श्रेष्ठता प्रतिपादित की थी और पंडित लोग भी स्वामी जी के सिद्धांत को स्वीकार करने को बाध्य हुए थे।

व्याकरण की छोटी-छोटी त्रुटियों के कारण पंडितों ने स्वामी जी कि जो हँसी की थी, उस पर स्वामी जी ने कहा था कि कई वर्ष संस्कृत भाषा में वार्तालाप न करने से ऐसी भूलें हुई थीं। इसके लिए स्वामी जी ने पंडितों पर कुछ भी दोष नहीं लगाया। परंतु उन्होंने यह भी कहा कि पाश्चात्य देशों में वाद-तर्क-के मूल विषय को छोड़कर भाषा की छोटी-मोटी भूलों पर ध्यान देना बड़ी असभ्यता समझी जाती है। सभ्य समाज में मूल विषय का ही ध्यान रख जाता है-

भाषा का नहीं। "परंतु तेरे देश के लोग छिलके को लेकर ही झगड़ते रहते हैं; सर वस्तु का संधान ही नहीं लेते।" इतना कहकर स्वामी जी ने उस दिन शिष्य से संस्कृत में वार्तालाप आरंभ किया। शिष्य ने भी टूटी-फूटी संस्कृत में ही उत्तर दिया। शिष्य की भाषा ठीक न होने पर भी उत्साहित करने के लिए स्वामी जी ने उसकी प्रशंसा की। तब से शिष्य जी के आग्रह पर उनसे बीच-बीच में संस्कृत में ही वार्तालाप करता था।

'सभ्यता' किसे कहते हैं?-इसके उत्तर में स्वामी जी ने कहा कि जो समाज या जाति आध्यात्मिक में जितनी आगे बढ़ी है, वह समाज या वह जाति उतनी ही सभ्य कही जाती है। भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्र तथा शिल्पगृह निर्माण करके इस जीवन के सुख तथा समृद्धि को बढ़ाने मात्र से कोई जाति सभ्य नहीं कहला सकती। आज की पाश्चात्य सभ्यता लोगों में दिन प्रतिदिन अभाव और हाहाकार को ही बढ़ा रही है। भारत की प्राचीन सभ्यता सर्वसाधारण को आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग दिखलाकर यद्यपि उनके इस जीवन के अभाव को पूर्ण रूप से नष्ट कर सकी तो भी उसको बहुत कम करने में नि:संदेह समर्थ हुई थी। इस युग में इन दोनों सभ्यताओं का संयोग करने के लिए भगवान श्री रामकृष्ण ने जन्म लिया। आजकल एक ओर जैसे लोग कर्मतत्पर बनेंगे, वैसे ही उनको गंभीर आध्यात्मिक ज्ञान भी हासिल करना होगा। इसी प्रकार भारतीय और पाश्चात्य सभ्यताओं का मेल होने से संसार में नए युग का उदय होगा। इन बातों को उस दिन स्वामी जी ने विशेष रूप में समझाया। प्रासंगिक रूप से स्वामी जी ने पाश्चात्यों की एक और बात बतलायी। बोले, "वहाँ के लोग हैं कि जो मनुष्य जितना धर्मपरायण होगा, वह बाहरी चालचलन में उतना ही गंभीर बनेगा; मुख से दूसरी बातें निकालेगा भी नहीं। परंतु एक ओर मेरे मुख से धर्म व्याख्या सुनकर उस देश के धर्मप्रचारक जैसे विस्मित होते थे, वैसे ही दूसरी ओर वक्तृता के अंत में मुझको अपने मित्रों से हास्य-कौतुक करते देखकर कम आश्चर्यचकित नहीं होते थे। कभी-कभी उन्होंने मुझसे स्पष्ट ही कहा, "स्वामी जी धर्मप्रचारक बनकर साधारण जन के समान ऐसा हास्य-कौतुक करना उचित नहीं। आपमें ऐसी चपलता कुछ शोभा नहीं देती।" इसके उत्तर में मैं कहा करता था कि हम आनंद की संतान हैं, हम क्यों उदास और दु:खी बने रहें ? इस उत्तर को सुनकर वे इसके मर्म को समझते थे या नहीं, मुझे शंका है।

उस दिन स्वामी जी ने भाव समाधि और निर्विकल्प समाधि के विषय को भी नाना प्रकार से समझया। उसके पुन: वर्णन करने की यथासंभव चेष्टा की जा रही है।

अनुमान करो कि कोई हनुमान की भक्ति भावना से साधना कर रहा है और हनुमान का जैसा भगवान पर भक्ति-भाव था, वैसे ही भक्ति-भाव को उसने ग्रहण किया है। जितना ही यह भाव गधा होगा, उस साधक की चल ढाल, यहाँ तक कि शरीर की गठन भी तदरूप होती जाएगी। 'जात्यंतर परिणाम' इसी प्रकार होता है। किसी एक भाव को ग्रहण करके साधना करने के साथ ही साधक उसी प्रकार के आकार में बादल जाता है। किसी भाव की चरम अवस्था भाव समाधि कही जाती है। और 'मैं शरीर नहीं हूँ' 'बुद्धि भी नहीं हूँ' इस प्रकार से 'नेति-नेति' करते हुए ज्ञानी साधक अपनी चिन्मात्र सत्ता में अवस्थान करते हैं, तब उस अवस्था को निर्विकल्प समाधि कहा जाता है। इस प्रकार ले किसी भाव की ग्रहण कर उसकी सिद्धि प्राप्त करने में या उसकी चरम अवस्था पर पहुँचने के लिए कितने ही जन्मों की चेष्टा की आवश्यकता होती है। भावराज्य के अधिराज श्री रामकृष्ण ने अठारह भिन्न-भिन्न भावों से सिद्धिलाभ किया था। वे यह भी कहा करते थे कि यदि वे आध्यात्मिक भावोन्मुखी न रहते तो उनका शरीर ही न रहता।

भारत में किस प्रणाली से कार्य करेंगे, इसके संबंध में स्वामी जी ने कहा कि मद्रास और कलकत्ते में दो केंद्र बनाकर सब प्रकार के लोककल्याण के लिए वे नए ढंग के साधु संन्यासी बनाएँगे और यह भी कहा की प्राचीन रीतियों के वृथा खंडन से समाज तथा देश की उन्नति संभव नहीं।

सभी कालों में प्राचीन रीतियों को नया रूप देने से ही उन्नति हुई है। भारत में प्राचीन युग में भी धर्मप्रचारकों ने इसी प्रकार कार्य किया था। केवल बुद्धदेव के धर्म ने ही प्राचीन रीति और नीतियों का विध्वंस किया और भारत से उसके निर्मूल हो जाने का कारण भी यही है।

शिष्य को स्वामी जी की यह बात भी स्मरण है कि यदि किसी एक भी जीव में ब्रह्म का विकास हो गया तो, सहस्त्रों मनुष्य उसी ज्योति के मार्ग से आगे बढ़ते हैं। ब्रह्मज्ञ पुरुष ही लोक-गुरु बन सकते हैं; यह बात शास्त्र और युक्ति दोनों से प्रमाणित होती है। स्वार्थयुक्त ब्राह्मणों ने जिस कुलगुरु-प्रथा का प्रचार किया, वह वेद और शास्त्रों के विरुद्ध है। इसलिए साधन करने पर भी लोग अब सिद्ध या ब्रह्मज्ञ नहीं होते। धर्म की यह सब ग्लानि दूर करने के लिए भगवान शरीर धारण कर श्री रामकृष्ण रूप में वर्तमान युग में इस संसार में अवतीर्ण हुए थे। उनके प्रदर्शित सार्वभौम मत के प्रचार से ही जीव और जगत का मंगल होगा। ऐसे सभी धर्मों में समन्वय करने वाले अद्भुत आचार्य ने कई शताब्दियों से भारत में जन्म नहीं लिया था।

इस पर स्वामी जी के एक गुरुभाई ने उनसे पूछा, "महाराज, पाश्चात्य देशों में अपने सब के सामने श्री रामकृष्ण को अवतार कहकर क्यों नहीं प्रचारित किया?"

स्वामी जी-वे दर्शन और विज्ञान शास्त्रों पर बहुत अधिक अभिमान करते हैं। इसी कारण युक्ति, विचार दर्शन और विज्ञान कि सहायता से जब तक उनसे ज्ञान का अहंकार न तोड़ा जाए, तब तक किसी विषय की वहाँ प्रतिष्ठा नहीं हो सकती। अपनी तार्किक विचार-पद्धति से पूर्णत: विरत होकर जब वे तत्त्व के निमित्त सचमुच उत्सुक होकर मेरे पास आते थे, तब मैं उनसे श्री रामकृष्ण की बात किया करता था। यदि पहले से ही उनसे अवतारवाद की चर्चा करता तो वे बोल उठते, "तुम नई बात क्या सीखते हो-हमारे प्रभु ईसा भी तो हैं।"

तीन चार घंटे तक ऐसे आनंद से समय बिताकर उसी दिन अन्य लोगों के साथ शिष्य कलकत्ते लौट आया।

(स्थान: श्री युक्त नवगोपाल घोष का भवन, रामकृष्णपुर, हावड़ा। वर्ष: १८९७ (जनवरी, फरवरी)

श्री रामकृष्ण के प्रेमी भक्त श्री नवगोपाल घोष ने भागीरथी के पश्चिम तट पर हावड़े के अंतर्गत रामकृष्णपुर में एक नई हवेली बनवाई। इसके लिए जमीन मोल लेते समय इस स्थान का नाम रामकृष्ण रखा गया सुनकर वे विशेष आनंदित हुए थे, क्योंकि इस गाँव की उनके इष्टदेव के साथ एकता थी। मकान बन जाने के थोड़े ही दिन पश्चात स्वामी जी प्रथम बार विलायत से कलकत्ते लौटकर आए थे। घोष जी और उनकी स्त्री की बड़ी इच्छा थी कि अपने मकान में स्वामी जी से श्री रामकृष्ण की मूर्ति की स्थापना कराएं। कुछ दिन पहले, घोष जी ने मठ में जाकर स्वामी जी से अपनी इच्छा प्रकट की थी और स्वामी जी ने भी स्वीकार कर लिया था। इसी कारण आज नवगोपाल बाबू के गृह में उत्सव है।

मठ के संन्यासी और श्री रामकृष्ण के सब गृहस्थ भक्त आज सादर निमंत्रित हुए हैं। मकान भी आज ध्वजा-पताकाओं से सुशोभित है। फाटक पर सामने पूर्ण घट रखा गया है, कदली स्तंभ रोपे गए हैं, देवदार के पत्तों के तोरण बनाए गए हैं और आम के पत्तों तथा पुष्पमाला की बंदनवार बाँधी गई है। रामकृष्णपुर ग्राम आज 'जय रामकृष्ण' की ध्वनि से गूँज रहा है। मठ से संन्यासी और बालक ब्रह्मचारीगण स्वामी जी को साथ लेकर तीन नावें किराए पर लेकर रामकृष्णपुर के घाट पर उपस्थित हुए। स्वामी जी के शरीर पर एक गेरुआ वस्त्र था, सिर पर पगड़ी थी और पाँव नंगे थे। रामकृष्णपुर घाट से जिस मार्ग से होकर स्वामी जी नवगोपाल बाबू के घर जाने वाले थे, उसके दोनों ओर हज़ारों लोग दर्शन के निमित्त खड़े हो गए। नाव से घाट पर उतरते ही स्वामी जी एक भजन गाने लगे जिसका आशय यह था-"वह कौन है जो दरिद्र ब्राह्मणी की गोद में चारों ओर उजाला कर के सो रहा है? यह दिगंबर कौन है, जिसने झोपड़ी में जन्म लिया है।" इत्यादि। इस प्रकार गान करते और स्वयं मृदंग बजते हुए आगे बढ़ने लगे। इसी अवसर पर दो तीन और भी मृदंग बजने लगे। सब भक्तजन स्वर से भजन गाते हुए उनके पीछे चलने लगे। उनके उद्धाम नृत्य और मृदंग की ध्वनि से पाठ और घाट सब गूँज उठे। जाते समय यह मंडली कुछ देर डॉक्टर रामलाल बाबू के मकान के सामने खड़ी हुई। डॉक्टर बाबू भी जल्दी से हड़बड़ाकर बाहर निकाल आए और मंडली के साथ चलने लगे। सब लोगों का यह अनुमान था की स्वामी जी बड़ी शान तथा सजधज से आएंगे, परंतु मठ के अन्य साधुओं के सामने वस्त्र धरण किए हुए और नंगे पैर मृदंग बजते हुए उनको जाते देखकर बहुत से उनको पहचान ही न सके। औरों से पूछकर स्वामी जी का परिचय पाकर कहने लगे, "यही क्या विश्वविजयी स्वामी विवेकानंद हैं?" स्वामी जी की इस मानवदुर्लभ नम्रता को देखकर सब एक स्वर से प्रशंसा करने और 'जय रामकृष्ण' की ध्वनि से मार्ग को गुंजाने लगे।

गृहीश्रेष्ठ नवगोपाल बाबू का मन आनंद से पूर्ण हो गया है और वे श्री रामकृष्ण तथा उनके पार्षदों की सेवा के लिए विपुल आयोजन करते हुए चारों ओर दौड़-धूप कर रहे हैं। कभी कभी प्रेमानंद में मग्न होकर 'जयराम जयराम' शब्द का उच्चारण कर रहे हैं। मंडली के उनके द्धार पर पहुँचते ही, भीतर से शंखध्वनि होने लगी तथा घड़ियाल बजने लगे। स्वामी जी ने मृदंग उतारकर बैठक में थोड़ा विश्राम किया। तत्पश्चात ठाकुर-घर देखने के लिए ऊपर दुतल्ले पर गए। ठाकुर-घर श्वेत संगमरमर से जोड़ा गया था। बीच में सिंहासन के ऊपर श्री रामकृष्ण की पोरसिलेन (चीनी मिट्टी) की बनी हुई मूर्ति विराजमान थी। हिंदुओं में देव-देवी के पूजन के लिए जिन सामग्रियों की आवश्यकता होती है, उनके संग्रह में कोई भी त्रुटि नहीं थी। स्वामी जी यह सब देखकर बड़े प्रसन्न हुए।

नवगोपाल बाबू की स्त्री ने अन्य कुलवधुओं के साथ स्वामी जी को साष्टांग प्रणाम किया और उन पर पंखा झलने लगीं। स्वामी जी से पूजा सामग्री की प्रशंसा सुनकर गृहस्वामिनी उनसे बोली, "हमारी क्या शक्ति है की श्री गुरुदेव की सेवा का अधिकार हमको प्राप्त हो? छोटा घर और थोड़ी सी आय है। आप कृपा करके आज गुरुदेव की प्रतिष्ठा कर हमको कृतार्थ कीजिए।"

स्वामी जी ने इसके उत्तर में व्यंग्य करते हुए कहा, "तुम्हारे गुरुदेव की चौदह पीढ़ियाँ तो कभी ऐसे श्वेत पत्थर के मंदिर में नहीं बसीं! उन्होंने तो गाँव की फूस की झोपड़ी में जन्म लिया था और जैसे तैसे अपने दिन बिता गए। ऐसी उत्तम सेवा से प्रसन्न होकर यदि यहाँ न बसें तो फिर कहाँ बसेंगे?" स्वामी जी की बात पर सब हसने लगे। अब विभूतिभूषित स्वामी जी साक्षात महादेव के समान पूजक के आसन पर बैठकर श्री रामकृष्ण का आवाहन करने लगे।

स्वामी प्रकाशानंद जी स्वामी जी के निकट बैठकर मंत्रादि उच्चारण करने लगे। क्रमश: पूजा संपूर्ण हुई और आरती का शंख, घंटा बज उठा। स्वामी प्रकाशानंद जी ने ही आरती की।

आरती होने पर स्वामी जी ने उस पूजा-स्थान में बैठकर ही श्री रामकृष्णदेव के एक प्रणाम-मंत्र की मौखिक रचना की:

स्थापकाय च धर्मस्य सर्वधर्मस्वरूपिणे।

अवतारवरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नम:।।

सब लोगों ने इस श्लोक को पढ़कर प्रणाम किया। फिर शिष्य ने श्री रामकृष्ण को एक स्त्रोत पाठ किया। इस प्रकार पूजा समाप्त हुई। इसके पश्चात नीचे एकत्र भक्त-मंडली ने कुछ जलपान करके कीर्तन आरंभ कर दिया। स्वामी जी ऊपर ही ठहरे रहे। घर की स्त्रियाँ स्वामी जी को प्रणाम करके धर्मविषयों पर उनसे नाना प्रश्न करने और उनका आशीर्वाद पाने लगीं।

शिष्य इस परिवार की रामकृष्णगत प्रणता देखकर विस्मित हो खड़ा रहा और इनके सत्संग से अपना मनुष्य जन्म सफल मानने लगा। इसके बाद भक्तों ने प्रसाद पाकर हाथ-मुंह धोए और नीचे आकार थोड़ी देर के लिए वे विश्राम करने लगे। सायंकाल वे छोटे-छोटे दलों में विभक्त होकर अपने अपने घर लौटे। शिष्य भी स्वामी जी के साथ गाड़ी में रामकृष्णपुर के घाट तक गया और वहाँ से नाव में बैठकर बहुत आनंद से नाना प्रकार का वार्तालाप करते हुए बागबाज़ार की ओर चल पड़ा।

[स्थान: दक्षिणेश्वर कालीमंदिर और आलमबाज़ार मठ ।

वर्ष: १८९७(मार्च) ]

जब स्वामी जी प्रथम बार इंग्लैंड से लौटे, तब रामकृष्ण मठ आलमबाज़ार में था। जिस भवन में मठ था, उसे लोग 'भूतहा मकान' कहते थ-परंतु वहाँ संन्यासियों के संसर्ग से यह भूतहा मकान रामकृष्ण तीर्थ में परिणत हो गया था। वहाँ के साधन-भजन, ताप-जप, शास्त्र-प्रसंग और नाम-कीर्तन का क्या ठिकाना था! कलकत्ते में राजाओं के समान सम्मान प्राप्त होने पर भी स्वामी जी उस टूटे फूटे मठ ही रहने लगे। कलकत्ता निवासियों ने श्रद्धान्वित होकर कलकत्ते की उतर दिशा में काशीपुर में गोपाललाल शील के बाग में एक स्थान उनके लिए एक मास के लिए निर्धारित किया था। वहाँ भी स्वामी जी कभी-कभी रहकर दर्शनोत्सुक लोगों से धर्म-चर्चा करके उनके मन की इच्छा पूर्ण करने लगे।

श्री रामकृष्ण का जन्मोत्सव अब निकट है। इस वर्ष रानी रासमणि के दक्षिणेश्वर काली मंदिर में उत्सव के लिए काफी ज़ोरों से तैयारी हुई है। प्रत्येक धर्मपिपासु व्यक्ति के आनंद और उत्साह की कोई सीमा नहीं, रामकृष्ण के सेवकों का तो कहना ही क्या! इसका विशेष कारण यह है कि विश्वविजयी स्वामी जी श्री रामकृष्ण की भविष्यवाणी को सफल करके इस वर्ष विदेश से लौट आए हैं। उनके सभी गुरुभाई आज उनसे मिलकर श्री रामकृष्ण के सत्संग का आनंद अनुभव कर रहे हैं। काली मंदिर के दक्षिण की विस्तृत रंधनशाला में भोगादि की व्यवस्था हो रही है। स्वामी जी कुछ गुरुभाइयों को अपने साथ लेकर ९-१० बजे के लगभग वहाँ आ पहुँचे। उनके पाँव नंगे थे और सिर पर गेरुए रंग की पगड़ी थी। उनकी आनंदमूर्ति का दर्शन कर चरण-कमलों का स्पर्श करने और उनके श्री मुख से ज्वलत धर्मवाणी सुनकर कृतार्थ होने के लिए लोग चारों ओर से भीड़ में आने लगे। इसी कारण आज स्वामी जी के लिए तनिक भी अवसर नहीं। माँ काली मंदिर के सामने हज़ारों लोग एकत्र हैं। स्वामी जी ने जगन्माता को साष्टांग प्रणाम किया और उनके साथ सहस्त्रों लोगों ने भी उसी तरह प्रणाम किया। तत्पश्चात श्री राधाकांत जी की मूर्ति को प्रणाम करके श्री रामकृष्ण के वासगृह में पधारे। यहाँ ऐसी भीड़ हुई की तिल भर भी स्थान शेष न रहा। काली मंदिर की चारों दिशाएँ 'जय रामकृष्ण' ध्वनि से भर गयीं। होरमिलर (Hoarmiller) कंपनी का जहाज हज़ारों दर्शकों को आज अपनी गोद में बिठाकर कलकत्ते से यातायात कर रहा है। नौबत आदि के मधुर स्वर पर सुरधुनि गंगा नृत्य कर रही है; मानो उत्साह, आकांक्षा, धर्मपिपासा और अनुराग साक्षात देह धारण कर श्री रामकृष्ण के पार्षदों के रूप में चारों ओर विराजमान हैं। इस वर्ष के उत्सव का अनुमान ही किया जा सकता है। भाषा में इतनी शक्ति कहाँ की उसका वर्णन कर सके।

स्वामी जी के साथ आयी हुई दो अंग्रेज़ महिलाएँ उत्सव में उपस्थित हैं। शिष्य उनसे अभी तक परिचित न था। स्वामी जी उनको साथ लेकर पवित्र पंचवटी और बेलतल्ला दिखला रहे थे। शिष्य का स्वामी जी से विशेष परिचय न होने पर भी उसने पीछे-पीछे जाकर उत्सव विषयक स्वरचित एक संस्कृत स्त्रोत उनके हाथ में दिया। स्वामी जी उसे पढ़ते हुए पंचवटी की ओर चले। चलते चलते शिष्य की ओर देखकर बोले, "अच्छा लिखा है, तुम और भी लिखना।"

पंचवटी की एक ओर श्री रामकृष्ण के गृहस्थ भक्तगण एकत्र हैं। गिरिशचन्द्र घोष पंचवटी के उत्तर में गंगा की ओर मुंह किए बैठे हैं और उनको घेरे बहुत से भक्त श्री रामकृष्ण के गुणों के व्याख्यान और कथा प्रसंग में मग्न हुए बैठे हैं। इसी अवसर पर स्वामी जी बहुत लोगों के साथ गिरिशचन्द्र जी के पास उपस्थित हुए और "अरे! घोष जी यहाँ हैं!" यह कहकर उनको प्रणाम किया। गिरीश बाबू को पिछली बातों का स्मरण दिलाकर स्वामी जी बोले, "घोष जी, वह भी एक समय था और यह भी एक समय है।" गिरीश बाबू ने भी प्रतिनमस्कार किया। गिरीश बाबू स्वामी जी से सहमत होकर बोले, "इसमें क्या संदेह है! किंतु अभी तक मन चाहता है कि और भी देखूँ।" दोनों में कुछ ऐसा ही वार्तालाप हुआ। उसका गूढ़ अर्थ ग्रहण करने में और कोई समर्थ न हुआ। कुछ देर वार्तालाप कर स्वामी जी पंचवटी के उतर-पूर्व जो बेल का वृक्ष था, उसकी ओर चले गए। स्वामी जी के चले जाने पर गिरीश बाबू ने उपस्थित भक्त मंडली को संबोधन करके कहा, "एक दिन हरमोहन मित्र ने संवाद-पत्र में पढ़कर मुझसे कहा था कि अमेरिका में स्वामी जी के विषय में निंदा प्रकाशित हुई है। मैंने तब उनसे कहा था कि यदि मैं अपनी आँखों से ही नरेन्द्र को कोई बुरा काम करते देखूँ तो यही समझूँगा कि यह मेरी आँखों का विकार है, मैं उन आँखों को निकाल फेकूंगा। वे सब (नरेन्द्रादि) सूर्योदय से पहले निकाले हुए मक्खन के सदृश है; क्या संसार रूपी पानी में वे कभी घुल सकते हैं? जो उसमें दोष निकलेगा वह नरक के भागी होगा।" यह वार्तालाप हो ही रहा था कि इतने में स्वामी निरंजनानंद गिरीश बाबू के पास आए और एक नारियल का हुक्का पीते पीते कोलंबो से कलकत्ते तक लौटने की घटना किस प्रकार विभिन्न स्तनों में लोगों ने स्वामी जी का आदर और सत्कार किया और स्वामी जी ने अपने व्याख्यानों में उनको कैसे अनमोल उपदेश दिए-आदि का वर्णन करने लगे। गिरीश बाबू इन बातों को सुन आश्चर्यचकित हो बैठे रहे।

उस दिन दक्षिणेश्वर के देवालय में एक प्रकार का दिव्य भाव प्रवाहित हो रहा था। अब यह विराट जनसंघ स्वामी जी के व्याख्यान को सुनने के लिए उद्ग्रीव होकर खड़ा हो गया। परंतु अनेक चेष्टा करने पर भी स्वामी जी लोगों के कोलाहल की अपेक्षा ऊँचे स्वर से भाषण न दे सके। लाचार होकर उन्होंने कोशिश छोड़ दी और दोनों अंग्रेज़ महिलाओं को साथ लेकर श्री रामकृष्ण के साधना-स्थान दिखने और उनके विशिष्ट भक्तों तथा अंतरंगों से उनका परिचय कराने लगे। धर्मशिक्षा के निमित्त ये दो अंग्रेज़ स्त्रियाँ बहुत दूर से स्वामी जी के साथ आयी हैं, यह जानकार किसी किसी को बहुत आश्चर्य हुआ और वे आपस में स्वामी जी की अद्भुत शक्ति कि बातें करने लगे।

तीसरे पहर तीन बजे स्वामी जी ने शिष्य से कहा, "एक गाड़ी लाओ,मठ को जाना है।" शिष्य आलमबाज़ार तक के लिए दो आने किराए पर एक गाड़ी ले आया। स्वामी जी उसमें बैठे और अपने दायें बायें स्वामी निरंजनानंद और शिष्य को ले बड़े आनंद से मठ की ओर अग्रसर हुए। जाते जाते शिष्य से कहने लगे, "जिन कल्पित भावों को अपने जीवन या कार्य में न उतारा हो, उनसे क्या होगा ? इस सब उत्सवों की ज़रूरत है। इन्हीं से तो जनसमुदाय में ये सब भाव धीरे-धीरे फैलेंगे। हिंदुओं के बारह महीनों में तेरह पर्व होते हैं। उनका उद्देश्य यही है कि धर्म में जीतने ऊँचे भाव हैं उनको सर्वसाधारण में फैलाया जाए। परंतु इनमें एक दोषी भी है। साधारण लोग इनका यथार्थ भाव न समझकर उत्सवों में ही मग्न हो जाते हैं और उनके समाप्त हो जाने पर ज्यों के त्यों बने रहते हैं। इस कारण ये उत्सव धर्म के बाहरी आवरण मात्र हैं। धर्म तथा आत्मज्ञान को निसंदेह ये ढाँके रहते हैं। "परंतु जो लोग धर्म क्या है, आत्मा क्या है, यह नहीं जानते, वे भी उत्सवों से प्राप्त आनंद के जरिये धीरे धीरे इन विषयों के जानने कि चेष्टा करने लगते हैं। आज ही जो श्री रामकृष्ण का जन्मोत्सव हुआ और इसमें जो लोग आए,उनके हृदय में श्री गुरुदेव के विषय में जानने-वे कौन थे जिनके नाम पर इतने लोग एकत्र हुए और उन्हीं के नाम पर वे क्यों आए-इच्छा अवश्य उत्पन्न होगी। और जिनके मन में यह भाव भी उत्पन्न नहीं हुआ होगा वे कम से कम वर्ष में एक बार कीर्तन सुनने तथा प्रसाद पाने के निमित्त तो आएंगे ही और ऊपर से श्री गुरुदेव के भक्तों के दर्शन लाभ कर उनका उपकार होगा, न कि अपकार।"

शिष्य-यदि कोई इस उत्सव और भजन-कीर्तन को ही धर्म का सर समझ लें तो क्या वे भी धर्म मार्ग से आगे बढ़ सकेंगे? हमारे देश में जैसे षष्टि पूजा, मंगलचंडी पूजा आदि नित्य नैमित्तिक हो गई हैं, वैसे ही ये भी हो जाएंगे। लोग मृत्यु पर्यंत ऐसी पूजा करते रहते हैं, परंतु मैंने ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं देखा जो ऐसा करने से ब्रह्मयज्ञ हो गया हो।

स्वामी जी-क्यों ? इस भारत में जीतने धर्म वीरों ने जन्म किया, वे सब इन्हीं पुजाओं का अवलंबन कर ऊँची अवस्था को प्राप्त हुए हैं। इन पुजाओं का आश्रय लेकर साधन करते हुए जब आत्मदर्शन होता हैं तब इनसे मन बंधा नहीं रहता; फिर लोकसंग्रह के लिए अवतारी महापुरुष भी इन सब को मानते हैं।

शिष्य-जी, लोगों को दिखने के लिए ऐसा मान सकते हैं, किंतु जब आत्मज्ञ पुरुषों को यह संसार ही इंद्रजालवत मिथ्या प्रतीत होता है, तब क्या वे इन सब बाहरी लौकिक व्यवहारों को सच्चे भाव से मन सकते हैं?

स्वामी जी-क्यों नहीं? हमारा सत्य समझना भी तो देश काल पात्र सापेक्ष होता है। इसीलिए अधिकारी इन सब व्यवहारों का प्रयोजन है। श्री ठाकुर जैसा कहते थे, "माता किसी संतान को पुलाव और कालिया पकाकर देती है तो किसी को साबुदाना।" ठीक उसी तरह।

अब शिष्य समझ पाया और शांत हो गया। देखते देखते गाड़ी भी आलमबाज़ार मठ में गया और स्वामी जी के पीने के लिए जल लाया। स्वामी जी ने जल पीकर अपना कुर्ता उतार डाला और ज़मीन पर दरी बिछी थी उस पर अर्द्ध शयन करते हुए विश्राम करने लगे। स्वामी निरंजनानंद जो पास ही विराजमान थे, बोले "उत्सव में ऐसी भीड़ इसके पहले कभी नहीं हुई थी, मानो सारा कलकत्ता टूट पड़ा हो।"

स्वामी जी-क्यों न ऐसा होगा, आगे और भी कितना कुछ होगा।

शिष्य-प्रत्येक धर्म-संप्रदाय में यह देखा जाता है कि किसी न किसी प्रकार का बाहरी उत्सव और आमोद मनाया जाता है, परंतु इस विषय में कोई किसी से मेंल नहीं रखता! ऐसे उदार मोहम्मदीय धर्म में भी शिया-सुन्नियों में दंगा-फसाद होता है। मैंने स्वयं ढाका शहर में देखा है।

स्वामी जी-संप्रदाय होने पर भी थोड़ा बहुत ऐसा होगा ही, परंतु क्या तू यहाँ का भाव जनता है? यहाँ पूर्ण सांप्रदायिकता है। यही दिखलाने के निमित्त हमारे गुरुदेव ने जन्म लिया था। वे सबको मानते थे, परंतु यह भी कहते थे कि दृष्टि से यह सब मिथ्या माया ही है।

शिष्य-महाराज आपकी बात समझ में नहीं आती। मेरे मन में कभी-कभी ऐसा अनुमान होता है कि आप भी ऐसे उत्सवों का प्रचार करके श्री रामकृष्ण के नाम से एक नए संप्रदाय को जन्म दे रहे हैं। मैंने पूज्यपाद नाग महाशय से सुना है कि श्री गुरुदेव किसी भी संप्रदाय में नहीं थे। शक्त, वैष्णव, ब्रहमसमाजों, मुसलमान, ईसाई इन सभी धर्मों का वे बहुत मान करते थे।

स्वामी जी-तूने कैसे समझा कि हम सब मतों का सम्मान आदर नहीं करते? यह कहकर स्वामी जी हँसकर स्वामी निरंजनानंद से बोले, "अरे! यह गँवार कहता क्या है?"

शिष्य-कृपा करके यह बात मुझे समझा दीजिये।

स्वामी जी-तूने तो मेरे व्याख्यान पढ़े हैं। क्या कहीं भी मैंने श्री रामकृष्ण का नाम लिया है? मैंने तो जगत में केवल उपनिषदों के धर्म का ही प्रचार किया है।

शिष्य-महाराज, यह तो ठीक है परंतु आपसे परिचय होने पर मैं देखता हूँ कि आप श्री कृष्ण में लीन हैं। यदि अपने श्री गुरुदेव को भगवान जाना है तो क्यों नहीं लोगों से आप यह स्पष्ट कह देते?

स्वामी जी-मैंने जो अनुभव किया है वही बतलाया है। यदि तूने वेदांत के अद्वैत मत को ही ठीक माना है तो क्यों नहीं लोगों को भी यह समझा देता?

शिष्य-पहले मैं स्वयं अनुभव करूँगा, तभी तो समझाऊंगा। मैंने अभी तो केवल इस मत को पढ़ा ही है।

स्वामी जी-तब पहले तू इसकी अनुभूति कर ले; फिर लोगों को समझा सकेगा। वर्तमान में तो प्रत्येक मनुष्य एक-एक मत पर विश्वास करके चल रहा है। इसमें तू कुछ कह ही नहीं सकता, क्यों कि तू भी तो अभी एक मत पर ही विश्वास करके चल रहा है।

शिष्य-हाँ महाराज, यह सत्या है कि मैं भी एक मत पर विश्वास करके चल रहा हूँ, किंतु मैं इसका प्रमाण शास्त्र से देता हूँ। मैं शास्त्र के विरोधी मत को नहीं मानता।

स्वामी जी-शास्त्र से तेरा क्या अर्थ है? यदि उपनिषदों को प्रमाण माना जाए तो क्यों बाइबिल,जेन्दावेस्ता न प्रमाण माने जाए?

शिष्य-इन पुस्तकों को प्रमाण स्वीकार करने पर भी यह तो कहा ही जाएगा कि ये तो वेद के समान प्राचीन ग्रंथ नहीं हैं। और वेद में जैसा आत्मतत्व का समाधान है, वैसा और किसी में नहीं भी नहीं।

स्वामी जी-अच्छा,तेरी यह बात मैंने स्वीकार कि, परंतु वेद के अतिरिक्त और कहीं भी सत्य नहीं है, यह कहने का तेरा क्या अधिकार है?

शिष्य-जी महाराज, वेद के अतिरिक्त और सब धर्म ग्रंथों में भी सत्य हो सकता है, इसके विरुद्ध मैं कुछ नहीं कहता, किंतु मैं तो उपनिषद के मत को ही मानूँगा। इसी में मेरा परम विश्वास है।

स्वामी जी-अवश्य मानो; परंतु यदि किसी का अन्य किसी मत पर 'परम' विश्वास हो तो, उसको उसी विश्वास पर चलने दो। अंत में देखोगे तुम और वह एक ही स्थान पर पहुँचें हो। महिम्न स्त्रोत में क्या तूने नहीं पढ़ा, त्वमसि पयसामर्णव ईव?

[स्थान: आलमबाज़ार मठ। वर्ष: १८९७ ई० (मई) ]

स्वामी जी दार्जिलिंग से कलकत्ते लौट आए हैं। आलमबाज़ार मठ में ही ठहरे हुए हैं। गंगा के किनारे किसी स्थान पर मठ को स्थानांतरित करने का प्रबंध हो रहा है। आजकल उनके पास शिष्य का प्रतिदिन आना जाना रहता है, और कभी कभी रात्रि में वह वहीं रह जाता है। जीवन के प्रथम पथप्रदर्शक श्री नाग महाशय ने शिष्य को मंत्र दीक्षा नहीं दी थी। दीक्षा के विषय में वार्तालाप होते ही वे स्वामी जी का नाम लेकर कहते थे, "वे (स्वामी जी) ही जगत के गुरु होने के योग्य हैं।" इसी कारण, स्वामी जी से ही दीक्षा ग्रहण करने का संकल्प कर शिष्य ने दार्जिलिंग को एक पत्र उनके पास भेजा था। उतार में स्वामी जी ने लिखा था, "यदि श्री नाग महाशय को कोई-आपत्ति न हो तो मैं बड़े आनंद से तुमको दीक्षा दूँगा।" यह पत्र शिष्य के पास अभी तक है।

आज वैशाख १३०३ (बांग्ला सन) की उन्नीसवीं तिथि है। स्वामी जी ने शिष्य को आज दीक्षा देना स्वीकार किया है। आज शिष्य के जीवन में सभी दिनों-की अपेक्षा एक विशेष दिन है। शिष्य प्रात:काल ही गंगास्नान कर कुछ लीची तथा अन्य सामग्री मोल लेकर लगभग ८ बजे-आलमबाज़ार मठ में उपस्थित हुआ। शिष्य को देखकर स्वामी जी ने हँसकर कहा, "आज तुम्हारा बलिदान देना होगा, क्यों?"

स्वामी जी शिष्य से यह कहकर फिर औरों के साथ अमेरिका के संबंध में वार्तालाप करने लगे। आध्यात्मिक जीवन के संगठन में किस प्रकार एकनिष्ठ होना पड़ता है, गुरु पर किस प्रकार अटल विश्वास एवं दृढ़ भक्ति भाव होना चाहिए, गुरु वाक्यों पर किस प्रकार निर्भर रहना चाहिए और गुरु के निमित्त किस प्रकार अपने प्राण तक देने को भी प्रस्तुत रहना चाहिए-आदि आदि बातों की भी चर्चा होने लगी। तत्पश्चात वे शिष्य के हृदय की परीक्षा लेने के निमित्त कुछ प्रश्न करने लगे, "मैं जब भी जिस काम की आज्ञा दूँगा, क्या तू तुरंत उस आज्ञा का पालन करने की यथाशक्ति चेष्टा करेगा? तेरा मंगल समझकर यदि मैं तुझे गंगा में डूबकर मर जाने कि या छत से कूद पड़ने की आज्ञा दूँ तो क्या तू बिना विचारे इसका पालन करेगा? अब भी तू विचार कर ले। बिना विचारे गुरु को तैयार न हो।" शिष्य के मन में कैसा विश्वास है, यही जानने के लिए वे कुछ ऐसे प्रश्न करने लगे। शिष्य भी सिर झुकाये "करूँगा" कहकर प्रत्येक प्रश्न का उत्तर देने लगा।

स्वामी जी कहने लगे-"वही सच्चा गुरु है, जो इस मायारूपी संसार के पार ले जाता है, जो कृपा करके सब मानसिक आधि-व्याधि विनिष्ट करता है। पूर्वकाल में शिष्यगण समितपाणि होकर गुरु के आश्रम में जाया करते थे। गुरु उनको अधिकारी समझने पर दीक्षा देकर वेद पढ़ाते थे और तन मन वाक्य को शासित करने के व्रत के चिह्नस्वरूप त्रिरावृत्त मुज-मेखला उसकी कमर में बांध देते थे। शिष्य अपनी कौपीनों को उससे तानकर बांधते थे। उस मुज-मेखला के स्थान पर अब यज्ञसूत्र या जनेऊ पहनने की रीति निकली है।"

शिष्य-तब क्या सूत का उपवीत धारण करना वैदिक प्रथा नहीं है?

स्वामी जी-वेद में कहीं सूत्र उपवीत का प्रसंग नहीं है। स्मार्त पंडित रघुनंदन ने भी लिखा है-अस्मिन्नेव समये यज्ञसूत्रम परिधारयेत। ऐसे उपवीत का प्रसंग गोभिल के गृहसूत्र में भी नहीं है। गुरु के पास होने वाले इस वैदिक संस्कार को ही शास्त्रों में उपनयन कहा गया है; परंतु आजकल देश की कैसी दुर्व्यवस्था हो गई है! शास्त्रपथ को छोड़कर केवल कुछ देशाचार, लोकाचार तथा स्त्री आचार से सारा देश भरा हुआ है। इसी कारण मैं कहता हूँ कि जैसा प्राचीन काल में था, वैसा ही कार्य शास्त्र के अनुसार करते जाओ। स्वयं श्रद्धावान होकर अपने देश में भी श्रद्धा लाओ। अपने हृदय में नचिकेता के समान श्रद्धा लाओ। नचिकेता के समान यमलोक में चले जाओ। आत्म-तत्व के लिए, आत्मा के उद्धार के लिए, इस जन्म-मृत्यु की समस्या की यथार्थ मीमांसा के किए यदि यम के द्वार पर भी जाकर सत्य का लाभ कर सको तो निर्भय हृदय से वहाँ जाना उचित है। भय ही मृत्यु है। भय से पर हो जाना चाहिए। आज से ही भयशून्य हो जाओ। अपने मोक्ष तथा परहित के निमित्त आत्मोत्सर्ग करने केलिए अग्रसर हो जाओ। थोड़ा सा हाड़-मांस का बोझ लिए फिरने से क्या होगा? ईश्वर के निमित्त सर्वस्व त्यागरूप मंत्र में दीक्षा ग्रहण कर दधिची के समान औरों के लिए अपना हाड़-मांस दान कर दो। शास्त्र में लिखा है कि जो वेद-वेदांत का अध्ययन कर चुके हैं; जो ब्रह्मज्ञ हैं, जो अन्य को भय के पार ले जाने में समर्थ हैं, वे ही यथार्थ गुरु हैं। उनके दर्शन पाते ही उनसे दीक्षित होना उचित है; नात्र कार्या विचारणा। आजकल वह रीति कहाँ पहुंची है? देखो तो-अंधेनैव नीयमाना यथान्धा:।

९ बजे हैं। स्वामी जी आज गंगा-स्नान करने नहीं गए, मठ में ही उन्होंने स्नान किया। स्नान के बाद एक नया गेरुआ वस्त्र पहन कर धीरे से पूजा-घर में प्रवेश करके आसन पर बैठ गए। शिष्य ने वहाँ प्रवेश नहीं किया, वह बाहर ही प्रतीक्षा करने लगा, सोचा 'स्वामी जी जब बुलायेंगे तभी भीतर जाऊँगा।" अब स्वामी जी ध्यानस्थ हुए-मुक्त-पद्मासन, ईषन्मुद्रित नयन से ऐसा अनुमान होता था कि तन मन प्राण सब स्पंदनहीन हो गया है। ध्यान के अंत में स्वामी जी ने "वत्स, इधर आओ" कहकर बुलाया। शिष्य स्वामी जी के स्नेहयुक्त आवाहन से मुग्ध होकर यंत्रवत पूजा-घर में प्रविष्ट हुआ। वहाँ प्रवेश करते ही स्वामी जी ने शिष्य को आदेश दिया, "द्वार बंद करो।" द्वार के बंद होने पर स्वामी जी ने कहा, "मेरी बायी ओर स्थिर होकर बैठो।" स्वामी जी के आदेश को शिरोधार्य कर शिष्य आसन पर बैठा। उस सामी एक अनिवर्चनीय, अपूर्व भाव से उनका हृदय थर-थर काँप रहा था। इसके अनंतर स्वामी जी ने अपने हस्त-कमल को शिष्य के मस्तक पर रखकर उससे दो चार गुह्य बातें पूछी। उनके यथासाध्य उतर पाने पर स्वामी जी ने उसके काम में महाबीज मंत्र तीन बार उच्चारण किया और शिष्य से तीन बार उच्चारण करवाया। उसके बाद साधना के विषय में कुछ उपदेश प्रदान करके निश्चल होकर अनिमेष नेत्रों से शिष्य के नेत्रों की ओर कुछ देर तक देखते रहे। अब शिष्य का मन स्तब्ध और एकाग्र हो जाने से वह एक अनिर्वचनीय भाव से निश्चल होकर बैठा रह। कितनी देर तक इस अवस्था में रहा, इसका कुछ ध्यान ही नहीं रहा। इसके बाद स्वामी जी बोले, "गुरुदक्षिणा लाओ।" शिष्य ने कहा, "क्या लाऊं?" यह सुनकर स्वामी जी ने आज्ञा दी, "भंडार से कुछ फल ले आओ।" शिष्य भागता हुआ भंडार में गाया और दस बारह लीची ले आया। स्वामी जी ने अपने हाथ में लीची लेकर एक-एक करके सब खा गए और बोले-"अच्छा, तेरी गुरुदक्षिणा हो गई।" जिस समय पूजागृह में स्वामी जी से शिष्य दीक्षित हो रह था, उसी समय मठ का एक ओर ब्रह्माचारी दीक्षित होने के लिए कृतसंकल्प हो द्वार के बाहर खड़ा था। स्वामी सुद्धानंद ने उस समय तक ब्रह्माचारी अवस्था में मठ में रहने पर भी यथाविधि दीक्षा ग्रहण नहीं की थी। आज शिष्य को इस प्रकार दीक्षित होते देख-उन्होंने भी बड़े उत्साह से दीक्षा लेने का निश्चय किया। पूजा-घर से दीक्षित होकर शिष्य के निकलते ही वे वहाँ जा पहुँचे और स्वामी जी से अपना अभिप्राय प्रकट किया। स्वामी जी भी शुद्धनंद जी के विशेष आग्रह से सहमत हो गए और पुन: पूजा करने के लिए आसन ग्रहण किया।

शुद्धानंद जी को दीक्षा देने के कुछ समय बाद स्वामी जी पूजा घर से बाहर निकल आए। कुछ देर बाद उन्होंने भोजन किया और फिर विश्राम करने लगे। शिष्य ने भी शुद्धानंद जी के साथ स्वामी जी के पात्रावशेष को बड़े प्रेम से ग्रहण किया और उनके पायताने बैठकर धीरे-धीरे उनकी चरण सेवा करने लगा। कुछ देर विश्राम के बाद स्वामी जी ऊपर की बैठक में जाकर बैठे। शिष्य ने भी उस समय सुअवसर पाकर उनसे प्रश्न किया-"महाराज, पाप और पुण्य का भाव कहाँ से उत्पन्न हुआ?"

स्वामी जी-बहुत्व के भाव से यह सब आ पहुँचा है। मनुष्य एकत्व की ओर जितना बढ़ता जाता है, उतना ही उसका 'हम-तुम' भाव कम होता जाता है, जिससे सारा धर्माधर्म जैसा द्वंदभाव उत्पन्न हुआ है। 'हमसे यह पृथक है', ऐसा भाव मन में उत्पन्न होने से ही अन्य द्वंद भावों का विकास होता है, किंतु संपूर्ण एकत्व अनुभव होने पर मनुष्य का शोक या मोह नहीं रह जाता-तत्र को मोह:क: शोक: एकत्वमनुपश्यत:। सब प्रकार की दुर्बलता को ही पाप कहते हैं। इससे हिंसा तथा द्वेष आदि का जन्म होता है। इसलिए दुर्बलता का दूसरा नाम पाप है। हृदय में आत्मा सर्वदा प्रकाशमान है, परंतु उधर कोई ध्यान नहीं देता। केवल इस जड़ शरीर, 'हड्डी तथा मांस के एक अद्भुत पिंजरे पर ही ध्यान रखकर लोग 'मैं', 'मैं' करते हैं। यही सब प्रकार की दुर्बलता का मूल है। इस अभ्यास से ही जगत में व्यावहारिक भाव निकले है; परमार्थ भाव तो इस द्वंद भाव के परे है।

शिष्य-तो क्या इस व्यावहारिक साता में कुछ भी सत्य नहीं है?

स्वामी जी-जब तक 'मैं शरीर हूँ' यह ज्ञान है, तब तक यह सत्य है। किंतु जब 'मैं आत्मा हूँ' यह अनुभव हो जाता है, तब यह अनुभव हो जाता है, तब यह सब व्यावहारिक सत्ता मिथ्या प्रतीत होती है। लोग जिसे पाप कहते हैं, वह दुर्बलता का फल है। इस शरीर को 'मैं' जानना-यह अहं भाव-दुर्बलता का रूपांतरण है। जब 'मैं आत्मा हूँ' इसी भाव पर मन स्थिर होगा, तब तुम पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म के पार पहुँच जाओगे। श्री रामकृष्ण कहा करते थे, 'मैं' के नाश, में ही दु:ख का अंत है।

शिष्य-यह 'अहं' तो मरने पर भी नहीं मारता। इसको मारना बड़ा कठिन है।

स्वामी जी-हाँ, एक प्रकार से यह कठिन भी है, परंतु दूसरे प्रकार से बड़ा सरल भी है। 'मैं' नमक अस्तु कहाँ है, क्या मुझे समझा सकता है? जो स्वयं है ही नहीं, उसका मारना और जीना कैसा? अहंरूप जो एक मिथ्या भाव है, उसी से मनुष्य सम्मोहित है, बस। इस पिशाच से मुक्ति प्राप्त होने पर यह स्वप्न दूर हो जाता है और दीख पड़ता है कि एक आत्मा ही ब्रह्मा से लेकर तिनका तक सब में विराजमान है। इसी को जानना होगा, प्रत्यक्ष करना पड़ेगा। जो भी साधन भजन हैं, वे सब इस आवरण को दूर करने के निमित्त हैं। इसके हटने से ही विदित होगा कि चित सूर्य अपनी प्रभा से स्वयं चमक रहा है; क्योंकि आत्मा ही एकमात्र स्वयंज्योति-स्वयंवैद्य है, वह क्या दूसरे की सहायता से जानी जा सकती है?

इसी कारण श्रुति कहती है, विज्ञातारमरे केन विजानियात। तू जो कुछ जानता है, वह मन की सहायता से, किंतु मन तो जड़ है। उसके पीछे शुद्ध आत्मा रहने के कारण ही मन का कार्य होता है। तब मन के द्वार उस आत्मा को कैसे जानोगे ? जान इतना सकते हो कि मन या बुद्धि कोई भी शुद्धात्मा के पास नहीं पहुँच सकती। ज्ञान की दौड़ यही तक है। परंतु आगे जब मन विकल्परहित या वृतिहीन होता है तभी मन का लोप होता है और तभी आत्मा प्रत्यक्ष होती है। इस अवस्था का वर्णन भाष्यकार श्री शंकराचार्य ने 'अपरोक्षानुभूति' कहकर किया है।

शिष्य-किंतु महाराज, मन ही तो अहं है। मन का यदि लोप हुआ तो 'मैं' कहाँ रहा?

स्वामी जी-वह जो अवस्था है, यथार्थ में वही 'अहं' का स्वरूप है। उस समय का जो 'अहं' रहेगा, वह सर्वभूतस्थ, सर्वगत सर्वान्तरात्मा होता है। घटाकाश टूटकर महकाश का प्रकाश होता है-घाट टूटने पर क्या उसके अंदर के आकाश का विनाश हो जाता है? इसी प्रकार यह छोटा 'अहं' जिसे तू शरीर में बंद समझता था, फैलकर सर्वगत 'अहं' या आत्मरूप से प्रत्यक्ष हो जाता है। अतएव मैं कहता हूँ कि मन मारा या रहा, इससे यथार्थ अहं या आत्मा का क्या? यह बात समय आने पर तुझे प्रत्यक्ष होगी-कालेनात्मनि विदन्ती। श्रवण और मनन करते करते इस बात की अनुभूति होगी और तब तू मन के अतीत चला जाएगा। तब ऐसे प्रश्न का अवसर भी न रहेगा।

शिष्य यह सुनकर स्थिर होकर बैठा रहा। स्वामी जी ने फिर कहा-'इसी सहज विषय को समझने के लिए न जाने कितने शस्त्र लिखे गए हैं; इस पर भी लोग इसको नहीं समझ सकते। आपातमधुर चाँदी के चमकते रुपये और स्त्रियों के क्षणभंगुर सौंदर्य से मोहित होकर इस दुर्लभ मनुष्य-जन्म को कैसे खो रहे हैं! महामाया का कैसा आश्चर्यजनक प्रभाव है! माँ! माँ!!"

[स्थान: कलकत्ता। वर्ष: १८९७ ई०]

स्वामी जी अमेरिका से लौटकर कुछ दिनों से कलकत्ते में बलराम बसु जी कि बागबाज़ार वाली उद्धानवाटिका में ही ठहरे हुए हैं। कभी-कभी परिचित व्यक्तियों से मिलने उनके स्थान पर भी जाते हैं। आज प्रात:काल शिष्य जब स्वामी जी के पास आया तो उसने उनको बाहर जाने के लिए तैयार पाया। स्वामी जी ने शिष्य से कहा, मेरे साथ चल।" यह कहते कहते स्वामी जी सीढ़ियों से नीचे उतरने लगे। शिष्य भी पीछे-पीछे चला। स्वामी जी शिष्य के साथ एक किराए की गाड़ी में सवार हुए। गाड़ी दक्षिण की ओर चली।

शिष्य-महाराज, कहाँ चल रहे हैं ?

स्वामी जी-चलो ण अभी मालूम हो जाएगा।

स्वामी जी कहाँ जा रहे हैं, इस वैश्य में उन्होंने शिष्य से कुछ भी नहीं कहा। गाड़ी के विडन स्ट्रीट में पहुँचने पर वे कथा-प्रसंग कहने लगे, 'तुम्हारे देश में स्त्रियों के पठन-पाठन के लिए कुछ भी प्रयत्न नहीं दिखाई पड़ता। तुम स्वयं पठन-पाठन करके योग्य बन रहे हो, किंतु जो तुम्हारे सुख-दु:ख के भागी हैं-प्रत्येक समय प्राण देकर सेवा करती हैं-उनकी शिक्षा के लिए, उनके उत्थान के लिए तुम क्या कर रहे हो?"

शिष्य-क्यों महाराज, आजकल तो स्त्रियों के लिए कितनी ही पाठशालाएँ तथा उच्चविद्यालय बन गए हैं, कितनी ही स्त्रियाँ एमहाशयए., बी.ए. परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो रही हैं।

स्वामी जी-यह तो विलायती ढंग पर हो रहा है। तुम्हारे धर्मशास्त्र और देश की परिपाटी के अनुसार क्या कहीं भी कोई पाठशाला है? स्त्रियों की बात तो जाने दो; इस देश के पुरुषों में भी शिक्षा का विस्तार अधिक नहीं है। इसी कारण सरकारी आँकड़ों में जब देखा जाता है कि भारतवर्ष में प्रतिशत केवल दस-बारह लोग ही शिक्षित हैं तो अनुमान होता है कि स्त्रियों में प्रतिशत एक भी शिक्षित न होगी। यदि ऐसा न होता, तो देश की ऐसी दुर्दशा क्यों होती? शिक्षा का विस्तार तथा ज्ञान का उन्मेष हुए बिना कैसे होगी? तुममें से जो शिक्षित हैं और जिन पर देश कि भावी आशा निर्भर है, उनमें भी इस विषय की कोई चेष्टा या उद्यम नहीं पाया जाता। स्मरण रहे कि सर्वसाधारण में और स्त्रियों में शिक्षा का प्रसार हुए बिना उन्नति का कोई उपाय नहीं है। इसलिए कुछ ब्रम्ह्चारी और ब्रह्माचारिणियाँ बनाने की मेरी इच्छा है। ब्रम्ह्चारी समय पर संन्यास लेकर प्रांत प्रांत में, गाँव गाँव में जाएंगे और जनसमुदाय में शिक्षा का प्रसार करने का प्रबंध करेंगे और ब्रह्मचारिणियाँ स्त्रियों में विद्या का प्रसार करेंगी। परंतु यह सब कम अपने देश के ढंग पर होना चाहिए। पुरुषों के लिए जैसे शिक्षा-केंद्र बनाने होंगे, वैसे ही स्त्रियों के निमित्त भी स्थापित करने होंगे। शिक्षित और सच्चरित्र ब्रह्मचारिणियाँ इन केन्द्रों में कुमारियों को शिक्षा दिया करेंगी। पुराण, इतिहास, गृहकार्य, शिल्प, गृहस्थी के सारे नियम आदि वर्तमान विज्ञान कि सहायता से सीखने होंगे तथा आदर्श चरित्र गठन करने के लिए उपयुक्त आचरण की भी शिक्षा देनी होगी। कुमारियों को धर्मपारायण और नीतिपरायण बनाना पड़ेगा; जिससे वे भविष्य में अच्छी गृहणियाँ हों, वही करना होगा। इन कन्याओं से जो संतान उत्पन्न होगी, वह इन विषयों में और भी उन्नति कर सकेंगी। जिनकी माताएँ शिक्षित और नीतिपरायण हैं, उनके ही घर में बड़े लोग जन्म लेते हैं। वर्तमान समय में तो स्त्रियों को कम करने का यंत्र सा बना रखा है। राम! राम!! तुम्हारी शिक्षा का क्या यही फल है? वर्तमान से स्त्रियों का प्रथम उद्धार करना होगा। सर्वसाधारण को जानना होगा; तभी तो भारत का कल्याण होगा।

अब गाड़ी को कॉर्नवालिस स्ट्रीट के ब्रह्म समाज मंदिर से आगे बढ़ते देखकर स्वामी जी ने गाड़ी वाले से कहा, "चोरबागान के रास्ते को ले चलो।" गाड़ी जब उस रास्ते पर तब स्वामी जी ने शिष्य से कहा, "महाकाली पाठशाला कि संस्थापिका तपस्विनी माता जी ने अपनी पाठशाला देखने के लिए निमंत्रण किया है।" यह पाठशाला उस समय चोरबागान में राजेन्द्रनाथ मल्लिक के मकान के पूर्व की ओर किराये के मकान में थी। गाड़ी ठहरने पर दो चार भद्रपुरुषों ने स्वामी जी को प्रणाम किया और उन्हें कोठे पर लिवा ले गए। तपस्विनी माता जी ने भी खड़े होकर स्वामी जी की अभ्यर्थना की। थोड़ी देर बाद ही तपस्विनी माता जी का स्वामी जी को पाठशाला की एक श्रेणी में ले गयीं। कुमारियों ने भी खड़े होकर स्वामी जी की अभ्यर्थना की और माता जी के आदेश से शिव जी के ध्यान स्त्रोत की, सस्वर आवृत्ति करनी आरंभ की। फिर, किस प्रणाली से पाठशाला में पूजन की शिक्षा दी जाती है, वह भी माता जी के आदेश से कुमारियाँ दिखलाने लगीं। स्वामी जी हर्षित नेत्रों से यह सब देखकर एक दूसरी श्रेणी की छात्राओं को देखने के लिए गए। वृद्धा माता जी ने अपने को असमर्थ जान पाठशाला के दो तीन शिक्षकों को बुलाकर स्वामी जी को सब श्रेणियाँ भली प्रकार दिखलाने के लिए कहा। सब श्रेणियों को देखकर स्वामी जी जब पुन: माता जी के पास लौट आए, तब उनहोंने एक छात्रा को बुलाकर रघुवंश के तृतीय सर्ग के प्रथम श्लोक की व्याख्या संस्कृत में ही करके स्वामी जी को सुनाई। स्वामी जी ने सुनकर संतोष प्रकट किया और स्त्री-शिक्षा के प्रसार में उनके अध्यवसाय और यत्न की ऐसी सफलता देख माता जी की बहुत प्रशंसा की। इस पर माता जी ने विनय से कहा, "मैं छात्राओं की सेवा उन्हें देवी भगवती समझकर कर रही हूँ। मुझे विद्यालय स्थापित करके यश लाभ करने की कोई आकांक्षा नहीं।"

विद्यालय के संबंध में वार्तालाप करके स्वामी जी ने जब विदा लेनी चाही, तब माता जी ने स्वामी जी से विजिटर्स बुक (स्कूल के विषय में अपना मत लिखने के लिए निर्दिष्ट पुस्तक) में अपना मत प्रकट करने के लिए कहा। स्वामी जी ने उस पुस्तक में अपना मत विशद रूप से लिख दिया। लिखित विषय की अंतिम पंक्ति शिष्य को अभी तक स्मरण है। वह यह थी-The movement is in the rigth direction.(कार्य सही मार्ग पर हो रहा है।)

इसके बाद माता जी को नमस्कार कर स्वमी जी फिर गाड़ी में सवार हुए और शिष्य से स्त्री-शिक्षा पर वार्तालाप करते हुए बागबाजार की ओर चले। वार्तालाप का कुछ विवरण निम्नलिखित है।

स्वामी जी-देखो, कहाँ इनकी जन्मभूमि! सर्वस्व त्याग किया है तथापि यहाँ लोगों के मंगल के लिए कैसा प्रयत्न कर रही हैं ! स्त्री के अतिरिक्त और कौन छात्राओं को ऐसा निपुण कर सकता है? सभी प्रबंध अच्छा पाया, परंतु गृहस्थ पुरुष शिक्षकों का वहाँ होना मुझे उचित नहीं जान पड़ा। शिक्षित विधवा या ब्रह्मचारिणियों को ही पाठशाला का कुल भार सौपना चाहिए। इस देश की नारी-शिक्षण-संस्थाओं में पुरुष का संसर्ग बिल्कुल ही अच्छा नहीं।

शिष्य-किंतु महाराज, इस देश में गार्गी, खना, लीलावती के समान गुणवती शिक्षिता स्त्रियाँ अब पायीं कहाँ जाती हैं?

स्वामी जी-क्या ऐसी स्त्रियाँ इस देश में नहीं हैं? अरे, यह देश वही है जहाँ सीता और सावित्री का जन्म हुआ था। पुण्यक्षेत्र भारत में अभी तक स्त्रियों में जैसा चरित्र, सेवाभाव, स्नेह, दया, तुष्टि और भक्ति पायी जाती है, पृथ्वी पर और कहीं ऐसा नहीं है। पाश्चात्य देशों में स्त्रियों को देखने पर कुछ समय तक यही नहीं ठीक से पता हो पाता था कि वे स्त्रियाँ हैं; देखने में ठीक पुरुषों के समान थीं। ट्रामगाड़ी चलती हैं, दफ्तर जाती हैं, स्कूल जाती हैं, प्रोफेसरी करती हैं! एकमात्र भारत ही में स्त्रियों में लज्जा, विनय इत्यादि देखकर नेत्रों को शांति मिलती है। ऐसे योग्य आधार के प्रस्तुत होने पर भी तुम उनकी उन्नति न कर सके ! इनको ज्ञानरूपी ज्योति दिखने का कोई प्रबंध नहीं किया गया! उचित रीति से शिक्षा पाने पर ये आदर्श स्त्रियाँ बन सकती हैं।

शिष्य-महाराज, मटा जी जिस प्रकार कुमारियों को शिक्षा दे रही हैं, क्या इससे ऐसा फल मिलेगा? वे कुमारियाँ बड़ी होने पर विवाह करेंगी और थोड़े ही समय में अन्य स्त्रियों के समान हो जाएंगी? मेरा तो विचार है कि यदि उनसे ब्रह्मचर्य को पालन कराया जाए, तो वे समाज और देश की उन्नति के लिए जीवन उत्सर्ग करने और शास्त्रोक्त उच्च आदर्श लाभ करने में समर्थ होंगी।

स्वामी जी-धीरे धीरे सब हो जाएगा। यहाँ अभी तक ऐसे शिक्षित पुरुषों ने जन्म नहीं लिया है, जो समाज शासन की परवाह न कर अपनी कन्याओं को अविवाहित रख सकें। देखो, आजकल कन्याएँ १२-१३ वर्ष की होते ही समाज के भय से विवाह में दे दी जाती हैं। अभी उस दिन की बात है, सम्मति विधेयक के आने पर समाज नेताओं ने लाखों मनुष्यों को एकत्र कर चिल्लाना शुरू कर दिया कि हम यह कानून नहीं चाहते ! अन्य देशों में इस प्रकार की सभा इकट्ठी करके विरोध प्रदर्शन करने की कौन कहे, ऐसे कानून के बनने की बात सुनकर ही लोग लज्जा से अपने घरों में छिप जाते हैं और सोचते हैं कि क्या अभी तक हमारे समाज में इस प्रकार का कलंक मौजूद है?

शिष्य-परंतु महाराज, क्या संहिताकारों ने बिना विचारे ही बाल विवाह का अनुमोदन किया था? निश्चय ही इसमें गूढ रहस्य है।

स्वामी जी-क्या रहस्य मालूम पड़ता है?

शिष्य-देखिये न, छोटी अवस्था में कन्याओं का विवाह कर देने से वे ससुराल में जाकर लड़कपन से कुल-धर्म को सीख जाएंगी और गृहकार्य में निपुण बन सकेंगी। इसके अतिरिक्त पिता के गृह में वयस्क कन्या के स्वेच्छाचारिणी होने की आशंका है;बाल्यकाल में विवाह होने में स्वतंत्र हो जाने का कोई भी भय नहीं रहता और लज्जा, नम्रता, धीरज तथा श्रमशीलता आदि नारी सुलभ गुणों का विकास होता जाता है।

स्वामी जी-दूसरे पक्ष में यह भी तो कहा जा सकता है कि बाल विवाह होने से बहुत स्त्रियाँ अल्पायु में ही संतान प्रसव करके मर जाती हैं। उनकी संतान क्षीणजीवी होकर देश में भिक्षुओं की संख्या की वृद्धि करती हैं, क्योंकि माता-पिता का शरीर संपूर्ण रूप से सबल न होने से सबल और निरोग संतान कैसे उत्पन्न हो सकती है? पठन-पाठन करके अधिक उम्र होने पर कुमारियों का विवाह करने से उनकी जो संतान होगी, उसके द्वारा देश का कल्याण होगा। तुम्हारे यहाँ पर घर में जो इतनी विधवाएँ हैं, इसका कारण बाल विवाह ही तो है। बाल विवाह कम होने से विधवाओं की संख्या भी कम हो जाएगी।

शिष्य-किंतु महाराज, मेरा यह अनुमान है कि अधिक उम्र में विवाह होने से कुमारियाँ गृहकार्य में उतना ध्यान नहीं देतीं। सुना है कि कलकत्ते के अनेक गृहों में सास भोजन पकाती हैं और शिक्षित बहुएँ श्रृंगार करके बैठी रहती हैं। हमारे पूर्व बंग में ऐसा कभी नहीं होने पाता।

स्वामी जी-बुरा भला सभी देशों में है। मत यह है कि सब देशों में समाज अपने आप बनता है। इसी कारण बाल विवाह उठा देना या विधवा-विवाह आदि विषयों में सिर पटकना व्यर्थ है। हमारा यह कर्तव्य है कि समाज के स्त्री-पुरुषों को शिक्षा दें। इससे फल यह होगा कि वे स्वयं भले-बुरे को समझेंगे और बुरे को स्वयं ही छोड़ देंगे। तब किसी को इन विषयों पर समाज का खंडन या मंडन करना न पड़ेगा।

शिष्य-आजकल स्त्रियों को किस प्रकार की शिक्षा की आवश्यकता है?

स्वामी जी-धर्म, शिल्प, विज्ञान, गृहकार्य, भोजन बनाना, सीना, शरीर-पालन आदि सब विषयों कि मोटी मोटी बातें सिखलाना उचित है। नाटक और उपन्यास तो उनके पास तक नहीं पहुँचने चाहिए। महाकाली पाठशाला अनेक विषयों में ठीक पाठ पर चल रही है, किंतु केवल पूजा-पद्धति सिखलाने से ही काम न बनेगा। सब विषयों में उनकी आँखें खोल देना उचित है। छात्राओं के सामने आदर्श नारी-चरित्र सर्वदा रखकर त्यागरूप व्रत में उनका अनुराग उत्पन्न कराना चाहिए। सीता, सावित्री, दमयंती, लीलावती, खना, मीरांबाई आदि के जीवन चरित्र कुमारियों को समझा कर उनको अपना जीवन वैसा बनाने का उपदेश देना होगा।

गाड़ी अब बागबाजार में स्व० बलराम बसु के घर पर पहुँची। स्वामी जी गाड़ी से उतरकर ऊपर चले गए और वहाँ उपस्थित दर्शनाभिलाषियों से महाकाली पाठशाला का विस्तार सहित वृत्तांत कहने लगे।

आगे, सद्यः स्थापित 'रामकृष्ण मिशन' के सदस्यों के लिए क्या क्या कार्य कर्तव्य हैं, आदि विषयों के साथ ही वे 'विद्यमान' तथा 'ज्ञान-दान' के श्रेष्ठत्व का अनेक प्रकार से प्रतिपादन करने लगे। शिष्य को लक्ष्य करके बोले, "शिक्षा दो, शिक्षा दो-नान्य: पंथा विद्यतेअयनाय।" शिक्षा दान के विरोधी मतावलंबियों पर व्यंग करके बोले, 'सावधान, प्रह्लाद के समान न बन जाना।' शिष्य के इसका अर्थ पूछने पर स्वामी जी ने कहा, "क्या तूने सुना नहीं कि 'क' अक्षर को देखते ही प्रहलाद की आँखों में आँसू भर आए थे, फिर उनसे पठन-पाठन क्या हो सकता था! यह निश्चित है कि प्रहलाद की आँखों में आँसू भर आयें थे प्रेम के; और मूर्ख के आँखों में आँसू आते हैं डर के। भक्तों में भी इस प्रकार के अनेक है।" इस बात को सुनकर सब लोग हँसने लगे। स्वामी योगानंद ने यह सुनकर कहा, "तुम्हारे मन में जब कोई बात अति है, तो उसकी कपाल क्रिया किए बिना तुमको शांति कहाँ ! अब तो जो तुम्हारी इच्छा है वही होकर रहेगा।"

(स्थान: कलकत्ता। वर्ष १८९७)

कुछ दिनों से स्वामी जी बागबाज़ार में स्व० बलराम बसु जी के भवन में ठहरे हैं। क्या प्रात:, क्या मध्याह्न, क्या सायंकाल उनको विश्राम करने को तनिक भी अवसर नहीं मिलता; क्योंकि स्वामी जी कहीं भी क्यों न रहें, अनेक उत्साही युवक (कालेज के छात्र) उनके दर्शनों को आ ही जाते हैं। स्वामी जी सादर सबको धर्म या दर्शन के कठिन तत्वों को सुगमता से समझते हैं। स्वामी जी की प्रतिभा से मानो अभिभूत होकर वे निर्वाक् बैठे रहते हैं।

आज सूर्यग्रहण है। पूर्णग्रासी ग्रहण है। ग्रहण देखने के लिए निमित्त ज्योतिषीगण भिन्न भिन्न स्थानों को गए हैं। धर्मपिपासु नर-नारी दूर दूर से गंगा-स्नान करने आए हैं और बड़ी उत्सुकता से ग्रहण पड़ने के समय की प्रतीक्षा कर रहे हैं। परंतु स्वामी जी को ग्रहण के संबंध में कोई विशेष उत्साह नहीं। स्वामी जी का आदेश है कि अपने हाथ से भोजन पकाकर स्वामी जी को खिलाये। शाक तरकारी और रसोई पकाने के सब उपयोगी पदार्थ इकट्ठा कर प्रात:काल ८ बजे शिष्य बलराम बसु जी के घर पहुंचा। उसको देखकर स्वामी जी ने कहा, "तुम्हारे देश में जिस प्रकार भोजन पकाया जाता है, उसी प्रकार बनाओ और ग्रहण पड़ने से पूर्व ही भोजन हो जाना चाहिए।"

बलराम बाबू के परिवार में से कोई भी कलकत्ते में नहीं, इस कारण सारा घर खाली है। शिष्य ने भीतर के रसोईघर में जाकर रसोई पकाना आरंभ किया। श्री रामकृष्णगतप्राणा योगिन माता पास ही उपस्थित रहकर रसोई के निमित्त सब चीज़ों का आयोजन करती हुई बीच-बीच में पकाने का ढंग बतलाकर उसकी सहायता करने लगीं। स्वामी जी भी आते-जाते रसोई देखकर शिष्य को उत्साहित करने लगे और कभी "मछली का 'झोल' (शोरवा) ठीक तुम्हारे पूर्व बंग के ढंग का पके", कहकर हँसी करने लगे।

जब भात, मूँग की दाल, झोल, खटाई, सुक्तुनी आदि सब पदार्थ पक चुके, तब स्वामी जी स्नान कर आ पहुँचे और स्वयं ही पत्तल बिछाकर खाने बैठ गए। "अभी सब रसोई नहीं बनी है," कहने पर भी कुछ नहीं सुना, बड़े हठी बच्चे के समान बोले, "बड़ी भूख लगी है, अब ठहरा नहीं जाता, भूख के मारे अँतड़ी जल रही है।" लाचार होकर शिष्य ने सुक्तुनी और भात परोस दिया। स्वामी जी ने तुरंत भोजन करना आरंभ कर दिया। तत्पश्चात शिष्य ने कटोरियों में अन्यान्य शाकों को परोसकर सामने रख दिया। फिर योगानंद तथा प्रेमानंद प्रमुख अन्य सब संन्यासियों को अन्न तथा शाकादि परोसने लगे। शिष्य रसोई पकाने में निपुण नहीं था, किंतु आज स्वामी जी ने उसकी रसोई की भूरि-भूरि प्रशंसा की। कलकत्ते वाले 'पूर्व बांग के सुक्तुनी' के नाम से ही बड़ी हँसी करते हैं, किंतु स्वामी जी यह भोजन कर बहुत ही प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा, 'ऐसा अच्छा मैंने कभी नहीं खाया। यह 'झोल' जैसा चटपटा बना है, और ऐसी कोई तरकारी नहीं बनी।" खटाई चखकर बोले, "यह बिल्कुल बर्दवानवालों के ढंग की बनी है।" अंत में सन्देश (मिठाई) तथा दही से स्वामी जी ने भोजन समाप्त किया और आचमन करके घर के भीतर खटिया पर जा बैठे। शिष्य स्वामी जी के सामनेवाले दालान में प्रसाद पाने के लिए बैठ गया। स्वामी जी ने बातचीत करते करते उससे कहा, "जो अच्छी रसोई नहीं पका सकता, वह साधु भी नहीं बन सकता। यदि मन शुद्ध न हो तो किसी से अच्छी रसोई नहीं पकती।"

थोड़ी देर बाद चारों ओर शंख-ध्वनि होने लगी, घंटा बजने लगा और स्त्री-कंठ की 'उलु' ध्वनि सुनायी दी। स्वामी जी ने कहा "अरे, ग्रहण पड़ गया, मैं सो जाऊँ, तू चरण सेवा कर।" यह कहकर वे कुछ आलस्य और तंद्रा का अनुभव करने लगे। शिष्य भी उनकी पादसेवा करते करते विचार करने लगा, 'ऐसे पुण्य समय में गुरुपद सेवा ही मेरा जप,ताप और गंगा-स्नान है।" ऐसा विचार कर वह शांत मन से स्वामी जी की सेवा करने लगा। ग्रहण के समय सूर्य के छिप जाने से चारों दिशाओं में सायकाल के समान अँधेरा छा गया।

जब ग्रहण मुक्त होने में १५-२० मिनट रह गए, तब स्वामी जी सो कर उठे और मुँह हाथ धोकर हँसकर शिष्य से कहने लगे, "लोग कहते हैं कि ग्रहण के समय जो कोई कुछ करता है, उससे करोड़ गुना अधिक फल प्राप्त होता है। मैंने यह सोचा था कि महामाया ने तो इस शरीर को अच्छी नींद दी ही नहीं; यदि इस समय कुछ देर सो जाऊँ तो आगे अच्छी नींद मिलेगी, परंतु ऐसा नहीं हो सका। मुश्किल से १५ मिनट ही सोया हूँगा।"

इसके बाद स्वामी जी के पास सबके आ बैठने पर, स्वामी जी ने शिष्य को उपनिषद के संबंध में कुछ बोलने का आदेश किया। इससे पहले शिष्य ने स्वामी जी के सामने कभी भाषण नहीं दिया था। इसका हृदय काँपने लगा, परंतु स्वामी जी छोड़ने वाले कब थे। लाचारी से शिष्य खड़ा होकर परांचि खानि व्यतृणत स्वयंभू: मंत्र पर व्याख्यान देने लगा। इसके बाद गुरु-भक्ति और त्याग की महिमा पर और अंत में ब्रह्मज्ञान ही परम पुरुषार्थ है, यह सिद्धांत बतलाकर बैठ गया। स्वामी जी ने शिष्य का उत्साह बढ़ाने के लिए बार-बार करतल ध्वनि कर कहा, "वाह! बहुत अच्छा!!"

तत्पश्चात स्वामी जी ने शुद्धानंद, प्रकाशानंद आदि स्वामियों को कुछ बोलने का आदेश दिया। स्वामी शुद्धानंद ने ओजस्विनी भाषा में ध्यान संबंधी एक छोटा सा व्याख्यान दिया। उसके बाद स्वामी प्रकाशानंद आदि के उसी प्रकार व्याख्यान दे चुकने पर स्वामी जी वहाँ से बाहर बैठक में आ गए। तब संध्या होने में कोई घंटा भर था। वहाँ सब के पहुँचने पर स्वामी जी ने कहा, "जिसको जो कुछ पूछना हो, पूछो।"

शुद्धानंद स्वामी ने पूछा, "महाराज,ध्यान का स्वरूप क्या है?"

स्वामी जी-किसी वैश्य पर मन को एकाग्र करने का ही नाम ध्यान है। किसी एक वैश्य पर भी मन की एकाग्रता हो जाने से वह एकाग्रता जिस विषय पर चाहो उस पर लगा सकते हो।

शिष्य-शास्त्र में विषय और निर्विषय भेद से दो प्रकार के ध्यान पाये जाते हैं। इनका क्या अर्थ है और उनमें कौन श्रेष्ठ है?

स्वामी जी-पहले किसी एक विषय का आश्रय कर ध्यान का अभ्यास करना पड़ता है। किसी समय मैं एक छोटे से काले बिंदु पर मन को एकाग्र किया करता था। परंतु कुछ दिन के अभ्यास के बाद वह बिंदु मुझे दिखना बंद हो गया था। वह मेरे सामने है या नहीं यह भी ध्यान नहीं रहता था। निवात समुद्र के समान मन का संपूर्ण निरोध हो जाता था। ऐसी अवस्था में मुझे अवस्था में मुझे अतींद्रिय सत्य की परछाई कुछ कुछ दिखाई देती थी। इसलिए मेरा विचार है कि किसी सामान्य बाहरी विषय का भी आश्रय लेकर ध्यान करने का अभ्यास करने से मन की एकाग्रता होती है। जिसमें जिसका मन लगता है, उसी के ध्यान का अभ्यास करने से मन शीघ्र एकाग्र हो जाता है। इसीलिए हमारे देश में इतने देव-देवी मूर्तियों के पूजने की व्यवस्था है। देव-देवी पूजा से ही शिल्प की उन्नति हुई है। परंतु इस बात को अभी छोड़ दो। अब बात यह है कि ध्यान का बाहरी अवलंबन सब का एक नहीं हो सकता। जो जिस विषय के आश्रय से ध्यान-सिद्ध हो गया है, वह उस अवलंबन का ही वर्णन और प्रचार कर गया है। कालांतर में वे मन को स्थिर करने के लिए हैं, इस बात के भूलने पर लोगों ने इस बाहरी अवलंबन को ही श्रेष्ठ समझ लिया। उपाय में ही लोग लगे रह गए; उद्देश्य पर लक्ष्य कम हो गया। मन को वृतिहीन करना ही उद्देश्य है; किंतु यह किसी विषय में तन्मय हुए बिना असंभव है।

शिष्य-मनोवृत्ति विषयाकार होने से उसमें ब्रह्म की धारणा कैसे हो सकती है?

स्वामी जी कि वृत्ति पहले विषयाकार होती है, यह ठीक है; किंतु तत्पश्चात् उस विषय का ज्ञान नहीं रहता, तब शुद्ध 'अस्ति' मात्र का ही बोध रहता है।

शिष्य-महाराज, मन की एकाग्रता को प्रपट करने पर भी कामनाओं और वासनाओं का उदय क्यों होता है?

स्वामी जी-पूर्व संस्कार से! बुद्धदेव जब समाधि अवस्था प्राप्त करने को ही थे, उसी समय 'मार' उनके सामने आया। 'मार' स्वयं कुछ भी नहीं था, वह मन के पूर्व संस्कार का ही छायारूप कोई प्रकाश था।

शिष्य-सिद्धि लाभ होने के पहले नाना विभीषिकाएँ देखने की बातें जो सुनने में आती हैं, क्या वे सब मन की ही कल्पनाएँ हैं?

स्वामी जी-और नहीं तो क्या? यह निश्चित है कि उस अवस्था में साधक समझ नहीं पता कि यह सब उसके मन का ही बाहरी प्रकाश है; परंतु वास्तव में बाहर कुछ भी नहीं है। यह जगत जो देखते हो वास्तव में नहीं है; सभी मन कि कल्पनाएँ हैं। मन के वृति शून्य होने पर उसमें ब्रह्रमाभास होता है।

यं यं लोकं मनसा संविभाती , उन लोकों के दर्शन होते हैं। जो संकल्प किया जाता है, वही सिद्ध होता है। ऐसी सत्यसंकल्प की अवस्था का लाभ करके भी जो जागरूक रह सकता है और किसी भी प्रकार की वासनाओं का दास नहीं होता, वही ब्रह्मलाभ करता है, और ऐसी अवस्था लाभ करने पर विचलित हो जाता है, वह नाना प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त करके परमार्थ से भ्रष्ट हो जाता है।

इन बातों को कहते कहते स्वामी जी बारंबार 'शिव' नाम का उच्चारण करने लगे। अंत में फिर बोले, "बिना त्याग के इस गंभीर जीवन समस्या का गूढ अर्थ निकालना और किसी प्रकार से भी संभव नहीं है। 'त्याग'-'त्याग', यही तुम्हारे जीवन का मूल मंत्र होना चाहिए-सर्व वस्तु भयान्वितम भुवि नृणा वैराग्यमेवाभयम्।"

(स्थान: कलकत्ता। वर्ष: १८९७ ई,)]

स्वामी जी कुछ दिनों से बागबाज़ार में स्व. बलराम बसु के भवन में अवस्थान कर रहे हैं। स्वामी जी ने श्री रामकृष्ण के सब गृहस्थ भक्तों को यहाँ एकत्र होने के लिए समाचार भेजा था। इसी से दिन के तीन बजे श्री रामकृष्ण के भक्त जन एकत्र हुए हैं। स्वामी योगानंद भी वहाँ उपस्थित हैं। स्वामी जी ने एक सीमित संगठित करने के उद्देश्य से सबको निमंत्रित किया है। सब महानुभावों के बैठ जाने पर स्वामी जी ने कहा; अनेक देशों में भ्रमण करने पर मैंने यह सिद्धांत स्थिर किया है कि बिना संघ के कोई भी बड़ा कार्य सिद्ध नहीं होता। परंतु हमारे देश में इसका निर्माण यदि गुरु से ही जनतांत्रिक ढंग से (मतदान द्वारा) किया जाए तो मुझे ऐसा नहीं लगता कि वह अधिक कार्य करेगा। पाश्चात्य देशों के लिए यह नियम अच्छा है, क्योंकि वहाँ सब नर नारी अधिक शिक्षित हैं और हमारे समान द्वेषपारायण हैं। वे गुण का सम्मान करना जानते हैं। वहाँ मैं मात्र एक साधारण जन था, परंतु उन्होंने मेरा कितना सत्कार किया। इस देश में शिक्षा-विस्तार के साथ जब साधारण लोग और भी सहृदय बनेंगे और मतों की संकीर्ण सीमा से हटकर उदारता से विचार करेंगे, तब जंतांत्रिक ढंग से काम चलाया जा सकता है। इन सब बातों का विचार करके मैं देखता हूँ कि हमारे इस संघ के लिए एक प्रधान संचालक होना आवश्यक है, सब लोग उसिके आदेश को मानेंगे। कालांतर में आम मतदान के सिद्धांत पर कार्य करना होगा।"

"यह संघ उन श्री रामकृष्ण के नाम पर स्थापित होगा जिसके नाम पर हम संन्यासी हुए और आप सब महानुभाव जिनको अपना जीवन-आदर्श मान संसार आश्रमरूप कार्यक्षेत्र में स्थित हैं; ऊपर से जिनके देहावसान के बाद २० वर्ष ही में प्राच्य तथा पाश्चात्य जगत में उनके पवित्र नाम और अद्भुत जीवनी का आश्चर्यजनक प्रसार हुआ है। हम सब प्रभु के दास हैं, आप लोग इस कार्य में सहायता दीजिए।"

श्रीयुत गिरीशचन्द्र तथा अन्य समस्त गृहस्थों के इस प्रस्ताव पर सहमत होने पर रामकृष्ण संघ की भावी कार्यप्रणाली पर विचार-विमर्श होने लगा। संघ का नाम 'रामकृष्ण संघ' अथवा 'रामकृष्ण मिशन' रखा गया। उसके उद्देश्य आदि नीचे उद्धत किए जाते हैं:

उद्देश्य-मनुष्यों के हितार्थ श्री रामकृष्ण ने जिन तत्वों की व्याख्या की और स्वयं अपने जीवन में प्रत्यक्ष किया है, उन सब का प्रचार तथा मनुष्यों कि दैहिक,मानसिक और परमार्थिक उन्नति के निमित्त वे सब तत्व जिस प्रकार से प्रयुक्त हो सकें, उसमें सहायता करना ही इस संघ (मिशन) का उद्देश्य है।

व्रत-जगत के सब धर्ममतों को एक अक्षय सनातन धर्म का रूपांतरण मात्र जानकर, समस्त धर्मावलंबियों में मैत्री स्थापित करने के लिए श्री रामकृष्ण ने जिस कार्य की उद्भावना की थी, उसी का परिचालन इस संघ का व्रत है।

कार्यप्रणाली-मनुष्यों की सांसारिक और आध्यात्मिक उन्नति हेतु विद्यादान करने के लिए उपयुक्त लोगों को शिक्षित करना। शिल्पियों तथा श्रमजीवियों का उत्साह बढ़ाना और वेदांत तथा अन्यान्य धर्मभावों का, जैसी कि उनकी रामकृष्ण जीवन में व्याख्या हुई थी, मनुष्य समाज में प्रचार करना।

भारत में कार्य करना-भारत के नगर नगर में आचार्य-व्रत ग्रहण के अभिलाषी गृहस्थ या संन्यासियों कि शिक्षा के निमित्त आश्रम स्थापित करना और उन उपायों का अवलंबन करना जिससे वे दूर-दूर जाकर जन साधारण को शिक्षा दे सकें।

विदेशों में कार्य-विभाग-भारत से बाहर अन्य देशों में व्रतधारियों को भेजना और उन देशों में स्थापित सब आश्रमों कि भारत के आश्रमों से घनिष्ठता और सहानुभूति बढ़ाना तथा नए नए आश्रमों की स्थापना करना।

स्वामी जी स्वयं ही उस सीमित के कार्यध्क्ष बने। स्वामी ब्रांहानंद कलकत्ता केंद्र के अध्यक्ष और स्वामी योगानंद सहकारी बने। एटर्नी बाबू नरेन्द्रनाथ मित्रा इसके मंत्री, डाक्टर शशिभूषण घोष और शरदचंद सरकार सहायक मंत्री और शिष्य शास्त्रपाठक निर्वाचित हुए। स्व. बलराम बसु के मकान पर प्रत्येक रविवार को चार बजे के उपरांत सीमित की बैठक हुआ करेगी, यह नियम भी बना। इस सभा के पाश्चात्य तीन वर्ष तक 'रामकृष्ण मिशन' समिति का अधिवेशन प्रति रविवार को बलराम बसु के मकान पर हुआ। स्वामी जी जब तक फिर विदेश नहीं गए, तब तक सुविधानुसार समिति कि बैठकों में उपस्थित होकर कभी उपदेश आदि देकर या कभी अपने सुंदर कंठ से गान सुनाकर सबको मोहित करते थे।

आज सभा की समाप्ति पर सदस्यों के चले जाने के पाश्चात योगानंद स्वामी को लक्ष्य करके स्वामी जी कहने लगे, "इस प्रकार तो कार्य आरंभ किया गया, अब देखना चाहिए कि श्री गुरुदेव की इच्छा से कहाँ तक इसका निर्वाह होता है।"

स्वामी योगानंद-तुम्हारा यह सब कार्य विदेशी ढंग पर हो रहा है। श्री रामकृष्ण का उपदेश क्या ऐसा ही था?

स्वामी जी-तुमने कैसे जाना कि यह सब श्री रामकृष्ण के भावानुसार नहीं है? तुम क्या अनंत भावमय गुरुदेव को अपनी संकीर्ण परिधि में आबद्ध करना चाहते हो? मैं इन सीमा को तोड़कर उनके भाव जगत भर में फैलाऊँगा। श्री रामकृष्ण ने अपने पूजा-पाठ का प्रचार करने का उपदेश मुझे कभी नहीं दिया। वे साधन-भजन, ध्यान-धरण तथा अन्य ऊँचे धर्मभावों के संबंध में जो सब उपदेश दे गए हैं, उन्हें पहले अपने में अनुभव कर फिर सर्वसाधारण को उन्हें सिखलाना होगा। मत अनंत है; पाठ भी अनंत हैं। सम्प्रदायों से भरे हुए जगत में और एक नवीन संप्रदाय पैदा कर देने के लिए मेरा जन्म नहीं हुआ। प्रभु के चरणों में आश्रय पाकर हम कृतार्थ हुए हैं। त्रिजगत के लोगों को उनकी भाव राशि देने के निमित्त ही हमारा जन्म हुआ है।

स्वामी योगानंद के प्रतिवाद न करने पर स्वामी जी फिर कहने लगे, "प्रभु की कृपा का परिचय इस जीवन में बहुत पाया। वे ही तो पीछे खड़े होकर इन सब कार्यों को करा रहे हैं। जब भूख से कातर होकर वृक्ष के नीचे पड़ा रहता था, जब कौपीन बांधने को वस्त्र तक न था, जब कौड़ीहीन होकर भी पृथ्वी का भ्रमण को कृसंकल्प था, तब श्री गुरुदेव की कृपा से सदा मैंने सहयता पायी। फिर जब इसी विवेकानंद के दर्शन करने के निमित्त शिकागो के रास्तों पर भीड़ में धक्कम-धक्का हुआ था; जिस सम्मान का शतांश भी प्राप्त करने पर साधारण मनुष्य उन्मत्त हो जाते हैं, श्री गुरुदेव की कृपा से उस सम्मान को भी सहज में पचा गया। प्रभु की इच्छा से सर्वत्र विजय है। अब इस देश में कुछ कार्य कर जाऊँगा। तुम संदेह छोड़कर मेरे कार्य में सहायता करो, देखोगे उनकी इच्छा से सब पूर्ण हो जाएगा।"

स्वामी योगानंद-तुम जैसा आदेश दोगे, हम वैसा ही करेंगे। हम तो सदा से तुम्हारे आज्ञाकारी हैं। मैं तो कभी-कभी स्पष्ट देखता हूँ कि श्री गुरुदेव स्वयं तुमसे यह सब कार्य करा रहे हैं। पर बीच-बीच में मन में न जाने क्यों ऐसा संदेह आ जाता है। मैंने श्री गुरुदेव के कार्य करने की रीति कुछ और ही प्रकार की देखी थी, इसलिए संदेह होता है कि कहीं हम उनकी शिक्षा छोड़कर दूसरे पाठ पर तो नहीं चल रहे हैं? इसी कारण तुमसे ऐसा कहता हूँ और सावधान कर देता हूँ।

स्वामी जी-जानते हो, साधारण भक्तों ने श्री गुरुदेव को जितना समझा है, वास्तव में हमारे प्रभु उतने ही नहीं है। वे तो अनंत भावमय हैं। भले ही ब्रह्मज्ञान की मर्यादा हो, पर प्रभु के अगम्य भावों की कोई भी मर्यादा नहीं। उनके कृपा-कटाक्ष से एक क्यों, लाखों विवेकानंद अभी उत्पन्न हो सकते हैं। पर ऐसा न करके वे अपनी ही इच्छा से मेरे द्वारा अर्थात मुझे यंत्रवत बनाकर, यहाँ सब कार्य करा रहे हैं। तुम्हीं कहो, इसमें मेरा क्या हाथ है?

यह कहकर स्वामी जी दूसरे किसी कार्य के लिए कहीं चले गए। स्वामी योगानंद शिष्य से कहने लगे, "वाह! नरेन्द्र का कैसा विश्वास है! इस विषय पर भी क्या तूने ध्यान दिया? कहता है, श्री गुरुदेव की कृपा-कटाक्ष से लाखों विवेकानंद बन सकते हैं! धन्य है उनकी गुरुभक्ति! यदि ऐसी भक्ति का शतांश भी हम प्राप्त कर सकते तो कृतार्थ हो जाते।"

शिष्य-महाराज, श्री रामकृष्ण स्वामी जी के विषय में क्या कहा करते थे?

योगानंद-वे कहा करते थे, 'इस युग में ऐसा क्या आधार जगत में और कभी नहीं आया।" कभी कहते थे, "नरेन्द्र पुष्प है और मैं प्रकृति हूँ, नरेन्द्र मेरी ससुराल है।" कभी कहा करते थे, "अखंड की कोटिका है", कभी कहते थे, अखंड के घर में जहां देव-देवियाँ भी सब अपना प्रकाश ब्रह्म से स्वतंत्र रखने में असमर्थ होकर उनमें लीन हो गए हैं, वहाँ मैंने केवल सात ऋषियों को अपना प्रकाश स्वतंत्र रख कर ध्यान में निमग्न रहते देखा था, नरेन्द्र उन्हीं में से एक का अंशावतार है। "कभी कहा करते थे, "जगत पालक नारायण ने नर और नारायण नामक जिन दो ऋषियों की मूर्ति धारण कर जगत के कल्याण के लिए तपस्या की थी, नरेन्द्र उसी नर ऋषि का अवतार है।" कभी कहते थे, "शुकदेव के समान इसको भी माया ने स्पर्श नहीं किया है।"

शिष्य-क्या वे सब बातें सत्य हैं या श्री रामकृष्ण भावावस्था में समय-समय पर एक-एक प्रकार का उनको बतलाया करते थे?

योगानंद-उनकी सब बातें सत्य है। उनके श्रीमुख से भूल से भी मिथ्या बात नहीं निकली।

शिष्य-तब फिर क्यों कभी कुछ और कभी कुछ कहा करते थे।

योगानंद-तुमने समझा नहीं। वे नरेन्द्र को सबका समष्टि प्रकाश कहा करते थे। क्या तुझे नहीं दिख पड़ता कि नरेन्द्र में ऋषि का वेद-ज्ञान, शंकर का त्याग, बुद्ध का हृदय, शुकदेव का माया रहित भाव, और ब्रह्मज्ञान का पूर्ण विकास एक ही साथ वर्तमान है? इसी के बीच बीच में श्री रामकृष्ण के विषय में ऐसी नाना प्रकार की बातें करते थे। जो वे कहते थे वे सब सत्य हैं।

शिष्य सुनकर निर्वाक हो गया। इतने में स्वामी जी लौटे और शिष्य से पूछा, "क्या तेरे देश में सब लोग श्री रामकृष्ण के नाम से अच्छी तरह परिचित है?"

शिष्य-मेरे देश से तो केवल नाग महाशय ही श्री रामकृष्ण के पास आए थे। उनसे समाचार पाकर अनेक लोग श्री रामकृष्ण के विषय में जानने को उत्सुक हुए हैं; परंतु वहाँ के लोग श्री रामकृष्ण को ईश्वरावतार अभी तक नहीं समझ सके हैं। कोई-कोई तो यह बात सुनकर भी विश्वास नहीं करते।

स्वामी जी-इस बात पर विश्वास करना क्या तूने ऐसा सुगम समझ रखा है ? हमने उनको सब प्रकार से जाँचा, उनके मुँह से यह बात बारंबार सुनी, चौबीस घंटे उनके साथ रहे, तब भी बीच-बीच में हमको संदेह होता है तो फिर औरों को क्या कहें?

शिष्य-महाराज, श्री रामकृष्ण पूर्व ब्रह्म भगवान थे, क्या यह बात उन्होंने कभी अपने मुँह से कही थी?

स्वामी जी-कितनी ही बार कही थी। हम सब लोगों से काही थी। जब वे काशीपुर के बाग में थे और उनका शरीर बिलकुल छूटने ही वाला था, तब मैंने उनकी शैय्या के निकट बैठकर एक दिन मन में सोचा की यदि वे अब कह सकें कि मैं भगवान हूँ, तब मेरा विश्वास होगा कि वे सचमुच भगवान हैं। चोला छूटने के दो दिन बाकी थे। उस बात को सोचते ही श्री गुरुदेव ने एकाएक मेरी ओर देखकर कहा, "जो राम थे, जो कृष्ण थे, वे ही अब इस शरीर में रामकृष्ण हैं-केवल तेरे वेदांत के मत से नहीं।" मैं तो सुनकर भौचक्का हो गया। प्रभु के श्री मुख से बारंबार सुनने पर भी हमें ही अभी तक पूर्ण विश्वास नहीं हुआ-संदेह और निराशा में मन कभी कभी आंदोलित हो जाता है-तो औरों की बात ही क्या? अपने ही समान देहधारी एक मनुष्य को ईश्वर कहकर निर्दिष्ट करना और उस पर विश्वास रखना बड़ा ही कठिन है। सिद्ध पुरुष या ब्रह्मज्ञ तक अनुमान करना संभव है। उनको चाहो जो कुछ कहो, चाहे जो कुछ समझो, महापुरुष मानो या ब्रह्मज्ञ-इसमें क्या धरा है? परंतु श्री गुरुदेव जैसे पुरुषोतम ने इससे पहले जगत में और कभी जन्म नहीं लिया। संसार के घोर अंधकार में अब यही महापुरुष ज्योतिस्तंभस्वरूप हैं। इनकी ही ज्योति से मनुष्य संसार समुद्र के पार चले जाएंगे।

शिष्य-मैं समझता हूँ जब तक कुछ देख-सुन न लें, तब तक यथार्थ विश्वास नहीं होता। सुना है, माथुर बाबू ने श्री रामकृष्ण के विषय में कितनी ही अद्भुत घटनाएँ प्रत्यक्ष की थीं और उन्हीं से उनका विश्वास उन पर जमा था।

स्वामी जी-जिसे विश्वास नहीं है, उसके देखने पर भी कुछ नहीं होता। देखने पर सोचता है कि यहीं कहीं अपने मस्तिष्क का विकार या स्वपनादि तो नहीं है? दुर्योधन ने भी विश्वरूप देखा था, अर्जुन ने भी देखा था। अर्जुन को विश्वास हुआ किंतु दुर्योधन ने उसे जादू समझा! यदि वे ही न समझाए तो और किसी प्रकार से समझने का उपाय नहीं है। किसी-किसी को बिना कुछ देखे सुने ही पूर्ण विश्वास हो जाता है और किसी को बारह वर्ष तक प्रत्यक्ष सामने रहकर नाना प्रकार की विभूतियाँ देखकर भी संदेह में पड़ा रहना होता है। सारांश यह है कि उनकी कृपा चाहिए परंतु लगे रहने से ही उनकी कृपा होगी।

शिष्य-महाराज, कृपा का क्या कोई नियम है?

स्वामी जी-है भी और नहीं भी।

शिष्य-यह कैसे?

स्वामी जी-जो तन,मन, वचन से सर्वदा पवित्र रहते हैं, जिनका अनुराग प्रबल है,जो सत-असत का विचार करने वाले हैं और ध्यान तथा धारणा में संलग्न रहते हैं, उन्हीं पर भगवान की कृपा होती है। परंतु भगवान प्रकृति के सब निसर्ग नियमों के परे हैं अर्थात किसी नियम के वश में नहीं है। गुरुदेव जैसा कहा करते थे, 'उनका स्वभाव बच्चों के समान है।' इस कारण यह देखने में आता है कि किसी-किसी ने करोड़ों जन्मों से उन्हें पुकारा, किंतु उनसे कोई उतर न पा सका। फिर जिसको हम पापी, तापी और नास्तिक समझते हैं, उसमें एकाएक चैतन्य का प्रकाश हो गया। उसके न माँगने पर भी भगवान ने उस पर कृपा कर दी। तुम यह कह सकते हो कि उसके पूर्व जन्म का संस्कार था। परंतु इस रहस्य को समझना बड़ा कठिन है। श्री गुरुदेव कभी ऐसा भी कहते थे, "पूरी तरह उनके ही सहारे रहो, आँधी के जूठे पत्तल बन जाओ।" कभी कहते थे, कृपा रूपी हवा तो चल रही है, तुम अपनी पाल उठा दो।"

शिष्य-महाराज, यह तो बड़ी कठिन बात है। कोई युक्ति ही यहाँ नहीं ठहर सकती।

स्वामी जी-तर्क-विचार की दौड़ तो माया से अधिकृत इसी जगत में है, देश-काल, निमित्त की सीमा के अंतर्गत है; और वे इन सबसे अतीत हैं। उनके नियम भी हैं, और वे नियम के बाहर भी हैं। प्रकृति के जो कुछ नियम हैं, उनको उन्होंने ही बनाया या यों कहें कि वे ही स्वयं ये नियम बने और इन सबके परे भी रहे। जिन्होंने उनकी कृपा प्रपट की, वे उसी क्षण सब नियमों के परे पहुँच जाते हैं। इसीलिए कृपा का कोई विशेष नियम नहीं है। कृपा है उनकी मौज। यह सारा जगतसर्जन ही उनकी मौज है-लोकवतु लीलाकैवल्यम। जो इस जगत को अपनी इच्छा मात्र से तोड़ और बना सकता है, वह क्या अपनी कृपा से किसी महापापी को मुक्ति नहीं दे सकता? तब जो किसी किसी से कुछ सघन-भजन करा लेते हैं और किसी से नहीं कराते, यह भी उन्हीं की लीला है; उनकी मौज है।

शिष्य-महाराज, यह बात ठीक समझ में नहीं आयी।

स्वामी जी-और अधिक समझकर क्या होगा? जहां तक हो उनसे ही मन लगाये रखो। इसी से इस जगत की माया स्वयं छूट जाएगी; परंतु लगा रहना पड़ेगा। कामिनी और कांचन से मन को पृथक रखना पड़ेगा। सर्वदा सत और असत का विचार करना होगा। मैं शरीर नहीं हूँ, ऐसे विदेह भाव से अवस्थान करना पड़ेगा। मैं सर्वव्यापी आत्मा ही हूँ, इसी की अनुभूति होनी चाहिए। इसी प्रकार लगे रहने का नाम ही पुरस्कार है। इस पुरस्कार की सहायता से ही उन पर निर्भरता अति है, और इसे ही पुरुषार्थ क़हते हैं, और इसे ही परम पुरुषार्थ कहते हैं।

स्वामी जी फिर कहने लगे, "यदि तुम पर उनकी कृपा न होती तो तुम यहाँ क्यों आते? श्री गुरुदेव कहा करते थे, 'जिन पर भगवान की कृपा हुई है, उनको यहाँ अवश्य ही आना होगा। वे कहीं भी क्यों न रहें, कुछ भी क्यों न करे, यहाँ की बातों से और यहाँ के भावों से उन्हें अवश्य अभिभूत होना होगा।' अपने को ही देखो न, नाग महाशय भगवान की कृपा से सिद्ध हुए थे और उनकी कृपा को ठीक-ठीक समझते थे, उनका सत्संग भी क्या बिना ईश्वर की कृपा के कभी हो सकता है? अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम। जन्म जन्मांतर की सुकृति से ही महापुरुषों के दर्शन होते हैं। शास्त्र में उत्तमा भक्ति के जो लक्षण दिए गए है, वे सभी नाग महाशय में प्रकट हुए थे। लोग जो तृणादपि सुनीचेन कहते हैं, वह एकमात्र नागमहाशय में ही मैंने देखा है। तुम्हारा पूर्व बंग धन्य है! नाग महाशय के चरण रेणु से वह पवित्र हो गया है।"

बातचीत करते हुए स्वामी जी महाकवि गिरीशचन्द्र घोष के भवन की ओर घूमते हुए निकले। स्वामी योगानंद और शिष्य भी साथ चले। गिरीश बाबू के भवन में उपस्थित होकर स्वामी जी ने आसन ग्रहण किया और कहा, "जी. सी. (गिरीशचन्द्र को स्वामी जी जी. सी. कहकर पुकारा करते थे), आजकल मन में ये ही हो रहा है कि यह करूँ, वह करूँ, उनके वचनों को संसार में फैला दूँ इत्यादि। फिर यह भी शंका होती है कि इससे भारत में काही एक नया संप्रदाय खड़ा न हो जाए। इसलिए बड़ी सावधानी से चलना पड़ता है। कभी ऐसा भी विचार हो आता है कि यदि कोई संप्रदाय बन जाए तो बन जाने दो। फिर सोचता हूँ कि नहीं, उन्होंने तो कभी किसी के भाव को ठेस नहीं पहुंचाई। समदर्शन ही उनका भाव था। ऐसा विचार कर अपनी इच्छा को समय समय पर दबा कर चलता हूँ। इस बारे में तुम क्या कहते हो?"

गिरीश बाबू-मेरा विचार और क्या हो सकता है। तुम तो उसके हाथ का यंत्र हो, जो कराएंगे वही करना होगा। अधिक मैं कुछ नहीं जनता। मैं तो देखता हूँ कि प्रभु की शक्ति ही तुमसे कार्य करा रही है। मुझे यह स्पष्ट दिखाई दे रहा है।

स्वामी जी-और मैं देखता हूँ कि हम अपने इच्छानुसार कार्य कर रहे हैं परंतु आपद, विपद में, अभाव दरिद्र में भी वे प्रत्यक्ष होकर ठीक मार्ग पर मुझे चलाते हैं, यह भी मैंने देखा है। परंतु प्रभु की शक्ति पूरी तरह नहीं समझ सका।

गिरीशबाबू-उन्होंने तुम्हारे विषय में कहा था कि सब समझ जाने से तो सब शून्य हो जाएगा; फिर कौन करेगा और किससे कराएगा?

ऐसे वार्तालाप के पश्चात अमेरिका के प्रसंग पर बात होने लगी। गिरीश बाबू ने स्वामी जी का ध्यान प्रस्तुत प्रसंग से हटा लेने के लिए ही जानबूझकर यह प्रसंग छेड़ा, यही मेरा अनुमान है। ऐसा करने का कारण पूछने पर गिरीश बाबू ने दूसरे मौके पर मुझसे कहा था, "गुरुदेव के श्रीमुख से सुना था कि इस प्रकार के विषय का वार्तालाप करते करते यदि स्वामी जी को संसार-वैराग्य या ईश्वरोद्दीपन होकर अपने स्वरूप का एक बार दर्शन हो जाए (अर्थात वे अपने स्वरूप को पहचान जाए), तो एक क्षण भी उसका शरीर नहीं रहेगा।" इसलिए मैंने देखा की स्वामी जी के संन्यासी गुरुभाइयों ने जब जब उनको चौबीसों घंटे श्री गुरुदेव की बातें करते हुए पाया, तब तब अन्यान्य प्रसंगों में उनका मन लगा दिया। अब अमेरिका के प्रसंग में स्वामी जी तल्लीन हो गए। वहाँ की समृद्धि तथा स्त्री-पुरुषों का गुणावगुण और उनके भोग-विलास इत्यादि की नाना कथाओं का वर्णन करने लगे।

 

१०

(स्थान: कलकत्ता। वर्ष: १८९७ ई)

आज दस दिन से शिष्य स्वामी जी से ऋग्वेद का सायण भाष्य पढ़ रहा है। स्वामी जी बागबाजार में स्व. बलराम बसु के भवन में ही ठहरे हुए हैं। किसी घनी के घर से मैक्समूलर द्वारा प्रकाशित ऋग्वेद ग्रंथ के सब भाग लाये गए हैं। प्रथम तो ग्रंथ नया, तीस पर वैदिक भाषा कठिन होने के कारण शिष्य पढ़ते-पढ़ते अनेक स्थानों पर अटक जाता है। यह देखकर स्वामी जी उसको स्नेह से गँवार कहकर कभी-कभी उसकी हँसी उड़ाते हैं और उन स्थानों का उच्चारण तथा पाठ बतला देते हैं। वेद का अनादित्व प्रमाणित करने के निमित्त सायणाचार्य ने जो अद्भुत युक्ति-कौशल प्रकट किया है उसकी व्याख्या करते समय स्वामी जी ने भाष्यकार की बहुत प्रशंसा की और कहीं कहीं प्रमाण देकर उन पदों के गूढ़ार्थ पर अपना भिन्न मत प्रकट सायण पर सहज कटाक्ष भी किया।

इसी प्रकार कुछ देर तक पठन-पाठन होने पर स्वामी जी ने मैंक्समूलर के संबंध में कहा, "मुझे कभी-कभी ऐसा अनुमान होता है कि सायणाचार्य ने अपने भाष्य का अपने ही आप उद्धार करने के निमित्त मैक्समूलर के रूप में पुन: जन्म लिया है। ऐसा सिद्धांत मेरा बहुत दिनों से था; पर मैक्समूलर को देखकर वह और भी दृढ़ हो गया है। ऐसा परिश्रमी और ऐसा वेद-वेदांत सिद्ध पंडित हमारे देश में भी नहीं पाया जाता। इसके अतिरिक्त श्री रामकृष्ण पर भी उनकी कैसी गंभीर भक्ति है! क्या तू समझ सकता है? उनके अवतारत्व पर भी उन्हें विश्वास है। मैं उनके ही भवन में अतिथि रहा था-कैसी देखभाल और सत्कार किया! दोनों वृद्ध पति-पत्नी को देखकर अनुमान होता था कि मानो वशिष्ठ देव और देवी अरुधंती संसार में वास कर रहे हैं। मुझे विदा करते समय वृद्ध की आँखों से आँसू टपकने लगे थे।"

शिष्य-अच्छा महाराज, यदि सायण ही मैक्समूलर हुए तो पवित्र भूमि भारत को छोड़कर उन्होंने म्लेच्छ बनकर क्यों जन्म लिया?

स्वामी जी-हम आर्य हैं, 'वे म्लेच्छ हैं', आदि विचार अज्ञान से ही उत्पन्न होते हैं। जो वेद के भाष्यकार हैं, जो ज्ञान की तेजस्वी मूर्ति हैं, उनके लिए वर्णाश्रम या जातिविभाग कैसा? उनके सामने यह सब अर्थहीन है। जीव के उपकारार्थ वे जहाँ चाहे जन्म ले सकते हैं। विशेषकर जिस देश में विद्या और धन दोनों हैं, वहाँ यदि वे जन्म न लेते, तो ऐसा बड़ा ग्रंथ छापने का खर्च कहाँ से आता? क्या तुमने नहीं सुना कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस ऋग्वेद के छपवाने के लिए नौ लाख रुपये नक़द दिए थे, परंतु उससे भी काम पूरा न हुआ। यहाँ के (भारत के) सैकड़ों वैदिक पंडितों को मासिक वेतन देकर इस कार्य में नियुक्त किया गया था। विद्या और ज्ञान के निमित्त इतना व्यय और ऐसी प्रबल ज्ञान-तृष्णा वर्तमान समय में क्या किसी ने इस देश में देखी है? मैक्समूलर ने स्वयं ही भूमिका में लिखा है कि उन्हें २५ वर्ष तो केवल इसे लिखने में ही लगे और फिर छपवाने में २० वर्ष और लगे। ४५ वर्ष तक एक ही पुस्तक में लगे रहना क्या साधारण मनुष्य का कार्य है? इसी से समझ लो कि मैं क्यों उनको स्वयं सायण कहता हूँ।

मैक्समूलर के विषय में ऐसा वार्तालाप होने के पाश्चात फिर ग्रंथ पाठ होने लगा। वेद का आश्रय लेकर ही सृष्टि का विकास हुआ है, यह जो सायण का मत है, स्वामी जी ने नाना प्रकार से इसका समर्थन किया और कहा, "वेद का अर्थ अनादि सत्यों का समूह है। वेदज्ञ ऋषियों ने इन सत्यों को प्रत्यक्ष किया था। बिना अतींद्रिय दृष्टि के साधारण दृष्टि से यह सत्य प्रत्यक्ष नहीं होते। इसीसे वेद में ऋषियों का अर्थ मंत्रार्थदर्शी है, जनेऊधारी ब्राह्मण नहीं? ब्राह्मणादि जाति-विभाग वेदों के बाद हुआ। वेद शब्दात्मक अर्थात भावात्मक हैं, या यों कहो, अनंत भावराशि की समष्टि मात्र हैं। 'शब्द' पद का वैदिक प्राचीन अर्थ सूक्ष्म-भाव है,जो आगे व्यापक स्थूल रूप में अपने को व्यक्त करता है। अत: प्रलयकाल में भावी सृष्टि का सूक्ष्म बीज-समूह वेद में ही संपुटित रहता है। इसीसे पुराण में पहले पहल मीनावतार में वेद का उद्धार दिखाई देता है। प्रथमावतार में ही वेद का उद्धार हुआ। फिर उसी वेद से क्रमश: सृष्टि का विकास होने लगा। अर्थात वेदनिहित शब्दों का आश्रय लेकर विश्व के सब स्थूल पदार्थ एक-एक कर के बनने लगे, क्योंकि शब्द या भाव सब स्थूल पदार्थों के सूक्ष्म रूप है। पूर्व कल्पों में भी इसी प्रकार सृष्टि हुई थी, यह बात वैदिक संध्या के मंत्र में ही है, सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत पृथिवीं दिवचंतारीक्षमथो स्व: । समझे?"

शिष्य-परंतु महाराज, यदि कोई वस्तु ही न हो, तो शब्द किसके लिए प्रयुक्त होगा? और पदार्थों के नाम भी कैसे बनेंगे?

स्वामी जी-ऊपर से देखने पर ऐसा ही लगता है। परंतु देखो यह जो घट है, इसके टूट जाने पर क्या घटत्व का भी नाश हो जाएगा? कारण,यह घट तो स्थूल है, पर घटत्व घट की सूक्षम या शब्दावस्था है। इसी प्रकार सब पदार्थों की शब्दावस्था ही उनकी सूक्ष्मावस्था है और जिन वस्तुओं को हम देखते हैं, स्पर्श करते है, वे ऐसी शब्दावली में अवस्थित पदार्थों के स्थूल विकास मात्र हैं, जैसे कार्य और उसका कारण। जगत के नाश होने पर भी जगत बोधात्मक शब्द अर्थात सब स्थूल पदार्थों के सूक्ष्म स्वरूप, ब्रह्म में कारण रूप से वर्तमान हैं। जगत के विकास के पूर्व इन पदार्थों की सूक्ष्मस्वरूप समष्टि उद्वेलित होने लगती है और उसी का प्रकृतिस्वरूप शब्द-गर्भात्मक अनादि नाद ओंकार अपने आप ही उठता रहता है। उसके बाद उसी कारणरूप समष्टि से पदार्थविशेषों की प्रथम सूक्ष्म प्रतिकृति अर्थात शाब्दिक रूप और तत्पश्चात उनका स्थूल रूप प्रकट होता है। यह शब्द ही वेद है। यही सायण का अभिप्राय है, समझे?

शिष्य-महाराज, ठीक समझ में नहीं आया।

स्वामी जी-यहाँ तक तो समझ गए कि जगत में जीतने घट हैं उन सबके नष्ट होने पर भी 'घट' शब्द रह सकता है। फिर जगत का नाश हो जाने पर अर्थात जिन वस्तुओं की समष्टि को जगत कहते हैं, उनके नाश होने पर भी उन पदार्थों के बोध कराने वाले शब्द क्यों नहीं रह सकते हैं? और उनसे सृष्टि फिर क्यों नहीं प्रकट हो सकती?

शिष्य-परंतु महाराज, 'घट घट' चिल्लाने से तो घट नहीं बंता है।

स्वामी जी-तेरे या मेरे इस प्रकार चिल्लाने से नहीं बनते, किंतु सिद्धसंकल्प ब्रह्म में घट की स्मृति होते ही घट का प्रकाश हो जाता है। जब साधारण साधकों की इच्छा से अघटन घटित हो जाता है, तब सिद्धसंकल्प ब्रह्म का तो कहना ही क्या! सृष्टि से पूर्व ब्रह्म प्रथम शब्दात्मक बनते हैं, फिर ओंकारात्मक या नादात्मक और तत्पश्चात पूर्व कल्पों के विशेष विशेष शब्द जैसे भू:, भुव:, स्व: अथवा गो, मानव, घट, पट इत्यादि का प्रकाश उसी ओंकार से होता है। सिद्धसंकल्प ब्रह्म में क्रमश: एक-एक शब्द के होते ही उसी क्षण उन पदार्थों का भी प्रकाश हो जाता है और इस प्रकार इस विचित्र जगत का विकास हो जाता है। अब तो समझे न कि कैसे शब्द ही सृष्टि का मूल है?

शिष्य-हाँ महाराज, समझ में तो आया, किंतु ठीक धारणा नहीं होती।

स्वामी जी-अरे बेटे! प्रत्यक्ष रूप से अनुभूति होना क्या ऐसा सुगम समझा है? ब्रह्मावगाही मन एक-एक कर के ऐसी अवस्थाओं से गुजरता है और अंत में निर्विकल्प अवस्था को प्राप्त होता है। समाधि की उन्मुख अवस्था में अनुभव होता है कि जगत शब्दमय है, फिर वह शब्द गंभीर ओंकार ध्वनि में लिन हो जाता है। तत्पश्चात वह भी सुनाई नहीं पड़ता। वह है भी या नहीं, इस पर संदेह होने लगता है। इसी को अनादि नाद कहते हैं। इस अवस्था से आगे ही मन प्रत्येक ब्रह्म में लीन हो जाता है। बस, सब निर्वाक, स्थिर !

स्वामी जी की बातों से शिष्य को स्पष्ट प्रतीत होने लगा कि स्वामी जी स्वयं इन अवस्थाओं में से होकर समाधि-भूमि में अनेक बार गमनागमन कर चुके हैं। यदि ऐसा न होता तो ऐसे विषद रूप से वे इन सब बातों को समझा कैसे रहे हैं? शिष्य निर्वाक होकर सुना और सोचने लगा कि इन अवस्थाओं को स्वयं प्रत्यक्ष न करने से कोई दूसरों को ऐसी सुगमता से इन बातों को समझा नहीं सकता।

स्वामी जी ने फिर कहा, "अवतारतुल्य महापुरुष लोग समाधि अवस्था से जब 'मैं' और 'मेरा' के राज्य मैं लौट आते हैं, तब वे प्रथम ही अव्यक्त नाद का अनुभव करते हैं। ओंकार के पश्चात शब्दमय जगत का अनुभव कर अंत में स्थूल पंचभौतिक जगत को प्रत्यक्ष देखते हैं। किंतु साधारण साधक लोग अनेक कष्ट सहकार यदि किसी प्रकार नाद के परे पहुँचकर ब्रह्म की साक्षात उपलब्धि करे भी, तो फिर जिस अवस्था में स्थूल जगत का अनुभव होता है, वहाँ वे उतार नहीं सकते-ब्रह्म में ही लीन हो जाते हैं-क्षीरे निरवत, दूध में जल के समान।"

यह वार्तालाप हो ही रहा था कि इसी समय महाकवि गिरीशचन्द्र घोष वहाँ आ पहुँचे। स्वामी जी उनका अभिवादन कर तथा कुशल-प्रश्नादि पूछकर पुन: शिष्य को पढ़ाने लगे। गिरीश बाबू भी एकाग्रचित हो उसे सुनने लगे और स्वामी जी कि इस प्रकार अपूर्व विषद वेदव्याख्या सुन मुग्ध होकर बैठे रहे।

पूर्व प्रसंग को लेकर स्वामी जी फिर कहने लगे, "वैदिक और लौकिक भेद से शब्द दो अंशो में विभक्त हैं। 'शब्दशक्तिप्रकाशिका' में इसका विचार मैंने देखा है। इन विचारों से गंभीर ध्यान का परिचय मिलता है, किंतु पारिभाषिक शब्दों के मारे सिर में चक्कर आ जाता है।"

अब गिरीशबाबू की ओर मुँह करके स्वामी जी बोले, "जी. सी., तुमने यह सब तो पढ़ा नहीं; केवल कृष्ण और विष्णु का नाम लेकर ही आयु बिताई है न?"

गिरीश बाबू-और क्या पढ़ूँ भाई? इतना अवसर भी नहीं और बुद्धि भी नहीं वह सब समझ सकूँ। परंतु श्री गुरुदेव की कृपा से उन सब वेद वेदांतों को नमस्कार करके इस जन्म में ही पार उतर जाऊँगा। वे तुम से अनेक कार्य कराएंगे, इसीलिए यह सब पढ़ा रहे हैं, मेरा उनसे कोई प्रयोजन नहीं है।

इतना कहकर गिरीश बाबू ने उस वृहत ऋग्वेद ग्रंथ को बारंबार प्रणाम किया और कहा, "जय वेदरूपी रामकृष्ण जी कि जय!"

पाठकों से हम अन्यत्र कह चुके हैं कि स्वामी जी जब जिस विषय का उपदेश करते थे, तब सुनने वालों के मन में वह विषय ऐसी गंभीरता से अंकित हो जाता था कि उस समय वे उस विषय को ही सबसे श्रेष्ठ समझने लगते थे। जब ब्रह्मज्ञान के विषय में चर्चा करते थे, तब सुनने वाले उसे प्राप्त करना ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य समझ लेते थे। फिर जब भक्ति या कर्म या जातीय उन्नति आदि अन्यान्य विषयों का प्रसंग चलाते थे, तब श्रोता लोग उन विषय को ही अपने मन में सबसे ऊँचा स्थान दिया करते थे और उन्हीं का अनुष्ठान करने को उत्कंठित हो जाया करते थे। उस समय स्वामी जी ने वेद का प्रसंग छोड़कर शिष्य आदि को वेदोक्त ज्ञान की महिमा से इतना मोहित कर दिया कि अब उनकी (शिष्य आदि की) नजर में इससे और कोई वस्तु अधिक श्रेष्ठ नहीं लगती है। गिरीश बाबू ने इस बात को ताड़ लिया। स्वामी जी के महान उदार भाव तथा शिक्षा देने की ऐसी सुंदर रीति को वे पहले से ही जानते थे। गिरीश बाबू ने मन ही मन एक नई युक्ति सोच निकाली जिससे स्वामी जी अपने शिष्य को ज्ञान, भक्ति और कर्म का समान महत्व समझा दे।

स्वामी जी अन्यमनस्क होकर और ही कुछ विचार कर रहे थे। इसी समय गिरीश बाबू ने कहा, "हाँ जी नरेन्द्र, तुम्हें एक बात सुनाऊँ? वेद-वेदांत तो तुमने इतना पढ़ लिया, परंतु देश में जो घोर हाहाकार, अन्नाभाव, व्यभिचार, भ्रूणहत्या तथा अन्य महापातकादि आँखों के सामने रात-दिन हो रहे हैं, उन्हें दूर करने का भी कोई उपाय क्या तुम्हारे वेद में बतलाया गया है? आज तीन दिन से अमुक घर की गृहणी का, जिसके घर में पहले प्रतिदिन ५० पतले पड़ती थी, चूल्हा नहीं जला है। अमुक घर की कुल बधुओं को गुंडों ने अत्याचार करके मार डाला, कहीं भ्रूणहत्या हुई, कहीं विधवाओं को छल-कपट करके लूट लिया गया है-इन सब अत्याचारों को रोकने का कोई उपाय क्या तुम्हारे वेद में है?" इस प्रकार जब गिरीश बाबू समाज के भीषण चित्रों को एक के बाद एक सामने लाने लगे तो स्वामी जी निस्तब्ध होकर बैठ गए। जगत के दु:ख और कष्ट को सोचते सोचते स्वामी जी की आँखों में आँसू टपकने लगे और इसके बाद वे उठकर बाहर चले गए, मानो वे हमसे अपने मन की अवस्था छिपाना चाहते हों।

इस अवसर पर गिरीश बाबू ने शिष्य को लक्ष्य करके कहा, 'देखो, स्वामी जी कैसे उदार हृदय हैं। मैं तुम्हारे स्वामी जी का केवल इसी कारण आदर नहीं करता कि वे वेद-वेदांत के एक बड़े पंडित हैं; वरन श्रद्धा करता हूँ उनकी महाप्राणता के लिए। देखो न, जीवों के दु:ख से वे कैसे रो पड़े और रोते-रोते बाहर चले गए! मनुष्य की दु:ख और कष्ट की बातें सुनकर उनका हृदय दया से पूर्ण हो गया और वेद-वेदांत न जाने कहाँ भाग गए!"

शिष्य-महाशय, हम कितने प्रेम से वेद पढ़ रहे थे! आपने मायाधीन जगत की क्या ऐसी वैसी बातों को सुनकर स्वामी जी का मन दुखा दिया।

गिरीश बाबू-क्या जगत में ऐसे दु:ख और कष्ट रहते हुए भी स्वामी जी उधर न देखकर एकांत में केवल वेद ही पढ़ते रहेंगे! उठाकर रख दो अपने वेद-वेदांत को।

शिष्य-आप स्वयं हृदयवान हैं, इसी से केवल हृदय की भाषा सुनने में आपकी प्रीति है, परंतु इन सब शास्त्रों में, जिनके अध्ययन से लोग जगत को भूल जाते हैं, आपकी प्रीति नहीं है। अन्यथा आपने ऐसा रसभंग न किया होता।

गिरीश बाबू-अच्छा, ज्ञान और प्रेम में भेद कहाँ है, यह मुझको समझा दो। देखो तुम्हारे गुरु (स्वामी जी) जैसे पंडित हैं, वैसे ही प्रेमी भी हैं। तुम्हारा वेद भी तो कहता है कि सत-चित-आनंद' ये तीनों एक ही हैं। देखो, स्वामी जी अभी कितना पांडित्य देखा रहे थे, परंतु जगत के दु:ख की बात सुनते ही और क्लेशों का स्मरण आते ही वे जीवों के दु:ख में रोने लगे। यदि वेद-वेदांत में ज्ञान और प्रेम में भेद दिखलाया गया है, तो मैं ऐसे शास्त्रों को दूर से ही दंडवत करता हूँ।

शिष्य निर्वाक होकर सोचने लगा, 'बिल्कुल ठीक, गिरीश बाबू के सब सिद्धांत यथार्थ में वेदों के अनुकूल ही हैं।'

इतने में स्वामी जी वापस और शिष्य को संबोधित करके उन्होंने कहा, "कहो, क्या बातचीत हो रही थी?" शिष्य ने उतार दिया, "वेदों का ही प्रसंग चल रहा था। गिरीश बाबू ने इन ग्रंथों को नहीं पढ़ा है, परंतु इनके सिद्धांतों का ठीक-ठीक अनुभव कर लिया है। यह बड़े ही विस्मय की बात है!"

स्वामी जी-गुरुभक्ति से सब सिद्धांत प्रत्यक्ष हो जाते हैं। फिर पढ़ने या सुनने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती, परंतु ऐसी भक्ति और विश्वास जगत में दुर्लभ हैं। जिनको गिरीश बाबू के समान भक्ति और विश्वास मिले हैं, उन्हें शास्त्रों को पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं; परंतु गिरीश बाबू का अनुकरण करना औरों के लिए हानिकारक है। उनकी बातों को मानो, पर उनके आचरण देखकर कोई कार्य न करो।

शिष्य-जी महाराज।

स्वामी जी-केवल 'जी' कहने से काम नहीं चलता। मैं जो कहता हूँ उसको ठीक ठीक समझ लो; मूर्ख के समान सब बातों पर 'जी' न कहा करो। मेरे कहने पर भी किसी बात का विश्वास न किया करो। जब ठीक समझ जाओ, तभी उसको ग्रहण करो। श्री गुरुदेव ने अपनी सब बातों को समझकर ग्रहण करने को मुझसे कहा था। सद्युक्ति, तर्क और शास्त्र जो कहते हैं, उन सबको सदा अपने पास रखो। सद्धिचार से बुद्धि निर्मल होती है और फिर उसी बुद्धि में ब्रह्मा का प्रकाश होता है। समझे न ?

शिष्य-जी हाँ; परंतु भिन्न-भिन्न लोगों की भिन्न-भिन्न बातों से मस्तिष्क ठीक नहीं रहता। गिरीश बाबू ने कहा, 'क्या होगा यह सब वेद-वेदांत को पढ़कर?' फिर आप कहते हैं, 'विचार करो।' अब मुझे क्या करना चाहिए?

स्वामी जी-हमारी और उनकी दोनों बाते सत्य हैं; परंतु दोनों की उक्ति दो भिन्न दृष्टिकोणों से आयी हैं-बस। एक अवस्था ऐसी है, जहां युक्ति या तर्क का अंत हो जाता है-मूकास्वादनवत् और एक अवस्था हैं, जहां वेदादि शास्त्रों की आलोचना या पठन-पाठन करते करते सत्य वस्तु का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। तुम्हें इन सबको पढ़ना होगा, तभी तुमको यह बात प्रत्यक्ष होगी।

निर्बोध शिष्य ने स्वामी जी के ऐसे आदेश को सुनकर और यह समझकर कि गिरीश बाबू परास्त हुए, उनकी ओर देखकर कहा, "महाशय, सुना आपने! स्वामी जी ने मुझे वेद-वेदांत के पठन-पाठन और विचार करने का ही आदेश दिया है।"

गिरीश बाबू-तुम ऐसा ही करते जाओ। स्वामी जी के आशीर्वाद से तुम्हारा सब काम इसी से ठीक होगा।

इसी समय स्वामी सदानंद वहाँ आ पहुँचे। उनको देखते ही स्वामी जी ने कहा, "अरे, जी० सी० से देश की दुर्दशाओं को सुनकर मेरे प्राण बड़े व्याकुल हो रहे हैं। देश के लिए क्या तुम कुछ कर सकते हो ?"

सदानंद-महाराज, आदेश कीजिये, दस प्रस्तुत है।

स्वामी जी-पहले एक छोटा सा सेवाश्रम स्थापित करो, जहाँ से सब दीन-दुखियों को सहायता मिला करे और जहाँ पर रोगियों तथा असहाय लोगों की बिना जाति-भेद के सेवा हुआ करे। समझे ?

सदानंद-जो महाराज की आज्ञा।

स्वामी जी-जीव-सेवा से बढ़ाकर और कोई दूसरा धर्म नहीं है। सेवा-धर्म का यथार्थ अनुष्ठान करने से संसार का बंधन सुगमता से छिन्न हो जाता है- मुक्ति: करफलायते

अब गिरीश बाबू से स्वामी जी कहने लगे, "देखो गिरीश बाबू, लगता है कि यदि जगत के दु:ख दूर करने के लिए मुझे सहस्त्रों बार जन्म लेना पड़े, तो भी मैं तैयार हूँ। इससे यदि किसी का तनिक भी दु:ख दूर हो, तो वह मैं करूँगा। और ऐसा भी मन में आता है कि केवल अपनी ही मुक्ति से क्या होगा। सबको साथ लेकर उस मार्ग पर जाना होगा। क्या तुम यह कह सकते हो की ऐसे भाव मन में क्यों उठाते हैं ?"

गिरीश बाबू-यदि ऐसा न होता तो श्री गुरुदेव तुम्हीं को सबसे ऊँचा आधार क्यों कहते ? यह कहकर गिरीश बाबू अन्य किसी कार्य के लिए चले गए।

११

( स्थान: आलमबाज़ार मठ । वर्ष : १८९७ ई॰ )

हम पहले कह चुके हैं कि जब स्वामी जी प्रथम बार विदेश से कलकत्ते लौटे थे, तब उनके पास बहुत से उत्साही युवकों का आना जाना लगा रहता था। इस समय स्वामी जी बहुधा अविवाहित युवकों को ब्रह्मचर्य और त्याग का उपदेश दिया करते थे एवं संन्यास ग्रहण अर्थात अपना मोक्ष तथा जगत के कल्याण के लिए सर्वस्व त्याग करने को बहुधा उत्साहित किया करते थे। हमने अक्सर उनको कहते सुना कि संन्यास ग्रहण किए बिना किसी की यथार्थ आत्मज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। केवल यही नहीं, बिना संन्यास ग्रहण किए बहुजनहिताय तथा बहुजनसुखाय किसी कार्य का अनुष्ठान या उसमें सिद्धिलाभ नहीं हो सकता। स्वामी जी उत्साहित युवकों के सामने सदैव त्याग के उच्च आदर्श रखते थे। किसी के संन्यास लेने की इच्छा प्रकट करने पर उसको बहुत उत्साहित करते थे और उस पर कृपा भी करते थे। कई एक भाग्यवान युवकों ने उनके उत्साहपूर्ण वचनों से प्रेरित होकर उस समय गृहस्थाश्रम का त्याग कर दिया और उनसे संन्यास की दीक्षा ली। इनमें से जिन चार को स्वामी जी ने पहले से संन्यास दिया था, उनके संन्यास व्रत ग्रहण करने के दिन शिष्य आलमबाज़ार मठ में उपस्थित था। वह दिन शिष्य को अभी तक स्मरण है।

श्री रामकृष्ण संघ में आजकल जो लोग स्वामी नित्यानंद, विरजानंद, प्रकाशानंद और निर्भयानंद नामों से सुपरिचित हैं, उनहोंने ही उस दिन संन्यास ग्रहण किया था। मठ के संन्यासियों से शिष्य ने बहुधा सुना है कि स्वामी जी के गुरुभाइयों ने उनसे बहुत अनुरोध किया की इनमें से एक को संन्यास दीक्षा न दी जाए। इसके प्रत्युत्तर में स्वामी जी ने कहा था, "यदि हम पापी, तापी, दिन-दु:खी और पतितों के उद्धारसाधन से पथभ्रष्ट हो जाएँ, तो फिर इनको कौन देखेगा ? तुम इस विषय में किसी प्रकार कि बाधा न डालो।" स्वामी जी की बलवती इच्छा ही पूर्ण हुई। अनाथशरण स्वामी जी अपने कृपा गुण से उनको संन्यास देने में कृतसंकल्प हुए।

शिष्य पिछले दो दिन से मठ में ही रहता है। स्वामी जी ने शिष्य से कहा, "तुम तो पुरोहित ब्राह्मणों में से हो। कल तुम्हीं इनका श्रद्धादि करा देना और अगले दिन मैं इनको संन्यासाश्रम में दीक्षित करूँगा। आज पोथी-पाथी पढ़कर सब देख-दाख लो।" शिष्य ने स्वामी जी की आज्ञा शिरोधार्य की।

संन्यास व्रत धारण करने का निश्चय कर उन चार ब्रह्मचारियों ने एक दिन पहले अपना सिर मुंडन कराया और गंगा-स्नान कर शुभ वस्त्र धारण कर स्वामी जी के चरण-कमलों की वंदना की और स्वामी जी के स्नेहाशीर्वाद को प्राप्त करके श्राद्ध क्रिया के निमित्त तैयार हुए।

यहाँ यह बतला देना आवश्यक प्रतीत होता है कि जो शास्त्रानुसार संन्यास ग्रहण करते हैं, उनको इस समय अपनी श्राद्धक्रिया स्वयं ही कर लेनी पड़ती है, क्योंकि संन्यास लेने से उनका फिर लौकिक या वैदिक किसी विषय में कोई अधिकार नहीं रह जाता। पुत्र-पौत्रादिकृत श्राद्ध या पिंडादानादि क्रिया का फल उनको स्पर्श नहीं करता। इसलिए संन्यास लेने के पहले अपनी श्राद्धक्रिया अपने को ही करनी पड़ती है। अपने पैरों पर अपना पिंड धरकर संसार के, यहाँ तक कि अपने शरीर के पूर्व संबंधों को भी संकल्प द्वारा मिटा देना पड़ता है। इस क्रिया को संन्यास ग्रहण की अधिवास क्रिया कह सकते हैं। शिष्य ने देखा है कि इन वैदिक कर्म-कांडों पर स्वामी जी का पूर्ण विश्वास था। वे उन कर्म-कांडों का शास्त्रानुसार ठीक-ठीक अनुष्ठान न होने पर बड़े नाराज होते थे। आजकल बहुत से लोगों का यह विचार है की गेरुए वस्त्र धारण करने से संन्यास दीक्षा हो जाती है, परंतु स्वामी जी का ऐसा विचार कभी नहीं था। बहुत प्राचीन काल से प्रचलित ब्रह्मविद्या साधना के लिए उपयोगी संन्यास व्रत ग्रहण करने के पहले अनुष्ठेय, गुरु-पम्परागत नैष्ठिक संस्कारों का वे ब्रह्मचारियों से ठीक साधन कराते थे। यह भी सुना है कि परमहंस देव के अंतर्धान होने पर स्वामी जी ने उपनिषदादि शास्त्रों में वर्णित संन्यास लेने की पद्धतियों को मंगवाकर उसके अनुसार श्री गुरुदेव के चित्र को सम्मुख रखकर अपने गुरुभाइयों के साथ वैदिक मत से संन्यास ग्रहण किया था।

आलमबाज़ार मठ के दुमंजिले पर जल रखने के स्थान में श्राद्ध-क्रिया के लिए उपयोगी सब सामग्री एकत्र की गई थी। स्वामी नित्यानंद जी ने पितर की श्राद्ध-क्रिया अनेक बार की थी, इस कारण आवश्यक चीज़ों के एकत्र करने में कोई त्रुटि नहीं हुई। स्वामी जी के आदेश से शिष्य स्नान करके पुरोहित कार्य करने को तत्पर हुआ। मंत्रादि का ठीक ठीक उच्चारण तथा पाठ होने लगा। स्वामी जी बीच-बीच में देख जाते थे। श्राद्ध-क्रिया के अंत में जब चारों ब्रह्मचारियों ने अपने-अपने पिंडों को अपने पाँवों पर रखा, तब सांसारिक दृष्टि से वे मृतवत प्रतीत हुए। यह देख शिष्य का हृदय बड़ा व्याकुल हुआ और संन्यासाश्रम की कठोरता का स्मरण कर उसका हृदय काँप उठा। पिंडों को उठाकर जब वे गंगा जी को चले गए, तब स्वामी जी शिष्य को व्याकुल देखकर बोले, "यह सब देखकर तेरे मन में भय उपजा है न ?" शिष्य के सिर झुका लेने पर स्वामी जी बोले, "आज से इन सबकी सांसारिक दृष्टि से मृत्यु हो गई। कल से इनकी नवीन देह, नवीन चिंता, नवीन वस्त्रादि होंगे। ये ब्रह्मवीर्य से दीप्त होकर प्रज्ज्वलित अग्नि के समान अवस्थान करेंगे-न कर्मणा न प्रजया घनेन त्यागेनैके अमृतत्वमांशु: (न कर्म से, न संतान से और न धन से, वरन कुछ लोगों ने मात्र त्याग से अमृतत्व प्राप्त किया है)।"

स्वामी जी की बातों को सुनकर शिष्य निर्वाक खड़ा रहा। संन्यास की कठोरता का स्मरण कर उसकी बुद्धि स्तंभित हो गई। शास्त्र ज्ञान का अहंकार दूर हुआ। वह सोचने लगा कि कहने और करने में बड़ा अंतर है। इतने में वे चारों ब्रह्मचारी, जो श्राद्ध-क्रिया कर चुके थे, गंगा जी में पिंडादि डालकर लौट आए और उनहोंने स्वामी जी के चरण-कमलों की वंदना की। स्वामी जी आशीर्वाद देते हुए बोले, "तुम मनुष्य जीवन के सर्वश्रेष्ठ व्रत को ग्रहण करने के लिए उत्साहित हुए हो। धन्य है तुम्हारा वंश, और धन्य है तुम्हारी गर्भ धारिणी माता- कुल पावित्र जननी कृतार्था।"

उस दिन रात्रि को भोजन करने के पश्चत् स्वामी जी केवल संन्यास-धर्म के विषय पर ही वार्तालाप करते रहे। संन्यास लेने के अभिलाषी ब्रह्मचारियों की ओर देखकर उन्होंने कहा, "आत्मनो मोक्षार्थ जगद्धिताय च, यही संन्यास का यथार्थ उद्देश्य है। इस बात की वेद-वेदांत घोषणा कर रहे हैं कि संन्यास ग्रहण न करने से कोई कभी ब्रह्मज्ञ नहीं हो सकता। जो कहते हैं कि संसार का भोग करना है और साथ ही ब्रह्मज्ञ भी बनाना है, उनकी बात कभी न मानो। प्रच्छन्न भोगियों के ऐसे भ्रमात्मक वाक्य होते हैं। जिसके मन में संसार भोग करने की तनिक भी इच्छा है या लेशमात्र भी कामना है, वे ही इस कठिन पाठ से डरते हैं, इसलिए अपने मन को सांत्वना देने के लिए के लिए कहते फिरते हैं कि इन दोनों पथों पर एक साथ चलना होगा। ये सब उन्मत्तों के प्रलाप हैं-अशास्त्रीय एवं अवैदिक मत हैं। बिना त्याग के पराभक्ति नहीं। त्याग-त्याग-नान्य: पंथा विद्यतेयनाय। गीता भी कहती है-काम्यानां कर्मणा न्यासं संन्यासं कवयो विदु: अर्थात् ज्ञानी जानते हैं कि कामनाओं के लिए किए गए कर्म का त्याग संन्यास है। सांसारिक झगड़ों को बिना त्यागे किसी की मुक्ति नहीं। जो गृहस्थाश्रम में बंधे रहते हैं, वे स्वयं यह सिद्ध करते हैं कि वे किसी न किसी प्रकार कि कामना के दास बनकर ही संसार में फंसे हुए हैं। यदि ऐसा न होगा तो फिर संसार में रहेंगे ही क्यों ? कोई कामिनी के दास हैं, कोई अर्थ के, कोई मान, यश, विद्या अथवा पांडित्य के। इस दासत्व को छोड़कर बाहर निकलने से ही वे मुक्ति के पथ पर चल सकते हैं। लोग कितना ही क्यों न कहें, पर मैं भली-भाँति समझ गया हूँ कि जब तक मनुष्य इन सब को त्यागकर संन्यास ग्रहण नहीं करता, तब तक किसी भी प्रकार उसके लिए ब्रह्मज्ञान असंभव है।"

शिष्य-महाराज, क्या संन्यास ग्रहण करने से ही सिद्धिलाभ होता है ?

स्वामी जी-सिद्धि-लाभ होता है या नहीं, यह बाद की बात है। जब तक तुम भीषण संसार की सीमा से बाहर नहीं आते, जब तक वासना के दासत्व को नहीं छोड़ सकते, तब तक भक्ति या मुक्ति की प्राप्ति किसी प्रकार नहीं हो सकती। ब्रह्मज्ञ के लिए ऋद्धि-सिद्धि बड़ी तुच्छ बात है।

शिष्य-महाराज, क्या संन्यास में कुछ कालाकाल या प्रकार भेद भी है ?

स्वामी जी-संन्यास धर्म की साधना में किसी प्रकार कालाकाल नहीं है। श्रुति कहती है, यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत्। जब वैराग्य का उदय हो तभी प्रव्रज्या करना उचित है। 'योगावाशिष्ठ' में भी है-

युवैव धर्मशील: स्यात् अनित्यं खलु जीवितम्।

को हि जानाति कस्याद्य मृत्युकालो भविष्यति।।

-'जीवन की अनित्यता के कारण युवाकाल में ही धर्मशील बनना चाहिए। कौन जनता है कब किसका शरीर छूट जाएगा ?' शास्त्रों में चार प्रकार के संन्यास का विधान पाया जाता है: १. विद्वत संन्यास २. विविदिषा संन्यास ३. मर्कट संन्यास और ४. आतुर संन्यास। अचानक यथार्थ वैराग्य के उत्पन्न होते ही संन्यास लेकर चले जाना (यह पूर्व जन्म के संस्कार से ही होता है), विद्वत संन्यास कहा जाता है। आत्म-तत्व जानने की प्रबल इच्छा से शास्त्र पाठ या साधनादि द्वारा अपना स्वरूप जानने को किसी ब्रह्मज्ञ पुरुष से संन्यास लेकर स्वाध्याय और साधन-भजन करने लगना, इसको विविदिषा संन्यास कहते हैं। संसार के कष्ट, स्वजन-वियोग अथवा अन्य किसी कारण से भी कोई कोई संन्यास ले लेते हैं, परंतु यह वैराग्य दृढ़ नहीं होता, इसका नाम मर्कट संन्यास है। जैसे श्री रामकृष्ण इसके विषय में कहा करते थे, 'वैराग्य हुआ-कहीं दूर देश में जाकर फिर कोई नौकरी कर ली, फिर इच्छा होने पर स्त्री को बुला लिया या दूसरा विवाह कर लिया!' इसके अतिरिक्त चौथे प्रकार का आतुर संन्यास भी होता है-मान लो किसी की मुमुर्षु अवस्था है, रोगशैय्या पर पड़ा है, बचने की कोई आशा नहीं; ऐसे मनुष्य के लिए आतुर संन्यास की विधि है। यदि वह मर जाए तो पवित्र संन्यास व्रत ग्रहण करके मरेगा; दूसरे जन्म में इस पूर्ण के कारण अच्छा जन्म प्राप्त होगा और यदि बच जाए तो फिर संसार में न जाकर ब्रह्मज्ञान के लिए संन्यासी बनकर दिन व्यतीत करेगा। स्वामी शिवानंद जी ने तुम्हारे चाचा को इस आतुर संन्यास की दीक्षा दी थी। तुम्हारे चाचा मर गए, परंतु इस प्रकार से संन्यास लेने के कारण उनको उच्च जन्म मिलेगा। संन्यास के अतिरिक्त आत्मज्ञान लाभ करने का दूसरा उपाय नहीं।

शिष्य-महाराज, गृहस्थों के लिए फिर क्या उपाय है ?

स्वामी जी-सुकृति से किसी न किसी जन्म में उन्हें वैराग्य अवश्य होगा। वैराग्य के आते ही कार्य बन जाता है अर्थात जन्म-मरण की समस्या के पार पहुँचने में देर नहीं होती। परंतु सब नियमों के दो-एक व्यक्तिक्रम भी रहते हैं। गृहस्थ धर्म ठीक ठीक पालन करते हुए भी दो-एक पुरुषों को मुक्त होते देखा गया है; ऐसे हमारे यहाँ नांग महाशय हैं।

शिष्य-महाराज, उपनिषदादि ग्रंथों में भी वैराग्य और संन्यास संबंधी विषाद उपदेश नहीं पाया जाता।

स्वामी जी-पागल के समान क्या बकता है ? वैराग्य ही तो उपनिषद् ज्ञान का चरम लक्ष्य है। परंतु मेरा विश्वास यह है कि भगवान बुद्धदेव के समय से ही भारत में इस त्याग-व्रत का विशेष प्रचार हुआ और वैराग्य तथा संसार-वितृष्णा ही धर्म का चरम लक्ष्य माना गया। बौद्ध धर्म के इस त्याग तथा वैराग्य को हिंदू धर्म ने अपने में लय कर लिया है। भगवान बुद्ध के समान त्यागी महापुरुष पृथ्वी पर और कोई नहीं जन्मा।

शिष्य-तो क्या महाराज, बुद्धदेव के जन्म के पहले इस देश में त्याग और वैराग्य कम था और क्या उस समय संन्यासी नहीं होते थे ?

स्वामी जी-यह कौन कहता है ? संन्यासाश्रम था, परंतु जनसाधारण को विदित नहीं था कि यही जीवन का चरम लक्ष्य है। वैराग्य पर उनकी दृढ़ता नहीं थी, विवेक पर निष्ठा नहीं थी। इसी कारण बुद्धदेव को योगियों और साधुओं के पास जाने पर भी जब कहीं शांति नहीं मिली तब इहासने शुष्यतु में शरीरम् कहकर आत्मज्ञान लाभ करने के लिए वे स्वयं ही बैठ गए और प्रबुद्ध होकर उठे। भारत में संन्यासियों के जो मठ आदि देखते हो, वे सब बौद्ध धर्म के अधिकार में थे। अब हिंदुओं ने उसको अपने रंग में रंगकर अपना कर लिया है। भगवान बुद्धदेव से ही यथार्थ संन्यासाश्रम का सूत्रपात हुआ। वे ही संन्यासाश्रम के मृत ढाँचे में प्राणों का संचार कर गए।

इस पर स्वामी जी के गुरुभाई स्वामी रामकृष्णनंद जी ने कहा, "बुद्धदेव से पहले ही भारत में चारो आश्रमों के प्रचलित होने का प्रमाण संहिता-पुराणादि देते हैं।" उत्तर में स्वामी जी ने कहा, "मन्वादि संहिता, बहुत से पुराण और महाभारत के भी बहुत से अंश अभी उस दिन के हैं। भगवान बुद्ध इनसे बहुत पहले हुए हैं।"

रामकृष्णानंद-यदि ऐसा ही होता तो बौद्ध धर्म की समालोचना वेद, उपनिषद्, संहिता और पुराणों में अवश्य होती। जब इन ग्रंथों में बौद्ध धर्म की आलोचना नहीं पायी जाती, तब आप कैसे कहते हैं कि बुद्धदेव इन सभी के पहले थे ? दो-चार प्राचीन पुराणादि में बौद्ध मत का वर्णन आंशिक रूप में है, परंतु इससे यह नहीं कहा जा सकता कि हिंदुओं के संहिता और पुराणादि अभी उस दिन के शास्त्र हैं।

स्वामी जी-इतिहास पढ़ो तो देखोगे कि हिंदू धर्म बुद्धदेव के सब भावों को पचाकर इतना बड़ा हो गया है। [5]

रामकृष्णानंद-मेरा अनुमान है कि बुद्धदेव त्याग-वैराग्य को अपने जीवन में ठीक अनुष्ठान करके हिंदू धर्म के भावों को केवल सजीव कर गए हैं।

स्वामी जी-परंतु यह कथन प्रमाणित नहीं हो सकता, क्योंकि बुद्धदेव से पहले कोई प्रामाणिक इतिहास नहीं मिलता। इतिहास का ही प्रमाण मानने से यह अवश्य स्वीकार करना होगा कि प्राचीन काल के घोर अंधकार में एकमात्र भगवान् बुद्धदेव ही ज्ञानलोक से प्रदीप्त होकर अवस्थान कर रहे हैं।

अब फिर संन्यास धर्म संबंधी प्रसंग चलने लगा। स्वामी जी ने कहा, "संन्यास की उत्पत्ति कहीं से ही क्यों न हो, इस त्याग-व्रत के आश्रम से ब्रह्मज्ञ होना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। इस संन्यास ग्रहण में ही परम पुरुषार्थ है। वैराग्य त्पन्न होने पर जिनका संसार से अनुराग हट गया है, वे ही धन्य है।"

शिष्य-महाराज, आजकल लोग कहते हैं कि त्यागी संन्यासियों की संख्या बढ़ जाने से देश की व्यावहारिक उन्नति रुक गई है। साधुओं को गृहस्थों का मुखापेक्षी और बेकार होकर चारों ओर फिरते देखकर वे लोग कहते हैं, 'वे (संन्यासी) समाज और स्वदेश की उन्नति में किसी प्रकार सहायक नहीं होते।'

स्वामी जी-मुझे यह तो पहले समझा दो कि लौकिक या व्यावहारिक उन्नति का अर्थ क्या है।

शिष्य-पाश्चात्य देशों में जिस प्रकार विद्या की सहायता से देश में अन्न-वस्त्र का प्रबंध करते हैं, विज्ञान की सहायता से वाणिज्य, शिल्प, पहनावा, रेल, टेलीग्राफ (तार) इत्यादि नाना विषयों कि उत्पत्ति कर रहे हैं, उसी प्रकार यहाँ भी करना।

स्वामी जी-क्या ये बातें मनुष्य में रजोगुण के अभ्युदय हुए बिना ही होती है ? सारे भारत में फिरकर देखा, पर कहीं भी रजोगुण का विकास नहीं पाया, केवल तमोगुण! घोर तमोगुण से सर्वसाधारण लोग भरे हुए हैं। संन्यासियों में ही रजोगुण एवं सतोगुण देखा है। वे ही भारत के मेंरुदंड हैं। सच्चे संन्यासी ही गृहस्थों के उपदेशक हैं। उनहीं से उपदेश और ज्ञानालोक प्राप्त कर प्राचीन काल में गृहस्थ लोग जीवन संग्राम में सफल हुए थे। संन्यासियों को अनमोल उपदेश के बदले गृहस्थ अन्न-वस्त्र देते रहे हैं। यदि ऐसा आदान-प्रदान न होता तो इतने दिनों में भारतवासियों का भी अमेरिका के आदिवासियों के समान लोप हो जाता संन्यासियों को मुट्ठी भर अन्न देने के कारण ही गृहस्थ लोग अभी तक उन्नति के मार्ग पर चले जा रहे हैं। संन्यासी लोग कर्महीन नहीं हैं, वरन् वे ही कर्म के स्रोत हैं। उनके जीवन या कर्म में ऊँचे आदर्शों को परिणत होते देख और उनसे उच्च भावों को ग्रहण कर गृहस्थ लोग इस संसार के जीवन-संग्राम में समर्थ हुए तथा हो रहे हैं। पवित्र संन्यासियों को देखकर गृहस्थ भी उन पवित्र भावों को अपने जीवन में परिणत करते हैं और ठीक ठीक कर्म करने को तत्पर होते हैं। संन्यासी अपने जीवन में ईश्वर तथा जगत् के कल्याण के निमित्त सर्वत्याग रूप तत्व को प्रतिफलित करके गृहस्थों को सब विषयों में उत्साहित करते हैं और इसके बदले वे उनसे मुट्ठी भर अन्न लेते हैं। फिर उसी अन्न को उपजाने की प्रवृत्ति और शक्ति भी देश के लोगों में सर्वत्यागी संन्यासियों के स्नेहाशीर्वाद से ही बढ़ रही है। बिना विचारे ही लोग संन्यास-प्रथा की निंदा करते हैं। अन्य देशों में चाहे जो कुछ क्यों न हो, पर यहाँ तो संन्यासियों के पतवार पकड़े रहने के कारण ही संसार-सागर में गृहस्थों की नौका नहीं डूबने पाती।

शिष्य-महाराज, लोक कल्याण में तत्पर यथार्थ संन्यासी मिलता कहाँ है ?

स्वामी जी-यदि हज़ार वर्ष में भी श्री गुरुदेव के समान कोई संन्यासी महापुरुष जन्म ले लेते हैं तो सब कमी पूरी हो जाती है। वे जिन उच्च आदर्श और भावों को छोड़ जाते हैं, उनके जन्म से सहस्र वर्षों तक लोग उनको ही ग्रहण करते रहेंगे। देश में इस संन्यास प्रथा के होने के कारण ही यहाँ उनके समान महापुरुष जन्म ग्रहण करते हैं। दोष सभी आश्रमों में है, पर किसी में कम और किसी में अधिक। दोष रहने पर भी इस आश्रम को अन्य आश्रमों का शीर्षस्थान प्राप्त हुआ है, इसका कारण क्या है ? सच्चे संन्यासी तो अपनी मुक्ति की भी उपेक्षा करते हैं-जगत के मंगल के लिए ही उनका जन्म होता है। यदि ऐसे संन्यासाश्रम के भी तुम कृतज्ञ न हो तो तुम्हें धिक्कार, कोटी कोटी धिक्कार है।

इन बातों को कहते ही स्वामी जी का मुखमंडल प्रदीप्त हो उठा। संन्यास आश्रम के गौरव प्रसंग से स्वामी जी मानो मूर्तिमान संन्यास रूप में शिष्य के सम्मुख प्रतिभासित होने लगे। इस आश्रम के गौरव को मन ही मन अनुभव कर मानो अंतर्मुखी होकर वे अपने आप ही मधुर स्वर से आवृत्ति करने लगे-

वेदांत वाक्येषु सदा रमन्त: भिक्षान्नमात्रेण च तुष्टिमन्त:।

अशोकमन्त:करणे चरन्त: कौपीनवन्त: खलु भाग्यवन्त:।।

फिर कहने लगे, "बहुजनहिताय बहुजनसुखाय ही संन्यासियों का नाम जन्म होता है। संन्यास ग्रहण करके जो इस ऊँचे लक्ष्य से भ्रष्ट हो जाता है, उसका तो जीवन ही व्यर्थ है-वृथैव तस्य जीवनम्। जगत में संन्यासी क्यों जन्म लेते हैं ? औरों के निमित्त अपना जीवन उत्सर्ग करने, जीव के आकाशभेदी क्रंदन को दूर करने, विधवा के आँसू पोंछने, पुत्र वियोग से पीड़ित अबलाओं के मन को शांति देने, सर्वसाधारण को जीवन-संग्राम में समक्ष करने, शास्त्र के उपदेशों को फैलाकर सबका ऐहिक और परमार्थिक मंगल करने और ज्ञानालोक से सबके भीतर जो ब्रह्मसिंह सुप्त है, उसे जाग्रत करने।"

फिर अपने संन्यासी भाइयों को लक्ष्य करके कहने लगे, "आत्मनो मोक्षाथ जगद्धिताय च हम लोगों का जन्म हुआ है। बैठे बैठे क्या कर रहे हो ? उठो, जागो, स्वयं जगकर औरों को जगाओ। अपने नर जन्म को सफल करो, उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत (उठो जागो, और तब तक रुको नहीं, जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए)।"

१२

[ स्थान: स्व० बलराम बसु का भवन, कलकत्ता।

(वर्ष: १८९८ ई॰)]

स्वामी जी आज दो दिन से बागबाज़ार में स्व० बकराम बसु के भवन में ठहरे हुए हैं। अत: शिष्य को विशेष सुभीता होने वह प्रतिदिन वहाँ आता-जाता रहता है। आज सायंकाल से कुछ पहले स्वामी जी छत पर टहल रहे हैं। उसके साथ शिष्य और अन्य चार पाँच लोग भी हैं। आज बड़ी गर्मी है; स्वामी जी के शरीर पर कोई वस्त्र नहीं है। मंद मंद दक्षिणी पवन चल रहा है। टहलते टहलते स्वामी जी ने गुरु गोविन्दसिंह का प्रसंग आरंभ किया और ओजस्विनी भाषा में कुछ कुछ वर्णन करते हुए बतलाने लगे कि किस प्रकार उनके त्याग, तपस्या, तितिक्षा और प्राण-नाशक परिश्रम के फल से ही सिक्खों का पुनरुत्थान हुआ था, उन्होंने किस प्रकार मुसलमान धर्म में दीक्षित लोगों को भी दीक्षा दी और हिंदू बनाकर सिक्ख जाति में मिला लिया तथा किस प्रकार उन्होंने नर्मदा के तट पर अपनी मानव-लीला समाप्त की। गुरु गोविन्द सिंह द्द्वारा दीक्षित जनों में उस समय कैसी एक महान शक्ति का संचार होता था, उसका उल्लेख कर स्वामी जी ने सिक्खों में प्रचलित एक दोहा सुनाया-

सवा लाख से एक लड़ाऊँ।

तो गोविन्द सिंह नाम कहाऊँ।।

अर्थात गुरु गोविन्द सिंह से नाम (दीक्षा) सुनकर प्रत्येक मनुष्य में सवा लाख मनुष्य से अधिक शक्ति संचारित होती थी। उनसे दीक्षा ग्रहण करने पर उनकी शक्ति से यथार्थ धर्मप्रणता उपस्थित होती थी और प्रत्येक शिष्य का हृदय ऐसे वीर भाव से पूरित हो जाता था कि वह उस समय सवा लाख विधर्मियों को पराजित कर सकता था। धर्म की महिमा बखानने वाली बातों को कहते कहते उनके उत्साहपूर्ण नेत्रों से मानो तेज निकाल रहा था। श्रोतागण निस्तब्ध होकर स्वामी जी के मुख की ओर टकटकी लगाकर देखने लगे। स्वामी जी में कैसा अद्भुत उत्साह और शक्ति थी। जब जिस प्रसंग को लेते थे, तब उसी में ऐसे तन्मय हो जाते थे मानों उन्होंने उसी विषय को अन्य सब विषयों से बड़ा ठहरा लिया और उसे लाभ करना ही मनुष्य जीवन का एकमात्र लक्ष्य है। कुछ देर बाद शिष्य ने कहा, "महाराज, गुरु गोविन्द सिंह ने हिंदू और मुसलमान दोनों को अपने धर्म में दीक्षित करके एक ही उद्देश्य पर चलाया था, यह बड़ी अद्भुत घटना है। भारत के इतिहास में ऐसा दूसरा दृष्टांत नहीं पाया जाता।"

स्वामी जी-जब तक लोग अपने में एक ही प्रकार के ध्येय का अनुभव नहीं करेंगे, तब तक कभी एक सूत्र से आबद्ध नहीं हो सकते। जब तक उनका ध्येय एक न हो, तब तक सभा, समिति और वक्तृता से साधारण लोगों को एक नहीं किया जा सकता। गुरु गोविन्द सिंह ने उस समय क्या हिंदू, क्या मुसलमान सभी को समझा दिया था कि वे सब लोग कैसे घोर अत्याचार तथा अविचार के राज्य में बस रहे हैं। गुरु गोविन्द सिंह ने किसी प्रकार के नए ध्येय की सृष्टि स्वयं नहीं की। केवल सर्वसाधारण जनता का ध्यान इनकी ओर आकर्षित कर दिया था। इसलिए हिंदू-मुसलमान सब उनको मानते हैं। वे शक्ति के साधक थे। भारत के इतिहास में उनके समान बिरला ही दृष्टांत मिलेगा। इसके बाद रात्रि के अधिक होने पर स्वामी जी सबके साथ नीचे की बैठक में उतर आए। उनके आसन ग्रहण करने पर सब उन्हें फिर घेरकर बैठ गए। अब सिद्धाई का प्रसंग आरंभ हुआ। स्वामी जी बोले, "सिद्धाई या विभूति मन के थोड़े ही संयम से प्राप्त हो जाति है।" शिष्य को लक्ष्य करके बोले, "क्या तू औरों के मन की बात जानने की विद्या सीखेगा ? चार ही पाँच दिन में तुझे यह सिखला सकता हूँ।"

शिष्य-इससे क्या उपकार होगा ?

स्वामी जी-क्यों ? औरों के मन की बात जान सकेगा।

शिष्य-क्या इससे ब्रह्मविद्या लाभ करने में कोई सहायता मिलेगी ?

स्वामी जी-कुछ भी नहीं।

शिष्य-तब वह विद्या सीखने से मेरा कोई प्रयोजन नहीं। परंतु आपने सिद्धाई के विषय में जो कुछ प्रत्यक्ष किया है या देखा है, उसको सुनने की इच्छा है।

स्वामी जी-एक बार मैं हिमालय में भ्रमण करते समय किसी पहाड़ी गाँव में एक रात्रि के लिए ठहर गया था। सायंकाल होने पर गाँव में ढ़ोल का शब्द सुना तो घरवाले से पूछने पर मालूम हुआ कि किसी मनुष्य पर 'देवता चढ़ा' है। घरवाले के आग्रह से और अपना कौतुक निवारण करने के लिए मैं देखने गया। जाकर देखा कि बड़ी भीड़ लगी है। उसने लम्बे घुँघराले बालवाले एक पहाड़ी को दिखाकर कहा कि इसी पर देवता चढ़ा है। मैंने देखा कि उसके पास ही एक कुल्हाड़ी को आग में लाल कर रहे थे। फिर देखा कि उस लाल कुल्हाड़ी से उस देवताविष्ट मनुष्य के शरीर को स्थान स्थान पर जला रहे हैं। परंतु आश्चर्य यह था कि न तो उसका कोई अंग या बाल जलता था, न उसके चेहरे से कोई कष्ट का चिह्न प्रकट होता था। मैं तो देखते ही निर्वाक रह गया। इसी समय गाँव के मुखिया ने मेरे पास आकार हाथ जोड़कर कहा, "महाराज, आप कृपया इसका भूत उतार दीजिए।" मैं तो यह बात सुनकर घबड़ा गया। पर क्या करता,सबके कहने पर मुझे उस देवताविष्ट मनुष्य के पास जाना पड़ा परंतु जाकर उस कुल्हाड़ी की परीक्षा करने की इच्छा हुई। उसमें हाथ लगते ही मेरा हाथ झुलस गया। तब तो मुझे कुल्हाड़ी तनिक काली भी पड़ गई थी तो भी मारे जलन के मैं बेचैन हो गया। जो कुछ मेरी तर्कयुक्ति थी, सब लोप हो गई। क्या करता, जलन के मारे व्याकुल होकर भी उस मनुष्य के सिर पर अपना हाथ रखकर कुछ देर जप किया। परंतु आश्चर्य यह कि ऐसा करने से १०-१२ मिनट में ही वह अच्छा हो गया। तब गाँव वालों की मेरे प्रति भक्ति का क्या ठिकाना! वे तो मुझे भगवान ही समझने लगे! परंतु मैं इस घटना को कुछ भी नहीं समझ सका। बाद में भी कुछ नहीं जान अंत में मैं और कुछ न कहकर घरवाले के साथ झोपड़ी में लौट आया। तब रात के कोई बारह बजे होंगे। आते ही लेट गया, परंतु जलन के मारे और इस घटना का कोई भेद न निकाल सकने के कारण नींद नहीं आई। जलती हुई कुल्हाड़ी से मनुष्य का शरीर दग्ध नहीं हुआ यह सोचकर चिंता करने लगे,' there are more things in heaven and earth than dreamt of in your philosophy' 'पृथ्वी और स्वर्ग में ऐसी अनेक घटनाएँ हैं, जिनका संधान दर्शनशास्त्रों ने स्वप्न में भी नहीं पाया।

शिष्य-बाद में क्या आप इस विषय का रहस्य जान सके थे ?

स्वामी जी-नहीं, आज ही बातों बातों में वह घटना स्मरण हो आयी, इसलिए तुझसे कह दिया।

फिर स्वामी जी कहने लगे, "श्री रामकृष्ण सिद्धाइयों की बड़ी निंदा किया करते थे। वे कहा करते थे कि इन शक्तियों के प्रकाश की ओर मन लगाए रखने से कोई परमार्थ को नहीं पहुँचता; परंतु मनुष्य का मन ऐसा दुर्बल है कि गृहस्थों का तो कहना ही क्या, साधुओं में भी चौदह आने लोग सिद्धाईके उपासक होते हैं। पाश्चात्य देशों में इन जादुओं को देखकर निर्वाक् हो जाते हैं। सिद्धाई लाभ करना बुरा है और वह धर्म-पाठ में विघ्न डालता है। श्री रामकृष्ण के कृपापूर्वक समझाने के कारण ही मैं यह बात समझ सका हूँ। क्या तुमने देखा नहीं कि श्री गुरुदेव की संतानों में से कोई उधर ध्यान नहीं देता ?" इतने में स्वामी योगानंद ने स्वामी जी से कहा, "मद्रास में एक ओझा से जो तुम्हारी भेंट हुई थी, वह कहानी इस गँवार को सुनाओ।"

शिष्य ने इस विषय को पहले नहीं सुना था। इसलिए उसे कहने के लिए स्वामी जी से आग्रह करने लगा। तब स्वामी जी ने उससे कहा, "मद्रास में मैं जब मन्मथ बाबू के भवन में था, तब एक रात स्वप्न में देखा कि माता जी का देहांत हो गया है। मन में बड़ा दु:ख हुआ। उस समय मठ को ही बहुत कम पत्र आदि भेजा करता था, तो घर कि बात तो दूर रही। स्वप्न कि बात मन्मथ बाबू से कहने पर उन्होंने उसकी जाँच करने के लिए कलकत्ते को तार भेजा; क्योंकि स्वप्न देखकर मन बहुत ही घबड़ा रहा था। इधर मद्रास के मित्रगण मेरे अमेरिका जाने का सब प्रबंध करके जल्दी मचा रहे थे। परंतु माता जी की कुशलक्षेम का संवाद न मिलने से मेरा मन जाने को नहीं चाहता था। मेरे मन की अवस्था देखकर मन्मथ बाबू मुझसे बोले, 'देखो, नगर से कुछ दूर पर एक पिशाच-सिद्ध मनुष्य है, वह जीव के भूत-भविष्य, शुभ-अशुभ सब बातें बतला सकता है।' मन्मथ बाबू की प्रार्थना से और अपने मानसिक उद्वेग को दूर करने के निमित्त मैं उसके पास जाने के लिए राजी हुआ। मन्मथ बाबू, मैं, आलासिंगा तथा एक और सज्जन कुछ दूर तक रेल से गए। फिर पैदल चलकर वहाँ पहुँचे। पहुँचकर क्या देखा कि म के पास विकट आकार का मृतक सा, सूखा, बहुत काले रंग का एक मनुष्य बैठा है। उसके अनुचरगण ने 'किंड़ी-मिंडी' कर मद्रासी भाषा में समझा दिया कि वही पिशाच-सिद्ध पुरुष है। प्रथम तो उसने हम लोगों पर कोई ध्यान नहीं दिया। फिर जब हम लौटने को हुए, तब हम लोगों से ठहरने के लिए विनय की। हमारे साथी आलासिंगा ने ही उसकी भाषा हमें, तथा हमारी भाषा उसे समझने का कार्य किया। उसने ही हम लोगों से ठहरने को कहा। फिर एक पेंसिल लेकर वह पिशाच-सिद्ध मनुष्य कुछ समय तक न जाने क्या लिखता रहा। फिर देखा कि वह मन को एकाग्र करके बिल्कुल स्थिर हो गया, उसके बाद मेरा नाम, गोत्र इत्यादि चौदह पीढ़ी तक की बातें बतलायी और कहा कि श्री रामकृष्ण मेरे साथ सर्वदा फिर रहे हैं। माता जी का मंगल समाचार भी बतलाया। और यह भी कहा कि धर्मप्रचार के लिए मुझे शीघ्र ही बहुत दूर जाना पड़ेगा। इस प्रकार माता जी का कुशल मंगल मिल जाने पर मन्मथ बाबू के साथ शहर लौटा। यहाँ पहुँचकर कलकत्ते से तार के जवाब में भी माता जी का कुशल मंगल मिल गया।"

स्वामी योगानंद को लक्ष्य करके स्वामी जी बोले, "परंतु उस पुरुष ने जो कुछ बतलाया था वह सब पूरा हुआ। यह 'काकतालीय' के समान ही हो या और किसी प्रकार से हो गया हो।"

इसके उतर में स्वामी योगानंद बोले, "तुम पहले इन सब बातों पर विश्वास नहीं करते थे, इसीलिए तुम्हें यह सब दिखलाने की आवश्यकता थी।"

स्वामी जी-मैं क्या बिना देखे-भले किसी पर विश्वास करता ? मैं तो ऐसा मनुष्य ही नहीं हूँ। महामाया के राज्य में आकार जगद्रुपी जादू के साथ साथ और कितने ही जादू देखने में आए। माया! माया!! अब राम कहो, राम कहो! आज कैसी कैसी फिजूल बातें हुई। भूत-प्रेत की चिंता करने से लोग भूत-प्रेत ही बन जाते हैं, और जो रात-दिन जानकार या न जानकार भी कहते हैं, 'मैं नित्य-शुद्ध-बुद्ध मुक्तात्मा हूँ', वे ही ब्रह्मज्ञ होते हैं। यह कहकर स्वामी जी शिष्य को स्नेह से लक्ष्य करके कहने लगे, "इन सब व्यर्थ की बातों को मन में तिल मात्र भी स्थान न दो। सदैव सत् और असत् का ही विचार करो; आत्मा को प्रत्यक्ष करने के निमित्त प्राण-पण से यत्न करो। आत्मज्ञान से श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं है। और जो कुछ है वह सभी माया है, जादू है। एक प्रत्यगात्मा ही ध्रुव सत्य है। इस बात की यथार्थता मैं ठीक ठीक समझ गया हूँ। इसीलिए तुम सबको समझाने की चेष्टा भी करता हूँ। एकमेवाद्वयं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन।"

बात करते करते रात के ११ बज गए। इसके बाद स्वामी जी भोजन कर विश्राम करने चले। शिष्य भी स्वामी जी के चरण-कमलों में दंडवत कर विदा हुआ। स्वामी जी ने पूछा, "कल फिर आएगा न ?" शिष्य- जी महाराज, अवश्य आऊँगा। प्रतिदिन आपके दर्शन न होने से चित्त व्याकुल हो जाता है। स्वामी जी-अच्छा तो जाओ। रात अधिक हो गई है।

शिष्य स्वामी जी की बातों पर विचार करता हुआ रात के १२ बजे तक घर लौटा।

१३

(स्थान: बेलुड़ किराये का मठ। वर्ष: १८९८ ई॰)

जिस वर्ष स्वामी जी इंग्लैंड से लौटे थे उस वर्ष दक्षिणेश्वर में राणी रासमणि के काली मंदिर में श्री रामकृष्ण का जन्मोत्सव हुआ था। परंतु अनेक कारणों से अगले वर्ष यह उत्सव यहाँ नहीं हो पाया और मठ को भी आलमबाज़ार से बेलुड़ में गंगा जी के तट पर नीलांबर मुखोपाध्याय की वाटिका को किराये पर लेकर वहाँ हटाया गया। इसके कुछ ही दिन पाश्चात्य वर्तमान मठ के निमित्त जमीन मोल ली गई, किंतु इस वर्ष यहाँ जन्मोत्सव नहीं हो सका, क्योंकि यह स्थान समतल नहीं हुआ था और जंगल से भी भरा था। इसलिए इस वर्ष का जन्मोत्सव बेलुड़ में दो बाबुओं की ठाकुरबाड़ी में हुआ। परंतु श्री रामकृष्ण की जन्मतिथि पूजा जो फाल्गुन की द्वितीया को होती है, वह नीलांबर बाबू की बाटिका में ही हुई और इसके दो-एक दिन बाद ही श्री रामकृष्ण की मूर्ति इत्यादि का प्रबंध करके शुभ मुहूर्त में नई भूमि पर पूजा-हवन इत्यादि कर उसकी प्रतिष्ठा की गई। इस समय स्वामी जी नीलांबर बाबू की वाटिका में ठहरे हुए थे। जन्म-तिथि पूजा के निमित्त बड़ा आयोजन था। स्वामी जी के आदेशानुसार पूजागृह बड़ी उत्तम सामग्रियों से परिपूर्ण था। स्वामी जी उस दिन स्वयं ही सब चीज़ों की देखभाल कर रहे थे।

जन्मतिथि के दिन प्रत:काल से ही सब लोग आनंदित हो रहे थे। भक्तों के मुँह में श्री रामकृष्ण के प्रसंग के अतिरिक्त और कोई प्रसंग न था। अब स्वामी जी पूजाघर के सम्मुख खड़े होकर पूजा का आयोजन देखने लगे।

इन सब की देखभाल करने के पश्चात स्वामी जी ने शिष्य से पूछा, ''जनेऊ ले आए हो न ?"

शिष्य-जी हाँ, आपके आदेशानुसार सब सामग्री प्रस्तुत इतने जनेऊ मँगवाने का कारण मेरी समझ में नहीं आया।

स्वामी जी-प्रत्येक द्विजाति का ही उपनयन संस्कार में अधिकार है। स्वयं वेद इसका प्रमाण है। आज श्री रामकृष्ण की जन्मतिथि में जो लोग यहाँ आएंगे, मैं उन सबको जनेऊ पहनाऊँगा। वे सब व्रात्य (संस्कार से पतित) हो गए हैं। शास्त्र कहता है कि प्रायश्चित्त करने से व्रात्यों का फिर उपनयन संस्कार में अधिकार हो जाता है। आज श्री गुरुदेव का शुभ जन्म-तिथि पूजन है-उनके नाम से वे सब शुद्ध पवित्र हो जाएंगे। इसलिए आज उन उपस्थित भक्तगणों को जनेऊ पहनाना है। समझे ?

शिष्य-मैं आपके आदेश से बहुत से जनेऊ लाया हूँ। पूजा के अंत में समागत भक्तों की अपनी आज्ञानुसार पहना दूँगा।

स्वामी जी-ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्य भक्तों को इस प्रकार गायत्री मंत्र बतला देना। (यहाँ स्वामी जी ने शिष्य से क्षत्रिय आदि द्विजातियों का गायत्री मंत्र बतला दिया)। क्रमश: देश के सब लोगों को ब्राहमण पद पर आरूढ़ करना होगा; श्री गुरुदेव के भक्तों का तो कहना ही क्या है ? हिंदू मात्र एक दूसरे के भाई हैं। 'इसे नहीं छूते, उसे नहीं छूते', कहकर ही तो हमने इनको ऐसा बना दिया है। इसीलिए तो हमारा देश हीनता, भीरुता, मूर्खता तथा कापुरुषता की चरम अवस्था को प्राप्त हुआ है। इनको उठाना होगा, इन्हें अभय वाणी सुनानी होगी, बतलाना होगा कि तुम भी हमारे समान मनुष्य हो, तुम्हारा भी हमारे ही समान सब अधिकार है। समझे ?

शिष्य-जी महाराज। स्वामी जी-अब जो लोग जनेऊ पहनेंगे, उनसे कह दो कि वे गंगा जी में स्नान कर आयें। फिर श्री रामकृष्ण को प्रणाम कर वे जनेऊ पहनेंगे। स्वामी जी के आदेशानुसार समागत भक्तों में से कोई चालीस पचास लोगों ने गंगा स्नान कर शिष्य से गायत्री मंत्र सीख कर जनेऊ पहन लिए। मठ में बड़ी चहल-पहल मच गई। भक्तगणों ने जनेऊ धारण कर श्री रामकृष्ण को पुन: प्रणाम किया और स्वामी जी के चरण-कमलों की भी वंदना की। स्वामी जी का मुखारबिंद उनको देखकर मानो सौ गुना प्रफुल्लित हो गया। इसके कुछ ही देर पश्चात श्री गिरीशचन्द्र घोष मठ में आ पहुँचे।

अब स्वामी जी की आज्ञा से संगीत का आयोजन होने लगा और मठ के संन्यासी लोग स्वामी जी को अपने इच्छानुसार सजाने लगे। उनके कानों में शंख का कुंडल, सर्वांग में कर्पूर के समान श्वेत पवित्र विभूति, मस्तक पर आपादलंबित जटाभार, वाम हस्त में त्रिशूल, दोनों बाहों में रुद्राक्ष की माला और गले में आजानुलंबित तीन लड़ की बड़े रुद्राक्ष की माला आदि पहनायीं। यह सब धारण करने पर स्वामी जी का रूप ऐसा शोभायमान हुआ कि उसका वर्णन करना संभव नहीं। उस दिन जिन लोगों ने उनकी इस मूर्ति का दर्शन किया था, उन्होंने एक स्वर से कहा था कि साक्षात कालभैरव स्वामी-शरीर रूप में पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए हैं। स्वामी जी ने भी अन्य सब संन्यासियों के शरीर में विभूति लगा दी। उन्होंने स्वामी जी के चारों ओर सदेह भैरवगण के समान स्थित होकर, मठ-भूमि पर कैलाश पर्वत की शोभा का विस्तार किया। आज भी उस दृश्य का स्मरण हो आने से बड़ा आनंद आता है।

अब स्वामी जी पश्चिम दिशा की ओर मुँह फेरे हुए मुक्त पदासन में बैठ कर कूजन्तं रामरामेति स्त्रोत धीरे-धीरे उच्चारण करने लगे और अंत में 'राम राम श्री राम राम' बारंबार कहने लगे। ऐसा अनुमान होता था कि मानो प्रत्येक अक्षर से अमृत धारा बह रही है। स्वामी जी के नेत्र अर्धनिमीलित थे और वे हाथ से तानपूरे में स्वर दे रहे थे। कुछ देर तक मठ में 'राम राम श्री राम राम' ध्वनि के अतिरिक्त और कुछ भी सुनने में नहीं आया। इस प्रकार लगभग आधे घंटे से भी अधिक समय व्यतीत हो गया, तब भी किसी के मुँह से अन्य कोई शब्द नहीं निकला। स्वामी जी के कंठ से नि:सृत रामनाम सुधा को पान कर आज सब मतवाले हो गए हैं। शिष्य विचार करने लगा, क्या सचमुच ही स्वामी जी शिव के भाव से मतवाले होकर रामनाम ले रहे हैं ? स्वामी जी के मुख का स्वाभाविक गांभीर्य मानो आज सौ गुना हो गया है। अर्धनिमीलित नेत्रों से मानो बाल सूर्य कि प्रभा निकाल रही है और नशे में मानो उनका सुंदर शरीर झूम रहा है। इस रूप का वर्णन करना अथवा किसी को समझाना संभव नहीं। इसका केवल अनुभव ही किया जा सकता है। दर्शकगण चित्र के समान स्थिर बैठे रहे.

राम नाम कीर्तन के अंत में स्वामी जी उसी प्रकार मतवाली अवस्था में ही गाने लगे-सीतापति रामचन्द्र रघुपति रघुराई। साथ देने वाला अच्छा न होने के कारण स्वामी जी का कुछ रसभंग होने लगा। अत: स्वामी सारदानंद को गाने का आदेश देकर स्वामी जी स्वयं पखावज बजाने लगे। स्वामी सारदानंद ने पहले एक रूप अरूप नाम वरण गीत गया। स्वामी सारदानंद ने पहले एक रूप अरूप नाम वरन गीत गाया। पखावज के स्निग्ध गंभीर घोष से गंगा जी मानो उछलने लगीं और स्वामी शारदानंद के सुंदर कंठ और साथ ही मधुर अलाप से सारा गृह भर गया। तत्पश्चात् श्री रामकृष्ण स्वयं जिन गीतों को गाते थे, क्रमश: वे गीत भी होने लगे।

अब स्वामी जी एकाएक अपनी वेश-भूषा को उतार कर बड़े आदर से गिरीश बाबू को उससे सजाने लगे। गिरीश बाबू के विशाल शरीर में अपने हाथ से भस्म लगाकर, कानों में कुंडल, मस्तक पर जटाभार, कंठ और बाहों में रुद्राक्ष की माला पहनाने लगे। गिरीश बाबू इस वेश में एक नवीन मूर्ति में प्रकाशमान हुए। भक्तगण इसको देखकर अवाक् हो गए। फिर स्वामी जी बोले, "श्री रामकृष्ण कहा करते थे की गिरीश भैरव का अवतार है और हममें और उसमें कोई भेद नहीं है।" गिरीश बाबू चुप बैठे रहे। उनके संन्यासी गुरुभाई जैसे चाहें उनको सजायें, उन्हें सब स्वीकार है। अंत में स्वामी जी के आदेशानुसार एक गेरुआ वस्त्र मंगवाकर गिरीश बाबू को पहनाया गाया। गिरीश बाबु ने कुछ भी माना नहीं किया। गुरुभाइयों के इच्छानुसार अपने शरीर को उन्हीं के हाथ में छोड़ दिया। अब स्वामी जी ने कहा, "जी. सी., तुमको आज गुरुदेव की कथा सुनानी होगी।" औरों को लक्ष्य करके कहा, "तुम लोग सब स्थिर होकर बैठो। अभी तक गिरीश बाबू के मुँह से कोई शब्द नहीं निकला। जिनके जन्मोत्सव में आज हम सब लोग एकत्र हुए हैं, उनकी लीला और उनके भक्तों का दर्शन कर वे आनंद से जड़वत हो गए हैं।" अंत में गिरीश बाबू बोले, "दयामय श्री गुरुदेव की कथा मैं और क्या कहूँ ? उन्होंने इस अधम को तुम्हारे समान काम-कांचन त्यागी बाल संन्यासी के साथ एक ही आसन पर बैठने का जो अधिकार दिया है, इससे ही उनकी अपार करुणा का अनुभव कर रहा हूँ।" इन बातों को कहते कहते उनका गला भर आया और फिर उस दिन वे कुछ भी न कह सके। इसके बाद स्वामी जी ने कई एक हिंदी गीत गाये, 'बैयाँ न पकड़ो मोरी नरम कलैयाँ', 'प्रभु मेरे अवगुन चित न धरो' इत्यादि। शिष्य संगीत विद्या में ऐसा पूर्ण पंडित था कि गीत का एक वर्ण भी उसकी समझ में नहीं आया! केवल स्वामी जी के मुँह की ओर टकटकी लगाकर देखता ही रहा! अब प्रथम पूजा संपन्न होने पर जलपान के निमित्त भक्तगण बुलाये गए। जलपान के पश्चात स्वामी जी नीचे की बैठक में जाकर बैठे। आए हुए भक्‍तगण भी उनको वहाँ घेरकर बैठ गए। उपवीतधारी किसी गृहस्‍थ को संबोधित कर स्‍वामी जी ने कहा 'तुम यथार्थ में द्विजाति हो, बहुत दिनों से व्रात्‍य हो गए थे। आज से फिर द्विजाति बने। अब प्रतिदिन कम से कम सौ बार गायत्री मंत्र जपना। समझे?' गृहस्‍थ ने, 'जैसी आज्ञा महाराज की' कहकर स्‍वामी जी की आज्ञा शिरोधार्य कर ली। इस अवसर पर श्री महेन्द्रनाथ गुप्‍त' आ पहुँचे। स्‍वामी जी मास्‍टर महाशय को देख बड़े स्‍नेह से उनका सत्‍कार करने लगेा महेन्द्र बाबू भी उनको प्रणाम कर एक कोने में जाकर खड़े र‍हे। स्‍वामी जी के बार-बार कहने पर भी संकोच से वहीं बैठ गए।

स्‍वामी जी-मास्‍टर महाशय, आज श्री रामकृष्‍ण का जन्‍म दिन है, आपको हम लोगों को उनकी कथा सुनानी होगी।

मास्‍टर महाशय मुस्‍कुराकर सिर झुकाये ही रहे। इसी बीच स्‍वामी अखण्डानंद [6] मुर्शिदाबाद से लगभग १II मन के दो पंतुआ (एक प्रकार की बंगाली मिठाई) बनवाकर साथ लेकर मठ में आ पहुँचे इतने बड़े दो पंतुओं को देखने सब दौड़े। अखण्डानंद जी को वह मिठाई सबको दिखलायी। फिर स्‍वामी जी ने कहा, 'जाओ, इसे श्री रामकृष्‍ण के मंदिर में रख आओ।'

स्‍वामी अखण्डानंद को लक्ष्‍य करके स्‍वामी जी शिष्‍य से कहने लगे, 'देखो कैसा कर्मवीर है! भय, मृत्‍यु आदि का कुछ भी ज्ञान ही नहीं। बहुजनहिताय बहु-जनसुखाय अपना कार्य धीरज के साथ और एक चित्त से कर रहा है।'

शिष्‍य-अधिक तपस्‍या के फल से ऐसी शक्ति उनमें आयी होगी।

स्‍वामी जी-तपस्‍या से शक्ति उत्पन्न होती है, यह सत्‍य है किंतु दूसरों के निमित्त कर्म करना ही तपस्‍या है। कर्मयोगी कर्म को तपस्‍या का एक अंग कहते हैं। जैसे तपस्‍या से परहित की इच्‍छा बलवान होकर साधकों से कर्म कराती है, वैसे ही दूसरों के निमित्त कार्य करते-करते तपस्‍या फल के रूप में होती है। चित्त-शुद्धि और परमात्‍मा का दर्शन प्राप्‍त होता है।

शिष्‍य-परंतु महाराज, दूसरों के निमित्त पहले से ही कितने मनुष्‍य प्राणपण से कार्य कर सकते हैं? वह उदारता मन में पहले से ही कैसे आएगी जिससे मनुष्‍य आत्‍मसुख की इच्‍छा को बलि औरों के निमित्त जीवन दान करता है ?

स्‍वामी जी-और तपस्‍या करने में ही कितने मनुष्‍यों का मन लगता है ? कामिनीकांचन के आकर्षण में पड़कर कितने मनुष्‍य भगवान लाभ करने की इच्‍छा करते हैं ? तपस्‍या जैसी कठिन है, निष्‍काम कर्म भी वैसा ही कठिन है। अतएव औरों के मंगल के लिए जो लोग कार्य करते हैं, उनके विरुद्ध तुझे कुछ कहने का अधिकार नहीं है। तुझे यदि तपस्‍या अच्‍छी लगे तो तू किये जा। परंतु यदि किसी को कर्म ही अच्‍छा लगे तो उसे रोकने का तुझे क्‍या अधिकार है ? तू क्‍या यही सोच बैठा है कि कर्म तपस्‍या नहीं है ?

शिष्‍य-जी महाराज। पहले मैं तपस्‍या का अर्थ कुछ और समझता था।

स्‍वामी जी-जैसे साधन-भजन का अभ्‍यास करते-करते उसे पर दृढ़ता हो जाती है, वैसे ही पहले अनिच्‍छा के साथ कर्म करते-करते भी क्रमश: ह्दय उसी में मग्‍न हो जाता है और परार्थ कार्य करने प्रवृत्ति होती है, समझे ? तुम एक बार अनिच्छा के साथ ही औरों की सेवा कर देखा न, फिर देखो तपस्‍या का फल प्राप्‍त होता है या नहीं। परार्थ कर्म करने के फल से मन का टेढ़ापन नष्‍ट हो जाता है और वह मनुष्‍य निष्‍कपट भाव से औरों के मंगल के लिए प्राण देने को भी तैयार हो जाता है।

शिष्‍य-परंतु महाराज, परहित का प्रयोजन क्‍या है ?

स्‍वामी जी-अपना ही हित साधन। यदि तुम यह सोचो कि तुमने इस शरीर को जिसका अहंभाव लिये बैठे हो, दूसरों के निमित्त उत्‍सर्ग कर दिया है जो तुम इस अहंभाव को भी भूल जाओगे और अंत में विदेह बुद्धि आ जाएगी। एकाग्र चित्त से औरों के लिए जितना सोचोगे उतना ही अपने अहंभाव को भूलोगे। इस प्रकार कर्म करने पर जब क्रमश: चित्तशुद्धि हो जाएगी, तब इस तत्‍व की अनुभूति होगी कि अपनी ही आत्‍मा सब जीवों तथा घटों में विराजमान है। औरों का हित करना आत्‍मविकास का एक उपाय है-एक पथ है। इसे भी एक प्रकार की ईश्‍वर साधना जानना। इसका भी उद्देश्‍य आत्‍मविकास है। ज्ञान, भक्ति आदि की साधना से जैसा आत्‍मविकास होता है, परार्थ कर्म करने से भी वैसा ही होता है।

शिष्‍य-किंतु महाराज, यदि मैं रात दिन औरों की चिंता में लगा रहूँ तो आत्‍मचिंतन कब करूंगा ? किसी एक विशेष भाव को पकड़े रहने से अभावात्‍मक आत्‍मा का साक्षात्कार कैसे होगा?

स्‍वामी जी-आत्‍मज्ञान लाभ ही समस्‍त साधनाओं का, सारे पथों का मुख्‍य उद्देश्‍य है। तुम सेवापरायण होकर कर्मफल से चित्तशुद्धि प्राप्‍त करो। यदि सब जीवों का आत्‍मव देख सको तो आत्मदर्शन होने में रह ही क्‍या गया? आत्‍मदर्शन का अर्थ जड़के समान एक दीवाल या लकड़ी के समान पड़ा रहना तो नहीं है।

शिष्‍य-माना ऐसा नहीं है, परंतु शास्‍त्र में समस्‍त वृत्ति और सारे कर्म के निरोध को ही तो आत्‍मा का स्‍व-स्‍वरूप अवस्‍थान कहा है।

स्‍वामी जी-शास्‍त्र में जिस अवस्था को समाधि कहा गया है, यह अवस्था तो सहज में हर एक को प्राप्‍त नहीं होती। और किसी को हुई भी तो अधिक समय तक टिकती नहीं है। तब बताओ वह किस प्रकार समय बितायेगा? इसलिए शास्‍त्रोक्‍त अवस्‍था लाभ करने के बाद साधक प्रत्‍येक भूत में आत्‍मदर्शन कर अभिन्‍न ज्ञान से सेवापरायण बनकर अपने प्रारब्‍ध को नष्‍ट कर देते हैं। इस अवस्था को शास्‍त्रकार जीवन्‍मुक्‍त अवस्‍था कह गए हैं।

शिष्‍य-महाराज, इससे तो यही सिद्ध होता है कि जीवन्‍मुक्‍त अवस्था को प्राप्‍त करने से कोई भी ठीक-ठीक परार्थ कार्य नहीं कर सकता।

स्‍वामी जी-शास्‍त्र में यह बात है। फिर यह भी है कि परार्थ सेवापरायण होते-होते साधक को जीवन्‍मुक्‍त अवस्‍था प्राप्‍त होती है। नहीं शास्‍त्र में कर्मयोग के नाम से एक भिन्‍न पथ के उपदेश का कोई प्रयोजन नहीं था।

शिष्य यह सब बातें समझकर अब चुप हो गया। स्‍वामी जी ने भी इस प्रसंग को छोड़कर अपने कल कण्ठ से एक गीत गाना आरंभ किया।

गिरीश बाबू तथा अन्‍य भक्‍तगण भी उनके साथ उसी गीत को गाने लगे। 'जगत् को तापित लख कातर हो' इत्‍यादि पद को बार-बार गाने लगे। इस प्रकार 'मजलो आमार मन भ्रमरा, कालीपद-नीलकमले', 'अगणन भुवनभारधारी' इत्‍यादि कई एक गीत गाने के पश्‍चात् तिथिपूजन के नियमानुसार एक जीती मछली को खूब गा बजाकर गंगा जी में छोड़ दिया गया। तत्पश्‍चात् प्रसाद पाने के लिए भक्‍तों में बड़ी धूम मच गई।

१४

(स्थान : बेलूड़-किराये का मठ। वर्ष : १८९८ ई॰)

आज स्‍वामी जी नए मठ की भूमि पर यज्ञ करके श्री रामकृष्‍ण के चित्र की प्रतिष्‍ठा करेंगे। ठाकुर-प्रतिष्‍ठा दर्शन करने की इच्‍छा से शिष्‍य पिछली रात से ही मठ में उपस्थित है।

प्रात: काल गंगा-स्‍नान कर स्‍वामी जी ने पूजाघर में प्रवेश किया। फिर पूजन के आसन पर बैठ कर पुष्‍पमात्र में जो कुछ फूल और बिल्‍वपत्र थे, दोनों हाथों में सब एक साथ उठा लिये और श्री रामकृष्‍ण देव की पादुकाओं पर अर्पित कर ध्‍यानस्‍थ हो गए-कैसा अपूर्व दर्शन था उनकी धर्मप्रभा विभासित स्निग्‍धोज्‍ज्‍वल क्रांति से पूजागृह मानो एक अद्भुत ज्‍योति से पूर्ण हो गया। स्‍वामी प्रेमानंद तथा अन्‍य स्‍वामी पूजागृह के द्वार पर ही खड़े रहे।

ध्‍यान तथा पूजा समाप्‍त होने के बाद नेय मठ की भूमि में जाने का आयोजन होने लगा। ताँबे की जिस मंजूषा में श्री रामकृष्‍ण देव की भस्‍मास्थि रक्षित थीं, उसको स्‍वामी जी स्‍वयं अपने कंधे पर रखकर आगे चलने लगे। शिष्‍य अन्‍य संन्‍यासियों के साथ पीछे-पीछे चला। शंख-घंटों की ध्‍वनि चारों ओर गूँज उठी। भगीरथ गंगा अपनी लहरों से मानो हाव-भाव के साथ नृत्य करने लगीं। मार्ग से जाते समय स्‍वामी जी ने शिष्‍य से कहा, 'श्री गुरुदेव से मुझसे कहा था कि तू मुझे कंधे पर चढ़ाकर जहाँ ले जाएगा, मैं वहीं जाऊँगा और रहूँगा, चाहे वह स्‍थान वृक्ष के तले हो या कुटी हो। इसीलिए मैं स्‍वयं उनको कंधे पर उठाकर नई मठ-भूमि पर ले जा रहा हूँ। निश्‍चय जान लेना कि श्री गुरुदेव 'बहुजनहिताय' यहां दीर्घ काल तक स्थिर रहेंगे।'

शिष्‍य-श्री रामकृष्‍ण ने आपसे यह बात कब कही थी ?

स्‍वामी जी-(मठ के साधुओं को दिखाकर) क्‍या इनसे कभी यह बात नहीं सुनीं? काशीपुर के बाग में।

शिष्‍य-अच्‍छा, हाँ। उसी समय सेवाधिकार के बारे में श्री रामकृष्‍ण के गृहस्‍थ तथा संन्‍यासी भक्‍तों में कुछ फूट सी पड़ गई थी।

स्‍वामी जी-हाँ, फूट तो नहीं कह सकते, पर मन में कुछ मैंल सा ज़रूर आ गया था। स्‍मरण रखना कि जो श्री रामकृष्‍ण के भक्‍त हैं, जिन्‍होंने उनकी कृपा यथार्थ पायी है, वे गृहस्‍थ हों या संन्‍यासी, उनमें कभी कोई फूट नहीं हो सकती और न रही है। फिर भी उस थोड़े से मनोमालिन्‍य का कारण क्‍या था, सुनेगा ? सुन, प्रत्येक भक्‍त अपने-अपने रंग से श्री रामकृष्‍ण को रँगता है और इसीलिए वह उन्‍हें अपने भाव से देखता है तथा समझता है। मानो वे एक सूर्य हैं और हम लोग भिन्‍न-भिन्‍न रंगों का अनुमान करते हैं। इसी प्रकार भविष्‍य में भिन्‍न-भिन्‍न मतों का ज़रूर सर्जन होता है, परंतु जो सौभाग्‍य से अवतारी पुरुषों का साक्षात् सत्संग करते हैं, उनके जीवन-काल में ऐसे दलों का प्राय: सर्जन नहीं होता। आत्‍माराम पुरुष का ज्‍योति से वे चकाचौंध हो जाते हैं, अहंकार, अभिमान, क्षुद्र बुद्धि आदि सब मिट जाते हैं। अतएव दल बनाने का कोई अवसर उनको नहीं मिलता। वे अपने-अपने भावानुसार उनकी ह्दय से पूजा करते हैं।

शिष्‍य-महराज, तब क्‍या श्री रामकृष्‍ण के सब भक्‍त उनको भगवान जानकर भी उसी एक भगवान के स्‍वरूप को भिन्‍न-भिन्‍न भावों से देखते हैं और इसी कारण क्‍या उनके शिष्य एवं प्रशिष्‍य छोटी-छोटी सीमाओं में बद्ध होकर छोटे-छोटेदल या सम्प्रदायों को चलाते हैं ?

स्‍वामी जी-हाँ, इसी कारण कुछ समय में संप्रदाय बन ही जाएंगे। देखो न, चैतन्‍यदेव के वर्तमान समय के अनुयायियों में दो तीन सौ संप्रदाय हैं, ईसा के भी हज़ारों मत निकले हैं, परंतु बात यह है कि वे सब संप्रदाय चैतन्‍यदेव और ईसा को ही मानते हैं।

शिष्‍य-तो ऐसा अनुमान होता है कि श्री रामकृष्‍ण के भक्‍तों में भी कुछ समय के पश्‍चात् अनेक संप्रदाय निकल पड़ेंगे।

स्‍वामी जी-अवश्‍य निकलेंगे, परंतु जो मठ हम जहाँ बनाते हैं, उसमें सभी मतों और भावों का सामंजस्‍य रहेगा। श्री गुरुदेव का जो उदार मत था उसी का यह केंद्र होगा। विश्‍व समन्वय की जो किरण यहां से प्रकाशित होगी, उससे सारा जगत् उद्भासित हो जाएगा।

इसी प्रकार वार्तालाप करते हुए वे सब मठ-भूमि पर पहुँचे। स्‍वामी जी ने कंधे पर से मंजूषा को जमीन पर बिछे हुए आसन पर उतारा और भूमिष्‍ठ होकर प्रमाण किया। अन्‍य सबने भी प्रणाम किया।

इसके बाद स्‍वामी जी पूजा के लिए बैठ गए। पूजा के अंत में यज्ञाग्नि प्रज्ज्वलित करके हवन किया और संन्‍यासी गुरुभाइयों की सहायता से स्‍वयं पायस (खीर) तैयार कर श्री रामकृष्‍ण को भोग चढ़ाया। ऐसा स्‍मरण आता है कि उस दिन स्‍वामी जी ने कुछ गृहस्‍थों को दीक्षा भी दी थी। जो कुछ भी हो, फिर पूजा संपन्न होने पर स्‍वामी जी ने समागतों को आदर से बुलाकर कहा, 'आज तुम लोग तन, मन, वाक्य द्वारा श्री गुरुदेव से ऐसी प्रार्थना करो जिससे महा युगावतार श्री रामकृष्‍ण 'बहुजनहिताय बहुजनसुखाय' इस पुण्‍यक्षेत्र में अधिष्ठित रहे और इसे सब धर्मों का अपूर्व समन्‍वय केंद्र बनाये रखा ।' हाथ जोड़कर सबने प्रार्थना की। पूजा संपन्न होने पर स्‍वामी जी ने शिष्‍य से कहा, 'श्री गुरुदेव की इस मंजूषा को लौटा ले जाने का अधिकार हम लोगों (संन्‍यासियों) में से किसी को नहीं है, क्‍योंकि हमने ही यहां श्री गुरुदेव की स्‍थापना की है। अतएव तू इस मंजूषा को अपने मस्‍तक पर रखकर मठ (नीलांबर बाबू की वाटिका) को ले चल।' शिष्‍य को मंजूषा को स्‍पर्श करने में हिचकिचाते देख स्‍वामी जी बोले, 'डर मत, उठा लो, मेरी आज्ञा है।' तब शिष्‍य ने बड़े आनंद से स्‍वामी जी की आज्ञा को शिरोधार्य कर मंजूषा को अपने सिर पर उठा लिया। अपने गुरु की आज्ञा से उसको स्‍पर्श करने का अधिकार पाकर उसने अपने को कृतार्थ माना। आगे-आगे शिष्य, उसके पीछे स्वामी जी और उनके पीछे बाकी सब चलने लगे। रास्‍ते में स्‍वामी जी उससे बोले, 'श्री गुरुदेव तेरे सिर पर सवार होकर तुझे आशीर्वाद दे रहे हैं। आज से सावधान रहना, किसी अनित्‍य विषय में अपना मन न लगाना।' पुल पार करते समय स्‍वामी जी ने शिष्‍य से फिर कहा, 'देखो, यहां खूब सावधानी और सतर्कता से चलना।'

इस प्रकार लोग निर्विघ्‍न मठ में पहुँचकर हर्ष मनाने लगे। स्‍वामी जी सब शिष्‍य से कथा-प्रसंग में कहने लगे, 'श्री गुरुदेव की इच्‍छा से आज उनके धर्मक्षेत्र की प्रतिष्‍ठा हो गई। बारह वर्ष की चिंता का बोझ आज सिर से उतर गया। इस सयम मेरे मन में क्‍या-क्‍या भाव उठ रहे हैं, सुनेगा ? यह मठ विद्या एवं साधना का एक केंद्र-स्‍थान होगा। तुम्हारे समान सब धार्मिक गृहस्‍थ इस भूमि के चारों ओर अपने घर-बार बनाकर बसेंगे और बीच में त्‍यागी संन्‍यासी लोग रहेंगे। मठ के दक्षिण की ओर इंग्लैंड तथा अमेरिका के भक्‍तों के लिए गृह बनाये जाएंगे। यदि ऐसा हो जाए तो कैसा होगा ?'

शिष्‍य-आपकी यह कल्‍पना बड़ी अद्भुत है।

स्‍वामी जी-कल्‍पना क्‍यों ? समय आने पर य‍ह सब होकर रहेगा। मैं तो इसकी नींव मात्र डाल रहा हूँ। बाद में और न जाने क्‍या-क्‍या होगा। कुछ तो मैं कर जाऊँगा और कुछ विचार तुम लोगों को दे जाऊँगा। भविष्‍य में तुम उन सबको कार्य रूप में परिणत करोगे। बड़े-बड़े सिद्धांतों को सुनकर रखने से क्‍या होगा? प्रतिदिन उनको व्‍यावहारिक जीवन में कार्यान्वित करना चाहिए। शास्‍त्रों की लंबी-लंबी बातों को केवल पढ़ने से क्‍या होगा? पहले उन्‍हें समझना चाहिए, फिर अपने जीवन में उनको परिणत करना चाहिए। समझे ? इसी को कहते हैं व्‍यावहारिक धर्म।

इस प्रकार अनेक प्रसंगों से श्री शंकराचार्य का प्रसंग आरंभ हुआ। शिष्‍य आचार्य शंकर का बड़ा ही पक्षपाती था, यहां तक कि उसको उन पर दीवाना कहा जा सकता था। वह सब दर्शनों में शंकर प्रतिष्ठित अद्धैत मत को मुकुटमणि समझता था। और यदि कोई श्री शंकराचार्य के उपदेशों में कुछ दोष निकालता था तो उसके ह्दय में सर्पदंश की सी पीड़ा होने लगती थी। स्‍वामी जी यह जानते थे और उनको यह पसंद नहीं था कि कोई किसी मत का दीवाना बन जाए। वे जब भी किसी को किसी विषय का दीवाना देखते थे, तभी उस विषय के विरुद्ध पक्ष में सहस्‍त्रों अमोघ युक्तियों से उस दीवानेपन के बाँध को चूर्ण विचूर्ण कर देते थे।

स्‍वामी जी-शंकर की बुद्धि क्षुर-धार के समान तीव्र थी। वे विचारक थे और पंडित भी, परंतु उनमें गहरी उदारता नहीं थी और ऐसा अनुमान होता है कि उनका ह्दय भी उसी प्रकार था। इसके अतिरिक्‍त उनमें ब्राह्मणत्‍व का अभिमान बहुत था। एक दक्षिण पुरोहित जैसे ब्राह्मण थे, और क्‍या? अपने वेदांत भाष्‍य में कैसी बहादुरी से समर्थन किया है ब्राह्मण के अतिरिक्त अन्‍य जातियों को ब्रह्मज्ञान नहीं हो सकता। उनके विचार की क्‍या प्रशंसा करूँ। विदुर का उल्‍लेख कर उन्‍होंने कहा कि पूर्व जन्‍म में ब्राह्मण शरीर होने के कारण वह (विदुर) ब्रह्मज्ञ हुए थे। अच्‍छा, यदि आजकल किसी शूद्र को ब्रह्माज्ञान प्राप्‍त हो तो क्या शंकर के मतानुसार कहना होगा कि वह पूर्व जन्‍म में ब्राह्मण था ? क्‍यों, ब्राह्मणत्‍व को लेकर ऐसी खींचातानी करने का क्‍या प्रयोजन ? वेद ने तो तीनों वर्णों में प्रत्येक को वेदपाठ और ब्रह्माज्ञान का अधिकारी बताया है। तो फिर इस विषय में वेद के भाष्‍य में ऐसे अद्भुत पांडित्‍य प्रदर्शित करने का कोई प्रयोजन न था। फिर उनका ह्दय देखो, शास्‍त्रार्थ में पराजित कर कितने बौद्ध श्रमणों को आग में झोंक कर मार डाला। इन बौद्ध लोगों की भी कैसी बुद्धि थी कि तक में हारकर आग में जल मरे। शंकराचार्य के ये कार्य संकीर्ण दीवानेपन से निकले हुए पागलपन के अतिरिक्‍त और क्‍या हो सकते हैं ? दूसरी और बुद्धदेव के ह्दय का विचार करो। बहुजनहिताय बहुजनसुखाय का तो कहना ही क्‍या, वे एक बकरी के बच्‍चे की जीवन-रक्षा के लिए अपना जीवन भी देने का सदा प्रस्‍तुत रहते थे। कैसा उदार भाव, कैसी दया!-एक बार सोचो तो।

शिष्‍य-क्‍यों महाराज,क्‍या बुद्धदेव के इस भाव को भी एक और प्रकार का पागलपन नहीं कह सकते ? एक पशु के निमित्त अपने प्राण देने को तैयार हो गयें।

स्‍वामी जी-परंतु उनके उस दीवानेपन से इस संसार के कितने जीवों का कल्‍याण हुआ यह भी देखे। कितने आश्रम बने, कितने विद्यालय खुले, कितने सार्वजनिक अस्‍पताल बने, कितने पशु-चिकित्‍सालय स्‍थापित हुए, स्‍थापत्‍य विद्या का कितना विकास हुआ, यह सब भी तो सोचो। बुद्धदेव के जन्‍म के पूर्व इस देश में क्‍या था? तालपत्र की पोथियों में कुछ धर्म-तत्‍व था, सो भी बिरले ही मनुष्‍य उसको जानते थे। लोग इसको कैसे व्‍यावहारिक जीवन में चरितार्थ करें, यह बुद्धदेव ने ही सिखलाया। वे ही वास्‍तव में वेदांत के स्‍फूर्ति देवता थे।

शिष्‍य-परंतु महाराज, यह भी है कि वर्णाश्रम धर्म को तोड़कर हिंदू धर्म में विप्‍लव की सृष्टि वे ही कर गए हैं और इसीलिए कुछ ही दिनों में उनका प्रचारित धर्म भारत से निकाल बाहर कर दिया गया। यह बात भी सत्‍य प्रतीत होती है।

स्वामी जी-बौद्ध धर्म की ऐसी दुर्दशा उनकी शिक्षा के कारण नहीं हुई, वह हुई उनके शिष्‍यों के दोष से। दर्शन शास्‍त्रों की अत्‍यधिक चर्चा से उनके ह्दय की उदारता कम हो गई। तत्‍पश्‍चात् क्रमश: वामाचारियों के व्‍यभिचार से बौद्ध धर्म मर गया। ऐसी बीभत्‍स वामाचार-प्रथा का उल्‍लेख वर्तमान समय के किसी तंत्र में भी नहीं है। बौद्ध धर्म का एक प्रधान केंद्र 'जगन्‍नाथ क्ष्‍ोत्र' था। वहाँ के मंदिर पर जो बीभत्‍स मूर्तियाँ खुदी हुई हैं, उनको देखने से ही इन बातों को जान जाओगे। श्री रामानुजाचार्य तथा महाप्रभु चैतन्‍यदेव के समय यह पुरुषोत्तम क्षेत्र वैष्‍णवों के अधिकार में आया है। वर्तमान समय में महापुरुषों की शक्ति से इस स्‍थान ने एक और नया स्‍वरूप धारण किया है।

शिष्‍य-महाराज, शास्‍त्रों से तीर्थ स्‍थानों की विशेष महिमा जान पड़ती है। यह कहाँ तक सत्‍य है ?

स्‍वामी जी-समस्‍त ब्रह्मांड जब नित्‍य आत्‍मा ईश्‍वर का ही विराट् शरीर है, तब विशेष-विशेष स्‍थानों के माहात्‍म्‍य में आश्‍चर्य की क्‍या बात है ? विशेष स्‍थानों पर उनका विशेष विकास हुआ है। कहीं पर वे आप ही प्रकट होते हैं, कहीं-कहीं शुद्धसत्‍व मनुष्‍य के व्‍याकुल आग्रह से। साधारण मनुष्‍य जिज्ञासु होकर वहाँ पहुँचने पर सहज ही फल प्राप्‍त करते हैं। इसलिए तीर्थादि का आश्रय लेने से समय पर आत्‍मा का विकास होना संभव है।

फिर भी यह तुम निश्‍चय जानो कि इस मानव शरीर की अपेक्षा और कोई बड़ा तीर्थ नहीं है। इस शरीर में जितना आत्‍मा का विकास हो सकता है, उतना और कहीं नहीं। श्री जगन्‍नाथ जी का जो रथ है, वह भी मानो इसी शरीररूपी रथ का एक स्‍थूल रूप है। इसी शरीररूपी रथ में हमें आत्‍मा का दर्शन करना होगा। तूने तो पढ़ा ही है कि आत्‍मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेंव तु। मध्‍ये वामनामासीन विश्‍वे देवा उपासते , में जो वामनरूपी आत्‍मा के दर्शन का वर्णन किया गया है, वही ठीक जगन्‍नाथ दर्शन है। इसी प्रकार रथे च वामनं दृष्‍ट्वा पुनर्जन्‍म न विद्यते का भी अर्थ यही है कि तेरे शरीर में जो आत्‍मा है उसका दर्शन यदि तू कर लेगा तो फिर तेरा पुनर्जन्‍म नहीं होगा। परंतु अभी तो तू इस आत्‍मा की उपेक्षा कर अपने इस विचित्र जड़ शरीर को ही सर्वदा 'मैं' समझा करता है। यदि लड़की के रथ में भगवान को देखकर ही जीव की मुक्ति हो जाती, तब तो प्रत्‍येक वर्ष करोड़ों मनुष्‍यों को ही मुक्तिलाभ हो जाता, और आजकल तो जगन्‍नाथ जी पहुँचने के लिए रेल की भी सुविधा हो गई है। फिर भी मैं जगन्‍नाथ जी के संबंध में साधारण भक्‍तों को जो विश्‍वासहै उसके बारे में यह नहीं कहता कि वह कुछ भी नहीं अथवा मिथ्‍या है। सचमुच एक श्रेणी के लोग ऐसे हैं भी जो इसी मूर्ति का अवलंबन कर धीरे-धीरे उच्‍च तत्‍व को प्राप्‍त हो जाते हैं, अतएव इस मूर्ति का आश्रय लेकर भगवान की विशेष शक्ति जो प्रकाशित हो रही है, इसमें भी किसी प्रकार का संदेह नहीं है।

शिष्‍य-महाराज, फिर क्‍या मूर्ख और बुद्धिमान का धर्म अलग-अलग है ?

स्‍वामी जी-हाँ, यदि ऐसा न होता तो शास्‍त्रों में अधिकार-भेद का इतना झगड़ा ही क्‍यों ? यह सत्‍य है। फिर भी सापेक्षिक सत्‍य मात्रा में‍ भिन्‍न-भिन्‍न होता है। मनुष्‍य जिसे सत्‍य कहता है वह सब इसी प्रकार का है-कोई अल्‍प मात्रा में सत्‍य है, कोई उसमें अधिक मात्रा में। नित्‍य सत्‍य केवल एकमात्र भगवान ही है। यही आत्‍मा जड़ वस्‍तुओं में भी व्‍याप्‍त है-यद्यपि नितांत सुप्‍तावस्‍था में। यही जीव नामधारी मनुष्‍य में किसी अंश तक चेतन हो जाता है और फिर श्री कृष्‍ण, बुद्धदेव, भगवान शंकराचार्य आदि में वही दिव्‍य चेतना हो जाता है। इसके परे और एक अवस्‍था है, जिसको भाव या भाषा द्वारा प्रकट नहीं कर सकते- अवाड्मनसगोचरम्।

शिष्‍य-महाराज, किसी-किसी भक्ति संप्रदाय का ऐसा मत है कि भगवान के साथ कोई एक भाव या संबंध स्‍थापित करके साधना करनी चाहिये। वे लोग आत्‍मा की महिमा आदि पर कोई ध्‍यान नहीं देते। और जब इस संबंध में कोई चर्चा होती है तो वे यही कहते हैं कि 'यह सब चर्चा छोड़कर सर्वदा भाव में ही रहो।'

स्‍वामी जी-हाँ, उनके लिए उनका यह कहना भी ठीक है। ऐसा ही करते-करते एक दिन उनमें भी ब्रह्मा जाग्रत हो उठेगा। हम संन्‍यासी भी जो कुछ करते हैं, वह भी एक प्रकार का 'भाव' ही है। हमने संसार का त्‍याग किया है, अतएव माँ, बाप, स्‍त्री, पुत्र इत्यादि जो सांसारिक संबंध हैं उनमें किसी एक का भाव ईश्‍वर पर आरोपित कर साधना करना हमारे लिए कैसे संभव हो सकता है ? हमारी दृष्टि से ये सब संकीर्ण बातें हैं। सचमुच, सब भावों से अतीत भगवान की उपासना करना बड़ा कठिन है। परंतु बताओ तो सही, यदि हम अमृत नहीं पा सकते तो क्‍या विषपान करने लगें ? इसी आत्‍मा के संबंध में तू सदैव चर्चा कर श्रवण कर, मनन कर। इस प्रकार अभ्‍यास करते-करते कुछ समय के बाद देखेगा कि तुझमें ब्रह्मारूपी सिंह जाग्रत हो उठेगा। तू इन सब भाव-कल्‍पनाओं के परे चला जा। सुन, कठोपनिषद् में यम ने क्‍या कहा है, उत्तिष्‍ठत जाग्रत प्राप्‍य वरान्निबोधत-उठो, जागो और श्रेष्‍ठ पुरुषों के पास जाकर ज्ञान प्राप्‍त कर लो।

इस प्रकार यह प्रकरण समाप्‍त हुआ। मठ में प्रसाद पाने की घंटी बजी और स्‍वामी जी के साथ शिष्‍य भी प्रसाद ग्रहण करने के लिए चला गया।

१५

स्‍थान : बेलूड़-किराये का मठ। वर्ष: १८९८ ई॰ (फरवरी मास)

बेलूड़स्थ श्री नीलाम्बर बाबू के बाग में स्‍वामी जी मठ को ले आए हैं। आलम-बाजार से यहाँ आने पर अभी तक सब वस्‍तुओं को व्‍यवस्थित नहीं किया गया है। चारों ओर सब बिखरी पड़ी हैं। स्‍वामी जी नए भवन में आकर बड़े प्रसन्‍न हो रहे हैं। शिष्‍य के वहाँ उपस्थित होने पर कहने लगे, 'अहा हा! देखो कैसी गंगा जी हैं कैसे भवन है ऐसे स्‍थान पर मठ न बनने से क्‍या कभी चित्त प्रसन्‍न होता है।' तब अपराह्न का समय था।

संध्या के पश्‍चात् दुमंजिले पर स्‍वामी जी से शिष्‍य का साक्षात् होने पर अनेक प्रकार की चर्चा होने लगी। उस गृह में उस समय और कोई भी नहीं था। शिष्‍य बीच-बीच में बातचीत के सिलसिले में अनेक प्रकार के प्रश्‍न करने लगा। अंत में उसने उनकी बाल्‍यावस्‍था के विषय में सुनने की अभिलाषा प्रकट की। स्‍वामी जी कहने लगे, 'छोटी अवस्‍था से ही मैं बड़ा साहसी था। यदि ऐसा न होता तो नि:संबल संसार में फिरना क्‍या मेरे लिए कभी संभव होता है?'

रामायण की कथा सुनने की इच्‍छा उन्हें बचपन से ही थी। पड़ोस में जहाँ रामायण गान होता, वहीं स्‍वामी जी अपना खेलकूद छोड़कर पहुँच जाते थे। उन्होंने कहा कि कथा सुनते-सुनते किसी दिन उसमें ऐसे लीन हो जाते थे कि अपना घरबार तक भूल जाते थे। 'रात ज्‍यादा बीत गई है' या 'घर जाना है' आदि विषयों का उन्‍हें स्‍मरण भी नहीं रहता था। किसी एक दिन कथा में सुना कि हनुमान जी कदली वन में रहते हैं। सुनते ही उनके मन में इतना विश्‍वास हो गया कि वे कथा समाप्‍त होने पर उस दिन रात में घर नहीं लौटे, घर के निकट किसी एक उद्यान में केले के पेड़ के नीचे बहुत रात तक हनुमान जी के दर्शन पाने की इच्‍छा से बैठे रहे।

रामायण के पात्र-पात्रियों में से हनुमान जी पर स्‍वामी जी की अगाध भक्ति थी। संन्‍यासी होने पर भी कभी-कभी महावीर जी का प्रसंग कहते-कहते आवेश में आ जाते थे और अनेक बार मठ में महावीर जी की एक प्रस्‍तर मूर्ति रखने का संकल्‍प करते थे।

छात्रजीवन में दिन भर अपने साथियों के साथ आमोद-प्रमोद में ही रहते थे। रात को घर के द्वार बंदकर अपना अध्‍ययन करते थे। दूसरे किसी को यह नहीं जान पड़ता था कि वे कब अपना अध्‍ययन कर लेते हैं।

शिष्‍य ने पूछा, 'महाराज, स्‍कूल में पढ़ते समय क्‍या कभी आपको किसी प्रकार का दिव्‍य दर्शन हुआ था ?''

स्‍वामी जी-स्‍कूल में पढ़ते समय एक दिन रात में द्वार बंदकर ध्‍यान करते-करते मन भली भाँति तन्‍मय हो गया। कितनी देर तक इसी भाव से ध्‍यान करता रहा, यह कह नहीं सकता। ध्‍यान भंग हो गया। तब बैठा हूँ। इतने में ही देखता हूँ कि दक्षिण दीवाल को भेदकर एक ज्‍योतिर्मय मूर्ति निकली और मेरे सामने खड़ी हो गई। उसके मुख पर एक अद्भुत ज्‍योति थी पर भाव मानो कोई भी न था-प्रशांत संन्‍यासी मूर्ति। मस्‍तक मुण्डित था और हाथों में दण्‍ड-कमंडल था। मेरी ओर टकटकी लगाकर कुछ तक देखती रही। मानो मुझसे कुछ कहेगी। मैं भी अवाक् होकर उसकी ओर देखने लगा। तत्‍पश्‍चात् मन कुछ ऐसा भयभीत हुआ कि मैं शीघ्र ही द्वार खोलकर बाहर निकल आया। फिर मैं सोचने लगा, क्‍यों मैं इस प्रकार मूर्ख के सामने भाग आया, संभव था कि वह कुछ मुझसे कहती। परंतु फिर कभी उस मूर्ति के दर्शन नहीं हुए। कितने ही दिन सोचा कि यदि फिर उसके दर्शन मिलें तो उससे डरूँगा नहीं, वरन् वार्तालाप करूँगा, फिर दर्शन हुआ ही नहीं।

शिष्‍य-फिर इस विषय पर आपने कुछ चिंतन भी किया।

स्‍वामी जी-चिंतन अवश्‍य किया, किंतु ओर-छोर नहीं मिला। अब ऐसा अनुमान होता है कि मैंने तब भगवान् बुद्धदेव को देखा था। कुछ देर बाद स्‍वामी जी ने कहा, 'मन के शुद्ध होने पर अर्थात् मन से काम और कांचन की लालसा निकल जाने पर, कितने ही दिव्‍य दर्शन होते हैं। वे दर्शन बड़े ही अद्भुत होते हैं, परंतु उन पर ध्‍यान रखना उचित नहीं। रात-दिन उनमें ही मन रहने से साधक और आगे नहीं बढ़ सकते। तुमने भी तो सुना है कि श्री गुरुदेव कहा करते थे, 'मेरे चिंतामणि को ड्योढ़ी पर कितने ही मणि पड़े हुए हैं।' आत्‍मा का साक्षात् करना होगा। इन सब पर ध्‍यान देने से क्‍या होगा ?'

इन बातों की चर्चा के बाद ही स्‍वामी जी तन्‍मय होकर किसी विषय की चिंता करते हुए कुछ समय तक मौन भाव से बैठे रहे। फिर कहने लगे, 'देखो, जब मैं अमेरिका में था, तब मुझमें अद्भुत शक्तियों का स्‍फुरण हुआ था। क्षण मात्र में मैं मनुष्‍य की आँखों से उसके मन के सब भावों को जान जाता था। किसी के मन में कोई कैसी ही बात हो क्‍यों न हो, वह सब मेरे सामने हस्‍तामलकवत् प्रत्‍यक्ष हो जाती थी। कभी किसी-किसी से बात भी दिया करता था। जिन-जिन को मैं बता देता था, उनमें से अनेक मेरे चेले बन जाते थे, और यदि कोई किसी बुरे अभिप्राय से मुझसे मिलने आता, तो वह इस शक्ति का परिचय पाकर फिर कभी मेरे पास नहीं आता था।'

'जब मैंने शिकागो आदि शहरों में व्‍याख्‍यान देना आरंभ किया, तब सप्‍ताह में बारह, चौदह-चौदह और कभी इससे भी अधिक व्‍याख्‍यान देने पड़ते थे। शारीरिक और मानासिक परिश्रम बहुत अधिक होने के कारण मैं बहुत थक जाता था और लगता था कि मानो व्‍याख्‍यान के सब विषय समाप्‍त होने ही वाले हैं। 'अब मैं क्या करूँगा, कल फिर नई बातें क्‍या कहूँगा' बस ऐसी ही चिंता मन में आया करती थी। ऐसा अनुमान होता था कि कोई नया भाव नहीं उठेगा। एक दिन व्याख्‍यान देने के बाद लेटे हुए चिंता कर रहा था, 'बस, अब तो सब कह दिया, अब क्‍या उपाय करूँ ?' ऐसी चिंता करते-करते कुछ तंद्रा सी आ गई। उसी अवस्‍था में सुनने में आया कि जैसे कोई मेरे पास खड़ा होकर व्‍याख्‍यान दे रहा है, और उस भाषण में कितने ही नए भाव तथा नई बातें हैं-मानो वे सब इस जन्‍म में कभी मेरे सुनने में या ध्‍यान में आयीं ही नहीं। सोकर उठते ही उन सब बातों का स्मरण भाषण में वही बातें कहीं। ऐसा कितनी ही बार हुआ, कहाँ तक गिनाऊँ? सोते-सोते ऐसे व्‍याख्‍यान कितने ही बार सुने। कभी-कभी तो व्‍याख्‍यान इतने जोर से दिए जाते थे कि, दूसरे कमरों में भी औरों को सुनायी पड़ते थे। दूसरे दिन वे लोग मुझसे पूछते थे, 'स्‍वामी जी, कल रात में आप किससे इतनी जोर से वार्तालाप कर रहे थे ?' उनके इस प्रश्‍न को किसी प्रकार टाल दिया करता था। वह बड़ी ही अद्भुत घटना थी।'

शिष्‍य स्वामी जी की बातों को सुन निर्वाक् होकर चिंता करते हुए बोला, 'महाराज, ऐसा अनुमान होता है कि आप ही सूक्ष्‍म शरीर में व्‍याख्‍यान दिया करते थे और स्‍थूल शरीर से कभी-कभी प्रतिध्‍वनि निकलती थी।'

यह सुनकर स्‍वामी जी बोले 'हो सकता है।'

इसके बाद अमेरिका की फिर बात छिड़ी। स्वामी जी कहने लगे, 'उस देश में पुरुषों से स्त्रियाँ अधिक शिक्षित होती हैं। विज्ञान और दर्शन में बड़ी पंडित हैं, इसीलिए वे मेरा इतना मान करती हैं। वहाँ पुरुष रात-दिन परिश्रम करते हैं, तनिक भी विश्राम लेने का अवसर नहीं पाते। स्त्रियाँ स्‍कूलों में पढ़कर और पढ़ाकर विदुषी बन गई हैं। अमेरिका में जिस ओर भी दृष्टि डालो, स्त्रियों का ही साम्राज्‍य दिखायी देता है।'

शिष्‍य-महाराज, ईसाइयों में से जो संकीर्णमना (कट्टर) थे, वे क्‍या आपके विरूद्ध नहीं हुए?

स्‍वामी जी-हुए कैसे नहीं ? फिर जब लोग मेरा बहुत मान करने लगे, तब वे पादरी लोग मेरे बहुत पीछे पड़े। मेरे नाम पर कितनी हो निंदा समाचार-पत्रों में‍ लिखने लगे। कितने ही लोग उनका प्रतिवाद करने के लिए मुझसे कहते थे, परंतु मैं उन पर कुछ भी ध्‍यान नहीं देता था। मेरा यह दृढ़ विश्‍वास था कि कपट से जगत् में कोई महान् कार्य नहीं होता, इसीलिए उन अश्‍लील निंदाओं पर ध्यान न देकर मैं धीरे-धीरे अपना कार्य करता जा रहा था। अनेक बार यह भी देखने में आता था कि जिसने मेरी व्‍यर्थ निंदा की, वही फिर अनुतप्त होकर मेरी शरण में आता था और स्‍वयं ही समाचार-पत्रों में प्रतिवाद कर मुझसे माँगता था। कभी-कभी ऐसा भी हुआ कि किसी घर में मेरा निमंत्रण है, यह सुनकर वहाँ कोई जा पहुँचा और घर वालों से मेरे बारे में मिथ्‍या निंदा कर आया और घरवाले भी यह सुनकर द्वार बंद करके कहीं चल दिए। मैं निमंत्रण के अनुसार वहाँ गया। देखा, सब सुनसान है। कोई भी वहाँ नहीं है। कुछ दिन पीछे वे ही लोग सत्‍य बात को जानकर बड़े दुखित हो मेरे पास शिष्‍य बनने आए। बेटा, जानते तो हो कि इस संसार में निरी दुनियादारी है। जो यथार्थ साहसी और ज्ञानी है, वह क्‍या ऐसी दुनियादारी से कभी घबड़ाता है? 'जगत् चाहे जो कहे, क्‍या परवाह है, मैं अपना कर्तव्‍य पालन करता चला जाऊँगा' यही वीरों की बात है। यदि 'वह क्‍या कहता है, क्‍या लिखता है', ऐसी ही बातों पर रात-दिन ध्यान रहे तो जगत् में कोई महान् कार्य हो नहीं सकता। क्‍या तुमने यह श्‍लोक नहीं सुना-

निन्दन्‍तु नीतिनिपुणा यदि वा स्‍तुवन्‍तु।

लक्ष्मी : समाविशतु गच्‍छत वा यथेष्‍टम्।।

अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्‍तरे वा।

न्‍याय्यात्‍पथ: प्रविच‍लन्ति पदं न धीरा:।।

लोग तुम्हारी स्तुति करें या निंदा, लक्ष्मी तुम्‍हारे ऊपर कृपालु हो या न हो, तुम्‍हारा देहांत आज हो या एक युग में तुम न्‍यायपथ से कभी भ्रष्‍ट न हो। कितने ही तूफान पार करने पर मनुष्‍य शांति के राज्‍य में पहुँचता है। जो जितना बड़ा हुआ है, उसके लिए उतनी ही कठिन परीक्षा रखी गई। परीक्षा-रूपी कसौटी पर उसका जीवन कसने पर ही जगत ने उसको बड़ा कहकर स्‍वीकार किया है। जो भीरू, कापुरुष होते हैं, वे ही समुद्र की लहरों को देखकर किनारे पर ही नाव रखते हैं। जो महावीर होते हैं वे क्‍या किसी बात पर ध्‍यान देते हैं? 'जो कुछ होना है सो हो, मैं अपना इष्‍टलाभ करके ही रहूँगा' यही यथार्थ पुरुषकार है। इस पुरुषकार के हुए बिना सैकड़ों दैव भी तुम्‍हारे जड़त्‍व को दूर नहीं कर सकते।

शिष्‍य-तो दैव पर निर्भर होना क्‍या दुर्बलता का चिह्न है ?

स्‍वामी जी-शास्‍त्र में निर्भरता को पंचम पुरुषार्थ कहकर निर्देश किया गया है परंतु हमारे देश में लोग जिस प्रकार दैव पर निर्भर रहते हैं, वह मृत्‍यु का चिह्न है, महा कापुरुषता की चरम अवस्था है। ईश्‍वर की एक अद्भुत कल्‍पना कर उसके माथे अपने दोषों को थोपने की चेष्‍टा मात्र है। श्री राम कृष्‍ण द्वारा कथित गोहत्‍या-पाप की कहानी१ तो तुमने सुनी होगी; अंत में वह पाप उद्यान-स्‍वामी को ही भोगना पड़ा। आजकल सभी यथा नियुक्तिोअस्मि तथा करोमि कहकर पाप तथा पुण्‍य दोनों को ईश्वर के माथे मढ़ते हैं। मानो आप जल के कमल-पत्रों के समान निर्लिप्‍त है यदि वे लोग इसी भाव पर सर्वदा जमें रह सकें तो वे मुक्‍त हैं; किंतु अच्‍छे कार्य के समय 'मैं' और बुरे के समय 'तुम'-इस दैव निर्भरता का क्‍या कहना है जब तक पूर्ण प्रेम या ज्ञान नहीं होता, तब तक निर्भरता की अवस्‍था हो ही नहीं सकती। जो ठीक-ठीक निर्भर हो गए हैं, उनमें भले बुरे की भेद बुद्धि नहीं रहती। हममें (श्री रामकृष्‍ण के शिष्‍यों में) नाग महाशय ही ऐसी अवस्था के उज्‍ज्‍वल दृष्‍टांत हैं।

अब बात-बात में नाग महाशय का प्रसंग चल पड़ा। स्‍वामी जी कहने लगे 'ऐसा अनुरागी भक्‍त और भी दूसरा कोई है? अहा। फिर कब उनसे मिल सकते ?''

शिष्‍य-माता जी (नाग महाशय की पत्‍नी) के मुझे लिखा है कि आपके दर्शन के निमित्त वे शीघ्र कलकत्ता आयेंगी।

स्‍वामी जी-श्री रामकृष्‍ण राजा जनक से उनकी तुलना किया करते थे। ऐसे जितेंद्रिय पुरुष का दर्शन होना तो बड़े भाग्‍य की बात है। ऐसे लोगों की कथा सुनने में भी नहीं आती। तुम उनका सत्‍संग सर्वदा करना। वे श्री रामकृष्‍ण के अंतरग भक्‍तों में से एक हैं।

१ एक दिन किसी मनुष्‍य के बगीचे में एक गाय घुस गई और उसने उसका एक बड़ा सुंदर पौधा रौंदकर नष्ट कर डाला। इससे वह मनुष्‍य बहुत ही क्रुद्ध हुआ और उसने उस गाय को इतना मारा कि वह मर गई। वह मनुष्‍य यह देखकर कि उस पर गोहत्‍या लग रही है, सोचने लगा, 'अरे मैंने गाय को कब मारा है ? इसका दोषी तो मेरा हाथ है और चूँकि हाथ इन्द्र के अधीन है, इसलिए सार दोष इन्द्र का है।' इन्द्र ने जब यह देखा तो उसने एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण कर उस मनुष्‍य के पास जाकर पूछा, 'क्‍यों भाई, यह सुदंर बगीचा किसने बनाया है?' वह मनुष्‍य बोला, 'मैंने। इन्द्र ने फिर पूछा, 'और भाई, ये सब बढि़या पेड़, फल-फूल के पौधे आदि किसने लगाये हैं?' वह मनुष्‍य बोला, 'मैंने ही'। फिर इन्द्र ने मरी हुई गाय की ओर दिखाकर पूछा, 'और इस गाय को किसने मारा ?' वह मनुष्‍य बोला, 'इन्द्र ने।' यह सुनकर इन्द्र हँसे और बोले, 'बगीचा तुमने लगाया, फल-फूल के पौधे तुमने लगाये और गाय मारी बेचारे इन्द्र ने-क्‍यों यही बात है न ?'

शिष्‍य-उस देश में अनेक लोग उनको पागल समझते हैं, परंतु मैंने तो पहले ही उनको एक महापुरुष समझा है। वे मुझसे बहुत प्रेम करते हैं और मुझे पर उनकी कृपा भी बहुत है।

स्वामी जी-तुमने ऐसे महापुरुष का सत्संग किया है, कि फिर तुम्‍हें क्‍या चिंता है ? अनेक जन्‍मों की तपस्‍या से ऐेसे महापुरुष का सत्संग मिलता है। श्री नाग महाशय घर में किस प्रकार से रहते हैं ?

शिष्‍य-महाराज, उन्‍हें तो मैंने कभी कोई काम-काज करते नहीं पाया। केवल अतिथि-सेवा में लगे रहते हैं। पाल बाबू आदि जो कुछ रुपया दे देते हैं, उसके अतिरिक्‍त उनके खाने-पीने का और कोई सहारा नहीं है। परंतु धनिकों के भवन में जैसी धूम-धाम रहती है, वैसी ही इनके घर भी देखी। लेकिन, वे अपने भोग के निमित्त एक भी पैसा व्‍यय नहीं करते। जो कुछ व्‍यय करते हैं केवल परसेवार्थ। सेवा-सेवा यही उनके जीवन का महाव्रत मालूम होता है। ऐसा अनुमान होता है कि प्रत्‍येक जीव में, प्रत्‍येक वस्‍तु में आत्‍मदर्शन करके वे अभिन्‍न ज्ञान से जगत् की सेवा करने का व्‍याकुल हैं। सेवा के लिए अपने शरीर को शरीर नहीं समझते। वास्‍तव में मुझे भी संदेह होता है कि उन्‍हें शरीर-ज्ञान है भी या नहीं। आप जिस अवस्‍था को दिव्‍य चेतन कहते हैं, मेरा अनुमान है कि वे सर्वदा उसी अवस्‍था में रहते हैं।

स्‍वामी जी-ऐसा क्‍यों न हो। श्री गुरुदेव उनसे कितना प्रेम करते थे। वे ही उनके एक साथी थे जिन्‍होंने पूर्व बंग में जन्‍म लिया है। उन्‍हीं के प्रकाश से पूर्व बंग प्रकाशित हुआ है।

१६

स्‍थान : बेलूड़-किराये का मठ। वर्ष : १८९८ ई॰ (नवंबर)

आज दो-तीन दिन हुए, स्‍वामी जी कश्‍मीर से लौटकर आए हैं। शरीर कुछ स्‍वस्थ नहीं है। शिष्‍य के मठ में आते ही स्‍वामी ब्रह्मानंद महाराज कहने लगे, 'स्‍वामी जब से कश्‍मीर से लौटे हैं, किसी से वार्तालाप नहीं करते, मौन होकर स्‍तब्‍ध बैठे रहते हैं। तुम स्‍वामी जी से कुछ वार्तालाप करके उनके मन को नीचे (अर्थात जगत् के कार्यों में) लाने का प्रयत्‍न करो।'

शिष्‍य ने ऊपर स्‍वामी जी के कमरे में जाकर देखा कि स्‍वामी जी मुक्तापद्यमासन में पूर्व की ओर मुँह किये बैठे हैं, मानो गंभीर ध्‍यान में मग्‍न हैं। मुँह पर हँसी नहीं। उज्‍ज्‍वल नेत्रों की दृष्टि बाहर की ओर नहीं, मानो भीतर ही कुछ देख रहे हैं। शिष्‍य को देखते ही बोले, 'बच्‍चा, आ गए; बैठो।' बस, इतनी सी बात की। स्‍वामी जी के बाँयें नेत्र को रक्तिम देखकर शिष्‍य ने पूछा, 'आपकी यह आँख लाल कैसे हो रही है ?' 'वह कुछ नहीं' कहकर स्‍वामी जी फिर स्तब्‍ध हो गए। बहुत समय तक बैठे रहने पर भी जब स्‍वामी जी ने कुछ भी वार्तालाप नहीं किया, तब शिष्य ने व्‍याकुल होकर स्‍वामी जी के चरण-कमलों को स्‍पर्श कर कहा, 'श्री अमरनाथ में आपने जो कुछ प्रत्‍यक्ष किया है, क्‍या वह सब मुझे नहीं बतलाइएगा ?' चरण-स्पर्श से स्‍वामी जी कुछ चौंक से उठे, दृष्टि भी कुछ बाहर की ओर खुली और कहने लगे, 'जब से अमरनाथ का दर्शन किया है, तब से चौबीसों घंटे मानो शिव जी मेरे मस्‍तक में समाये रहते हैं; किसी प्रकार भी नहीं हटते।' शिष्‍य इन बातों को सुनकर अवाक हो गया।

स्‍वामी जी-अमरनाथ में और फिर क्षीरभवानी के मंदिर में मैंने बहुत तपस्‍या की थी। जाओ, हुक्‍का भर लाओ।

शिष्‍य प्रफुल्‍ल मन से हुक्‍का भर लाया। स्‍वामी जी धीरे-धीरे हुक्‍का पीते हुए कहने लगे, 'अमरनाथ जाते समय पहाड़ की एक खड़ी चढ़ाई पार कर गया था। उस पगडंडी से केवल पहाड़ी लोग ही चढ़ते उतरते हैं, कोई यात्री उधर से नहीं जाता; परंतु इसी मार्ग से होकर जाने की मुझे ज़िद सी हो गई थी। उस परिश्रम से शरीर कुछ दुर्बल पड़ गया। वहाँ ऐसा कड़ा जाड़ा पड़ता है कि शरीर में सुई सी चुभती है।

शिष्‍य-मैंने सुना है कि लोग नग्‍न होकर अमरनाथ जी का दर्शन करते हैं। क्‍या यह सत्‍य है ?

स्‍वामी जी-मैंने भी कौपीन मात्र धारण कर और भस्म लगाकर गुफा में प्रवेश किया था। तब ठंडक या गर्मी कुछ नहीं मालूम हुई, परंतु मंदिर से निकलते ही शरीर ठंड से अकड़ गया था।

शिष्‍य-क्‍या वहाँ कभी कबूतर भी देखने में आया था ? सुना है कि ठंड के मारे वहाँ कोई जीव-जंतु नहीं बसता, केवल सफ़ेद कबूतरों की एक टुकड़ी कहीं से कभी-कभी आ जाती है।

स्‍वामी जी-हाँ, तीन-चार सफ़ेद कबूतरों को देखा था। वे उसी गुफा में रहते हैं या आस-पास के किसी पहाड़ में, यह ठीक अनुमान नहीं कर सका।

शिष्‍य-महाराज, लोगों से सुना है कि यदि कोई गुफा से बाहर निकलकर सफ़ेद कबूतरों को देख ले तो समझना चाहिए कि शिव के यथार्थ दर्शन हुए।

स्‍वामी जी बोले, 'सुना है कि कबूतर देखने से जिसके मन में जो कामना रहती वही सिद्ध होती है।'

अब स्वामी जी फिर कहने लगे कि लौटते समय जिस मार्ग से सब यात्री आते हैं उसी मार्ग से वे भी श्रीनगर को आए थे। श्रीनगर से पहुँचने के कुछ दिन बाद क्षीरभवानी के दर्शन को गए थे और सात दिन वहाँ ठहरकर देवी को खीर चढ़ाकर पूजा तथा हवन किया था। प्रतिदिन वहाँ एक मन दूध की खीर का भोग चढ़ाते थे और हवन करते थे। एक दिन पूजा करते समय मन में यह विचार उदित हुआ, 'माता भवानी यहां सचमुच कितने समय से प्रकाशित हैं ?' प्राचीन काल में यवनों ने यहां आकर उनके मंदिरों को विध्‍वंस कर दिया और यहां के लोग कुछ नहीं कर सके। हाय यदि मैं उस समय होता, तो चुपचाप यह कभी नहीं देखता।' इस विचार से जब उनका मन दु:ख और क्षोभ से अत्‍यंत व्‍याकुल हो गया था, तब उनके स्‍पष्‍ट सुनने में आया था जैसे माता कह रही हैं-'मेरी इच्‍छा से ही यवनों ने मंदिरों का विध्‍वंस किया है, जीर्ण मंदिर में रहने की मेरी इच्‍छा है। क्‍या मेरी इच्‍छा से अभी यहाँ सात मंजिला सोने का मंदिर नहीं बन सकता है ? तू क्या कर सकता है, मैं तेरी रक्षा करूँगी या तू मेरी रक्षा करेगा ?' स्‍वामी जी बोले, 'उस देववाणी को सुनने के समय से मन में और कोई संकल्‍प नहीं रखता। मठ-वठ बनाने का संकल्‍प छोड़ दिया है। माता जी की जो इच्‍छा है वही होगा।' शिष्‍य अवाक् होकर सोचने लगा कि इन्होंने ही तो एक दिन कहा था, 'जो कुछ देखता है या सुनता है वह केवल तेरे भीतर अवस्थित आत्‍मा की प्रतिध्‍वनि मात्र है। बाहर कुछ भी नहीं है।' अब स्‍वामी जी उनसे स्‍पष्‍ट पूछा, 'महाराज, आपने तो कहा था कि यह सब देव-वाणी हमारे भीतर के भावों की बाह्य प्रतिध्‍वनि मात्र है।' स्‍वामी जी ने बड़ी गंभीरता से उत्तर दिया, 'भीतर हो या बाहर, इससे क्‍या ? यदि तुम अपने कानों से मेरे समान ऐसी अशरीरी वाणी को सुनो, तो क्‍या उसे मिथ्‍या कह सकते हो ? देव-वाणी सचमुच सुनायी देती है, हम लोग जैसे वार्तालाप कर रहे हैं, ठीक इस प्रकार।'

शिष्‍य ने बिना कोई द्विरुक्ति किये स्‍वामी जी के वाक्‍यों को शिरोधार्य कर लिया; क्‍योंकि स्‍वामी जी की कथाओं में एक ऐसी अद्भुत शक्ति होती थी कि उन्हें बिना माने नहीं रहा जाता था-युक्ति-तर्क सब धरे रह जाते थे।

शिष्‍य ने अब प्रेतात्‍माओं की बात छेड़ी, 'महाराज, जो सब भूत-प्रेतादि योनियों की बात सुनी जाती है, और शास्त्रों ने भी जिनका बार-बार समर्थन किया है, क्‍या वह सब सत्‍य है ? '

स्‍वामी जी-अवश्‍य सत्‍य है। क्‍या जिसको तुम नहीं देखते,वह सत्‍य नहीं हो सकता ? तेरी दृष्टि से बाहर दूर-दूर पर कितने ही सहस्त्रों ब्रह्मांड घूम रहे हैं। तुझे नहीं दीख पड़ते तो क्‍या उनका अस्तित्‍व ही नहीं ? परंतु भूत-प्रेत हैं तो होने दे, इनके झगड़े में अपना मन दे। इस शरीर में जो आत्‍मा है, उसको प्रत्‍यक्ष करना ही तेरा कार्य है। उसको प्रत्‍यक्ष करने से भूत-प्रेत सब तेरे दासों के दास हो जाएंगे।

शिष्‍य-परंतु महाराज, ऐसा अनुमान होता है कि उनको देखने से पुनर्जन्‍म पर विश्‍वास बहुत दृढ़ होता है और परलोक पर कुछ अविश्‍वास नहीं रहता।

स्‍वामी जी-तुम सब तो महावीर हो, क्‍या तुमने भी परलोक पर विश्‍वास करने के लिए भूत-प्रेतों का दर्शन आवश्‍यक है कितने शास्‍त्र पढ़े, कितने विज्ञान पढ़े इस विराट् विश्‍व के कितने गूढ़ तत्‍व जाने, इतने पर भी क्‍या भूत-प्रेतों को देखकर ही आत्‍मज्ञान लाभ करना पड़ेगा? छि: छि:।

शिष्‍य-अच्छा, महाराज, आपने स्‍वयं कभी भूत-प्रेतों को देखा है ?

स्‍वामी जी-स्‍वजनों में से कोइ एक व्‍यक्ति प्रेत होकर कभी-कभी मुझको दर्शन देता था। कभी दूर-दूर से समाचार लाता था। परंतु परीक्षा करके देखा कि उसकी सब बातें सदा ठीक नहीं होती थीं। पर किसी एक विशेष तीर्थ पर जाकर 'वह मुक्‍त हो जाए' ऐसी प्रार्थना करने पर उसका दर्शन फिर मुझे नहीं हुआ।

'अब श्राद्धादिकों से प्रतात्‍माओं की तृप्ति होती है या नहीं ?'-शिष्‍य के इस प्रश्‍न पर स्‍वामी जी बोले, 'य‍ह कुछ असंभव नहीं है।' शिष्य के इस संबंध में युक्ति या प्रमाण माँगने पर स्‍वामी जी ने कहा था, 'और किसी दिन इस प्रसंग को भलीभांति समझा दूँगा। श्राद्धादि से प्रेतात्‍माओं की तृप्ति होती है, इस विषय की अकाट्य युक्तियाँ हैं। आज मेरा शरीर कुछ अस्‍वस्‍थ है, फिर किसी और दिन इसको समझाऊंगा।' परंतु फिर शिष्‍य को स्‍वामी जी से यह प्रश्‍न करने का अवसर जीवन भर नहीं मिला।

१७

[स्‍थान : बेलूड़-किराये का मठ। वर्ष : १८९८ ई॰ (नवम्बर)]

मठ अभी तक बेलूड़ नीलांबर बाबू के बगीचे में ही है। अब अगहन महीने का अंत है। इस समय स्‍वामी जी बहुधा संस्‍कृत शास्‍त्रादि की चर्चा में तत्‍पर हैं। उन्‍होंने आचण्‍डालाप्रतिहतरय: [7] इत्‍यादि श्‍लोकों की रचना इसी समय की थी। आज स्‍वामी जी ने 'ऊँ ह्नीं ऋतम्' इत्‍यादि स्त्रोत की रचना की और शिष्‍य को देखकर कहा, 'देखना इसमें छंदभंगादि कोई दोष तो नहीं है?' शिष्‍य ने उसे ले लिया और उसकी एक नकल उतार ली।

उस दिन स्‍वामी जी ने इस स्त्रोत की रचना की थी, उस दिन मानो स्‍वामी जी की जिह्वा पर सरस्‍वती विराजमान थीं। लगभग दो घंटे तक स्‍वामी जी ने से शिष्‍य से सुंदर और सुललित संस्‍कृत भाषा में वार्तालाप किया। ऐसा सुंदर वाक्य-विन्‍यास, शिष्‍य ने बड़े पंडितों के मुँह से भी नहीं सुना था।

जो हो, शिष्‍य के स्त्रोत को नकल उतार लेने पर स्‍वामी जी ने उससे कहा, 'देखो, किसी भाव में तन्‍मय होकर लिखते-लिखते कभी-कभी व्‍याकरण संबंधी भूलें हो जाती हैं, इसलिए तुम लोगों से देख लेने को कहता हूँ।'

शिष्‍य-वे भाषा के दोष नहीं, वरन् आर्ष प्रयोग हैं।

स्‍वामी जी-तुमने तो ऐसा कह दिया, परंतु साधारण लोग ऐसा क्‍यों समझेंगे? उस दिन मैंने हिंदू धर्म क्‍या है' इस विषय पर बांग्‍ला भाषा में एक लेख लिखा तो तुम्‍हीं से किसी-किसी ने कहा कि इसकी भाषा तो प्रांजल नहीं। मेरा अनुमान है कि सब वस्‍तुओं की तरह कुछ समय के बाद भाषा और भाव भी फीके पड़ जाते हैं। आजकल इस देश में यही हुआ है, ऐसा जान पड़ता है। श्री गुरुदेव के आगमन से भाव और भाषा में नवीन प्रवाह आ गया है। अब सबको नवीन साँचे में ढालना है, नवीन प्रतिभा की मुहर लगाकर सब विषयों का प्रचार करना पड़ेगा। देखो न, संन्‍यासियों की प्राचीन चाल-ढाल टूटकर अब क्रमश: कैसी नवीन परिपाटी बन रही है। इसके विरूद्ध समाज में भी बहुत कुछ प्रतिवाद हो रहा है; परंतु इससे क्‍या? क्‍या हम उससे डरें? आजकल इन संन्‍यासियों को प्रचार-कार्य के निमित्त दूर-दूर जाना है। यदि प्राचीन संन्‍यासियों का वेश धारण कर अर्थात् भस्‍म लगाकर और अर्धनग्‍न होकर वे कहीं विदेश को जाना चाहें तो पहले तो जहाज पर ही उनको सवार नहीं होने देंगे। और यदि किसी प्रकार विदेश पहुँच भी जायँ तो उनको कारागृह में निवास करना होगा। देश, सभ्‍यता और समयोपयोगी कुछ-कुछ परिवर्तन सभी विषयों में कर लेना पड़ेगा। अब मैं बाँग्‍ला भाषा में लेख लिखने की सोच रहा हूँ। संभव है कि साहित्‍यसेवी उनको पढ़कर निंदा करें। करने दो-मैं बाँगला भाषा को नवीन साँचे में ढालने का प्रयत्‍न अवश्‍य करुँगा। आजकल के लेखक जब लिखने बैठते हैं, तब क्रियापद का बहुत प्रयोग करते हैं।

इससे भाषा में शक्ति नहीं आती। विश्‍लेषण द्वारा क्रियापदों का भाव प्रकट करने से भाषा में ओज अधिक बढ़ता है। आगे तुम इस प्रकार लिखने की चेष्‍टा करो तो 'उद्बोधन' में ऐसी ही भाषा में लेख लिखने का प्रयत्‍न करना। भाषा में क्रियापद प्रयोग करने का क्‍या तात्‍पर्य है जानते हो ? इस प्रकार भावों को विराम मिलता है। इसलिए अधिक क्रियापदों का प्रयोग करना जल्‍दी-जल्‍दी श्‍वास लेने के समान दुर्बलता का चिह्न मात्र है। यही कारण है कि बांग्ला भाषा में अच्‍छी वक्‍तृता नहीं दी जा सकती। जिनका किसी भाषा पर अच्‍छा अधिकार है, वे भावाभिव्यक्ति रोक कर नहीं चलते। दाल-भात का भोजन करके तुम लोगों का शरीर जैसा दुर्बल हो गया है, भाषा भी ठीक वैसी ही हो गई। खान-पान, चाल-चलन, भाव-भाषा सब में तेजस्विता लानी होगी। चारों ओर प्राण का संचार करना होगा। नस-नस में रक्‍त का प्रवाह तेज करना होगा, जिससे स‍ब विषयों में प्राणों का स्पंदन अनुभव हो; तभी इस घोर जीवन-संग्राम में देश के लोग बचे रह सकेंगे। नहीं तो शीघ्र ही इस देश और जाति को मृत्‍यु की छाया ढक लेगी।

शिष्‍य-महाराज, बहुत काल से इस देश के लोगों का स्‍वभाव कुछ अजीब सा हो गया है। क्‍या उसमें शीघ्र परिवर्तन की संभावना है ?

स्‍वामी जी-यदि तुम पुरानी चाल को बुरी समझते हो तो मैंने जैसा बतलाया, उस नवीन भाव को क्‍यों नहीं सीख लेते? तुम्‍हें देखकर और भी दस-पाँच लोग वैसा ही करेगा। फिर उनसे और पचास सीखेंगे। इस प्रकार आगे चलकर जाति में वह नवीन भाव जाग उठेगा। यदि तुम जान-बूझकर भी ऐसा कार्य न करो तो मैं समझूँगा कि तुम केवल बातों में ही पंडित हो, पर कार्य में मूर्ख।

शिष्‍य-आप की बातों से तो बड़े साहस का संचार होता है। उत्‍साह, बल और तेज से ह्दय परिपूर्ण हो जाता है।

स्‍वामी जी-ह्दय में धीरे-धीरे बल लाना होगा। यदि एक भी यथार्थ 'मनुष्‍य' बन जाए तो लाख व्‍याख्‍यानों का फल हो। मन और मुँह को एक करके भावों को जीवन में कार्यान्वित करना होगा। इसी को श्री रामकृष्‍ण कहा करते थे, 'भाव के घर में किसी प्रकार की चोरी न होने पाये।' सब विषयों में व्‍यावहारिक बनाना होगा, अर्थात् अपने-अपने कार्य द्वारा मत या भाव का विकास करना होगा। केवल मतमतांतरों ने देश को चौपट कर दिया है। श्री रामकृष्‍ण की जो यथार्थ संतानें होंगी, वे धर्मभावों की व्‍यावहारिकता दिखायेंगी। लोगों या समाज की बातों पर ध्‍यान न देकर वे एकाग्र मन से अपना कार्य करते रहेंगे। क्‍या तूने नहीं सुना? कबीरदास के दोहे में है-

हाथी चले बाजार में कुत्ता भौंके हजार ।

साधुन को दुर्भाव नहिं, जो निंदे संसार।।

ऐसे ही चलना है। दुनिया के लोगों की बातों पर ध्‍यान नहीं देना होगा। उनकी भली बुरी बातों को सुनने से जीवन भर कोई किसी प्रकार का महत् कार्य नहीं कर सकता। नायमात्‍मा बलहीनेन लभ्य: अर्थात् शरीर और मन में दृढ़ता न रहने से कोई भी इस आत्‍मा को प्राप्‍त नहीं कर सकता। प्रथम पुष्टिकर उत्तम भोजन से शरीर को बलिष्‍ठ करना होगा, तभी तो मन का बल बढ़ेगा। मन तो शरीर का ही सूक्ष्‍म अंश है। मन और शब्‍दों में खूब दृढ़ता लाओ। 'मैं हीन हूँ', 'मैं दीन हूँ' ऐसा कहते-कहते मनुष्‍य वैसा ही हो जाता है। इसलिए शास्‍त्रकार ने कहा है-

मुक्‍ताभिमानी मुक्‍तो हि बद्धो बद्धाभिमान्‍यपि।

किवदन्‍तीति सत्‍येयं या मति: सा गतिर्भवते।।

(अष्‍टावक संहिता।।१।११।।)

जिसके ह्दय में मुक्‍ताभिमान सर्वदा जाग्रत है, वह मुक्‍त हो जाता है और जो 'मैं बुद्ध हूँ' ऐसी भावना रखता है, समझ लो कि उसकी जन्‍म-जन्‍मांतर तक बद्ध दशा ही रहेगी। ऐहिक और पारमार्थिक दोनों पक्षों में ही इस बात को सत्‍य जानना। इस जीवन में जो सर्वदा हताशचित्त रहते हैं उनसे कोई भी कार्य नहीं हो सकता। वे जन्‍म-जन्मांतर में 'हाय, हाय' करते हुए आते हैं और चले जाते हैं। वीरभोग्‍या वसुंधरा अर्थात् वीर लोग ही वसुंधरा का भोग करते हैं-यह वचन नितान्त सत्‍य है। वीर बनो, सर्वदा कहो, 'अभी:' 'अभी:'-मैं भयशून्‍य हूँ, मैं भयशून्‍य हूँ। सबको सुनाओ, 'माभै:' 'माभै:', भय न करो, भय न करो। भय हर मृत्यु है, भय ही पाप, भय ही नरक, भय ही अधर्म तथा भय ही व्‍यभिचार है। जगत् में जो असत् या मिथ्‍याभाव हैं, वे इस भयरूप शैतान से उत्‍पन्‍न हुए हैं। इस भय ने ही सूर्य के सूर्यत्‍व को, वायु के वायुत्‍व को, यम को अपने-अपने स्थान पर स्थिर रख छोड़ा है, अपनी-अपी सीमा से किसी को बाहर नहीं जाने देता। इसलिए श्रुति कहती है-

भयादस्‍याग्निस्‍तपति भयात् तपति सूर्य:।

भयाद्रिन्‍द्रश्च वायुश्‍च मृत्‍युधविति पंचम :।।

(कठोपनिषद्।।२।३।३।।)

जिस दिन इंद्र, चंद्र, वायु वरुण भयशून्‍य होंगे, उसी दिन सब ब्रह्मा में लीन हो जाएंगे-सृष्टिरूप अध्यास का लय हो जाएगा। इसीलिए कहता हूँ, 'अभी:' 'अभी:'।

बोलते-बोलते स्‍वामी जी के वे नीलोत्पल नेत्र-प्रांत आरक्‍त हो गए। मानो 'अभी:' मूर्तिमान होकर स्‍वामी रूप से शिष्य के सामने सदेह अवस्थान कर रहा हो। शिष्‍य उस अभय मूर्ति का दर्शन कर मन में सोचने लगा, 'आश्‍चर्य। इन महापुरूष के पास रहने से और इनकी बातें सुनने से मानो मृत्‍यु भय भी कहीं भाग जाता है।'

स्‍वामी जी फिर कहने लगे, 'यह शरीर धारण कर तुम कितने ही सुख-दु:ख तथा संपद-विपद की तरंगों में बहाये जाओ, परंतु ध्‍यान रखना वे सब केवल मुहूत स्‍थायी हैं। उन सब को अपने ध्‍यान में भी नहीं लाना। मैं अजर, अमर चिन्‍मय आत्‍मा हूँ, इस भाव को दृढ़ता के साथ धारण कर जीवन बिताना होगा। 'मेरा जन्‍म नहीं है, मेरी मृत्‍यु नहीं है, मैं निर्लेप आत्‍मा हूँ', ऐसी धारणा में एकदम तन्‍मय हो जाओ। एक बार लीन हो जाने से दु:ख या कष्‍ट के समय यह भाव अपने आप ही मन में उदय होगा, इसके लिए फिर चेष्‍टा करने की कुछ आवश्‍यकता नहीं रहेगी। कुछ ही दिन हुए मैं वैद्यनाथ देवघर में प्रियनाथ मुकर्जी के घर गया था। वहाँ ऐसी साँस फूली कि दम ही निकलने लगा, परंतु प्रत्‍येक श्‍वास के साथ भीतर से 'सोअहं सोअहं' गंभीर ध्‍वनि उठने लगी। तकिये कर सहारा लिये मैं प्राणवायु निकलने की अपेक्षाकर रहा था और सुना रहा था कि भीतर केवल 'सोअहं सोअहं' ध्‍वनि हो रही है; केवल यह सुनने लगा, एकमेंवाद्वयं ब्रह्मा नेह नानास्ति किंचन।

शिष्य ने स्‍तंभित होकर कहा, 'आपके साथ वार्तालाप करने से और आपकी सब अनुभूतियों को सुनने से शास्‍त्र पढ़ाने की आवश्‍यकता नहीं रह जाती।'

स्‍वामी जी-अरे नहीं, शास्‍त्रों को पढ़ना बहुत ही आवश्‍यक है। ज्ञान लाभ करने के लिए शास्‍त्र पढ़ने की बहुत ज़रूरत है। मैं मठ में शीघ्र ही शास्‍त्रादि पढ़ाने का आयोजन कर रहा हूँ। वे, उपनिषद्, गीता, भागवत कक्षाओं में पढ़ाये जाएंगे और मैं अष्‍टाध्‍यायी भी पढ़ाऊँगा।

शिष्‍य-क्‍या आपने पाणिनि की अष्‍टाध्‍यायी पढ़ी हैं।

स्‍वामी जी-जब जयपुर में था, तब एक बड़े भारी व्याकरण के साथ साक्षात्‍कार हुआ। उनसे व्‍याकरण पढ़ने की इच्‍छा हुई। व्‍याकरण के बड़े विद्वान होने पर भी, उनमें पढ़ाने की योग्‍यता बहुत नहीं थी। उन्‍होंने मुझे तीन दिन तक प्रथम सूत्र का भाष्‍य समझाया, फिर भी मैं उसकी धारणा न कर सका। चौथे दिन अध्‍यापक जी विरक्‍त होकर बोले, 'स्‍वामी जी, जब मैं तीन दिन में भी प्रथम सूत्र का मर्म आपको नहीं समझा सका तो अनुमान होता है कि मेरे पढ़ाने से आपको कोई लाभ नहीं होगा।' यह सुनकर अपने मन में बड़ी भर्त्‍सना हुई। भोजन और निद्रा त्‍यागकर प्रथम सूत्र को भाष्‍य अपने आप ही पढ़ने लगा। तीन घंटे में उस सूत्रभाष्‍य का अर्थ मानो करामलक के समान प्रत्‍यक्ष हो गया। तत्‍पश्‍चात् अध्‍यापक जी के पास जाकर सब व्‍याख्‍याओं का तात्‍पर्य बातों में समझा दिया। अध्यापक जी सुनकर बोले, 'मैं तीन दिन से जो समझ न सका, आपने तीन घंटे में उसकी ऐसी चमत्‍कारपूर्ण व्याख्‍या कैसे सीख ली?'' उस दिन से प्रतिदिन शीघ्र गति से हो जाता है-सुमेरू पर्वत को भी चूर्ण करना संभव है।

शिष्‍य-आपकी सभी बातें अद्भुत हैं।

स्‍वामी जी-अद्भुत नाम की स्‍वयं कोई विशेष चीज़ नहीं। अज्ञात ही अंधकार है। इसमें सब कुछ ढके रहने के कारण अद्भुत जान पड़ता है। ज्ञानालोक से प्रकाशित होने पर फिर कुछ अद्भुत नहीं। 'अघटनघटनपटीयसी' जो माया है, वह भी लुप्‍त हो जाती है। जिसको जानने से सब कुछ जाना जाता है, उसको जानो; उसके विषय पर चिंतन करो। उस आत्‍मा के प्रत्‍यक्ष होने से शास्‍त्रों के अर्थ 'करामलकवत्' प्रत्‍यक्ष होंगे। जब प्राचीन ऋषि ऐसा कर सके थे, तब हम लोगों से क्यों न होगा हम भी तो मनुष्‍य हैं। एक व्‍यक्ति के जीवन में जो एक बार हुआ है, चेष्टा करने से वह अवश्‍य ही औरों के जीवन में फिर सिद्ध होगा। इतिहास अपने को दुहराता है; जो एक बार हुआ है, वह बार-बार होता है। यह आत्‍मा सर्व भूत में समान है, केवल प्रत्‍येक भूत में उसके विकास का तारतम्‍य मात्र है। इस आत्‍मा का विकास करने की चेष्‍टा करो। देखोगे कि बुद्धि सब विषयों में प्रवेश करेगी। अनात्‍मज्ञ पुरुषों की बुद्धि एकदेश-दर्शिनी होती है, आत्‍मज्ञ पुरुषों की त्रिलोक-त्रिकालदर्शी। आत्‍मप्रकाश होने से, देखोगे दर्श, विज्ञान सब तुम्हारे अधीन हो जाएंगे। सिंहगर्जन से आत्‍मा की महिमा की घोषणा करो। जीव को अभय देकर कहो, उत्तिष्‍ठत जाग्रत प्राप्‍य वरान्निबोधत।

१८

(स्‍थान : बेलूड़-किराये का मठ। वर्ष: १८९८ ई॰)

आज दो दिन से शिष्‍य बेलूड़स्‍थ नीलाम्बर बाबू के भवन में स्‍वामी जी के पास हैं। कलकत्ता से अनेक युवकों का इस समय स्‍वामी जी के पास आना-जाना रहने के कारण आजकल मानो मठ में बड़ा उत्‍सव हो रहा है। कितनी धर्म-चर्चा, कितना साधन-भजन का उद्यम तथा दीन-दु:खियों को कष्‍ट दूर करने के कितने ही उपायो की विवेचना हो रही है। कितने ही उत्‍साही संन्‍यासी महादेव के गुणों के समान स्‍वामी जी की आज्ञा का पालन करने को उत्‍सुकता के साथ खड़े हैं। स्‍वामी जी प्रेमानंद ने श्री रामकृष्‍ण की सेवा का भार ग्रहण किया है। मठ में पूजा और प्रसाद के लिए बड़ा आयोजन है। समागत सज्‍जनों के लिए प्रसाद सर्वदा तैयार है।

आज स्‍वामी जी ने शिष्‍य को अपने कमरे में रात को रहने की आज्ञा दी है। स्‍वामी जी की सेवा करने का अधिकार पाकर शिष्‍य का ह्दय आज आनंद से परिपूर्ण है। प्रसाद पाकर वह स्‍वामी जी की चरण-सेवा कर रहा है। इतने में स्वामी जी ने कहा, 'ऐसे स्‍थान को छोड़कर तुम कलकत्ता जाना चाहते हो यहाँ कैसा पवित्र भाव, कैसी गंगा जी की वायु, कैसा साधु समागम है। ऐसा स्‍थान क्‍या और कहीं ढूँढ़ने से मिलेगा?'

शिष्‍य-महाराज, बहुत जन्मों की तपस्‍या से आपका सत्‍संग मुझे मिला है। अब कृपया ऐसा उपाय कीजिए जिससे मैं फिर माया-मोह में न फंसूं। अब प्रत्यक्ष अनुभूति के लिए मन कभी-कभी बड़ा व्‍याकुल हो उठता है।

स्‍वामी जी-मेरी भी अवस्‍था ऐसी हुई थी। काशीपुर के उद्यान में एक दिन श्री गुरुदेव से बड़ी व्‍याकुलता से अपनी प्रार्थना प्रकट की थी। उस दिन संध्या के समय ध्‍यान करते-करते अपने शरीर को खोजा तो नहीं पाया। ऐसा प्रतीत हुआ कि शरीर बिल्‍कुल है ही नहीं। चंद्र, सूर्य, देश, काल, आकाश सब मानो एकाकार होकर कहीं लय हो गए हैं। देहादि बुद्धि का प्राय: अभाव हो गया था और 'मैं' भी बस लय सा हो रहा था। परंतु मुझमें कुछ 'अहं'था, इसीलिए उस समाधि अवस्‍था से लौट आया था। इस प्रकार समाधि-काल में ही 'मैं' और 'ब्रह्मा' में भेद नहीं रहता, सब एक हो जाता है; मानो महासमुद्र है-जह ही जल और कुछ नहीं। भाव और भाषा का अंतहो जाता है। अवाड़्मनसगोचरम् की उपलब्धि इसी समय होती है। नहीं तो जब साधक 'मैं ब्रह्म हूँ' ऐसा विचार करता है या कहता है तब भी 'मैं' और ब्रह्म' ये दो पदार्थ पृथक रहते हैं अर्थात् द्वैतबोध रहता है। उसी अवस्था को फिर प्राप्‍त करने की मैंने बारंबार चेष्टा की, परंतु पा न सका। श्री गुरुदेव को सूचित करने पर वे कहने लगे, 'उस अवस्‍था में दिन-रात रहने से माँ भगवती का कार्य तुमसे पूरा न हो सकेगा। इसलिए उस अवस्‍था को फिर प्राप्‍त न कर सकोगे; कार्य का अंत होने पर वह अवस्‍था फिर आ जाएगी।'

शिष्‍य-तो क्‍या नि:शेष समाधि या परम निर्विकल्‍प समाधि प्राप्‍त होने पर, कोई फिर अहं ज्ञान का आश्रय लेकर द्वैतभाव के राज्य में-इस संसार में-नहीं लौट सकता ?

स्‍वामी जी-श्री रामकृष्‍ण कहा करते थे कि एकमात्र अवतारी पुरुष ही जीव की कामना कर ऐसी समाधि से लौट सकते हैं। साधारण जीवों का फिर व्‍युत्‍थान नहीं होता। केवल इक्‍कीस दिन तक जीवित अवस्‍था में रहने के बाद उनका शरीर सूखे पत्‍ते के समान संसाररूपी वृक्ष से झड़़कर गिर पड़ता है।

शिष्‍य-मन के विलुप्‍त होने पर जब समाधि होती है, मन में जब कोई लहर नहीं रह जाती, तब फिर विक्षेप अर्थात् अहं ज्ञान का आश्रय लेकर संसार में लौटने की क्‍या संभावना ? जब मन ही नहीं रहा तक कौन या किसलिए समाधि अवस्‍था को छोड़कर द्वैतराजय में उतरकर आएगा?

स्‍वामी जी-वेदांत शास्‍त्र का अभिप्राय यह है कि नि:शेष निरोध समाधि से पुनरावृत्ति नहीं होती; यथा-अनावृत्ति: शब्‍दात्। परंतु अवतारी लोग जीवों के मंगल के निमित्त एक-आध सामान्‍य वासना रख लेते हैं। उसी के आश्रय से ज्ञानातीत अद्वैत्भूमि से वे 'मैं-तुम' की ज्ञानमूलक द्वैतभूमि में उतार आते हैं।

शिष्‍य-किंतु महाराज, यदि एक-आध वासना भी रह जाए तो उसे नि:शेष निरोध समाधि अवस्‍था कैसे कह सकते हैं ? क्‍योंकि शास्‍त्र में कहा है कि नि:शेष निर्विकल्‍प समाधि में मन की सब वृत्तियाँ, सब वासनाएँ निरुद्ध या ध्‍वंस हो जाती हैं।

स्‍वामी जी-तब महाप्रलय के पश्‍चात् तो फिर सृष्टि ही कैसे होती है ? महाप्रलय में भी तो सब कुछ ब्रह्म में लय हो जाता है। परंतु लय होने पर भी शास्‍त्र में सृष्टि-प्रसंग सुनने में आता है-सृष्टि और लय प्रवाहाकार से पुन: चलते रहते हैं। महाप्रलय के पश्‍चात् सृष्टि और लय के पुनरावर्तन के समान अवतारी पुरुषों का निरोध और व्‍युत्‍थान भी आप्रसंगिक क्‍यों होगा?

शिष्‍य-क्या यह नहीं हो सकता है कि लय-काल में पुन: सृष्टि का बीज ब्रह्म में लीनप्राय रहता है और वह महाप्रलय या निरोध समाधि नहीं है। वह तो केवल सृष्टि का बीज तथा शक्ति का (आप जैसा कहते हैं) एक अव्‍यक्‍त आकार मात्र धारण करना है।

स्‍वामी जी-इसके उत्तर में मैं कहूँगा कि जिस ब्रह्म में किसी गुण का अस्तित्‍व नहीं हे, जो निर्लेप और निर्गुण है, उसके द्वारा इस सृष्टि का बहिर्गत होना ही कैसे संभव है।

शिष्‍य-पर सृष्टि का यह बहिर्गमन तो यथार्थ नहीं। आपके वचन के उत्तर में शास्त्र ने कहा है कि ब्रह्म से सृष्टि का विकास मरुस्‍थल में मृगजल के समान दिखायी देता है, परंतु वास्‍तव में सृष्टि आदि कुछ भी नहीं है। भाव-वस्‍तु ब्रह्म में अभाव मिथ्‍यारूप माया के कारण ऐसा भ्रम दिखायी देता है।

स्‍वामी जी-यदि सृष्टि ही मिथ्या है तो तुम जीव की निर्विकल्‍प समाधि और समाधि से व्‍युत्‍थान को भी मिथ्‍या कह कर मान सकते हो। जीव स्‍वत: ही ब्रह्मरूप है। उसके फिर बंधन की अनुभूति कैसी 'मैं आत्‍मा हूँ' ऐसा जो तुम अनुभव करना चाहते हो, वह भी तो भ्रम ही हुआ, क्‍योंकि शास्‍त्र कहते हैं कि तुम तो पहले से ही ब्रह्म हो। अतएव अयमेंव हि ते बन्‍ध: समाधिमनुतिष्‍ठसि-यह समाधि लाभ करने की तुम्हारी चाह ही तुम्‍हारा बंधन है।

शिष्‍य-यह तो बड़ी कठिन बात है। यदि मैं ब्रह्म ही हू तो सर्वदा इस विषय की अनुभूति क्‍यों नहीं होती ?

स्‍वामी जी-यदि 'मैं-तुम' के द्वैतमूलक चेतन स्‍तर पर इस बात का अनुभव करना हो तो एक कारण की आवश्‍यकता है। मन ही हमारा वह कारण है, परंतु मन पदार्थ तो जड़ है। उसके पीछे जो आत्‍मा है उसकी प्रभा से मन चैतन्‍यवत केवल प्रतीत होता है। इसलिए पअ्चदशीकर ने कहा है, चिच्‍छायावेशत: शक्तिश्‍चेतनेव विभाति सा अर्थात् चित्स्‍वरूप आत्‍मा की परछाई या प्रतिबिंब के वश शक्ति चैतन्‍यमयी लगती है और इसीलिए मन भी चेतन पदार्थ कहकर माना जाता है। अत: यह निश्चित है कि मन के द्वारा शुद्ध चैतन्‍यस्‍वरूप आत्‍मा को नहीं जा सकते। मन के परे पहुँचना है। मन के परे तो कोई कारण नहीं है। एक आत्‍मा ही है। अतएव जिसको जानना चाहते हो, वही फिर करणस्‍थानीय हो जाता है। कर्ता, कर्म, करण सब एक हो जाते हैं। इसीलिए श्रुति कहती है, विज्ञातारमरे केन विजानीयात्। इसका निचोड़ यह है कि द्वैतमूलक चेतन के ऊपर ऐसी एक अवस्था है जहाँ कर्ता, कर्म, करणादि में कोई द्वैतभाव नहीं है। मन के निरोध होने से वह प्रयत्क्ष होती है और कोई उचित भाषा न होने के कारण इस अवस्था को 'प्रत्‍यक्ष करना' कह रहा हूँ; अन्‍यथा इस अनुभव को प्रकाशित करने के लिए कोई भाषा नहीं। श्री शंकराचार्य इसको 'अपरोक्षानुभूति' कह गए हैं। ऐसी प्रतयक्षानुभूति या अपरोक्षानुभूति होने पर भी अवतारी लोग नीचे द्वैतभूमि पर उतर कर उसकी कुछ-कुछ झलक दिखा देते हैं। इसीलिए कहते हैं कि आप्‍त पुरुषों के अनुभव से ही वेदादि शास्‍त्रों की उत्‍पत्ति हुई है। साधारण जीवों की अवस्था उस नमक के पुतले के समान है, जो समुद्र को नापने गया था, पर स्‍वयं ही उसमें घुल गया। समझे न ? तात्‍पर्य यह है कि तुम्‍हें इतना ही जानना होगा कि तुम वही नित्य ब्रह्म हो। तुम तो पहले से ही वह हो, केवल एक जड़ मन (जिसको शास्‍त्र न माया कहा है) बीच में पड़़कर तुम्‍हें इसको समझने नहीं देता। सूक्ष्म जड़रूप उपादानों द्वारा मन नामक पदार्थ के प्रशमित होने पर, आत्‍मा अपनी प्रभा से ही आप ही उद्भासित होती है। यह माया और मन मिथ्‍या है, इसका एक प्रमाण यह है कि मन स्‍वयं जड़ और अंधकारस्‍वरूप है, जो इसके पीछे विद्यमान आत्‍मा की प्रभा से चैतन्‍यवत प्रतीत होता है। जब इसको समझ जाओगे तो एक अखंड चैतन्‍य में मन लय हो जाएगा। तभी अयमात्‍मा ब्रह्म की अनुभूति होगी।

यहाँ पर स्‍वामी जी ने कहा, 'क्‍या तुझे नींद आ रही है ? तो जा सो जा।' शिष्‍य स्‍वामी जी के पास के ही बिछौने पर सो गया। रात में स्‍वामी जी नींद अच्‍छी न आने के कारण बीच-बीच उठकर बैठने लगे। शिष्‍य भी उठकर उनकी आवश्‍यक सेवा करने लगा। इस प्रकार रात बीत गई, पर रात्रि के अंतिम प्रहर में एक अद्भुत सा स्‍वप्‍न देखकर निद्रा भंग होने पर वह बड़े आनंद से उठा। प्रात: काल गंगा-स्‍नान करके जब शिष्‍य आया तो देखा कि स्‍वामी जी मठ की निचली मंजिल में एक बेंच पर पूर्व की ओर मुँह किये बैठे हैं। रात्रि के स्‍वप्‍न का स्‍मरण कर स्‍वामी जी के चरण कमलों के पूजन के लिए उसका मन व्‍याकुल हुआ और उसने अपना अभिप्राय प्रकट कर उनकी अनुमति के लिए प्रार्थना की। उसकी व्‍याकुलता को देख स्‍वामी जी सहमत हो गए। फिर शिष्‍य ने कुछ धतूरे के फूल संग्रह किये और स्‍वामी जी के शरीर में महाशिव के अधिष्‍ठान का ध्‍यान करके विधिपूर्वक उनकी पूजा की।

पूजा के अंतमें स्‍वामी जी शिष्‍य से कहने लगे, 'तूने तो पूजा कर ली, परंतु बाबूराम (स्‍वामी प्रेमानंद) आकर तुझे खा जाएगा। तूने कैसे श्री रामकृष्‍ण के पूजा-पात्र में मेरे पाँवों को रखकर पूजा ?' ये बातें हो ही रही थीं कि स्‍वामी प्रेमानंद वहाँ आ पहुँचे। स्‍वामी जी ने उनसे बोले, 'देखो आज इसने कैसा एक कांड रचा है। श्री राममृष्‍ण के पूजा-पात्र के फूल-चंदन लेकर इसने मेरी पूजा की।' स्‍वामी प्रेमानंद जी हँसने लगे और बोले, 'बहुत अच्‍छा किया, तुम और श्री रामकृष्‍ण क्‍या अलग-अलग हो?'यह बात सुनकर शिष्‍य निर्भय हो गया।

शिष्‍य एक कट्टर हिंदू था। अखाद्य का तो कहना ही क्‍या, किसी का छुआ द्रव्‍य तक भी ग्रहण नहीं करता था। इसलिए स्‍वामी जी उसको कभी-कभी 'भट्ट जी' कहकर पुकारते थे। प्रात:कालीन जलपान के समय देशी बिस्‍कुट आदि खाते-खाते स्‍वामी जी स्‍वामी सदानंद से बोले, 'जाओ, भट्ट जी को तो पकड़ लाओ।' आदेश पर शिष्‍य के वहाँ पहुँचते ही स्‍वामी जी ने शिष्‍य को इन द्रव्‍यों से थोड़ा-थोड़ा प्रसादरूप से खाने को दिया। बिना दुविधा में पड़े शिष्‍य को वह सब ग्रहण करते देखकर स्‍वामी जी हँसते हुए बोले, 'आज तुमने क्या खाया, जानते हो? ये सब मुरगी के अंडे से बनी हुई हैं।' इसके उत्तर में उसने कहा, 'जो भी हो मुझे जानने की कोई आवश्‍यकता नहीं, आपका प्रसादरूप अमृत खाकर मैं तो अमर हो गया।' यह सुनकर स्‍वामी जी ने कहा 'मैं आशीर्वाद देता हूँ कि आज से तुम्हारा जाति, वर्ण, आभिजात्‍य, पाप, पुण्‍यादि का अभिमान सदा के लिए दूर हो जाए।'

स्‍वामी जी की उस दिन की अयाचित्त अपार दया को स्‍मरण कर शिष्‍य समझता है कि उसका मानव जन्‍म सार्थक हो गया।

तीसरे पहर अकाउंटेंट जनरल बाबू मन्‍मथनाथ भट्टाचार्य स्‍वामी जी के पास आए। अमेरिका जाने से पहले स्‍वामी जी के मद्रास में इन्‍हीं के भवन में अतिथि होकर बहुत दिन रहे थे और तभी से स्‍वामी जी के प्रति बहुत श्रद्धा-भक्ति रखते थे। भट्टाचार्य महाशय पाश्‍चात्‍य देशों और भारत के संबंध में अनेक प्रश्‍न करने लगे। स्‍वामी जी ने उन सब प्रश्‍नों के उत्तर देकर और अनेक प्रकार से सत्‍कार करके कहा,'एक दिन तो यहाँ ठहर ही जाइए।' मन्‍मथ बाबू यह कहकर कि 'और किसी दिन आकर ठहरुँगा', विदा हुए और सीढि़यों से नीचे उतरते समय एक मित्र से कहने लगे, 'हम यह मद्रास में पहले ही जान गए थे कि वे पृथ्‍वी पर एक महान कार्य किये बिना न रहेंगे। ऐसी सर्वतोमुखी प्रतिभा मनुष्‍य में तो पायी नहीं जाती।'

स्‍वामी जी ने मन्‍मथ बाबू के साथ गंगा के किनारे तक जाकर उनको अभिवादन करके विदा किया और कुछ देर तक मैंदान में टहलकर अपने कमरे में विश्राम करने के लिए चले गए।

१९

( स्‍थल: बेलूड़ ; किराये का मठ-भव । वर्ष : १८९८ ई॰ )

शिष्‍य आज प्रात: काल मठ में आया है। स्‍वामी जी के चरण-कमलों की वंदना करके खड़े होते ही स्‍वामी जी ने कहा, 'नौकरी ही करते रहने से क्‍या होगा ? कोई व्‍यापार क्‍यों नहीं करते ?' शिष्‍य उस समय एक स्‍थान पर गृहशिक्षक का कार्य कर रहा था। उस समय तक उसके सिर पर परिवार का भार न था। आनंद से दिन बीतते थे। शिक्षक के कार्य के संबंध में शिष्‍य ने पूछा तब स्‍वामी जी ने कहा, 'बहुत दिनों तक मास्टरी करने से बुद्धि बिगड़ जाती है। ज्ञान का विकास नहीं होता। दिन-रात लड़कों के बीच रहने से धीरे-धीरे जड़ता आ जाती है; इसलिए आगे अब अधिक मास्‍टरी न कर।'

शिष्‍य-तो क्‍या करूँ ?

स्‍वामी जी-क्‍यों ? यदि तुझे गृहस्‍थी ही करनी है और यदि धन कमाने की आकांक्षा है तो जा, अमेरिका चला जा। मैं व्‍यापार का उपाय बता दूंगा। देखना, पाँच वर्षों में कितना धन कमा लेगा।

शिष्‍य-कौन सा व्‍यापार करूँगा ? और उसके लिए धन कहाँ से आएगा?

स्‍वामी जी-पागल की तरह क्या बकता है ? तेरे भीतर अदम्‍य शक्ति है। तू तो 'मैं कुछ नहीं' सोच-सोच कर वीर्यविहीन बना जा रहा है। तू ही क्‍यों ?-सारी जाति ही ऐसी बन गई है। जा एक बार घूम आ; देखेगा भारत के बाहर लोगों का 'जीव-प्रवाह' कैसे आनंद से, सरलता से, प्रबल वेग के साथ बहता जा रहा है। और तुम लोग क्‍या कर रहो हो? इतनी विद्या सीख कर दूसरों के दरवाजे पर भिखारी की तरह 'नौकरी दो, नौकरी दो, कहकर चिल्‍ला रहे हो। दूसरों की ठोकरें खाते हुए-गुलामी करके भी तुम लोग क्‍या अब मनुष्‍य रह गए हो? तुम लोगों का मूल्‍य एक फूटी कौड़ी के भी नहीं है। ऐसी सुजला सुफला भूमि में, जहाँ पर प्रकृति अन्‍य सभी देशों से करोड़ों गुना अधिक धन-धान्‍य पैदा कर रही है, जन्‍म लेकर भी तुम लोगों के पेट में अन्‍न नहीं, तन पर वस्‍त्र नहीं, जिस देश के धन-धान्‍य के पृथ्‍वी के अन्‍य सभी देशों में सभ्‍यता का विस्तार किया है, उसी अन्नपूर्णा के देश में तुम लोगों की ऐसी दुर्दशा। तुम लोग घृणित कुत्तों से भी बदतर हो गए हो। और फिर भी अपने वेद-वेदांत की डींग हाँकते हो। जो राष्‍ट्र आवश्‍यक अन्‍न-वस्‍त्र का भी प्रबंध नहीं कर सकता और दूसरों के मुँह की ओर ताक कर ही जीवन व्‍यतीत कर रहा है, उस राष्‍ट्र का यह गर्व। धर्म-कर्म को तिलाँजलि देकर पहले जीवन-संग्राम में कूद पड़ो। भारत में कितनी चीज़ें पैदा होती हैं। विदेशी लोग उसी कच्‍चे माल के द्वारा 'सोना' पैदा कर रहे हैं। और तुम लोग भारवाही गधों की तरह उनका माल ढोते-ढोते मरे जा रहे हो। भारत में जो चीज़ें उत्‍पन्‍न होती हैं, विदेशी उन्‍हीं को ले जाकर अपनी बुद्धि से अनेक प्रकार की चीज़ें बनाकर संपत्तिशाली बन गए; और तुम लोग। अपनी बुद्धि संदूक में बंद करके घर का धन दूसरों को देकर 'हा अन्‍न', 'हा अन्‍न' करके भटक रहे हो।

शिष्‍य-अन्‍न-समस्‍या कैसे हल हो सकती, महाराज ?

स्‍वामी जी-उपाय तुम्‍हारे ही हाथों में है। आँखों पर पट्टी बाँधकर कह रहे हो, 'मैं अंधा हूँ, कुछ देख नहीं सकता।' आँख पर की पट्टी अलग कर दो, देखोगे-दोप‍हर के सूर्य की किरणों से जगत् आलोकित हो रहा है। रुपया इकट्ठा नहीं कर सकता तो जहाज का मजदूर बनकर विदेश चला जा। देशी वस्‍त्र, गमछा, सूप, झाड़ू सिर पर रखकर अमेरिका और यूरोप की सड़कों और गलियों में घूम-घूम कर बेच। देखेगा भारत में उत्‍पन्‍न चीज़ों का आज भी वहाँ कितना मूल्य है। हुगली के कुछ मुसलमान अमेरिका में ऐसा ही व्‍यापार कर धनवान बन गए हैं। क्‍या तुम लोगों की विद्या-बुद्धि उनसे भी कम है? देखना, इस देश में जो बनारसी साड़ी बनती है, उसके समान बढि़या कपड़ा पृथ्‍वी भर में और कहीं नहीं बनता। इस कपड़े को लेकर अमेरिका चला जा। उस देश में इस कपड़े से स्त्रियों के गाउन तैयार करने लग जा, फिर देख कितने रुपये आते हैं।

शिष्‍य-महाराज, वे लोग क्‍या बनारसी साड़ी का गाउन पहनेंगी? सुना है, रंग-बिरंगे कपड़े उनके देश की औरतें पसंद नहीं करतीं।

स्‍वामी जी-लेंगे या नहीं, यह मैं देखूँगा। हिम्‍मत करके चला तो जा। उस देश में मेरे अनेक मित्र हैं। मैं उनसे तेरा परिचय करा दूंगा। आरंभ में कह सुनकर उनमें उन चीज़ों का प्रचार करा दूँगा। उसके बाद देखेगा, कितने लोग उनकी नकल करते हैं। तब तो तुम उनकी माँग को पूर्ति करने में भी अपने को असमर्थ पायेगा।

शिष्य-पर व्‍यापार करने के लिए मूलधन कहाँ से आएगा ?

स्‍वामी जी-मैं किसी न किसी तरह तेरा काम शुरू करा दूंगा परंतु उसके बाद तुझे अपने ही प्रयत्‍न पर निर्भर रहना होगा। हतो वा प्राप्‍स्‍यसि स्‍वर्ग जित्‍वा वा भोक्ष्‍यसे महीम्- इस प्रयत्‍न में यदि तू मर भी जाएगा तो भी बुरा नहीं। तूझे देखकर और दूसरे दस व्‍यक्ति आगे बढ़ेंगे। और यदि सफलता प्राप्‍त हो गई तो फिर सुखपूर्वक जीवन व्‍यतीत करेगा।

शिष्‍य-परंतु महाराज, साहस नहीं होता।

स्‍वामी जी-इसीलिए तो मैं कहता हूँ कि भाई, तुममें श्रद्धा नहीं है-आत्‍मविश्‍वास भी नहीं। क्या होगा तुम लोगों का ? न तो तुमसे गृहस्‍थी होगी और न धर्म ही। यह तो इस प्रकार के उद्योग-धंधे करके संसार में यशस्‍वी, संपत्तिशाली बन, या सब कुछ छोड़-छाड़ कर हमारे पथ का अनुसरण करके लोगों को धर्म का उपदेश देकर उनका उपकार कर; तभी तू हमारी तरह भिक्षा पा सकेगा। लेन-देन न रहने पर कोई किसी की ओर नहीं ताकता। देख तो रहा है; हम धर्म की दो बातें सुनाते हैं, इसीलिए गृहस्‍थ लोग हमें अन्‍न के दो दाने दे रहे हैं। तुम लोग कुछ भी न करोगे तो लोग तुम्‍हें वह भी क्‍यों देंगे ? नौकरी में, गुलामी में, इतना दु:ख देखकर भी तुम लोग सचेत नहीं हो रहे हो। इसीलिए दु:ख भी दूर नहीं हो रहा है। यह अवश्‍य ही दैव माया का छल है। उस देश में मैंने देखा जो लोग नौकरी करते हैं, उनका स्‍थान लोक-सभा में बहुत पीछे होता है। पर जो लोग प्रयत्‍न करके विद्या-बुद्धि द्वारा स्‍वनामधन्‍य हो गए हैं, उनके बैठने के लिए सामने की सीटें रहती हैं। उन सब देशों में जाति-भेद का झंझट नहीं है। उद्यम एवं परिश्रम द्वारा जिन पर भाग्‍य-लक्ष्‍मी प्रसन्‍न है, वे ही देश के नेता और नियन्‍ता माने जाते हैं। और तुम्‍हारे देश में जाति-पाँति का मिथ्‍याभिमान है, इसीलिए तुम्‍हें अन्‍न तक नसीब नहीं। तुममें एक सुई तक तैयार करने की योग्‍यता करने की योग्‍यता नहीं और तुम्‍हीं लोग अंग्रेज़ों के गुण-दोषों की आलोचना करने को उद्यत होते हो। मूर्ख जा, उनके पैरों पड़; जीवन-संग्राम के उपयुक्‍त विद्या, शिल्‍पविज्ञान और क्रियाशीलता सीख, तभी तू योग्‍य बनेगा और तभी तुम लोगों का सम्‍मान होगा। वे भी उस समय तुम्‍हारी बात मानेंगे। केवल कांग्रेस बनाकर चिल्‍लाने से क्‍या होगा ? शिष्‍य-परंतु महाराज, देश के सभी शिक्षित लोग उसमें सम्मिलित हो रहे हैं।

स्‍वामी जी-कुछ उपाधियाँ प्राप्त करने या अच्छा भाषण दे सकने से ही क्‍या तुम्‍हारी दृष्टि में वे शिक्षित हो गए। जो शिक्षा साधारण व्‍यक्ति को जीवन-संग्राम में समर्थ नहीं बना सकती, जो मनुष्‍य में चरित्र-बल, पर-हित भावना तथा सिंह के समान साहस नहीं ला सकती, वह भी कोई शिक्षा है? जिस शिक्षा के द्वारा अपने जीवन में अपने पैरों पर खड़ा हुआ जाता है, वही शिक्षा है। आजकल के इन सब स्‍कूल-कॉलेजों में पढ़कर तुम लोग न जाने अजीर्ण के रोगियों की कैसी एक जमात तैयार कर रहे हो। केवल मशीन की तरह परिश्रम कर रहे हो और 'जाएस्‍व म्रियस्‍व' वाक्‍य के साक्षी रूप में खड़े हो। ये जो किसान, मजदूर, मोची, मेंहतर आदि हैं। इनकी कर्मशीलता और आत्‍मनिष्‍ठा तुममें से कइयों से कहीं अधिक है। वे लोग चिरकाल से चुपचाप काम करते जा रहे हैं, देश का धन-धान्‍य उत्‍पन्‍न कर रहे हैं, पर अपने मुँह से शिकायत नहीं कहते। वे लोग शीघ्र ही तुम लोगों से ऊपर उठ जाएंगे। धन उनके हाथ में चला जा रहा है-तुम्हारी तरह उसमें कमी नहीं है। वर्तमान शिक्षा से तुम्‍हारा सिर्फ बाहरी परिवर्तन होता जा रहा है-परंतु नई-नई उद्भावनी शक्ति के अभाव से तुम लोगों को धन कमाने का उपाय उपलब्‍ध नहीं हो रहा है। तुम लोगों ने इतने दिन इन सब सहनशील नीची जातियों पर अत्याचार किया है। अब ये लोग उसका बदला लेंगे और तुम लोग 'हा। नौकरी', 'हा। नौकरी' करके लुप्‍त हो जाओगे।

शिष्‍य-महाराज, दूसरे देशों की तुलना में हमारी बुद्धि उद्भावनी शक्ति कम होने पर भी भारत की अन्‍य सभी जातियाँ तो हमारी बुद्धि द्वारा ही संचालित हो रही हैं। अत: ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि उच्‍च जातियों की जीवन-संग्राम में पराजित कर सकने की शक्ति और शिक्षा अन्‍य जातियाँ कहाँ से पायेंगी ?

स्‍वामी जी-माना कि उन्‍होंने तुम लोगों की तरह पुस्‍तकें नहीं पढ़ी हैं, तुम्‍हारी तरह कोट-कमीज पहनकर सीय बनना उन्‍होंने नहीं सीखा, पर इससे क्‍या होता है ? वास्‍तव में वे ही राष्‍ट्र की रीढ़ हैं। यदि ये निम्‍न श्रेणियों के लोग अपना-अपना काम करना बंद कर दें तो तुम लोगों को अन्‍न-वस्त्र मिलना कठिन हो जाए। कलकत्ते में यदि मेंहतर लोग एक दिन के लिए काम बंद कर देते हैं तो 'हाय तोबा' मच जाती है। यदि तीन दिन वे काम बंद कर दें तो संक्रामक रोगों से शहर बर्बाद हो जाए। श्रमिकों के काम बंद करने पर तुम्‍हें अन्‍न-वस्‍त्र नहीं मिल सकता। इन्‍हें ही तुम लोग नीच समझ रहे हो और अपने को शिक्षित मानकर अभिमान कर रहे हो।

जीवन-संग्राम में सदा लगे रहने के कारण निम्‍न श्रेणी के लोगों में अभी तक ज्ञान का विकास नहीं हुआ। ये लोग अभी तक मानव बुद्धि द्वारा परिचालित यंत्र की तरह एक ही भाव से काम करते आए हैं, और बुद्धिमान चतुर व्‍यक्ति इनके परिश्रम तथा कार्य का सारा तथा निचोड़ लेते रहे हैं। सभी देशों में इसी प्रकार हुआ है। परंतु अब वे दिन नहीं रहे। निम्‍न श्रेणी के लोग धीरे-धीरे वह बात समझ रहे हैं और इसके विरुद्ध सब सम्मिलित रूप से खड़े होकर अपने समुचित अधिकार प्राप्‍त करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ हो गए हैं। यूरोप और अमेरिका में निम्‍न जातीय लोगों ने जाग्रत होकर इस दिशा में प्रयत्‍न भी प्रारंभ कर दिया है, और आज भारत में भी इसके लक्षण दृष्टिगोचर हो रहे हैं। निम्‍न श्रेणी के व्‍यक्तियों द्वारा आजकल जो इतनी हड़तालें हो रही हैं, वे इनकी इसी जाग्रति का प्रमाण है। अब हज़ार प्रयत्‍न करके भी उच्‍च जाति के लोग निम्‍न श्रेणियों को अधिक दबाकर नहीं रख सकेंगे। अब निम्‍न श्रेणियों के न्‍यायसंगत अधिकार की प्राप्ति में सहायता करने में ही उच्‍च श्रेणियों का भला है।

इसलिए कहता हूँ कि तुम लोग ऐसे काम में लग जाओ, जिससे साधारण श्रेणी के लोगों में विद्या का विकास हो। जाकर इन्‍हें समझा कर कहो-'तुम हमार भाई हो, हमारे शरीर के अंग हो। हम तुमसे प्रेम करते हैं, घृणा नहीं।' तुम लोगों की यह सहानुभूति पाने पर ये लोग सौ गुने उत्‍साह के साथ काम करने लगेंगे। आधुनिक विज्ञान की सहायता से इनमें ज्ञान का विकास कर दो। इतिहास, भूगोल, विज्ञान, साहित्‍य और साथ ही साथ धर्म के गंभीर तत्‍व इन्‍हें सिखा दो। उससे शिक्षकों की भी दरिद्रता मिट जाएगी और इस प्रकार के आदान-प्रदान से दोनों आपस में मित्र जैसे बन जाएंगे।

शिष्‍य-परंतु महाराज, इनमें शिक्षा का प्रचार होने पर, फिर ये लोग भी समय आने पर हमारी ही तरह बुद्धिमान किंतु निश्‍चेष्‍ट तथा आलसी बनकर अपने से निम्‍न श्रेणी के लोगों के परिश्रम से लाभ उठाने लग जाएंगे।

स्‍वामी जी-ऐसा क्‍यों होगा? ज्ञान का विकास होने पर भी कुम्हार ही रहेगा-मछुआ-मछुआ ही बना रहेगा-किसान खेती का काम करेगा कोई अपना जातीय धंधा क्‍यों छोड़ेगा सहजं कर्म कौन्‍तेय सदोषमपि न त्‍यजेत् (हे अर्जुन, अपने सहज कर्म को सदोष होने पर भी त्‍यागना नहीं चाहिए।)-इस प्रकार की शिक्षा पाने पर वे अपने-अपने व्‍यवसाय क्‍यों छोड़ेंगे? विद्या के बल से अपने सहज कर्म को वे और भी अच्‍छी तरह से करने का प्रयत्‍न करेंगे। समय पर उनमें से दस-पाँच प्रतिभाशाली व्‍यक्ति अवश्‍य उठ खड़े होंगे। उन्‍हें तुम अपनी उच्‍च श्रेणी में सम्मिलित कर लोगे। तेजस्‍वी विश्‍वामित्र को जो ब्राह्मणों ने ब्राह्मण मान लिया था, इससे क्षत्रिय जाति ब्राह्मणों के प्रति कितनी कृतज्ञ हुई थी-कहो तो ? उसी प्रकार सहानुभूति और सहायता प्राप्‍त करने पर मनुष्‍य तो दूर रहा, पशु-पक्षी भी अपने बन जाते हैं।

शिष्‍य-महाराज, आप जो कुछ कह रहे हैं वह सत्‍य है, परंतु ऐसा प्रतीत होता है कि अभी भी उच्‍च तथा निम्‍न श्रेणी के लोगों में बड़ा अंतर है। भारत की निम्‍न जातियों के प्रति उच्‍च श्रेणी के लोगों से सहानुभूति की भावना लाना बड़ा ही कठिन काम ज्ञात होता है।

स्‍वामी जी-परंतु ऐसा न होने से तुम्हारा (उच्‍च जातियों का) भला नहीं। तुम लोग हमेशा से जो कुछ करते आ रहे हो, वह तुम्‍हारा पृथकता का प्रयत्‍न रहा है। आपस की मार-काट ही करते हुए मर मिटोगे। ये निम्‍न श्रेणी के लोग जब जाग उठेंगे और अपने ऊपर होनेवाले तुम लोगों के अत्‍याचारों को समझ लेंगे, तब उनकी फूँक से ही तुम लोग उड़ जाओगे। उन्‍हीं ने तुम्‍हें रोमन सभ्‍यता गॉल जाति के पंजे में पकड़कर कहाँ चली गई। इसीलिए कहता हूँ, इन सब निम्‍न जाति के लोगों को विद्या-दान, ज्ञान-दान देकर इन्‍हें नींद से जगाने के लिए सचेष्‍ट हो जाओ। जब वे लोग जागेंगे-और एक दिन वे अवश्‍य जागेंगे-तब वे भी तुम लोगों के किये उपकारों को नहीं भूलेंगे और तुम लोगों के प्रति कृतज्ञ रहेंगे।

इस प्रकार वार्तालाप के बाद स्‍वामी जी ने शिष्‍य से कहा-ये सब बातें अब रहने दे-तूने अब क्‍या निश्‍चय किया, कह मैं तो कहता हूँ, जो कुछ भी हो तू कुछ कर अवश्‍य। या तो किसी व्‍यापार के लिए चेष्टा कर, या तो हम लोगों की तरह आत्‍मनो मोक्षार्थ जगद्धिताय च ( अपने मोक्ष के लिए तथा जगत् के कल्‍याण के लिए)-यथार्थ संन्‍यास के पथ का अनुसरण कर। यह अंतिम पथ ही निस्‍संदेह श्रेष्‍ठ पथ है, व्‍यर्थ ही गृहस्‍थ बनने से क्‍या होगा ? समझा न, सभी क्षणिक है-नलिनीदलगतजलमतितरलं तद्वज्‍जीवनमतिशयचपलम् ( कमल के पत्र पर रखा आ पानी चंचल होता है, उसी के समान जीवन अत्‍यंत चपल है)। अत: यदि इसी आत्‍मविश्‍वास को प्राप्‍त करने के लिए उत्‍कंठित है तो फिर समय न गँवा आगे बढ़। यदहरवे विरजेत् तदहरवे प्रव्रजेत। (जिस दिन संसार से वैराग्‍य उत्‍पन्‍न, हो, उसी दिन उसे त्‍याग कर संन्‍यास ग्रहण करना चाहिए) दूसरों के लिए अपने जीवन का बलिदान देकर लोगों के द्वार-द्वार जाकर यह अभयवाणी सुना- उत्तिष्‍ठत जाग्रत प्राप्‍य वरान्निबोधते।

२०

[स्‍थान : बेलूड़ , किराये का मठ-भवन। वर्ष : १८९८ ई॰]

जिस समय मठ आलमबाजार से लाकर बेलूड़ में नीलाम्‍बर बाबू के बगीचे में स्‍थापित किया गया, उसके थोड़े दिन बाद स्‍वामी ने अपने गुरुभाईयों के सामने जनसाधारण में श्री रामकृष्‍ण के भावों के प्रचार के लिए बांग्ला में एक समाचार-पत्र निकालने का प्रस्‍ताव रखा । स्‍वामी जी ने पहले एक दैनिक समाचार-पत्र निकालने का प्रस्‍ताव किया था। परंतु उसके लिए काफी धन की काफी धन आवश्‍यक होने के कारण एक पाक्षिक पत्र प्रकाशित करने का प्रस्‍ताव ही सर्वसम्‍मति से स्‍वीकृत हुआ और स्‍वामी त्रिगुणातीतानंद को उसके संचालन का भार सौंपा गया। स्‍वामी जी के पास एक हज़ार रुपये थे। श्री रामकृष्‍ण के एक गृहस्‍थ भक्‍त (स्‍वर्गीय हरमोहन मिश्र) ने और एक हज़ार रुपये का ऋण के रूप में दिए। उससे काम शुरू हुआ। एक छापखाना जो स्‍वामी जी के जीवन-काल में ही कई कारणों से बेंच दिया गया था, खरीदा गया और श्‍यामबाजार की 'रामचन्द्र मैत्र लेन' में श्री गिरीन्‍द्रनाथ बसाक के घर पर वह प्रेस रखा गया। स्‍वामी त्रिगुणातीतानंद ने इस प्रकार कार्यभार ग्रहण करके बांग्ला सन् १३०५, माघ के प्रथम दिन उक्‍त 'पत्र' का प्रथम अंक प्रकाशित किया। स्‍वामी जी ने उस पत्र का नाम 'उद्बोधन' रखा और उसकी उन्‍नति के लिए स्‍वामी त्रिगुणातीतानंद को अनेकानेक आशीर्वाद दिए। अथक परिश्रमी स्‍वामी त्रिगुणातीतानंद ने स्‍वामी जी के निर्देश पर उसके मुद्रण तथा प्रचार के लिए जो परिश्रम किया था, वह अवर्णनीय है। कभी भक्‍त-गृहस्‍थ के भिक्षान्‍न पर निर्वाह कर, कभी अभुक्‍त रहकर, कभी प्रेस तथा पत्र संबंधी कार्य के लिए दस-दस मील तक पैदल चलकर स्‍वामी त्रिगुणातीतानंद उक्‍त पत्र की उन्‍नति तथा प्रचार के लिए प्राणपण से प्रयत्‍न में लग गए। उस समय पैसा देकर कर्मचारी रखना संभव न था और स्‍वामी जी का आदेश था कि पत्र के लिए एकत्र धन में से एक पैसा भी पत्र के अतिरिक्‍त अन्‍य किसी कार्य में खर्च न किया जाए; इसीलिए स्‍वामी त्रिगुणातीतानंद ने भक्‍तों के घर भिक्षा ग्रहण कर जैसे-जैसे अपने भोजन और वस्‍त्र का प्रबंध करते हुए उक्‍त निर्देश का अक्षरक्ष: पालन किया था।

पत्र की प्रस्‍तावना स्‍वामी जी ने स्‍वयं लिख दी थी और निश्‍चय हुआ कि श्री रामकृष्‍ण के संन्‍यासी तथा गृहस्थ भक्‍त ही इस पत्र में लेख आदि लिखेंगे तथा किसी भी प्रकार के अश्‍लील विज्ञापन आदि का इस पत्र में प्रकाशित न होंगे। श्री रामकृष्‍ण मिशन एक संघ का रूप धारण कर चुका था। स्‍वामी जी ने मिशन के सदस्‍यों से इस पत्र में लेख आदि लिखने तथा श्री रामकृष्‍ण के धर्म संबंधी मतों का पत्र की सहायता से जनसाधारण में प्रचार करने के लिए अनुरोध किया। पत्र का प्रथमअंक प्रकाशित होने पर एक दिन शिष्‍य मठ में उपस्थित हुआ। प्रणाम करके बैठ जाने पर उससे स्‍वामी जी ने 'उद्बोधन' पत्र के संबंध में वार्तालाप प्रारंभ किया-

स्‍वामी जी-(पत्र के नाम को हँसी-हँसी में विकृत करके)-'उद्बंधन' देखा है ?

शिष्‍य-जी, हाँ, सुंदर है।

स्‍वामी जी-इस पत्र के भाव-भाषा सभी कुछ नए ढाँचे में गढ़ने होंगे।

शिष्‍य-कैसे ?

स्‍वामी जी-श्री रामकृष्‍ण का भाव तो सबको देना होगा ही; साथ ही बंगाल भाषा में नया जोश लाना होगा। उदाहरणार्थ, बार-बार केवल क्रियापद का प्रयोग करने से भाषा की शक्ति घट जाती है; विशेषण देकर क्रियापदों का प्रयोग घटा देना होगा। तू ऐसी भाषा में निबंध लिखना शुरू कर दे। पहले मुझे दिखाकर फिर 'उद्बोधन' में प्रकाशित होने के लिए भेजते जाना।

शिष्‍य-महाराज, स्‍वामी त्रिगुणातीतानंद इस पत्र के लिए जितना परिश्रम कर रहे हैं, वह दूसरों के लिए असंभव है।

स्‍वामी जी-तो क्या तू समझता है कि श्री रामकृष्‍ण की ये सब संन्‍यासी संतान केवल पेड़ के नीचे धूनी जलाकर बैठे रहने के लिए ही पैदा हुई है ? इनमें से जो जिस समय जिस कार्यक्षेत्र में अवतीर्ण होगा, उस समय उसका उद्यम देखकर लोग दंग रह जाएंगे। इससे सीख, काम कैसे करना चाहिए। यह देख, मेरे आदेश का पालन करने के लिए त्रिगुणातीत साधन-भजन, ध्‍यान-धारणा तक छोड़कर कर्तव्‍य-क्षेत्र में उतर पड़ा है। क्‍या यह कम त्‍याग की बात है? मेरे प्रति कितने प्रेम से कर्म की यह प्रेरणा उसमें आयी है देख तो, पूरा काम होने पर ही वह उसे छोड़ेगा क्‍या तुम लोगों में है ऐसी दृढ़ता ?

शिष्य-परंतु महाराज, गेरुआ, वस्‍त्र पहने संन्‍यासी का गृहस्‍थों के द्वार-द्वार पर इस प्रकार घूमना-फिरना हमारी दृष्टि में उचित नहीं।

स्‍वामी जी-क्‍यों पत्र का प्रचारतो गृहस्‍थों के ही कल्‍याण के लिए है। देश में नवीन भाव के प्रचार से जनसाधारण का कल्‍याण होगा। क्‍या तू इस फलाकांक्षारहित कर्म को साधन-भजन से कम महत्‍वपूर्ण समझता है ? हमारा उद्देश्‍य है जीवों का कल्‍याण करना। इस पत्र की आमदनी से हमारा इरादा पैसा कमाने का नहीं। हम सर्वत्‍यागी संन्‍यासी हैं; हमारे स्‍त्री-पुत्र नहीं हैं जो उनके लिए कुछ छोड़ जाएंगे। यदि काम सफल हो तथा आमदनी बढ़े तो इसकी सारी आमदनी जीव-सेवा में खर्च होगी। स्‍थान-स्थान पर संघ और सेवाश्रम स्‍थापित करने तथा अन्‍यान्‍य कल्‍याणकारी कार्यों में इससे बचे हुए धन का सदुपयोग हो सकेगा। हम लोग गृहस्‍थों की तरह धन-संग्रह के उद्देश्‍य से यह काम नहीं कर रहे हैं। केवल परहित के लिए ही हमारे सब काम हैं,यह जान लेना।

शिष्‍य-फिर भी सभी लोग इस भाव को समझ नहीं सकते।

स्‍वामीजी-न सही-इससे हमारा क्‍या बनेगा या बिगड़ेगा ? हम निंदा या प्रशंसा की परवाह करके कार्य में अग्रसर नहीं हुए।

शिष्‍य-महाराज, यह पत्र पंद्रह दिन के बाद प्रकाशित होगा; हमारी इच्‍छा है यह साप्‍ताहिक हो।

स्‍वामी जी-यह तो ठीक है, परंतु उतना धन कहाँ ? श्री रामकृष्ण की इच्‍छा से यदि रुपये की व्‍यवस्‍था हो जाएगी तो कुछ समय के पश्‍चात इसे दैनिक भी किया जा सकता है और प्रतिदिन इसकी लाखों प्रतियाँ छपकर कलकत्ते की गली-गली में बिना मूल्‍य बाँटी जा सकती हैं।

शिष्‍य-आपका यह संकल्‍प बहुत ही उत्तम है।

स्‍वामी जी-मेरी इच्छा है इस पत्र को स्‍वावलंबी बनाकर तुझे संपादक बना दूँ। किसी चीज़ को पहले-पहल खड़ा करने की शक्ति तो तुम लोगों में अभी नहीं आयी। इसमें से ये तो सब सर्वत्‍यागी साधु ही समर्थ हैं। ये लोग काम करते-करते मर जाएंगे, फिर भी हटने वाले नहीं। तुम लोग थोड़ी बाधा आते ही थोड़ी निंदा सुनते ही चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा देखने लगते हो।

शिष्य-हाँ, उस दिन हमने देखा था कि स्‍वामी त्रिगुणातीतानंद ने पहले श्री रामकृष्‍ण के चित्र की प्रेस में पूजा कर ली और तब काम प्रारंभ किया। साथ ही काम सफलता के लिए आपकी कृपा की प्रार्थना की।

स्‍वामी जी-हमारे केंद्र तो श्री रामकृष्‍ण ही हैं। हम एक-एक व्‍यक्ति उसी प्रकाश-केंद्र की एक-एक किरण मात्र हैं। श्री रामकृष्‍ण की पूजा करके काम का आरंभ किया, यह अच्छा किया। परंतु उसने पूजा की बात तो मुझसे कुछ भी नहीं कही ?

शिष्‍य-महाराज, वे आपसे डरते हैं। उन्‍होंने मुझसे कल कहा, 'तू पहले स्‍वामी जी के पास जाकर जान आ कि पत्र के प्रथम अंक के बारे में उनकी क्‍या राय है, फिर मैं उनसे मिलूँगा।'

स्‍वामी जी-तू जाकर कह दे, मैं उसके काम से बहुत प्रसन्‍न हुआ हूँ। उससे मेरा आशीर्वाद भी कहना और तुम लोग सब जहाँ तक हो सके उसकी सहायता करना। यह तो श्री रामकृष्‍ण का ही काम है।

इतनी बातें कहकर स्‍वामी जी ने ब्रह्मानंद जी को पास बुलाया और आवश्‍यकतानुसार भविष्‍य में 'उद्बोधन' के लिए त्रिगुणातीतानंद जी की ओर अधिक धन देने का आदेश दिया। उस दिन रात को भोजन के पश्‍चात् स्‍वामी जी ने फिर शिष्‍य के साथ 'उद्बोधन' पत्र के संबंध में चर्चा की।

स्‍वामी जी-'उद्बोधन' द्वारा जनसाधारण के सामने भावात्‍मक आदर्श रखना होगा। 'नही, नहीं' की भावना मनुष्‍य को दुर्बल बना डालती है। देखता नहीं, जो माता-पिता दिन-रात बच्‍चों को लिखने-पढ़ने पर जोर देते रहते हैं, कहते हैं, 'इसका कुछ सुधार नहीं हेागा; यह मूर्ख है, गधा है', आदि-आदि-उनके बच्‍चे अधिकांश वैसे ही बन जाते हैं। बच्‍चों को अच्‍छा कहने से और प्रोत्‍साहन देने से समय आने पर वे स्‍वयं ही अच्‍छे बन जाते हैं। जो नियम बच्‍चों के लिए हैं, वे ही उन लोगों के लिए भी हैं,जो भाव-राज्‍य के उच्‍च अधिकारी की तुलना में उनके शिशुओं की तरह है। यदि जीवन के रचनात्‍मक भाव उत्‍पन्‍न किये जा सकें तो साधारण व्‍यक्ति भी मनुष्‍य बन जाएगा और अपने पैरों पर खड़ा होना सीख सकेगा। मनुष्‍य भाषा, साहित्‍य, दर्शन, कविता, शिल्‍प आदि अनेकानेक क्षेत्रों में जो प्रयत्‍न कर रहा है उसमें वह अनेक गलतियाँ करता है। आवश्यक यह है कि हम उसे उन गलतियों को न बतलाकर प्रगति के मार्ग पर धीरे-धीरे अग्रसर होने के लिये सहायता दें। ग‍लतियाँ दिखाने से लोगों की भावना को ठेस पहुँचती है तथा वे हतोत्‍साह हो जाते हैं। श्री रामकृष्‍ण को हमने देखा है-जिन्‍हें हम त्‍याज्‍य मानते थे, उन्‍हें भी वे प्रोत्‍साहित करके उनके जीवन की गति को मोड़ देते थे। शिक्षा देने का उनका ढंग ही बड़ा अद्भुत था।

इसके पश्‍चात् स्‍वामी जी किंचित चुप हो गए। थोड़ी देर बाद फिर कहने लगे, 'धर्म प्रचार के काम को किसी पर भी बात-बात में नाक-भौं सिकोड़ने का काम न समझ लेना। शरीर, मन और आत्‍मा से संबद्ध सभी बातों में मनुष्‍य को सुनिश्चित भाव देना होगा, परंतु घृणा के साथ नहीं। आपस में एक दूसरे से घृणा करते-करते ही तुम लोगों का अध: पतन हुआ है। अब केवल सबल तथा जीवन को संगठित करने का भाव फैलाकर लोगों को उठाना होगा-पहले हिंदू जाति को और उसके बाद दुनिया को। असल में श्री रामकृष्‍ण के अवतीर्ण होने का उद्देश्‍य ही यह था। उन्‍होंने जगत् में किसी का भाव नष्‍ट नहीं किया। उन्‍होंने महापति मनुष्‍य को भी अभय और उत्‍साह देकर उठा लिया है। हमें भी उनके चरण-चिह्नों का अनुसरण कर सभी को उठाना होगा-जगाना होगा-समझा?

'तुम्‍हारे इतिहास, साहित्‍य, पुराण आदि सभी शास्‍त्र मनुष्‍य को केवल डराने का ही कार्य करते हैं। मनुष्‍य से केवल कह रहे हैं-'तू नरक में जाएगा, तेरी रक्षा का कोई उपाय नहीं है।' इसलिए भारत की नस-नस में इतनी अवसन्‍नता आ गई है। अत: वेद-वेदांत के उच्‍च भावों को सरल भाषा में लोगों को समझा देना होगा। सदाचार, सद्व्‍यवहार और शिक्षा का प्रचार कर ब्राह्मण और चांडाल को एक ही भूमि पर खड़ा करना होगा। 'उद्बोधन' में इन्‍हीं विषयों पर लिखकर बालक, वृद्ध, स्‍त्री, पुरुष सभी को उठा दे तो देखूँ। तभी जानूँगा तेरा वेद-वेदांत पढ़ना सफल हुआ है। क्‍या कहता है, बोल, कर सकेगा ?'

शिष्य-मन कहता है, आपका आशीर्वाद और आदेश होने पर सभी विषयों में सफल हो सकूँगा।

स्‍वामी जी-एक बात और, तुम्‍हें शरीर को दृढ़ बनाना सीखना होगा और यही दूसरों को भी सिखाना होगा। देखता नहीं, मैं अभी भी प्रतिदिन डंबल करता हूँ। रोज सबेरे-शाम टहलो, शारीरिक परिश्रम करो-शरीर और मन साथ ही साथ उन्‍नत होने चाहिए। सभी बातों में दूसरों पर निर्भर रहने से कैसे काम चलेगा। शरीर को सुदृढ़ बनाने की आवश्‍यकता समझने पर तू स्‍वयं ही उस विषय में सचेष्‍ट रहेगा। इस आवश्‍यकता को समझने के ही लिए तो शिक्षा की ज़रूरत है।

२१

[स्थान: कलकत्ता]

आज तीन दिन से स्‍वामी जी बागबाजार के स्‍व. बलराम बसु के मकान पर निवास कर रहे हैं। प्रतिदिन अगणित लोगों की भीड़ होती है। स्‍वामी योगानंद भी स्‍वामी जी के साथ निवास कर रहे हैं। आज भगिनी निवेदिता को साथ लेकर स्‍वामी जी अलीपुर का 'जू' (पशुशाला) देखने जाएंगे। शिष्य के उपस्थित होने पर उससे तथा स्‍वामी योगानंद से उन्‍होंने कहा, 'तुम लोग पहले चले जाओ-मैं निवेदिता को लेकर गाड़ी पर थोड़ी देर में आ रहा हँ।

स्‍वामी योगानंद शिष्‍य को साथ लेकर ट्राम द्वारा करीब ढाई बजे रवाना हो गए। उस समय घोड़े की ट्राम चलती थी। दिन के करीब चार बजे पशुशाला में पहुँचकर उन्होंने बगीचे के सुपरिटेंडेंट रायबहादुर बाबू रामब्रह्म सान्‍याल से भेंट की। स्‍वामी जी आ रहे हैं, यह जानकर रामब्रह्म बाबू हबहुत ही प्रसन्न हुए और स्‍वामी जी का स्‍वागत करने के लिए स्‍वयं बगीचे के फाटक पर खड़े रहे। करीब साढ़े चार बजे स्‍वामी जी भगिनी निवेदिता को साथ लेकर वहाँ पहुँचे। रामब्रह्म बाबू भी बड़े आदर-सत्‍कार के साथ स्‍वामी जी तथा निवेदिता का स्‍वागत कर उन्हें पशुशाला के भीतर ले गए और करीब ढेढ़ घंटे तक उनके साथ-साथ घूमते हुए बगीचे के विभिन्न स्‍थानों को दिखाते रहे। स्‍वामी योगानंद भी शिष्‍य के साथ उनके पीछे-पीछे चले।

रामब्रह्म बाबू वनस्‍पति शास्‍त्र के अच्‍छे पंडित थे। बगीचे के नाना प्रकार के वृक्षों को दिखाते हुए वनस्‍पति शास्‍त्र के मतानुसार कालक्रम में वृक्षादि की किस प्रकार क्रम-परिणति हुई है, यह बतलाते हुए आगे बढ़ने लगे। तरह-तरह के जानवरों को देखते हुए स्‍वामी जी भी बीच-बीच में जीव की कम-परिणित के संबंध में डारविन के मत की आलोचना करने लगे। शिष्‍य को स्‍मरण है, साँप के घर में जाकर उन्‍होंने बदन पर चक्र जैसे दाग वाले एक बृहत् साँप को दिखाकर कहा 'देखो, इसी से काल-क्रम में कछुआ पैदा हुआ है। उसी साँप के बहुत दिनों तक एक स्‍थान पर बैठे रहने के कारण धीरे-धीरे उसकी पीठ कड़ी हो गई है।' इतना कहकर स्‍वामी जी ने शिष्‍य से हँसी-हँसी में पूछा, 'तुम लोग कछुआ खाते हो न ? डरविन के मत में यह साँप ही कालक्रम से कछुआ बन गया है; -तो बात यह है कि तुम लोग साँप खाते हो।' शिष्‍य ने सुनकर मुँह फेरकर कहा-'महाराज, कोई चीज़ क्रम-विकास के द्वारा दूसरी चीज़ बन जाने पर जब उसका पहले का आकार और प्रकृति ही नहीं रहती, तब कछुआ खाने से साँप खाना कैसे हुआ ? यह आप कैसे कह रहे हैं ?'

शिष्‍य की बात सुनकर स्‍वामी जी तथा रामब्रह्म बाबू हँस पड़े और भगिनी निवेदिता को यह बात समझा देने पर वे भी हँसने लगीं। धीरे-धीरे सभी लोग उस कटघरे की ओर बढ़ने लगे जिसमें शेर, बाघ आदि रहते थे।

रामब्रह्म बाबू के आज्ञानुसार वहाँ के चपरासी लोग शेरों तथा बाघों के लिए अधिक परिणाम में मांस लाकर हमारे समाने ही उन्‍हें खिलाने लगे। उनकी सानंद गर्जना सुनकर तथा साग्रह भक्षण देखकर हम लोग बड़े प्रसन्‍न हुए। इसके थोड़ी देर बाद हम सभी बगीचे में स्थित रामब्रह्म बाबू के मकान में आए। वहाँ पर चाय तथा जलपान आदि की व्‍यवस्था हुई। स्‍वामी जी ने थोड़ी सी चाय पी। निवेदिता ने भी चाय पी। एक ही मेज पर बैठकर भगिनी निवेदिता की छुई हुई मिठाई तथा चाय लेने में मेरा संकोच देख स्‍वामी जी ने शिष्‍य से कई बार अनुरोध करके मिठाई खिलायी और स्‍वयं जल पीकर बचा हुआ जल शिष्‍य को पीने के लिए दे दिया। इसके बाद डारविन के विकासवाद के संबंध में थोड़ी देर तक चर्चा होती रही।

रामब्रह्म बाबू-डारविन ने विकासवाद तथा उसके कारण जिस तरह समझाये हैं, उसके बारे में आपकी क्या राय है?

स्‍वामी जी-डारविन की बातें ठीक होने पर भी मैं ऐसा नहीं मान सकता कि उनका मत विकास के कारण के संबंध में अंतिम निर्णय है।

रामब्रह्म बाबू-क्‍या इस विषय पर हमारे देश के प्राचीन विद्वानों ने किसी प्रकार का विचार नहीं किया ?

स्‍वामी जी-सांख्‍य दर्शन में इस विषय पर पर्याप्‍त विचार किया गया है। मेरी सम्‍मति में क्रम-विकास के कारण के बारे में भारत के प्राचीन दार्शनिकों का सिद्धांत ही अंतिम निर्णय है।

रामब्रह्म बाबू-यदि संक्षेप में उसे सिद्धांत को समझाना संभव हो तो सुनने की इच्छा होती है।

स्‍वामी जी-निम्‍न जाति को उच्‍च जाति में परिणत करने में पाश्‍चात्‍यों की राय में 'जीवन-संग्राम', 'बलिष्‍ठ की अतिजीविता', 'प्राकृतिक चयन' आदि जिन सब नियमों को कारण माना गया है, आप उन्हें अवश्‍य ही जानते होंगे। परंतु पातंजल दर्शन उनमें से एक को भी उसका कारण नहीं माना गया है। पतंजलि की राय है कि प्रकृत्‍यापूरात् -अर्थात् प्रकृति पूर्ति-क्रिया द्वारा एक जाति दूसरी जाति का में परिणत हो जाती हैं, विघ्‍नों के साथ दिन-रात संघर्ष करके नहीं। मैं समझता हूँ कि संघर्ष और प्रतिद्वन्द्विता तो बहुधा जीव की पूर्णता प्राप्ति में रूकावटें बन जाती हैं। यदि हज़ार जीवों का विनाश करके एक जीव क्रमोन्‍नति होती है, (जिसका पाश्‍चात्‍य दर्शन समर्थन करता है) तो फिर कहना होगा कि क्रम-विकास द्वारा जगत् की कोई विशेष उन्‍नति नहीं हो रही है। फिर जागतिक उन्‍नति की बात यदि ठीक बैठ भी जाए तो यह बात कौन नहीं मानेगा कि आध्‍यात्मिक विकास के लिए वह विशेष विघ्‍नकार‍क है। हमारे दार्शनिकों का कहना है कि सभी जीव पूर्ण आत्‍मा हैं। इस आत्‍मा के प्रकाश के कम-ज्‍यादा होने के कारण ही प्रकृति की अभिव्‍यक्ति तथा विकास में विभिन्‍नता दिखायी देती है। प्रकृति की अभिव्‍यक्ति एवं विकास में जो विघ्‍न हैं, वे जब संपूर्ण रूप से दूर हो जाते हैं, तब पूर्ण भाव से आत्‍मप्रकाश होता है। प्रकृति की अभिव्‍यक्ति के निम्‍न स्‍तरों में चाहे जो हो, परंतु उच्‍च स्‍तरों में उन्‍हें दूर करने के लिए इन विघ्‍नों के साथ दिन-रात संघर्ष करना आवश्‍यक नहीं है। देखा जाता है, वहाँ शिक्षा-दीक्षा, ध्‍यान-धारणा एवं प्रधानतया त्‍याग के ही द्वारा विघ्‍न दूर हो जाते हैं अथवा अधिक से अधिकतर आत्‍मप्रकाश होता रहा है। अत: विघ्‍नों को आत्‍मप्रकाश का कार्य न कहकर कारण कहना तथा प्रकृति की इस विचित्र अभिव्‍यक्ति का सहायक कहना ठीक नहीं है। हज़ार पापियों के प्राणों का नाश करके जगत् से पाप को दूर करने की चेष्टा करने से जगत् में पाप की वृद्धि ही होती है। परंतु यदि उपदेश देकर जीव को पाप से निवृत्त किया जा सके तो जगत् में फिर पाप नहीं रहेगा। अब देखिए, पाश्‍चात्‍यों के संघर्ष सिद्धांत अर्थात् जीवों का आपस में संघर्ष एवं प्रतिद्वन्द्विता द्वारा उन्‍नति करने का सिद्धांत कितना भयानक मालूम होता है।

रामब्रह्म बाबू स्‍वामी जी की बातों को सुनकर दंग रह गए। अंत में कहने लगे, 'इस समय भारत में आप जैसे प्राच्‍य तथा पाश्‍चात्‍य दर्शनों में पारंगत विद्वानों की ही आवश्‍यकता है। ऐसे ही विद्वान एकदेशदर्शी शिक्षित जनसमुदाय की भूलों को साफ-साफ दिखा दे सकते हैं। आपकी विकासवाद की नवीन व्‍याख्‍या सुनकर मैं विशेष आनंदित हुआ।'

चलते समय रामब्रह्म बाबू ने बगीचे के फाटक तक आकर स्‍वामी जी को विदा किया और वचन दिया कि किसी अन्‍य दिन उपयुक्‍त अवसर देखकर फिर एकांत में स्‍वामी जी से भेंट करेंगे। मैं कह नहीं सकता कि रामब्रह्म बाबू को उसके बाद फिर कभी स्‍वामी जी के पास जाने का अवसर मिला या नहीं, क्‍योंकि इस घटना के थोड़े ही दिन बाद उनकी मृत्‍यु हो गई थी।

शिष्‍य स्‍वामी योगानंद के साथ ट्राम पर सवार होकर रात के करीब ८ बजे बागबाजार लौटा। स्‍वामी जी उससे करीब पंद्रह मिनट पहले लौटकर आराम कर हरे थे। लगभग आधे घंटे विश्राम करने के बाद वे बैठकर में हमारे पास उपस्थित हुए। उस समय वहाँ पर स्‍वामी योगानंद, स्‍व; शरच्‍चंद्र सरकार, शाशिभूषण घोष (डॉक्‍टर) विपिनबिहारी घोष (डॉक्‍टर), शांतिराम घोष आदि परिचित मित्रगण तथा स्‍वामी जी की दर्शन की इच्‍छा से आए हुए पाँच-छ: अन्य सज्‍जन भी उपस्थित थे। यह जानकर कि आज स्‍वामी जी ने पशुशाला देखने के लिए जाकर रामब्रह्म बाबू से विकासवाद की अपूर्व व्‍याख्या की है, सभी लोग उक्‍त प्रसंग को विशेष रूप से सुनने के लिए पहले से ही उत्‍सुक थे। अत: उनके आते ही सबकी इच्छा के अनुसार शिष्‍य ने उसी प्रसंग को उठाया।

शिष्‍य-महाराज, पशुशाला में आपने विकासवाद के संबंध में जो कुछ कहा था, उसे मैं अच्‍छी तरह समझ न सका। कृपया उसे सरल भाषा में फिर कहिए।

स्‍वामी जी-क्‍यों, क्या नहीं समझा ?

शिष्‍य-यही कि आपने पहले अनेक बार हमसे कहा है कि बाहरी शक्तियों के साथ संघर्ष करने की क्षमता ही जीवन का चिह्न है और वहीं उन्‍नति की सीढ़ी है। आज आपने बतलाया वह कुछ उलटा सा लगा।

स्‍वामी जी-उलटा क्‍यों बताऊँगा, वरन् तू ही ही समझ नहीं सका। निम्न प्राणि-जगत् में हम वास्‍तव में जीवित रहने के लिए संघर्ष, सबसे अधिक बलिष्‍ठ का अतिजीवन आदि नियम प्रतयक्ष देखते हैं। इसीलिए डारविन का मतवाद कुछ-कुछ सत्‍य ज्ञान होता है। परंतु मनुष्‍य-जगत् में जहाँ ज्ञान-बुद्धि का विकास है, वहाँ हम उक्‍त नियम के विपरीत ही देखते हैं। उदाहरणार्थ, जिन्‍हें हम वास्‍तव में महान पुरुष या आदर्श पुरुष समझते हैं, उनका बाह्य जगत् से संघर्ष बिल्‍कुल नहीं दिखायी देता। पशु-जगत् में संस्‍कार अथवा स्‍वाभाविक ज्ञान की प्रबलता है। परंतु मनुष्‍य ज्‍यों-ज्यों उन्‍नत होता जाता है, त्‍यों-त्‍यों उसमें बुद्धि का विकास होता जाता है। इसीलिए मनुष्‍येतर प्राणि-जगत् की तरह बुद्धियुक्‍त मनुष्‍य-जगत् में दूसरों का नाश करके उन्‍नति नहीं हो सकती। मानव का सर्वश्रेष्‍ठ पूर्ण विकास एकमात्र त्‍याग के द्वारा ही संपन्न होता है। जो दूसरे के लिए जितना ध्‍वंस कर सकता है, वह उतना ही बलवान समझा जाता है। अत: जीवन-संघर्ष का तत्व इन दोनों क्षेत्रों में एक सा उपयोगी नहीं हो सकता। मनुष्‍य का संघर्ष है मन में। मन को जो जितना वश में कर सका, वह उतना बड़ा बना है। मन के संपूर्ण रूप से वृत्तिविहीन बनने से आत्‍मा का विकास होता है। मनुष्‍य से भिन्‍न प्राणि-जगत् में स्‍थूल देह के संरक्षण के लिए जो संघर्ष होते देख जाते हैं, वे ही मानव जीवन में मन पर प्रभुता स्‍थापित करने के लिए अथवा सत्तवृत्ति संपन्न बनने के लिए होते रहते हैं। जीवित वृक्ष तथा तालाब के जल में पड़ी हुई वृक्ष-छाया की तरह मनुष्‍येतर प्राणियों का संघर्ष मनुष्‍य-जगत् के संघर्ष से विपरीत देखा जाता है।

शिष्‍य-तो फिर आप हमसे शारीरिक उन्‍नति करने के लिए इतना क्‍यों कहा करते हैं ?

स्‍वामी जी-क्‍या तुम लोग मनुष्‍य हो ? हाँ, इतना ही कि तुममें थोड़ी बुद्धि है। यदि शरीर स्‍वस्‍थ न हो तो मन के साथ संग्राम कैसे कर रह सकोगे? तुम लोग क्‍या जगत् के पूर्ण विकास रूपी मनुष्‍य कहलाने योग्‍य रह गए हो? आहार, निद्रा, मैथुन के अतिरिक्‍त तुम लोगों में और है ही क्‍या? गनीमत यही है कि अब तक चतुष्‍पाद नहीं बन गए। श्री रामकृष्‍ण कहा करते थे-'वही मनुष्‍य है, जिसे अपने सम्‍मान का ध्‍यान है।' तुम लोग तो जाएस्‍व म्रियस्‍व वाक्‍य के साक्षी बनकर स्‍वदेशवासियों के देश और विदेशियों की घृणा के पात्र बने हुए हो। इस तरह तुम लोग मानवेतर प्राणियों की श्रेणी में आ पड़े हो, इसीलिए मैं तुम्‍हें संघर्ष करने को कहता हूँ। मतवाद का झमेंला छोड़ो। अपने प्रतिदिन के कार्य एवं व्‍यवहार का स्थिर चित्त से विचार करके देख लो कि तुम लोग मनुष्य और मनुष्‍येतर स्‍तर के बीच के जीवविशेष हो या नहीं। शरीर को पहले सुगठित कर लो। फिर मन पर धीरे-धीरे अधिकार प्राप्‍त होगा-नायमात्‍मा बलहीनेन लभ्‍य: (निर्बल के द्वारा यह आत्‍म-तत्‍व प्राप्‍त नहीं किया जा सकता)-समझा ?

शिष्‍य-महाराज, 'बलहीनेन' शब्‍द के अर्थ में भाष्‍यकार ने तो 'ब्रह्मचर्यहीनेन' कहा है।

स्‍वामी जी-सो कहे, मैं तो कहता हूँ-The physically weak are unfit for the realization of the self. ( जो लोग शरीर से दुर्बल हैं, वे आत्‍म-साक्षात्‍कार के अयोग्‍य हैं।)

शिष्‍य-परंतु सबल शरीर में कई जड़-बुद्धि भी तो देखने में आते हैं।

स्‍वामी जी-यदि तुम कोशिश करके उन्‍हें सद्विचार एक बार दे सको, तो वे जितने शीघ्र उसे कार्यरूप में परिणत कर सकेंगे, उतने शीघ्र दुर्बल व्‍यक्ति नहीं कर सकते। देखता नहीं, क्षीण व्‍यक्ति काम-क्रोधादि के वेग को संभाल नहीं सकता। कमजोर व्‍यक्ति थोड़े ही में क्रोध कर उठते हैं-काम द्वारा भी शीघ्र ही मोहित हो जाते हैं।

शिष्य-परंतु इस नियम का व्‍यतिक्रम भी देखा जाता है।

स्‍वामी जी-कौन कहता है कि व्‍यतिक्रम नहीं है ? मन पर एक बार अधिकार प्राप्‍त हो जाने पर देह सबल रहे या सूख जाए, इससे कुछ नहीं होता। वास्‍तविक बात यह है कि शरीर के स्‍वस्‍थ न रहने पर कोई आत्‍म-ज्ञान का अधिकारी ही नहीं बन सकता। श्री रामकृष्‍ण कहा करते थे-'शरीर में जरा भी दोष रहने पर जीव सिद्ध नहीं बन सकता।'

इन बातों को कहते-कहते स्‍वामी जी को उत्तेजित होते देखकर शिष्‍य और कोई बात करने का साहस नहीं कर सका। वह स्‍वामी जी के सिद्धांत को स्वीकार कर चुप हो गया। थोड़ी देर बाद स्‍वामी जी हँसी-हँसी में उपस्थित व्‍यक्तियों से कहने लगे-'और एक बात सुनी है आप लोगों ने ? आज एक भट्टाचार्य ब्राह्मण निवेदिता का जूठा खा आया है। उसकी छुई हुई मिठाई खायी तो खैर, उससे उतनी हानि नहीं; परंतु उसका छुआ हुआ जल कैसे पी गया।'

शिष्‍य-सो आप ही ने तो आदेश दिया था। गुरु क आदेश पर मैं सब कुछ प्रसाद मानकर पी गया।

स्‍वामी जी-तेरी जाति की जड़ कट गई है। अब फिर तुझे कोई भट्टाचार्य ब्राह्मण नहीं कहेगा।

शिष्य-ने कहे, मैं आपकी आज्ञा पर चांडाल का भात भी खा सकता हूँ। बात सुनकर स्‍वामी तथा उपस्थित सभी लोग जोर से हँस पड़े।

बातचीत में रात्रि के करीब साढ़े बारह बज गए। शिष्‍य ने निवासगृह में लौटकर देखा, फाटक बंद हो गया है। पुकार कर किसी को जगाने में असमर्थ होकर वह विवश हो बाहर के बरामदे में ही सो गया।

कालचक्र के निर्मम परिवर्तन से आज स्‍वामी जी, स्‍वामी योगानंद तथा भगिनी निवेदिता इस संसार में नहीं हैं, रह गई हैं, उनके जीवन की केवल पवित्र स्‍मृति। उनके वार्तालाप को थोड़ा-बहुत लिखने में समर्थ होकर शिष्‍य अपने को धन्‍य मान रहा है।

 

२२

स्‍थान : बेलूड़ : किराये का मठ। वर्ष : १८९८ ई॰

आज दिन में करीब दो बजे के समय शिष्‍य पैदल चलकर मठ में आया है। अब मठ को उठाकर नीलांबर बाबू के बगीचे वाले मकान में लाया गया है। इस मठ की जमीन भी थोड़े दिन हुए खरीदी गई है। स्‍वामी जी शिष्‍य को साथ लेकर दिन के करीब चार बजे मठ नई जमीन में घूमने निकले हैं। मठ की जमीन उस समय भी जंगलों से पूर्ण थी। उस समय उस जमीन के उत्तर भाग में एक-एक मंजिला पक्‍का मकान था। उसी का संस्कार करके वर्तमान मठ-भवन निर्मित हुआ है। जिन सज्‍जन मठ की जमीन खरीद दी थी, उन्‍होंने भी स्‍वामी जी के साथ थोड़ी दूर तक आकर विदा ली। स्‍वामी जी शिष्‍य के साथ मठ की भूमि पर भ्रमण करने लगे और वार्तालाप के सिलसिले में भावी मठ की रूपरेखा तथा नियम आदि की चर्चा करने लगे।

धीरे-धीरे उपर्युक्‍त एकमंजिले मकान के पूर्व के बरामदे में पहुँचकर घूमते-घूमते स्‍वामी जी कहने लगे, 'यही जमीन साधुओं के रहने का स्‍थान होगा। यह मठ साधन-भजन एवं ज्ञान-चर्चाका प्रधान केंद्र होगा, यही मेरी इच्‍छा है। यहाँ से जिस शक्ति की उत्‍पत्ति होगी वह पृथ्‍वी भर में फैल जाएगी और वह मनुष्‍य के जीवन की गति को परिवर्तित कर देगी। ज्ञान, भक्ति, योग, कर्म के समन्वयक स्‍वरूप मानव के लिए हितकार उच्‍च आदर्श यहाँ से प्रसृत होंगे। इस मठ के पुरुषों के इशारे पर एक समय दिगदिगंत में प्राण का संचार होगा। समय पर यथार्थ धर्म के सब प्रेमी यहाँ आकर एकत्र होंगे-मन में इसी प्रकार की कितनी ही कल्‍पनाएँ उठ रही हैं।

'वह जो मठ के दक्षिण भाग की जमीन देख रहा है, वहाँ पर विद्या का केंद्र बनेगा। व्‍याकरण, दर्शन, विज्ञान, काव्‍य अलंकार, स्‍मृति, भक्ति शास्‍त्र और राजभाषा की शिक्षा उसी स्‍थान में दी जाएगी। प्राचीन काल की पाठशालाओं (टोलों) के अनुकरण पर यह विद्या-मंदिर स्‍थापित होगा। बालब्रह्मचारी उस स्‍थान पर रहकर शास्‍त्रों का अध्‍ययन करेंगे। उनके भोजन-वस्‍त्र का प्रबंध मठ की ओर से किया जाएगा। ये सब ब्रह्मचारी पाँच वर्ष तक शिक्षा प्राप्‍त करने के पश्‍चात् यदि चाहेंगे जो घर लौटकर गृहस्‍थी कर सकेंगे। यदि इच्‍छा हो तो मठ के वरिष्‍ठ संन्‍यासियों की अनुमति लेकर संन्‍यास ले सकेंगी। इन ब्रह्मचारियों में जो उच्छृंखल या दुश्‍चरित्र पाये जाएंगे, उन्हें मठाधिपति उसी समय बाहर निकाल देंगे। यहाँ पर सभी जाति और वर्ण के शिक्षार्थियों को शिक्षा दी जाएगी। इसमें जिन्‍हें आपत्ति होगी उन्‍हें नहीं लिया जाएगा, पंरतु जो लोग अपनी जाति वर्णाश्रम के आचार को मानकर चलना चाहेंगे, उन्‍हें अपने भोजन आदि का प्रबंध स्‍वयं कर लेना होगा। वे केवल अध्‍ययन ही दूसरों के साथ करेंगे। उनके भी चरित्र के संबंध में मठाधिपति सदा कड़ी दृष्टि रखेंगे। यहाँ पर शिक्षित न होने पर कोई संन्‍यास का अधिकारी न बन सकेगा। धीरे-धीरे जब इस प्रकार मठ का काम प्रारंभ होगा, उस समय कैसा होगा, बोल तो।'

शिष्‍य-तो क्या आप प्राचीन काल की तरह गुरुगृह में ब्रह्मचर्याश्रम की प्रथा को देश में फिर से प्रचलित करना चाहते हैं?

स्‍वामी जी-और नहीं तो क्‍या ? इस समय देश में जिस प्रकार की शिक्षा दी जा रही है, उसमें ब्रह्मविद्या के विकास का जरा भी स्‍थान नहीं। पहले के समान ब्रह्मचर्याश्रम स्‍थापित करने होंगे। परंतु इस समय उनकी नींव व्‍यापक भावसमूह पर डालनी होगी अर्थात् समयानुसार उसमें अनेक उपयुक्‍त परिवर्तन करने होंगे। वह सब पीछे बतलाऊंगा।

स्‍वामी जी फिर कहने लगे-'मठ के दक्षिण में वह जो जमीन है, उसे भी किसी दिन खरीद लेना होगा। वहाँ पर मठ का लंगरखाना होगा। वहाँ पर वास्‍तविक गरीब-दुखियों को नारायण मानकर उनकी सेवा करने की व्‍यवस्था रहेगी। वह लंगरखाना श्री रामकृष्‍ण के नाम पर स्‍थापित होगा। जैसा धन जुटेगा पहले उसी के अनुसार लंगरखाना खोलना होगा। ऐसा भी हो सकता है कि पहले-पहल दो ही ती व्‍यक्तियों को लेकर काम प्रारंभ किया जाए। उत्‍साही ब्रह्मचारियों को इस लंगरखाना ने का संचालन सिखाना होगा। उन्‍हें कहीं से प्रबंध करके, आवश्‍यक हो तो भीख माँगकर भी इस लंगरखाना ने का संचालन करना होगा। इस विषय में मठ किसी प्रकार की आर्थिक सहायता नहीं कर सकेगा। ब्रह्मचारियों को ही उसके लिए धन संग्रह करके लाना पड़ेगा। इस प्रकार धर्मार्थलंगर में पाँच वर्ष का प्रशिक्षण समाप्‍त होने पर वे विद्या-मंदिर शाखा में प्रवेश करने का अधिकार पा सकेगा। लंगरखाना में पाँच और विद्या-मंदिर में पाँच, कुल दस वर्ष प्रशिक्षण ग्रहण करने के बाद मठ के स्‍वामियों द्वारा दीक्षित होकर वे संन्‍यास आश्रम में प्रविष्‍ट हो सकेंगे-केवल शर्त होगी कि वे संन्‍यासी बनना चाहें और मठ के अध्‍यक्ष उन्‍हें योग्‍य अधिकारी समझकर संन्‍यास देना चाहें। परंतु मठाध्‍यक्ष किसी-किसी विशेष सद्गुणी ब्रह्मचारी के संबंध में इस नियम का उल्‍लंघन करके भी उन्‍हें जब इच्‍छा हो, संन्‍यास में दीक्षा दे सकेंगे। परंतु साधारण ब्रह्मचारियों को, जैसा मैंने पहले कहा है, उसी क्रम से संन्‍यासाश्रम में प्रवेश करना होगा। मेरे मस्तिष्‍क में ये सब विचार मौजूद हैं।'

शिष्‍य-महाराज, मठ में इस प्रकार तीन शाखाओं की स्‍थापना का क्या उद्देश्‍य होगा ?

स्‍वामी जी-समझा नहीं ? पहले अन्‍नदान; उसके बाद विद्यादान और सर्वोपरि ज्ञानदान। इन तीन भावों का समन्‍वय इस मठ से करना होगा। अन्‍नदान करने की चेष्‍टा करते-करते ब्रह्मचारियों के मन में परार्थ कर्म में तत्‍परता तथा शिव मानकर जीव-सेवा का भाव दृढ़ होगा। उससे उनके चित्त धीरे-धीरे निर्मल होकर उनमें सात्विक भाव का स्‍फुरण होगा। तभी ब्रह्मचारी समय ब्रह्मविद्या प्राप्‍त करने की योग्‍यता एवं संन्‍यासाश्रम में प्रवेश करने का अधिकार प्राप्‍त कर सकेंगे।

शिष्‍य-महाराज, ज्ञानदान ही यदि श्रेष्‍ठ है, फिर अन्‍नदान और विद्यादान की शाखाएँ स्‍थापित करने की क्‍या आवश्‍यकता ?

स्‍वामी जी-तू अभी तक मेरी बात नहीं समझा। सुन-इस अन्‍नाभाव के युग में यदि तू दूसरों के लिए सेवा के उद्देश्‍य से गरीब-दु:खियों को, भिक्षा माँगकर या जैसे भी हो, दो ग्रास अन्न दे सका तो जीव-जगत् का तथा तेरा मेरा कल्‍याण होगा ही-साथ ही साथ तू इस सत्‍कार्य के लिए सभी की सहानुभूति भी प्राप्‍त कर सकेगा इस सत्‍कार्य के लिए तुझ पर विश्‍वास करके काम-कांचन में बंधे हुए गृहस्‍थ लोग भी तेरी सहायता करने के लिए होंगे। तू विद्यादान या ज्ञानदान करके जितने लोगों को आकर्षित कर सकेगा, उसके हज़ार गुने लोग तेरे इस अयाचित अन्‍नदान द्वारा आकृष्‍ट होंगे। इस कार्य में तुझे जन-साधारण की जितनी सहानुभूति प्राप्त होगी उतनी अन्‍य किसी कार्य में नहीं हो सकती। यथार्थ सत्‍यकार्य में मनुष्‍य के भगवान् भी सहायक होते हैं। इस तरह लोगों के आकृष्‍ट होने पर ही तू उनमें विद्या तथा ज्ञान प्राप्‍त करने की आकांक्षा को उद्दीप्त कर सकेगा। इसीलिए पहले अन्‍नदान ही आवश्‍यक है।

शिष्‍य-महाराज, खैराती लंगरखाना ना खोलने के लिए पहले स्‍थान चाहिए; उसके बाद उसके लिए मकान आदि बनवाना पड़ेगा, फिर काम चलाने के लिए धन चाहिए। इतना रुपया कहाँ से आएगा?

स्‍वामी जी-मठ दक्षिण का भाग मैं अभी छोड़ देता हूँ और उस बेल के पेड़ के नीचे एक झोपड़ा खड़ा कर देता हूँ। तू एक या दो अंधे-लूले खोजकर ले आ, कल से ही उनकी सेवा में लग जा। स्‍वयं उनके लिए भिक्षा माँग कर ला। स्‍वयं पकाकर उन्‍हें खिला। इस प्रकार कुछ दिन करने से ही देखेगा-तेरा इस कार्य में सहायता करने के लिए कितने ही लोग अग्रसर होंगे; कितने ही लोग धन देंगे। न हि कल्‍याणकृत् कश्चित् दुर्गर्ति तात गच्‍छति (हे तात, कल्‍याण कार्य करने वाला कभी दु:खी नहीं होता)।

शिष्‍य-हाँ, ठीक है। परंतु उस प्रकार लगातार कर्म करते-करते समय पर कर्म-बंधन भी तो आ सकता है?

स्‍वामी जी-कर्म के परिणाम के प्रति यदि तेरी दृष्टि न रहे और सभी प्रकार की कामना तथा वासनाओं के परे जाने के लिए यदि तुममें एकांत आग्रह रहे तो वे सब सत्कार्य तेरे कर्म-बंधन काट डालने में ही सहायता करेंगे। ऐसे कर्म से कहीं बंधन आएगा? यह तू कैसी बात कह रहा है ? दूसरों के लिए किये हुए इस प्रकार के कर्म ही कर्म-बंधनों की जड़ को काटने के लिए एकमात्र उपाय है। नान्‍य: पन्था विद्यतेअयनाय (इसके अतिरिक्‍त कोई दूसरा मार्ग नहीं है)।

शिष्‍य-महाराज, अब तो मैं धर्मार्थ लंगर और सेवाश्रम के संबंध में आपके मनोभाव को विशेष रूप से सुनने के लिए और भी उत्‍कण्ठित हो रहा हूँ।

स्‍वामी जी-गरीब-दु:खियों के लिए छोटे-छोटे ऐसे कमरे बनवाने होंगे, जिनमें हवा आने-जाने की अच्‍छी व्‍यवस्था रहे। एक-एक कमरे में दो या तीन व्‍यक्ति रहेंगे। उन्‍हें अच्‍छे बिछौने और साफ कपड़े देने होंगे, उनके लिए ए‍क डॉक्‍टर रहेगा। सप्‍ताह में एक या दो बार सुविधानुसार वह उन्‍हें देख जाएगा। धर्मार्थ लंगरखाना ने के भीतर सेवाश्रम एक विभाग की तरह रहेगा। इसमें रोगियों की सेवा-शुश्रुषा की जाएगी। धीरे-धीरे जैसे-जैसे आता जाएगा, वैसे-वैसे एक बड़ा रसोईघर बनाना होगा। लंगरखाना ने में केवल 'दीयतां भुज्‍यताम्'-यही ध्‍वनि उठेगी। भात का पानी गंगा जी में पड़कर गंगा जी का जल सफ़ेद हो जाएगा। इस प्रकार धर्मार्थ लंगरखाना ना बना देखकर मेरे प्राणों को शांति मिलेगी।

शिष्‍य-ने कहा', आपकी जब इस प्रकार इच्‍छा है तो संभव है समय पर वास्‍तव में ऐसा ही हो।' शिष्‍य से यह बात सुनकर स्‍वामी जी गंगा की ओर थोड़ी देर ताकते हुए मौन रहे। फिर प्रसन्‍न मुख शिष्‍य से सस्‍नेह कहने लगे-'तुममें से कब किसके भीतर से सिंह जाग उठेगा, यह कौन जानता है ? तुममें से एक-एक में यदि माँ शक्ति जगा दें तो पृथ्‍वी भर में वे वैसे कितने ही लंगरखाना ने बन जाएंगे। क्‍या जानता हूँ ? ज्ञान, शक्ति, भक्ति सभी जीवों में पूर्ण भाव से मौजूद हैं, पर हम केवल उनके विकास की न्‍यूनाधिकता को ही देखते हैं और इस कारण इसे बड़ा और छोटा मानने लगते हैं। मात्र-जीव के मन पर पड़ा हुआ एक प्रकार पर्दा संपूर्ण विकास को रोककर खड़ा है। वह हटा कि बस सब कुछ हो गया उस समय जो चाहेगा, जो इच्छा करेगा, वही होगा।

स्‍वामी जी की बात सुनकर शिष्‍य सोचने लगा कि उसके स्‍वयं के मन का पर्दा कब हटेगा और कब उसे ईश्‍वर-दर्शन प्राप्‍त होगा।

स्‍वामी जी फिर कहने लगे-'यदि ईश्‍वर ने चाहा तो इस मठ को समन्‍वय का महान क्षेत्र बनाना होगा। हमारे श्रीरामकृष्‍ण सर्व भावों की साक्षात् समन्‍वय मूर्ति हैं। उस समन्‍वय के भाव को यहाँ पर जगाकर रखने से रामकृष्‍ण संसार में प्रतिष्ठित रहेंगे। सारे मत, सारे मंथ, ब्राह्मण-चांडाल सभी जिससे यहाँ पर आकर अपने-अपने आदर्श को देख सकें, वह करना होगा। उस दिन जब मठ भूमि पर श्रीरामकृष्‍ण की प्रण-प्रतिष्‍ठा की, तब ऐसा लगा मानो यहाँ से उनके भावों का विकास होकर चराचर विश्‍व भर में छा गया है। मैं तो जहाँ तक हो सके, कर रहा हूँ और करूँगा; तुम लोग भी श्री रामकृष्‍ण के उदार भाव लोगों को समझा दो। केवल वेदांत पढ़ने से कोई लाभ न होगा। असल में प्रतिदिन के व्‍यावहारिक जीवन में शुद्धाद्वैतवाद की सत्‍यता को प्रमाणित करना होगा। श्री शंकर इस अद्वैतवाद को जंगलों और पहाड़ों में रख गए हैं; मैं अब उसे वहाँ से लाकर संसार और समाज में प्रसारित करने के लिए आया हूँ। घर-घर में, घाट-मैदान में, जंगल-पहाड़ों में इस अद्वैतवाद का गंभीर नाद उठाना होगा। तुम लोग मेरे सहायक बनकर काम में लग जाओ।

शिष्‍य-महाराज, ध्‍यान की सहायता से उस भाव का अनुभव करने में ही मानो मुझे अच्‍छा लगता है। उछल-कूद की इच्‍छा नहीं होती।

स्‍वामी जी-यह जो नशा करके बहोश पड़े रहने की तरह है। केवल ऐसे रहकर क्‍यों होगा ? अद्वैतवाद की प्रेरणा से कभी तांडव नृत्‍य कर तो कभी स्थिर होकर रहा। अच्‍छी चीज़ को पाने पर क्‍या उसे अकेले खाकर ही सुख होता है ? दस आदमियों को देकर खाना चाहिए। आत्‍मानुभूति प्राप्‍त करके यदि तू मुक्‍त हो गया तो इससे दुनिया को क्या लाभ होगा ? त्रिजगत को मुक्‍त करना होगा। महामाया के राज्‍य में आग लगा देनी होगी; तभी नित्‍य-सत्य में प्रतिष्ठित होगा। उस आनंद की क्या कोई तुलना है? निरवधि गगनाभम्-आकाशकल्‍प भूमानंद में प्रतिष्ठित होगा, जीव-जगत में सर्वत्र ही अपनी ही सत्ता देखकर तू दंग रह जाएगा। स्‍थावर और जंगम सभी तुझे अपनी सत्ता ज्ञात होंगे। उस समय अपनी ही की तरह सब की चिंता किये बिना तू रह नहीं सकेगा। ऐसी स्थिति ही कर्म के बीच में वेदांत की अनुभूति है, समझा? वह ब्रह्म एक होकर भी व्‍यावहारिक रूप में अनेक रूपों में सामने विद्यमान है। नाम तथा रूप व्‍यवहार के मूल में मौजूद हैं। जिस प्रकार घड़े का नाम-रूप छोड़ देने से क्‍या देखता है-केवल मिट्टी, जो उसकी वास्‍तविक सत्ता है। इसी प्रकार भ्रम में घट, पट इत्‍यादि का भी तू विचार करता है तथा उन्हें देखता है। ज्ञान-प्रतिबंधक यह जो अज्ञान है, जिसकी वास्‍तविकता कोई सत्ता नहीं है, उसी को लेकर व्‍यवहार चल रहा है। स्‍त्री-पुत्र, देह-मन जो कुछ है, सभी नाम-रूप की सहायता से अज्ञान की सृष्टि में देखने में आते हैं। ज्‍यों ही अज्ञान हट जाएगा, त्‍यों ही ब्रह्म सत्ता की अनुभूति हो जाएगी।

शिष्‍य-यह अज्ञान आया कहाँ से ?

स्‍वामी जी-कहाँ से आया यह बाद में बताऊँगा। तू जब रस्‍सी को साँप मानकर भय से भागने लगा, तब क्‍या रस्‍सी साँप बन गई थी?-या तेरी अज्ञता ने ही तुझे उस प्रकार भगाया था ?

शिष्‍य-अज्ञता ने ही वैसा किया था।

स्‍वामी जी-तो फिर सोचकर देख, तू जब फिर रस्‍सी को रस्‍सी जान सकेगा, उस समय अपनी पहलेवाली अज्ञता का चिंतन कर तुझे हँसी आयगी या नहीं, नाम-रूप मिथ्‍या जान पड़ेगा या नहीं?

शिष्‍य-जी हाँ।

स्‍वामी जी-तब, नाम-रूप मिथ्‍या हुए कि नहीं? इस प्रकार ब्रह्म-सत्ता ही एकमात्र रह गई। इस अनंत सृष्टि की विचित्रताओं से भी उनके स्‍वरूप में जरा सा परिवर्तन नहीं हुआ, केवल तू इस अज्ञान के धीमे अंधकार में यह स्‍त्री, य‍ह पुत्र, यह अपना यह पराया, ऐसी मान्‍यता के कारण इस सर्वविभासक आत्‍मसत्ता को समझ नहीं सकता। जिस समय तू गुरु के उपदेश और अपने विश्‍वास के द्वारा इस नाम-रूपात्‍मक जगत् को न देखकर, इसकी मूल सत्ता का ही अनुभव करेगा, उस समय आब्रह्मास्‍तंब सभी पदार्थों में तुझे आत्‍मानुभूति होगी। उसी समय भिद्यते ह्दयग्रन्थिश्छिद्यंते सर्वसंशया: (ह्दय-ग्रंथि कट जाती है और समस्त संशय नष्‍ट हो जाते हैं) की स्थिति होगी।

शिष्‍य-महाराज, मुझे इस अज्ञान के आदि-अंतकी बातें जानने की इच्‍छा है।

स्‍वामी जी-जो चीज़ बाद में नहीं रहती वह झूठी है, यह तो समझ गया ? जिसने वास्‍तव में ब्रह्म को जान लिया है, वह कहेगा, 'अज्ञान फिर कहाँ ?' वह रस्सी को रस्‍सी ही देखता है, साँप नहीं। जो लोग रस्‍सी को साँप देखते हैं, उन्‍हें भयभीत देखकर उसे हँसी आती है। इसलिए अज्ञान का वास्‍तव में कोई स्‍वरूप नहीं है। अज्ञान को 'सत्' भी नहीं कहा जा सकता, 'असत' भी नहीं कहा जा सकता-सन्‍नाप्‍यसन्‍नाप्‍युभयात्मिका नो। जो चीज़ इस प्रकार असत्‍य ज्ञात हो रही है, उसके संबंध में क्‍या प्रश्‍न है, और क्‍या उत्‍तर है? उस विषय में प्रश्‍न करना भी उचित नहीं हो सकता। क्‍यों, यह सुन-यह प्रश्‍नोत्तर भी उसी नाम देश-काल से परे है, उसे प्रश्‍नोत्तर द्वारा कैसे समझाया जा सकता है? इसीलिए शास्‍त्र, मंत्र आदि व्‍यावहारिक रूप से सत्‍य हैं, पारमार्थिक रूप से नहीं। अज्ञान का स्‍वरूप ही नहीं है, उसे फिर समझेगा क्या ? जब ब्रह्म का प्रकाश होगा,उस समय फिर इस प्रकार का प्रश्‍न करने का अवसर ही न रहेगा। श्री रामकृष्‍ण की 'मोची-मुटिया' वाली कहानी [8] सुनी है न?-बस, ठीक वही। अज्ञान को ज्‍यों ही पहचाना जाता है, त्‍यों ही वह भाग जाता है।

शिष्‍य-परंतु महाराज, यह अज्ञान आया कहाँ से ?

स्‍वामी जी-जो चीज़ है ही नहीं, वह फिर आएगी कैसे ? हो, तब तो आएगी?

शिष्‍य-तो फिर इस जीव-जगत् की उत्‍पत्ति क्‍यों कर हुई ?

स्‍वामी जी-एक ब्रह्म-सत्ता ही तो मौजूद है। तू मिथ्‍या नाम-रूप देकर उसे नाना रूपों और नामों में देख रहा है।

शिष्‍य-यह मिथ्‍या नाम-रूप भी क्‍यों और वह कहाँ से आया?

स्‍वामी जी-शास्‍त्रों में इस नाम-रूपात्‍मक संस्‍कार या अज्ञान को प्रवाह के रूप में नित्‍यप्राय कहा गया है परंतु उसका अंत है। और ब्रह्म-सत्ता तो सदा रस्‍सी की तरह अपने स्‍वरूप में ही वर्तमान है। इसीलिए वेदांत शास्‍त्र का सिद्धांत है कि यह निखिल ब्रह्मांड ब्रह्म में अध्‍यस्‍त, इंद्रजालवत् प्रतीत हो रहा है। इससे ब्रह्म के स्‍वरूप में किंचित् भी परिवर्तन नहीं हुआ। समझा?

शिष्‍य-एक बात अभी भी नहीं समझ सका।

स्‍वामी जी-य‍ह क्‍या ?

शिष्‍य-यह जो आपने कहा कि यह सृष्टि, स्थिति, लय आदि में ब्रह्म में अध्‍यस्‍त हैं, उनकी कोई स्‍वरूप-सत्ता नहीं है-यह कैसे हो सकता है? जिसने जिस चीज़ को पहले कभी नहीं देखा, उस चीज़ का भ्रम उसे हो ही नहीं सकता। जिसने कभी साँप नहीं देखा, उसका ब्रह्म से सृष्टि का भ्रम क्‍यों होगा? अत: सृष्टि थी या है, इसीलिए सृष्टि का भ्रम हो रहा है; इसी से द्वैत की आपत्ति उठ रही है।

स्‍वामी जी-ब्रह्मज्ञ व्‍यक्ति तेरे प्रश्‍न का इस रूप में पहले ही प्रत्‍याख्‍यान करेंगे कि उनकी दृष्टि से सृष्टि आदि बिल्‍कुल दिखायी नहीं दे रही है। वे एकमात्र ब्रह्म-सत्ता को ही देख रहे हैं। रस्‍सी ही देख रहे हैं; साँप नहीं देख रहा है। यदि तू कहेगा; मैं तो यह सृष्टि या साँप देख रहा हूँ'-तो तेरी दृष्टि के दोष को दूर करने के लिए वे तुझे रस्‍सी का स्‍वरूप समझा देने की चेष्‍टा करेंगे। जब उनके उपदेश और अपनी स्‍वयं की विचार-शक्ति इन दोनों के बल पर तू रज्‍जु-सत्‍ता या ब्रह्म-सत्‍ता को समझ सकेगा, उस समय यह भ्रमात्‍मक सर्प-ज्ञान या सृष्टि-ज्ञान नष्‍ट हो जाएगा। उस समय इस सृष्टि, स्थिति, प्रलय रूपी भ्रमात्‍मक ज्ञान को ब्रह्म आरोपित कहने के अतिरिक्‍त और तू क्या कह सकता है? अनादि प्रवाह के रूप में सृष्टि की यह प्रतीति यदि चली आयी है तो आती रहे, उसके निर्णय में लाभ-हानि कुछ भी नहीं। 'करामलक' की तरह ब्रह्म-तत्‍व का प्रत्‍यक्ष न होने पर इस प्रश्‍न की पूरी मीमांसा नहीं हो सकती; और उस समय फिर प्रश्‍न भी नहीं उठता, उत्तर की भी आवश्‍यकता नहीं होती। ब्रह्म-तत्‍व का आस्‍वाद उस समय 'मूकास्‍वादन' की तरह होता है।

शिष्य-तो फिर इतना विचार करके क्या होगा ?

स्‍वामी जी-उस विषय को समझने के लिए विचार है। परंतु सत्‍य वस्‍तु विचार से परे है-नैषा तर्केण मतिरापयेना।

इस प्रकार वार्तालाप होते-होते शिष्य स्‍वामी जी के साथ मठ में आकर उपस्थित हुआ। मठ में आकर स्‍वामी जी ने मठ के संन्‍यासी तथा ब्रह्मचारियों को आज के ब्रह्म विचार का संक्षिप्‍त सार समझा दिया और उठते-उठते शिष्‍य से कहने लगे, नायमात्‍मा बलहीनेन लक्ष्‍य:।

२३

स्‍थान : बेलूड़ मठ (निर्माण के समय)। वर्ष: १८९८ ई॰

शिष्‍य-स्‍वामी जी, आप इस देश में व्‍याख्‍यान क्‍यों नहीं देते ? अपनी वक्‍तृता के प्रभाव से यूरोप-अमेरिका का मतवाला बना आए; परंतु भारत में लौटकर आपका उस विषय में यत्‍न और अनुराग क्‍यों घट गया, इसका कारण समझ में नहीं आता। हमारी समझ में तो पाश्‍चात्‍य देशों के बजाए यहीं पर उस प्रकार की चेष्‍टा की अधिक आवश्‍यकता है।

स्‍वामी जी-इस देश में पहले जमीन तैयार करनी होगी। तब बीज बोने से वृक्ष उगेगा। पाश्‍चात्‍य की भूमि ही इस समय बीज बोने के योग्य है, बहुत उर्वरा है। वहाँ के लोग अब भोग की अंतिम सीमा तक पहुँच चुके हैं। भोग से अघाकर अब उनका मन उसमें और अधिक शांति नहीं पा रहा है। वे एक घोर अभाव का अनुभव कर रहे हैं। पर तुम्हारे देश में न तो भोग है और न योग ही। भोग की इच्‍छा कुछ तृप्‍त हो जाने पर ही, लोग योग की बात सुनते या समझते हैं। अन्‍न के अभाव से क्षीण देह, क्षीण मन, रोग-शोक-परिताप की जन्‍मभूमि भारत में भाषण देने से क्‍या होगा?

शिष्‍य-क्‍यों, आपने ही तो कभी-कभी कहा है, यह देश धर्मभूमि है। इस देश में लोग जैसे धर्म की बात समझते हैं और कार्यरूप में धर्म का अनुष्‍ठान करते हैं, वैसा दूसरे देशों में नहीं। तो फिर आपके ओजस्‍वी भाषणों से क्‍यों न देश मतवाला हो उठेगा-क्‍यों न फल होगा?

स्‍वामी जी-अरे, धर्म-कर्म करने के लिए पहले कूर्म अवतार की पूजा करनी चाहिए। पेट है वह कूर्म। इसे पहले ठंडा किये बिना तेरी धर्म-कर्म की बात कोई ग्रहण नहीं करेगा। देखता नहीं, पेट की चिंता से भारत बेचैन है। विदेशियों के साथ मुकाबला करना, वाणिज्‍य में अबाध निर्यात, और सबसे बढ़कर तुम लोगों की आपस की घृणित दास-सुलभ हुई ईर्ष्‍या ने ही तुम्हारे देश की अस्थि-मज्‍जा को खा डाला है। धर्म की बात सुनाना हो तो पहले इस देश के लोगों के पेट की चिंता को दूर करना होगा। नहीं तो केवल व्‍याख्‍यान देने से विशेष लाभ न होगा।

शिष्‍य-तो हमें अब क्‍या करना चाहिए ?

स्‍वामी जी-पहले कुछ त्‍यागी पुरुषों की आवश्‍यकता है, जो अपने परिवार के लिए न सोचकर दूसरों के लिए जीवन का उत्‍सर्ग करने की तैयारी हों। इसीलिए मैं मठ की स्‍थापना करके कुछ बाल-संन्‍यासियों को उसी रूप में तैयार कर रहा हूँ। शिक्षा समाप्‍त होने पर, ये लोग द्वार-द्वार पर जाकर सभी को उनकी वर्तमान शोचनीय स्थिति समझायेंगे; उस स्थिति से उन्‍नति किस प्रकार हो सकती है, इस विषय में उपदेश देंगे और साथ ही साथ धर्म के महान् तत्वों को सरल भाषा में उन्‍हें साफ-साफ समझा देंगे। तुम्हारे देश का जन साधारण मानो एक सोया हुआ तिर्मिगल (एक विशालकाय समुद्री जीव) है। इस देश की यह जो विश्‍वविद्यालय की शिक्षा है, उससे देश के अधिक से अधिक एक या दो प्रतिशत व्‍यक्ति लाभ उठा रहे हैं। जो लोग शिक्षा पा रहे हैं, वे भी देश के कल्‍याण के लिए कुछ नहीं कर सक रहे हैं। बेचारे करें भी तो कैसे? कॉलेज से निकलकर ही देखते हैं कि वे सात बच्चों के बाप बन गए हैं, उस समय जैसे-तैसे किसी क्‍लर्की या डिप्‍टी मजिस्‍ट्रेट की नौकरी स्‍वीकार कर लेते हैं-बस यही हुआ शिक्षा का परिणाम। उसके बाद गृहस्‍थी के भार से उच्‍च कर्म और चिंतन करने का उसको फिर समय कहाँ? जब अपना स्‍वार्थ ही सिद्ध नहीं होता, तब वह दूसरों के लिए क्‍या काम करेगा ?

शिष्‍य-तो क्‍या इसका कोई उपाय नहीं?

स्‍वामी जी-अवश्‍य है-यह सनातन धर्म का देश है। यह देश गिर अवश्‍य गया है, परंतु निश्‍चय फिर उठेगा। और ऐसा उठेगा कि दुनिया देखकर दंग रह जाएगी। देखा नहीं, नदी या समुद्र में लहरें जितनी नीचे उतरती हैं, उसके बाद उतनी ही जोर से ऊपर उठती हैं। यहाँ पर भी उसी प्रकार होगा। देखता नहीं है, पूर्वाकाश में अरुणोदय हुआ है, सूर्य उदित होने में अब अधिक विलंब नहीं है। तुम लोग इसी समय कमर कसकर तैयार हो जाओ। गृहस्थी करके क्‍या होगा? तुम लोगों का अब काम है प्रांत -प्रांत में, गाँव-गाँव में जाकर देश के लोगों को समझा देना कि अब आलस्‍य से बैठे रहने से काम न चलेगा। शिक्षा-विहीन, धर्म-विहीन वर्तमान अवनति की बात उन्‍हें समझाकर कहो-'भाई, सब उठो, जागो, और कितने दिन सोओगे?' और शास्‍त्र के महान सत्‍यों को सरल करके उन्‍हें जाकर समझा दो। इतने दिन इस देश का ब्राह्मण धर्म एक एकाधिकार किये बैठा था। काल के स्रोत में वह जब और अधिक टिक नहीं सका, तो तू अब जाकर ऐसी व्‍यवस्‍था कर कि देश के सभी लोग उस धर्म को प्राप्‍त कर सकें। सभी को जाकर समझा दो कि ब्राह्मणों की तरह तुम्‍हारा भी धर्म एक सा अधिकार है। चांडाल तक को इस अग्नि मंत्र में दीक्षित करो और सरल भाषा में उन्‍हें व्‍यापार, वाणिज्य, कृषि आदि गृ‍हस्‍थ-जीवन के अत्‍यावश्‍यक विषयों का उपदेश दो। नहीं तो तुम्‍हारे लिखने-पढ़ने को धिक्‍कार और तुम्‍हारे वेद-वेदांत पढ़ने को भी धिक्‍कार।

शिष्य-महाराज, हममें वह शक्ति कहाँ ? यदि आपकी शतांश शक्ति भी हममें होती तो हम स्‍वयं धन्‍य हो जाते और दूसरों को भी धन्‍य कर सकते।

स्‍वामी जी-धत् मूर्ख। शक्ति क्‍या कोई दूसरा देता है ? वह तेरे भीतर ही मौजूद है। समय आने पर वह स्‍वयं ही प्रकट होगी। तू काम में लग जा; फिर देखेगा, इतनी शक्ति आएगी कि तू उस संभाल न सकेगा। दूसरों के लिए रत्ती भर काम करने से भीतर की शक्ति जाग उठती है। दूसरों के लिए रत्ती भरी सोचने से धीरे-धीरे ह्दय में सिंह का सा बल आ जाता है। तू लोगों से मैं इतना स्‍नेह करता हूँ, परंतु यदि तुम लोग दूसरों के लिए परिश्रम करते-करते मर भी जाओ तो भी यह देखकर मुझे प्रसन्‍नता ही होगी।

शिष्‍य-परंतु महाराज, जो लोग मुझ पर निर्भर हैं, उनका क्‍या होगा ?

स्‍वामी जी-यदि तू दूसरों के लिए प्राण देने को तैयार हो जाता है, तो भगवान् उनका कोई न कोई उपाय करेंगे ही। न हि कल्‍याणकृत कश्चित् दुर्गर्तिं तात गच्‍छति-(हे तात, कल्‍याण करने वाला व्‍यक्ति कभी दु:खी नहीं होता), गीता पढ़ा है न ?

शिष्‍य-जी हाँ।

स्‍वामी जी-त्‍याग ही असली बात है। त्‍यागी हुए बिना कोई दूसरों के लिए सोलह आना प्राण देकर काम नहीं कर सकता। त्‍याग सभी को समभाव से देखता है; सभी की सेवा में लगा रहता है। वेदांत में भी तो पढ़ा है कि समभाव से देखो तो फिर एक स्‍त्री और कुछ बच्‍चों को अधिक अपना समझकर क्‍यों मानेगा? तेरे दरवाजे पर स्‍वयं नारायण दरिद्र के भेष में आकर अनाहार से मृतप्राय होकर पड़े हैं। उन्‍हें कुछ न देकर केवल अपना और अपने स्‍त्री-पुत्रों का पेट भांति-भांति के व्‍यंजनों से भरना तो पशुओं का काम है।

शिष्‍य-महाराज, दूसरों के लिए काम करने के लिए समय-समय पर बहुधा धन की भी आवश्‍यकता होती है। वह कहाँ से आएगा?

स्‍वामी जी-मैं कहता हूँ, जितनी शक्ति है, पहले ही उतना ही कार्य कर। धन क अभाव से यदि कुछ नहीं दे सकता तो न सही, पर एक मीठी बात या एक-दो सदुपदेश तो उन्‍हें दे सकता है। क्‍या इसमें भी धन लगता है?

शिष्‍य-जी हाँ, यह तो कर सकता हूँ।

स्‍वामी जी-'जी, कर सकता हूँ'-केवह मुँह से कहने से काम नहीं बनेगा। जो कर सकता है, वह मुझे करके दिखा, तब जानूँगा कि तेरा मेरे पास आना सफल हुआ। काम लग जा। कितने दिनों के लिए है यह जीवन? संसार में जब आया है, तब एक स्‍मृति छोड़कर जा। वरना पेड़-पत्‍थर भी तो पैदा तथा नष्‍ट होते रहते हैं। उसी प्रकार जन्‍म लेने और मरने की इच्‍छा क्या मनुष्‍य की भी की कभी होती है? मुझे करके दिखा दे कि तेरा वेदांत पढ़ना सार्थक हुआ है। जाकर सभी को यह बात सुना-'तुम्‍हारे भीतर अनंत शक्ति मौजूद है, उसी शक्ति को जाग्रत करो।' केवल अपनी मुक्ति से क्‍या होगा? मुक्ति की कामना भी तो महास्‍वार्थपरता है। छोड़ दे मुक्ति की आकांक्षा। मैं जिस काम में लगा हुआ हूँ उसी काम में लग जा।

शिष्‍य-विस्मित होकर सुनने लगा। स्‍वामी जी फिर कहने लगे-'तुम लोग जाकर इसी प्रकार जमीन तैयार करो। बाद में तेरे जैसे हज़ार -हज़ार विवेकानंद भाषण देने के लिए नरलोक में शरीर धारण करेंगे; उसकी चिंता नहीं है। यह देख न, हममें (श्री रामकृष्‍ण के शिष्‍यों में) जो पहले सोचा करते थे कि उनमें कोई शक्ति नहीं, वे ही अब अनाथाश्रम दुर्भिक्ष-कोष आदि कितनी ही लोगों की सेवा करना सीखा है? और तुम लोग अपने ही देशवासियों के लिए दु:ख हो, जहाँ दुर्भिक्ष पड़ा हो, चला जा उस ओर। अधिक से अधिक क्‍या होगा, मर ही तो जाएगा। मेरे-तेरे जैसे न जाने कितने कीड़े पैदा होते रहते हैं और मरते रहते हैं। इससे दुनिया को क्या हानि-लाभ ? एक महान् उद्देश्‍य लेकर मरना ठीक है। इस भाव का घर-घर में प्रचार कर, अपना और देश का कल्‍याण होगा। तुम्‍हीं लोग देश की आशा हो। तुम्‍हें कर्म-विहीन देखकर मुझे बड़ा कष्‍ट होता है। लग जा, काम में लग जा। विलंब न कर, मृत्‍यु तो दिनोंदिन निकट आ रही है। 'बाद में करूंगा' कहकर अधिक बैठा न रह-यदि बैठा रहेगा, तो फिर तुझसे कुछ भी न हो सकेगा।

 

२४

[स्‍थान : बेलूड़ मठ (निर्माण के समय)। वर्ष: १८९८ ई॰]

शिष्‍य-स्‍वामी जी, ब्रह्म यदि एकमात्र सत्‍य वस्‍तु है तो फिर जगत् में इतनी विचित्रताएँ क्‍यों देखी जाती हैं ?

स्‍वामी जी-ब्रह्म वस्‍तु को (यह सत्‍य हो अथवा जो कुछ भी हो) कौन जानता है, बोली ? जगत को हम देखते हैं और सत्‍यता में दृढ़ विश्‍वास रखते हैं। परंतु सृष्टि की विचित्रता को सत्‍य मानकर विचार-पथ में अग्रसर होते-होते समय पर मूल एकत्‍व को पहुँच सकते हैं। यदि तू इस एकत्‍व में स्थिर हो सकता तो फिर इस विचित्रता को नहीं देखता।

शिष्‍य-महाराज, यदि एकत्‍व में ही अवस्थित हो सकता तो प्रश्‍न ही क्‍यों करता? मैं जब विचित्रताको देखकर ही प्रश्‍न कर रहा हूँ तो उसे अवश्‍य ही सत्‍य मान रहा हूँ।

स्‍वामी जी-अच्‍छी बात है। सृष्टि की विचित्रता को देखकर उसे सत्य मानते हूए मूल एकत्‍व के अनुसंधान को शास्‍त्रों में व्‍यतिरेकी विचार कहा गया है अर्थात् अभाव या सत्‍य वस्‍तु मानकर विचार द्वारा यह प्रमाणित करना कि वह भाव वस्‍तु नहीं वरन् अभाव वस्‍तु है।, व्‍यतिरेक कहलाता है। तू उसी प्रकार मिथ्या को सत्‍य मानकर सत्‍य में पहुँचने की बात कह रहा है-क्‍यों, यही है न?

शिष्‍य-जी हाँ, परंतु मैं भाव को ही सत्‍य कहता हूँ और भावविहीनता को ही मिथ्‍या मानता हूँ।

स्‍वामी जी-अच्‍दा। अब देख, वेद कह रहे हैं-एकमेंवाद्वितीयम्। यदि वास्‍तव में एक ब्रह्म ही है तो तेरा नानात्‍व तो मिथ्‍या ही है। वेद तो मानता है न?

शिष्‍य-वेद की बात मैं अवश्‍य मानता हूँ। परंतु यदि कोई न माने तो उसे भी तो समझाना होगा?

स्‍वामी जी-वह भी हो सकता है। भौतिक विज्ञान की सहायकता से उसे पहले अच्छी तरह से दिखा देना चाहिए कि इंद्रियों से उत्‍पन्‍न प्रत्‍यक्ष पर भी हम विश्‍वास नहीं कर सकते। इंद्रिया भी गलत साक्ष्‍य देती हैं, और वास्‍तविक सत्‍य वस्‍तु हमारे मन, इंद्रिय तथा बुद्धि से परे है। उसके बाद उससे कहना चाहिए कि मन, बुद्धि और इंदियों से परे जाने का उपाय भी है। ऋषियों योग कहा है। योग अनुष्‍ठान पर निर्भर है-उसे प्रत्‍यक्ष रूप से करना चाहिए-विश्‍वास करो या न करो, अभ्‍यास करने से ही फल प्राप्‍त किया जाता है। करके देख-होता है या नहीं। मैंने वास्‍तव में देखा है, ऋषियों ने जो कुछ कहा है सब सत्‍य है। य‍ह देख, तम जिसे विचित्रता कह रहा है, वह एक समय लुप्‍त हो जाती है, अनुभूत नहीं होती। यह मैंने स्‍वयं अपने जीवन में श्री रामकृष्‍ण की कृपा से प्रत्‍यक्ष किया है।

शिष्‍य-ऐसा कब किया है?

स्‍वामी जी-एक दिन रामकृष्‍ण ने दक्षिणेश्‍वर के बगीचे में मुझे स्‍पर्श किया था। उनके स्‍पर्श करते ही मैंने देखा कि घर-बार, दरवाजा-बरामदा, पेड़-पौधे, चंद्र, सूर्य सभी मानो आकाश में लीन हो रहे हों। धीरे-धीरे आकाश भी न जाने कहाँ विलीन हो गया-उसके बाद जो प्रत्‍यक्ष हुआ था, वह बिल्‍कुल या नहीं है; परंतु हाँ, इतना याद है कि उस प्रकार के परिवर्तन को देखकर मुझे बड़ा भय लगा था-चीत्‍कार करके श्री रामकृष्‍ण से मैंने कहा था, 'अरे, तुम मेरा यह क्या कर रहे हो जी; मेरे माँ-बाप जो हैं।' इस पर श्री रामकृष्‍ण ने हँसते हुए 'तो अब रहने दे' कहकर फिर स्‍पर्श किया। उस समय धीरे-धीरे फिर देखा घर-बार दरवाजा-बरामदा-जो जैसा था ठीक उसी प्रकार है। कैसा अनुभव था। और ए‍क दिन-अमेरिका में भी एक तालाब के किनारे ठीक वैसा ही हुआ था।

शिष्‍य-विस्मित होकर सुन रहा था। थोड़ी देर बाद उसने कहा, 'अच्‍छ, महाराज, ऐसी स्थिति मस्तिष्‍क के विकार से भी हो सकती है? और एक बात-उस स्थिति में क्‍या आपको किसी विशेष आनंद की उपलब्धि हुई थी?'

स्‍वामी जी-जब रोग के प्रभाव से नहीं, नशा पीकर नहीं, तरह-तरह के दम लगाकर भी नहीं, वरन् स्‍वाभाविक मनुष्‍य की स्‍वस्‍थ दशा में यह स्थिति होती है तो उसे मस्तिष्‍क का विकार कैसे कहा जा सकता है, विशेषत: जब उस प्रकार की स्थिति प्राप्‍त करने की बात वेदों में भी वर्णित है तथा पूर्व आचार्यों तथा ऋषियों के आप्‍त वाक्‍यों में भी मिलती है। मुझे क्‍या अंतमें तूने विकृत-मस्तिष्‍क ठहराया?

शिष्‍य-नहीं महाराज, मैं यह नहीं कह रहा हूँ। शास्‍त्र में जब इस प्रकार एकत्‍व की अनुभूति के सैकड़ों उदाहरण हैं तथा आप भी जब कह रहे हैं कि यह हाथ पर रखे हुए आँवले की तरह प्रतयक्ष सिद्ध है, और आपकी अपरोक्षानुभूति जब वेदादि शास्‍त्रोक्‍त वाक्‍यों के अनुरूप है, तथा सचमुच इसे मिथ्‍या कहने का साहस नहीं होता। श्री शंकराचार्य ने भी कहा है- क्‍व गतं केन वा नीतम् इत्‍यादि।

स्‍वामी जी-जान लेना, य‍ह एकत्‍व ज्ञान होने पर-जिसे तुम्‍हारे शास्‍त्र में ब्रह्मानुभूति कहा गया है-जीव को फिर भय नहीं रहता; जन्‍म-मृत्‍यु का बंधत्‍व छिन्‍न हो जाता है। इस निंदनीय काम-कांचन में बद्ध रहकर जीव उस ब्रह्मानंद को प्राप्‍त नहीं कर सकते। उस परमानंद के प्राप्‍त्‍ होने पर, जगत के सुख-दु:ख से जीव फिर अभिभूत नहीं होता है।

शिष्‍य-अच्छा महाराज, यदि ऐसा ही है, और यदि हम वास्‍त्‍व में पूर्ण ब्रह्म का ही स्‍वरूप हैं तो फिर उस प्रकार की समाधि द्वारा सुख प्राप्‍त करने में हमारी चेष्टा क्‍यों नहीं होती? हम तुच्‍छ काम-कांचन के प्रलोभन में पड़कर बार-बार मृत्‍यु की ही ओर क्‍यों दौड़ रहे हैं ?

स्‍वामी जी-क्‍या तू समझ रहा है कि उस शक्ति को प्राप्‍त करने के लिए जीव का आग्रह नहीं है? जरा सोचकर देख, तब समझ सकेबा कि तू जो भी कुछ कर रहा है, वह भूमा-सुख की आशा से ही कर रहा है। परंतु सभी बात को समझ नहीं पाते। उस परमानंद को प्राप्‍त करने की इच्‍छा आब्रह्मास्‍तंब सभी में पूर्ण रूप से मौजूद है। आनंदस्‍वरूप ब्रह्म सभी के ह्दय के भीतर है। तू भी वही पूर्ण ब्रह्म है। इसी मुहूर्त में ठीक-ठीक अपने को उसी रूप में सोचने पर उस बात की अनुभूति हो सकती है। केवल अनुभूति की ही कमी है। तू जो नौकरी करके स्‍त्री-पुरुष के लिए इतना परिश्रम कर रहा है, उसका भी उद्देश्‍य उस सच्चिदानंद की प्राप्ति ही है। इस मोह के दाँव-पेंच में पड़कर, मार खा खाकर धीरे-धीरे अपने स्‍वरूप पर दृष्टि पड़ेगी। वासना है, इसलिए मार खा रहा है और आगे भी खायेगा। बस, इसी प्रकार मार खा खाकर अपनी ओर दृष्टि पड़ेगी। प्रत्‍येक व्‍यक्ति की किसी न किसी समय अवश्‍य ही पड़ेगी। अंतर इतना ही है कि किसी की इसी जन्‍म में और किसी की लाखों जन्‍मों के बाद पड़ती है।

शिष्‍य-महाराज, यह ज्ञान आपका आशीर्वाद और श्री रामकृष्‍ण की कृपा हुए बिना कभी नहीं होगा।

स्‍वामी जी-श्री रामकृष्‍ण की कृपारूपी हवा तो बह ही रही है, तू पाल उठा न दे। जब जो कुछ कर, खूब दिन से कर। दिन-रात सोच मैं सच्चिदानंदस्‍वरूप हूँ-मुझे फिर भय-चिंता क्‍या है? यह देह, मन, बुद्धि सभी क्षणिक हैं, इसके परे जो कुछ है वह मैं ही हूँ।'

शिष्‍य-महाराज, न जाने क्या बात है, यह भाव क्षण भर के लिए आकर फिर उसी समय उड़ जाता है, और फिर उसी व्‍यर्थ के संसार का चिंतन करने लगता हूँ।

स्‍वामी जी-ऐसा पहले-पहल हुआ करता है। पर धीरे-धीरे सब सुधर जाएगा। परंतु ध्यान रखना कि सफलता के लिए मन की बहुत तीव्रता और एकांतिक इच्‍छा चाहिए। तू सदा सोचकर कि 'मैं नित्‍य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्तस्‍वभाव हूँ। क्‍या मैं कभी अनुचित काम करत सकता हूँ ? क्‍या मैं मामूली काम-कांचन के लोभ में पड़कर साधारण जीवों की तरह मुग्‍ध बन सकता हूँ? इस प्रकार धीरे-धीरे मन में बल आएगा। तभी तो पूर्ण कल्‍याण होगा।

शिष्‍य-महाराज, कभी-कभी मन में बहुत बल आ जाता है। पर फिर सोचने लगता हूँ कि, डिप्‍टी मजिस्‍ट्रेट की नौकरी के लिए परीक्षा दूँ-धन आएगा, मान होगा, बड़े आनंद से रहूँगा।

स्‍वामी जी-मन में जब ऐसी बातें आयें, तब विचार में लग जाया कर। तूने तो वेदांत पढ़ा है-सोते समय भी विचार रूपी तलवार को सिरहाने रखकर सोया कर, ताकि स्‍वप्‍न में भी लोभ सामने न बढ़ सके। इसी प्रकार जबरदस्‍ती वासना का त्‍याग करते-करते धीरे-धीरे यथार्थ वैराग्‍य आएगा-तब देखेगा, स्‍वर्ग का दरवाजा खुल गया है।

शिष्‍य-अच्‍छा महाराज, भक्ति शास्‍त्र में जो कहा है कि अधिक वैराग्‍य होने पर भाव नहीं रहता; क्‍या यह सत्‍य है?

स्‍वामी जी-अरे फेंक दे अपना वह भक्ति शास्‍त्र, जिसमें ऐसी बात है। वैराग्‍य, विषय-वितृष्‍णा न होने पर तथा काक-विष्‍ठा की तरह कामिनी-कांचन का त्‍याग किये बिना न सिध्‍यति ब्रह्मशतान्‍तरेअपि, ब्रह्मा के करोड़ों कल्‍पों में भी जीव की मुक्ति नहीं हो सकती। जप, ध्‍यान, पूजा, हवन, तपस्‍या-केवल तीव्र वैराग्य लाने के लिए हैं। जिसने वह नहीं किया, उसका हाल तो वैसा ही है जैसा नाव बाँधकर पतवार चलानेवाले का- न धनने न प्रजाए त्‍यागेनैके अमृतत्‍वमानुश: ( न वंश परंपरा से और न धन संपदा से, वरन् केवल त्‍याग से ही अमृतत्‍व की प्राप्ति होती है)।

शिष्‍य-अच्छा महाराज, क्‍या काम-कांचन त्‍याग देने से ही सब कुछ होता है?

स्‍वामी जी-उन दोनों को त्‍यागने के बाद भी अनेक कठिनाइयाँ हैं। जैसे उनके बाद आती हैं-लोकप्रसिद्ध। उसे ऐसा वैसा आदमी संभाल नहीं सकता। लोग मान देते रहते हैं, नाना प्रकार के भोग आकर जुटते हैं। इसी में त्‍यागियों में से भी बारह आना लोग फँस जाते हैं। यह जो मठ आदि बनवा रहा हूँ, और दूसरों के लिए नाना प्रकार के काम कर रहा हूँ उससे प्रशंसा हो रही है। कौन जाने मुझे ही फिर इस जगत् में लौटकर आना पड़े।

शिष्‍य-महाराज, आप ही ऐसी बातें कर रहे हैं तो फिर हम कहाँ जायँ?

स्‍वामी जी-संसार में है, इसमें भय क्‍या है ? अभी:, अभी:, अभी:-भय का त्‍याग कर। नाग महाशय को देखा है न ? वे संसार में रहकर भी संन्‍यासी से बढ़कर हैं। ऐसे व्‍यक्ति अधिक देखने में नहीं आते। गृहस्‍थ यदि कोई हो तो नाग महाशय की तरह हो। नाग महाशय समस्‍त पूर्व बंग को आलोकित किये हुए हैं। वहाँ के लोगों से कहना, उनके पास जायँ। इससे उन लोगों का कल्‍याण होगा।

शिष्‍य-महाराज, आपने बिल्‍कुल ठीक बात कही है। नाग महाशय श्री रामकृष्‍ण के लीला-सहचर एवं नम्रता की जीती-जागती मूर्ति प्रतीत होते हैं।

स्‍वामी जी-यह भी क्‍या कहने की बात है? मैं एक बार उनका दर्शन करने जाऊँगा-तू भी चलेगा न ? जल में डूबे हुए बड़े-बड़े मैंदान देखने की मेरी तीव्र इच्‍छा है। मैं जाऊँगा, देखूँगा। तू उन्‍हें लिख दे।

शिष्‍य-मैं लिख दूंगा। आपके देवभोग जाने की बात को सुनकर वे आनंद से पागल हो जाएंगे। बहुत दिन पहले आपके एक बार जाने की बात चली थी। उस पर उन्‍होंने कहा था, 'पूर्व बंग आपके चरणों की धूलि से तीर्थ बन जाएगा।'

स्‍वामी जी-जानता तो है, नाग महाशय को श्री रामकृष्‍ण 'जलती आग' कहा करते थे।

शिष्‍य-जी हाँ, सुना है।

स्‍वामी जी-अच्‍छा, अब रात अधिक हो गई है, आ कुछ खा ले, फिर जाना।

शिष्‍य-जो आज्ञा।

इसके बाद शिष्‍य कुछ प्रसाद पाकर शिष्‍य कलकत्ता जाते-जाते सोचने लगा, स्‍वामी जी अद्भुत पुरुष हैं-मानो साक्षात् ज्ञानमूर्ति आचार्य श्री शंकर।

२५

स्‍थान : बेलूड़ मठ (निर्माण के समय)। वर्ष १८९८ ई॰

शिष्‍य-स्‍वामी जी, ज्ञान और भक्ति का मेल किस प्रकार हो सकता है। देखता हूँ, भक्तिमार्गावलंबी तो आचार्य श्री शंकर का नाम सुनते ही कानों में अँगुली दे देते हैं, और उधर ज्ञानपंथी भक्‍तों का आकुल कुंदन, उल्‍लास तथा नृत्‍यगीत आदि देखकर कहते हैं कि वे एक प्रकार के पागल हैं।

स्‍वामी जी-बात क्‍या है, जानता हूँ? गौण ज्ञान और गौण भक्ति लेकर ही विवाद होता है। श्री रामकृष्‍ण की भूत-बंदर की कहानी [9] तो सुनी है न ?

शिष्य-जी हाँ।

स्‍वामी जी-परंतु मुख्‍य भक्ति और मुख्‍य ज्ञान में कोई अंतर नहीं है। मुख्‍य भक्ति अर्थ, भगवान् की प्रेम के रूप में उपलब्धि करना। यदि तू सर्वत्र सभी के बीच में भगवान् की प्रेममूर्ति का दशर्न करता है तो फिर हिंसा-द्वेष किससे करेगा ? वह प्रेमानुभूति जरा भी वासना के रहते, जिसे श्री रामकृष्‍ण काम-कांचन के प्रति आसक्ति कहा करते थे, प्राप्‍त नहीं हो सकती। संपूर्ण प्रेमानूभूति में देह-बुद्धि तक नहीं रहती। और मुख्‍य-ज्ञान का अर्थ है सर्वत्र एकत्‍व की अनुभूति, आत्‍म-स्‍वरूप का सर्वत्र दर्शन, पर वह जरा सी भी अहंबुद्धि के रहते प्राप्‍त नहीं हो सकता।

शिष्‍य-तो क्‍या आप जिसे प्रेम कहते हैं, वही परम ज्ञान है?

स्‍वामी जी-नहीं तो क्या? पूर्ण प्रज्ञ होने पर किसी को प्रेमानुभूति नहीं होती। देखता है न, वेदांत शास्‍त्र में ब्रह्म को सच्चिदानंद कहा है। उस सच्चिदानंद शब्‍द का अर्थ है-सत् यानी अस्तित्‍व, चित अर्थात् चैतन्‍य या ज्ञान और आनंद अर्थात् प्रेम। भगावन् के 'सत' भाव के विषय में भक्‍त और ज्ञानी में कोई विवाद नहीं। परंतु ज्ञानमार्गी ब्रह्म की चित या चैतन्‍य सत्ता पर ही सदा अधिक जोर देते हैं और भक्‍त सदा 'आनंद' सत्ता पर दृष्टि रखते हैं। परंतु 'चित्' स्‍वरूप की अनुभूति होने के साथ ही आनंदस्‍वरूप की भी उपलब्धि हो जाती है, क्योंकि जो चित् है, वही आनंद है।

शिष्‍य-तो फिर भारत में सांप्रदायिक भाव इतना प्रबल क्‍यों है और ज्ञान तथा भक्ति शास्त्रों में भी इतना विरोध क्‍यों ?

स्‍वामी जी-देख गौण भाव को लेकर अर्थात् जिन भावों को पकड़कर मनुष्‍य यथार्थ ज्ञान अथवा भक्ति को प्राप्‍त करने के लिए अग्रसर होते हैं, उन्‍हीं पर सारी मारपीट होते देखी जाती है। तेरी क्‍या राय है ? उद्देश्‍य बड़ा है या उपाय बड़े हैं ? निश्‍चय है कि उद्देश्‍य से उपाय कभी बड़ा नहीं हो सकता। क्‍योंकि अधिकारियों की भिन्‍नता से एक ही उद्देश्‍य की प्राप्ति अनेक उपायों से होती है। तू ये जो जप-ध्‍यान, पूजा-होम आदि धर्म के अंग देखता है, वे सभी उपाय हैं और परा भक्ति अथवा १. शिव और राम में युद्ध हुआ था। उधर राम के गुरु हैं शिव और शिव के गुरु हैं राम; अंत: युद्ध के बाद दोनों में मेल भी हो गया। परंतु शिव के चेले भूत-प्रेत तथा राम के चेले बंदरों का आपस का झगड़ा-झंझट उस दिन से लेकर आज न मिटा।

परब्रह्मस्‍वरूप का दर्शन ही मुख्‍य उद्देश्‍य है। अत: जरा गौर से देखने पर ही समझ सकेगा कि विवाद किस पर हो रहा है। एक व्‍यक्ति कह रहा है 'पूर्व की ओर मुँह करके बैठकर पुकराने से ईश्‍वर प्राप्‍त होता है,' और एक व्यक्ति कहता है, 'नहीं, पश्चिम की ओर मुँह करके बैठना होगा। 'संभव है किसी व्‍यक्ति ने वर्षों पहले पूर्व की ओर मुँह करके बैठकर ध्‍यान-भजन करके ईश्‍वर का लाभ किया हो तो उनके अनुयायी यह देखकर उसी समय से उस मत का प्रचार करते हुए कहने लगे, पूर्व की ओर मुँह करके बैठे बिना ईश्‍वर-प्राप्ति नहीं हो सकती। और एक दल ने कहा, 'यह कैसी बात है ? हमने तो सुना है, पश्चिम की ओर मुँह अमुक ने ईश्‍वर को प्राप्‍त किया है ?' दूसरा बोलो, 'हम तुम्‍हारा वह मत नहीं मानते।' बस, इसी प्राकर दलबंदी का जन्‍म हो गया। इसी प्रकार एक व्‍यकित ने, संभव है, हरिनाम का जप करके पराभक्ति प्राप्‍त की हो। उसी समय शास्‍त्र बन गया, नास्‍त्‍येव गतिरन्‍यथा। फिर कोई अल्लाह कहकर सिद्ध हुआ और उसी समय उनका एक दूसरा अलग मत चलने लगा। हमें अब देखना होगा, इन सब जप, पूजा आदि की जड़ कहाँ है? यह जड़ है श्रद्धा। संस्‍कृत भाषा के 'श्रद्धा' शब्‍द को समझाने योग्‍य कोई शब्‍द हमारी भाषा में नहीं हैं। उपनिषद् में बतलाया है, यही श्रद्धा नचिकेता के ह्दय में प्रविष्‍ट हुई थी। 'एकाग्रता' शब्‍द द्वारा भी भी 'श्रद्धा' शब्‍द का समस्‍त भाव प्रकट नहीं होता है। मेरे मत से संस्‍कृत 'श्रद्धा' शब्‍द का निकटतम अर्थ 'एकाग्रनिष्‍ठा' शब्‍द द्वारा व्‍यक्‍त हो सकता है। निष्‍ठा के साथ एकाग्र मन से किसी भी तत्‍व का चिंतन करते रहने पर तू देखेगा कि मन की गति धीरे-धीरे एकत्‍व की ओर, सच्चिदानंद स्‍वरूप की अनुभूति की ओर जा रही है। भक्ति और ज्ञान शास्‍त्र दोनों ही उसी प्रकार एक-एक निष्‍ठा को जीवन में लाने के लिए मनुष्‍य को विशेष रूप से उपदेश कर रहे हैं। युग परंपरा से विकृत भाव धारण करके, वे ही सब महान् सत्‍य धीरे-धीरे देशाचार में परिणत हुए हैं। केवल तुम्‍हारे भारत में ही ऐसा नहीं हुआ है; पृथ्‍वी की सभी जातियों में और सभी समाजों में ऐसा हुआ है। विचारविहीन साधारण जीव, उन बातों को लेकर उसी समय से आपस में लड़कर मर रहे हैं। जड़ को भूल गए, इसीलिए तो इतनी मार-काट हो रही है।

शिष्‍य-महाराज, तो अब उपाय क्‍या है?

स्‍वामी जी-पहले जैसी यथार्थ श्रद्धा लानी होगी। व्‍यर्थ की बातों को जड़ से निकाल डालना होगा। सभी मतों में, सभी पंथों में देश-कालोत्तर सत्य अवश्‍य पाये जाते हैं; परंतु उन पर मैल जम गई है। उन्‍हें साफ करके यथार्थ तत्‍वों को लोगों के सामने रखना होगा, तभी तुम्हारे धर्म और देश का भला होगा।

शिष्‍य-ऐसा किस प्रकार करना होगा?

स्‍वामी जी-पहले-पहल महापुरुषों की पूजा चलानी होगी। जो लोग उन सब सनातन तत्‍वों को प्रत्‍यक्ष कर गए हैं, उन्हें लोगों के समाने आदर्श या इष्‍ट के रूप में खड़ा करना होगा, जैसे भारत में श्री रामचन्द्र, श्री कृष्‍ण, महावीर तथा श्री रामकृष्ण। देश में श्री रामचंद्र और महावीर की पूजा चला दे तो देखूँ? वृंदावन लीला-फीला अब रख दे। गीता का सिंहनाद करने वाले श्री कृष्ण पूजा चला दे-शक्ति की पूजा चला दे।

शिष्‍य-क्‍यों, वृंदावन लीला क्या बुरी है?

स्‍वामी जी-इस समय श्री कृष्‍ण की वैसी पूजा से तुम्‍हारे देश का कल्‍याण न होगा। बंसी बजाकर अब देश का कल्‍याण न होगा। अब चाहिए महान् त्‍याग, महान् निष्‍ठा, महान धैर्य और स्‍वार्थगन्‍धशून्‍य शुद्ध बुद्धि की सहायता से महान् उद्यम के साथ सभी बातें ठीक-ठीक जानने के लिए कमर सककर लग जाना।

शिष्‍य-महाराज, तो क्‍या आपकी राय में वृंदावन लीला सत्‍य नहीं है?

स्‍वामी जी-यह कौन कहता है। उस लीला की यथार्थ धारण तथा उपलब्धि करने के लिए बहुत उच्‍च साधन की आवश्यकता है। इस घोर काम-कांचन की आसक्ति के युग में उस लीला के उच्‍च भाव की धारण कोई नहीं कर सकेगा।

शिष्‍य-महाराज, तो क्या आप कहना चाहते हैं कि जो लोग मधुर, सख्‍य यथार्थ पथ पर नहीं जा रहा है?

स्‍वामी जी-मुझे तो ऐसा ही लगता है। विशेष रूप से वे जो मधुर भाव के साधक बताकर अपना परिचय देते हैं, उनमें दो-एक को छोड़कर बाकी सभी घोर तमोभावापन्‍न हैं। अस्‍वाभाविक मानसिक दुर्बलता से भरे हैं। इसीलिए कह रहा हूँ कि अब देश को उठाने के लिए महावीर की पूजा चलानी होगी, शक्ति की पूजा चलानी होगी, श्री रामचंद्र की पूजा घर-घर में करनी होगी। तभी तुम्‍हारा और देश का कल्‍याण होगा। दूसरा कोई उपाय नहीं।

शिष्‍य-परंतु महाराज, सुना है श्री रामकृष्‍ण देव तो सभी को लेकर संकीर्तन में विशेष आनंद लेते थे?

स्‍वामी जी-उनकी बात अलग है। उनके साथ क्‍या मनुष्‍य की तुलना हो सकती है? उन्‍होंने सभी मतों की साधना करके देखा है कि सभी एक तत्‍व में पहुँचा देते हैं। उन्‍होंने जो कुछ किया है, वह क्‍या तू या मैं कर सकता हूँ ? वे कौन थे और कितने बड़े थे, यह हम कोई भी अभी तक समझ नहीं सके। इसीलिए मैं उनकी बात जहाँ-तहाँ नहीं कहता। वे क्‍या थे, यह वे ही जानते थे। उनकी देह ही केवल मनुष्‍य की थी, आचरण में तो उन्‍हें देवत्‍व प्राप्त था।

शिष्‍य-अच्छा महाराज, क्‍या आप उन्‍हें अवतार मानते हैं?

स्‍वामी जी-पहले यह बात कि तेरे 'अवतार' शब्‍द का अर्थ क्या है।

शिष्‍य-क्‍यों? श्री राम, श्री कृष्‍ण, श्री गौरांग, बुद्ध आदि के समान पुरुष।

स्‍वामी जी-तूने जिनका नाम लिया, मैं श्री रामकृष्‍ण को उनके सबसे बड़ा मानता हूँ-मानना तो छोटी बात है-जानता हूँ। रहने दे अब इस बात को। इतना ही सुन ले कि समय और समाज के अनुसार जो एक-एक महापुरुष धर्म का उद्धार करने आते हैं, उन्‍हें महापुरुष कह, या अवतार कह, इसमें कुछ भी अंतर नहीं होता। वे संसार में आकर जीवों को अपना जीवन संगठित करने का आदर्श बता जाते हैं। जो जिस समय आता है, उस समय उसी के आदर्श पर सब कुछ होता है-मनुष्य बनते हैं और संप्रदाय चलते हैं। समय पर वे सब संप्रदाय विकृत हो जाने पर,फिर वैसे ही अन्‍य संस्‍कार आते हैं। यह नियम प्रवाह के रूप में चला आ रहा है।

शिष्‍य-महाराज, तो आप श्री रामकृष्‍ण को अवतार कहकर घोषित क्‍यों नहीं करते ? आप में तो शक्ति, वक्‍तृताशक्ति, काफी है।

स्‍वामी जी-इस कारण, उनके संबंध में मेरी अल्‍पज्ञता है। मुझे वे इतने बड़े लगते हैं कि उनके संबंध में कुछ भी कहने में मुझे भय होता है कि कहीं सत्‍य का विपर्यास न हो जाए; कहीं मैं अपनी इस अल्‍प शक्ति के अनुसार उन्‍हें बड़ा करने के यत्‍न में उनका चित्र अपने ढाँचे में खींचकर उन्हें छोटा न बना डालूँ।

शिष्‍य-परंतु आजकल अनेक लोग उन्हें अवतार ही प्रचार कर रहे हैं।

स्‍वामी जी-करें-जो जैसा समझ रहा है, वह वैसा कर रहा है। तेरा वैसा विश्‍वास हो तो तू भी कर।

शिष्‍य-मैं आप ही को अच्छी तरह समझ नहीं सकता फिर श्री रामकृष्‍ण की तो बात दूर रही। ऐसा लगता है कि आपकी कृपा का कण पाने ये ही मैं इस जन्‍म में धन्‍य हो जाऊँगा।

आज यहीं पर वार्तालाप समाप्‍त हुआ और शिष्‍य स्‍वामी जी की पदधूलि लेकर घर लौटा।

 

२६

स्थान: बेलूड़ मठ (निर्माण के समय)। वर्ष : १८९८ ई॰

शिष्‍य-महाराज, श्री रामकृष्‍ण कहा करते थे, का‍मिनी-कांचन का त्‍याग न करने पर कोई भी धर्मपथ में अग्रसर नहीं हो सकता; तो फिर जो लोग गृहस्थ हैं, उनके उद्धार का क्‍या उपाय है? उन्‍हें तो दिन-रात उन दोनों को ही लेकर व्‍यस्‍त रहना पड़ता है।

स्‍वामी जी-काम-कांचन की आसक्ति न जाने पर, ईश्‍वर में मन नहीं लगता। वह चाहे गृहस्‍थ हो या संन्‍यासी। इन दो चीज़ों में जब तक मन है, तब तक ठीक-ठीक अनुराग, निष्‍ठा या श्रद्धा कभी उत्‍पन्‍न का उपाय है?

शिष्‍य-तो क्‍या फिर गृहस्‍थों के उद्धार उपाय है?

स्‍वामी जी-हाँ, उपाय है क्‍यों नहीं ? छोटी-छोटी वासनाओं को पूर्ण कर लेना और बड़ी-बड़ी का विवेक से त्याग कर देना। त्‍याग के बिना ईश्‍वर की प्राप्ति न होगी-यदि ब्रह्मा स्‍वयं वदेत्-वेदकर्ता ब्रह्मा यदि स्‍वयं ऐसा कहें, फिर भी न होगा।

शिष्‍य-अच्छा महाराज, संन्यास लेने से ही क्‍या विषय त्‍याग होता है?

स्‍वामी जी-नहीं, परंतु लोग काम-कांचन को संपूर्ण रूप से छोड़ने के लिए तैयार हो रहे हैं, यत्‍न कर रहे हैं; गृहस्‍थ तेा नाव को बाँधकर पतवार चला रहे हैं-यहीं अंतर है। भोग की आकांक्षा क्‍या कभी मिटती है रे ? भूय एवाभिवर्धते-दिनोंदिन बढ़ती ही रहती है।

शिष्‍य-क्‍यों? भोग करते-करते तंग आने पर अंत में तो वितृष्‍णा आ सकती है।

स्‍वामी जी-धत् छोकरे, कितनों को आती देखी है? लगतार विषयभोग करते रहने पर मन में उन सब विषयों को छाप पड़ जाती है,-दाग लग जाता है-मन विषय के रँग में रँग जाता है। त्‍याग, त्‍याग-यही है मूल मंत्र।

शिष्‍य-क्‍यों महाराज, ऋषिवाक्‍य तो है-गृहेषु पंचेंद्रियनिग्रहस्तप:, निवृत्तरागस्‍य गृहं तपोवनम्। गृहस्‍थाश्रम में रहकर इंद्रियों को विषयों से अर्थात् रूप, रस आदि भोगों से विमुख रखने को ही तपस्‍या कहते हैं। विषयानुराग दूर होने पर गृह ही तपोवन बन जाता है।

स्‍वामी जी-गृह में रहकर जो लोग काम-कांचन का त्‍याग कर सकते हैं, वे धन्‍य हैं, परंतु यह कर कितने सकते हैं?

शिष्‍य-परंतु महाराज, आपने तो थोड़ी ही देर पहले कहा था कि संन्‍यासियों में भी अधिकांश का संपूर्ण रूप से काम-कांचन तयाग नहीं हुआ है?

स्‍वामी जी-हाँ, कहा है; परंतु यह भी कहा है कि वे त्याग के पथ पर चल रहे हैं। वे काम-कांचन के विरूद्ध युद्धक्षेत्र में अवतीर्ण हुए हैं। गृहस्‍थों को अभी तक यह धारणा ही नहीं हुई है कि काम-कांचन की आसक्ति एक विपत्ति है। उनकी आत्‍मोन्‍नति के लिए चेष्‍टा ही नहीं हो रही है। उसके विरूद्ध जो युद्ध करना होगा, यह चिंता ही अभी तक उन्‍हें नहीं हुई है।

शिष्‍य-क्‍यों महाराज, उनमें से भी तो अनेक व्‍यक्ति उस आसक्ति का त्‍याग करने की चेष्‍टा कर रहे हैं।

स्‍वामी जी-जो लोग कर रहे हैं, वे अवश्‍य ही धीरे-धीरे त्‍यागी बनेंगे। उनकी धीरे-धीरे काम-कांचन के प्रति आसक्ति कम हो जाएगी। परंतु बात यह है, 'अब जाता हूँ, जब जाता हूँ', अब होगा, तब होगा', जो लोग इस प्रकार चल रहे हैं, उनका आत्‍मदर्शन अभी बहुत दूर है। परंतु 'अभी भगवान को प्राप्त करूँगा, इसी जन्‍म में करूँगा'-यह है वीर की बात। ऐसे व्‍यक्ति सर्वस्‍व त्‍याग देने को तैयार होते हैं; शास्‍त्र में उन्हीं के संबंध में कहा है- यदहरेव विरजेत्, तदहरेव प्रव्रजेत्-जिस क्ष्‍ाण वैराग्‍य उत्‍पन्‍न हो जाएगा, उसी क्षण वे संसार का त्‍याग कर देगे।

शिष्‍य-परंतु महाराज, श्री रामकृष्‍ण तो कहा करते थे कि ईश्‍वर-कृपा होने पर, उन्‍हें पुकारने पर, वे इन सब आसक्तियों को एक पल में मिटा देते हैं।

स्‍वामी जी-हाँ, उनकी कृपा होने पर ऐसा अवश्‍य होता है, परंतु उनकी कृपा प्राप्‍त करनी हो तो पहले शुद्ध, पवित्र बन जाना चाहिए; कायमनोवाक्‍य से पवित्र होना चाहिए, तभी उनकी कृपा होती है।

शिष्‍य-परंतु कायमनोवाक्‍य ये यदि संयम कर सके तो फिर कृपा की आवश्‍यकता ही क्‍या है। तब तो फिर स्‍वयं अपनी ही चेष्‍टा से आत्‍मोन्‍नति की हुई समझी जाएगी।

स्‍वामी जी-तुझे प्राणमय से चेष्‍टा करते देखकर ही वे कृपा करेंगे। उद्यम या प्रयत्‍न न करके बैठे रहो तो तभी कृपा न होगी।

शिष्‍य-संभवत: अच्छा बनने की अच्छा सभी की है; परंतु पता नहीं कि कि दुर्ज्ञेय सूत्र से मन निम्‍नगामी बन जाता है; सभी लोग क्‍या यह नहीं चाहते कि 'मैं सत् बनूँगा, अच्‍छा बनूँगा, ईश्‍वर को प्राप्‍त करूँगा ?'

स्‍वामी जी-जिनके मन में उस प्रकार की इच्‍छा हुई है, याद रखना उन्‍हीं में वैसा बनने की चेष्‍टा आयी भी है और चेष्‍टा करते-करते ही ईश्‍वर की दया होती है।

शिष्‍य-परंतु महाराज, अनेक अवतारों में देखा गया है, जिन्‍हें हम अत्‍यंत पापी, व्‍यभिचारी आदि समझते हैं, साधन-भजन किये बिना ही वे उनकी कृपा से ईश्‍वर को प्राप्त करने में समर्थ हुए थे-इसका क्‍या कारण है?

स्‍वामी जी-याद रखना, उनके मन में अत्‍यंत अशांति आयी थी, भोग करते-करते वितृष्‍णा आ गई थी, अशांति से उनका हृदय जल रहा था; वे ह्दय में इतनी कमी अनुभव कर रहे थे कि यदि उन्हें कुछ शांति न मिलती तो उनकी देह छूट जाती, इसलिए भगवान् की दया हुई थी। वे सब लोग तमोगुण में से होकर धर्मपथ में उठे थे।

शिष्‍य-तमोगुण हो या और कुछ परंतु उस भाव में भी तो उनको ईश्‍वर-प्राप्ति हुई थी?

स्‍वामी जी-क्‍यों न होगी? परंतु पाखाने के दरवाजे से प्रवेश न करके सामने वाले दरवाजे में से होकर मकान में प्रवेश क्‍या अच्‍छा नहीं है? और उस पथ में भी तो इस प्रकार की एक परेशानी और चेष्‍टा है ही कि मन की इस अशांति को कैसे दूर किया जाए।

शिष्‍य-यह ठीक है, परंतु मैं समझता हूँ कि जो लोग इंद्रिय आदि का दमन अथवा काम-कांचन का त्याग करके ईश्‍वर को प्राप्‍त करने के लिए सचेष्‍ट हैं, वे प्रयत्‍नवादी तथा स्वावलंबी हैं; और जो लोग केवल उनके नाम पर विश्‍वास कर निभर्र रहते हैं, भगवान् समय पर काम-कांचन के प्रति उनके आशक्ति को दूर करके अंत में परम पद दे देते हैं।

स्‍वामी जी-हाँ, परंतु ऐसे लोग बहुत ही कम हैं। सिद्ध होने के बाद लोग उन्‍हें ही कृपा-सिद्ध कहते हैं। परंतु ज्ञानी और भक्‍त दोनों के मत में त्याग ही मूलमंत्र है।

शिष्‍य-इसमें फिर संदेह क्या है। श्री गिरीशचन्द्र घोष महाशय ने एक दिन मुझसे कहा था, 'कृपा का कोई नियम नहीं है। यदि है तो उसे कृपा नहीं कहा जा सकता। वहाँ पर सभी गैरकानूनी कार्रवाइयाँ हो सकती हैं।'

स्‍वामी जी-ऐसा नहीं है रे, ऐसा नहीं है; घोष महाशय ने जिस स्थिति की बात कही है, वहाँ पर भी कोई अज्ञात कानून या नियम अवश्‍य है। गैरकानूनी कार्रवाई अंतिम बात-देश-काल-निमित्त के परे के स्‍थान की बात; वहाँ पर कार्य-कारण संबंध नहीं है, इसीलिए वहाँ पर कौन किस पर कृपा करेगा? वहाँ पर सेव्‍य-सेवक, ध्‍याता-ध्‍येय, ज्ञाता-ज्ञेय सब एक हो जाते हैं-सभी समरस।

शिष्‍य-अब तो विदा लूँ। आपकी बात सुनकर आज वेद-वेदांत का सार समझ गया। इतने दिन तो केवल बातों का आडंबर मात्र हो रहा था।

स्‍वामी जी की पदधूलि लेकर शिष्‍य कलकत्ते की ओर अग्रसर हुआ।

२७

स्‍थान : बेलूड़ मठ (निर्माण के समय)। वर्ष : १८९८ ई॰

शिष्‍य-स्‍वामी जी, क्‍या खाद्य-अखाद्य के साथ धर्माचरण का कुछ संबंध है?

स्‍वामी जी-थोड़ा बहुत अवश्‍य है।

शिष्‍य-मछली तथा मांस खाना क्‍या उचित तथा आवश्‍यक है?

स्‍वामी जी-खूब खाओ भाई। इससे जो पाप होगा वह मेरा।१ 'तुम अपने देश के लोगों की ओर एक बार ध्यान से देखो तो, मुँह पर मलिनता की छाया; कलेजे में न साहस, न उल्‍लास; पेट बड़ा हाथ-पैरों में शक्ति नहीं; डरपोक और कायर।

शिष्‍य-मछली और मांस खाने से यदि उपकार ही होता है तो बौद्ध तथा वैष्‍णव धर्म में अहिंसा को 'परमो धर्म:' क्‍यों कहा गया है?

स्‍वामी जी-बौद्ध तथा वैष्‍णव धर्म अलग नहीं। बौद्ध धर्म के उच्‍छेद के समय हिंदू धर्म ने उनके कुछ नियमों को अपना लिया था। वही इस समय भारत में वैष्‍णव धर्म के नाम से विख्‍यात है।

'अहिंसा परमो धर्म:'-बौद्ध धर्म का एक बहुत अच्छा सिद्धांत है, परंतु अधिकारी का विचार न करके जबरदस्‍ती राज्य की शक्ति के बल पर उस मत को सर्वसाधारण पर लादकर बौद्ध धर्म ने देश का सर्वनाश किया है। परिणाम यही हुआ कि लोग चींटियों को तो चीनी देते हैं, पर धन के लिए भाई का भी सर्वनाश कर डालते हैं। इस प्रकार अनेक बक: परमधार्मिक: के अनुसार जीवन व्‍यतीत करते देखे जाते हैं। दूसरी ओर देख, वैदिक तथा मनु के धर्म में मछली और मांस खाने का विधान है और साथ ही अहिंसा की बात भी। अधिकारी भेद से हिंसा और अहिंसा धर्मों के पालन करने की व्‍यवस्‍था है। श्रुति ने कहा है-मा हिंस्‍यात् सर्वभूतानि, मनु ने कहा है- निवृत्तिस्‍तु महाफल।

शिष्‍य-लेकिन आजकल तो देखा है महाराज, कि धर्म की ओर जरा आकर्षण होने के पहले ही लोग मछली और मांस त्‍याग देते हैं। कई लोगों की दृष्टि में तो व्‍यभिचार आदि गंभीर पाप से भी मानो मछली और मांस खाना अधिक पाप है। यह भाव कहाँ से आया?

स्‍वामी जी-कहाँ से आया, यह जानने से तुझे क्‍या लाभ? परंतु यह मत तुम्‍हारे समाज तथा देश में प्रविष्ट होकर जो सर्वनाश कर रहा है, यह जो देख रहा है न? देखा न-तुम्हारे पूर्व बंग के लोग बहुत मछली और मांस खाते हैं; कछुआ खाते हैं, इसीलिए पश्चिम बंग के लोगों की तुलना में अधिक स्‍वस्थ हैं। पूर्व बंग में तो धनवानों ने भी अभी तक रात को पूड़ी या रोटी खाना नहीं सीखा। इसीलिए तो वे इस ओर के लोगों की तरह अम्‍ल रोग के शिकार नहीं बने। सुना है, पूर्व बंग के देहातों में लोग अम्‍ल रोग जानते ही नहीं।

शिष्‍य-जी हाँ। हमारे देश में अम्‍ल रोग नाम का कोई रोग नहीं। इस देश में आकर उस रोग का नाम सुना। देश में हम दोनों समय मछली भात खाते हैं।

स्‍वामी जी-खूब खाया कर। घास-पात खाकर पेट-रोगी बाबा जी लोगों के दल से देश भर गया है। यह सत्‍व गुण का लक्षण नहीं। महातमोगुण की छाया है-मृत्‍यु की छाया है। सत्‍वगुण के लक्षण हैं-मुखमंडल पर चमक-ह्दय में अदम्‍य उत्‍साह, अतुल चपलता; और तमोगुण के लक्षण हैं आलस्‍य, जड़ता, मोह तथा निद्रा आदि।

शिष्‍य-परंतु महाराज, मांस-मछली से तो रोजगुण की वृद्धि होती है।

स्‍वामी जी-मैं तो यहीं चाहता हूँ। इस समय रजोगुण की ही तो आवश्‍यकता है। देश के जिन सब लोगों को तू आज सत्‍वगुणी समझ रहा है, उनमें से पंद्रह आने लोग तो घोर तमोगुणी हैं। एक आना सतोगुणी मनुष्‍य मिले तो बहुत हैं। अब चाहिए प्रबल रजोगुण की तांडव उद्दीपना। देश जो घोर तमसाच्‍छन्‍न है, देख नहीं रहा है? अब देश के लोगों को मछली-मांस खिलाकर उद्यमशील बना डालना होगा, जगाना होगा, कार्य तत्‍पर बनाना होगा; नहीं तो धीरे-धीरे देश के सभी लोग जड़ बन जाएंगे-पेड़-पत्‍थरों की तरह जड़ बन जाएंगे। इसीलिए कह रहा था, मछली और मांस खूब खाना।

शिष्‍य-परंतु महाराज, मन में जब सत्‍व गुण की अत्‍यंत स्‍फूर्ति होती है, तब क्‍या मछली और मांस खाने की इच्छा रहती है?

स्‍वामी जी-नहीं, फिर इच्‍छा नहीं होती। सत्व गुण का जब बहुत विकास होता है, तब मछली, मांस में रुचि नहीं रहती। परंतु सत्‍व गुण के प्रकट होने के ये सब लक्षण समझो: दूसरों के हित में सब प्रकार ये यत्‍न करन, कामिनी-कांचन में संपूर्ण अनाशक्ति, अभिमानशून्‍यता, अहंबुद्धिशून्‍यता आदि सब लक्षण जिसके होते हैं, उसकी फिर माँस खाने की इच्‍छा नहीं होती। और जहाँ पर देखेगा कि मन में सब गुणों का विकास नहीं है, परंतु अहिंसा के दल में केवल नाम लिखा लिया है, वहाँ पर या तो बगुला भक्ति है या धर्म का ढोंग। तेरी जिस समय वास्‍तव में सत्व गुण में स्थिति होगी, उस समय तू मांसाहार छोड़ देगा।

शिष्‍य-परंतु महाराज, 'छान्‍दोग्‍य' उपनिषद् में तो कहा है, आहारशुद्धौ सत्त्‍वशुद्धि:-शुद्ध वस्‍तु खाने से सत्‍व गुण की वृद्धि होती है, इत्‍यादि। अत: सत्त्‍वगुणी बनने के लिए पहले से ही रजस् और तमोगुण का उद्दीपित करने वाले पदार्थों को छोड़ देना ही क्या यहाँ पर श्रुति का अभिप्राय नहीं है?

स्‍वामी जी-उस श्रुति का भाष्‍य करते हुए शंकराचार्य ने कहा है-'आहार' यानी इंद्रिय-विषय; और रामानुज ने 'आहार' का अर्थ खाद्य माना है। मेरा मत है कि उन दोनों के मतों में सामंजस्‍य कर लेना होगा। केवल दिन-रात खाद्य और अखाद्य पर वाद-विवाद करके ही जीवन व्‍यतीत करना उचित है या वास्‍तव में इंद्रिय-संयम करना आवश्‍यक है? अतएव हमें इंद्रिय-संयम को ही मुख्‍य उद्देश्‍य मान लेना होगा; और उस इंद्रिय-संयम के लिए ही भले-बुरे खाद्य-अखाद्य का थोड़ा-बहुत विचार करना होगा। शास्‍त्रों ने कहा है, खाद्य तीन प्रकार के दोषों से अपवित्र तथा त्‍याज्‍य होता है।

1. जाति दोष-जैसे प्‍याज, लहसुन आदि।

2. निमित्त दोष-जैसे हलवाई की दुकान की मिठाई, जिसमें कितनी ही मरी मक्खियाँ तथा रास्‍ते की धूल उड़कर पड़ी रहती है, आदि।

3. आश्रय दोष-जैसे बुरे व्‍यक्ति द्वारा छुआ हुआ अन्‍न आदि। जाति दोष अथवा निमित्त दोष से खाद्य युक्‍त है या नहीं, इस पर सभी समय विशेष दृष्टि रखना चाहिए; परंतु इस देश में इस ओर कभी ध्‍यान नहीं दिया जाता। केवल शेषोक्त दोष को ही लेकर-जो योगियों के अतिरिक्‍त शायद दूसरा कोइ समझ ही नहीं सकता-देश में व्‍यर्थ के संघर्ष हो रहे हैं। 'छुओ मत', 'छुओ मत' कह-कहकर छूतपंथियों ने देश को तंग कर डाला है। भले-बुरे का विचार नहीं-गले में केवल यज्ञोपवीत धारण कर लेने से ही किसी के हाथ का अन्‍न खाने में छूतधर्मियों को आपत्ति नहीं रहती। खाद्य के आश्रय दोष पर ठीक ध्‍यान देते एकमात्र श्री रामकृष्‍ण को ही देखा है। ऐसी अनेक घटनाएँ हुई, जब वे किसी-किसी व्‍यक्ति का छुआ नहीं खा सके। कभी विशेष खोज करने पर जब पता लगाया गया तो वास्‍तव में उस व्‍यक्ति में कोई न कोई बड़ा दोष अवश्‍य निकला। तुम लोगों का सब धर्म अब भात की हाँडि़यों में ही रह गया है। दूसरी जाति का छुआ हुआ भात न खाने से ही मानो भगवान् की प्राप्ति हो गई। शास्‍त्र के सब महान् सत्‍यों को छोड़कर केवल ऊपरी छिलका लेकर ही आजकल संघर्ष चल रहा है।

शिष्‍य-महाराज, तो क्‍या आप यह कहना है कि किसी का भी छुआ अन्‍न हमें खा लेना चाहिए ?

स्‍वामी जी-ऐसा क्‍यों कहूँगा ? मेरा कहना है-तू ब्राह्मण है, दूसरी जाति का अन्‍न चाहे न भी खा, पर तू सभी ब्राह्मणों के हाथ अन्‍न क्‍यों नहीं खाता ? मान लो तुम लोग राढ़ी श्रेणी के ब्राह्मण हो, तो वारेंद्र श्रेणी के ब्राह्मणों का अन्‍न खाने में तुम्हें क्‍यों आपत्ति नहीं होनी चहिए? दूसरी ओर वारेन्द्र ब्राह्मण तुम्‍हारा अन्‍न क्यों नहीं खायेंगे ? महाराष्ट्री, तेलंगी और कन्‍नौजी ब्राह्मण भी तुम्हारे हाथ का अन्‍न क्‍यों नहीं खायेंगे ? कलकत्ते में जाति-विचार और भी मजे का है। देखा जाता है, अनेक ब्राह्मण तथा कायस्‍थ होटलों में भात खा रहे हैं, पंरतु वे ही होटल से बाहर निकलकर समाज के नेता बन रहे हैं, वे दूसरों के जाति-विचार तथा अन्‍न-विचार के नियम बनाते हैं। मैं कहता हूँ, क्‍या समाज को उन सब पाखंडियों के बनाये नियमों के अनुसार चलना चाहिए ? असल में उनकी बातों को छोड़कर सनातन ऋषियों का शासन चलाना होगा, तभी देश का कल्‍याण संभव है।

शिष्य-तो क्या महाराज, कलकत्ते के आधुनिक समाज में ऋषियों का शासन नहीं चल रहा है ?

स्‍वामी जी-केवल कलकत्ते में ही क्‍यों? मैंने भारत में अच्छी तरह से छानबीन करके देखा है, कहीं भी ऋषि-शासन ठीक-ठीक नहीं चल रहा है। केवल लोकाचार, देशाचार और स्‍त्री-आचार इन्‍हीं से सभी स्‍थानों में समाज का शासन चल रहा है। न शास्‍त्रों का कोई अध्‍ययन करता है, और न पढ़कर उसके अनुसार समाज को चलाना ही चाहता है।

शिष्‍य-तो महाराज, अब हमें क्‍या करना होगा?

स्‍वामी जी-ऋषियों का मत चलाना होगा; मनु, याज्ञवल्‍क्‍य आदि ऋषियों के मंत्र से देश को दीक्षित करना होगा। समय के अनुसार कुछ-कुछ परिवर्तन करना होगा। यह देख न, भारत में कहीं भी अब चातुर्वर्ण्‍य विभाग दृष्टिगोचर नहीं होता। पहले तो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्‍य, शूद्र इन चारों वर्णों में देश के लोगों को विभाजित करना होगा। सब ब्राह्मणों को एक करके ब्राह्मणों की एक जाति संगठित करनी होगी। इसी प्रकार सब क्षत्रिय, सब वैश्‍य तथा सब शूद्रों को लेकर अपनी तीन जातियाँ बनाकर सभी जातियों को वैदिक प्रणाली में लाना होगा। नहीं तो केवल 'तुम्‍हें छुऊँगा नहीं' कहने से ही क्या देश का कल्याण होगा? कभी नहीं।

२८

स्थान: बेलूड़ मठ (निर्माण के समय)। वर्ष : १८९८ ई॰

शिष्‍य-स्‍वामी जी, आजकल हमारे समाज और देश की इतनी बुरी दशा क्‍यों हो रही है?

स्‍वामी जी-तुम्‍हीं लोग इसके लिए जिम्‍मेदार हो।

शिष्‍य-महाराज, क्‍यों, किस प्रकार?

स्‍वामी जी-बहुत दिनों से देश की नीच जातियों से घृणा करते-करते अब तुम लोग स्‍वयं जगत् में घृणा के पात्र बन गए हो?

शिष्‍य-हमने कब उनसे घृणा की?

स्‍वामी जी-क्‍यों, तुम पुरोहित ब्राह्मणों ने ही तो वेद-वेदांत आदि सारयुक्‍त शास्‍त्रों को ब्राह्मणों के अतिरिक्‍त अन्‍य जाति वालों को कभी पढ़ने नहीं दिया-उन्‍हें स्‍पर्श भी नहीं किया-उन्‍हें केवल नीचे दबाकर रखा -स्‍वार्थ की दृष्टि से तुम्‍हीं लोग तो चिरकाल से ऐसा करते आ रहे हो। ब्राह्मणों ने ही तो धर्मशास्‍त्रों पर एकाधिकार जमाकर विधि-निषेधों को अपने ही हाथ में रखा था और भारत की दूसरी जातियों को नीच कहकर उनके मन में विश्‍वास जमा दिया था कि वे वास्‍तव में नीच हूँ। यदि किसी व्‍यक्ति को खाते, सोते, उठते, बैठते, हर समय कोई कहता रहे कि 'तू नीच है', मैं वास्‍तव में नीच हूँ।' इसे सम्‍मोहित (हिप्‍नोटाइज) करना कहते हैं। ब्राह्मणेतर जातियों का अब धीरे-धीरे यह भ्रम मिट रहा है। ब्राह्मणों के तंत्र-मंत्र में उनका विश्‍वास कम होता जा रहा है। प्रबल जल-वेग से पद्मा नदी का किनारा जिस प्रकार टूट रहा है, उसी प्रकार पाश्‍चात्‍य शिक्षा के विस्‍तार से ब्राह्मणों की करतूतें अब प्रकट हो रही हैं, देख तो रहा है न ?

शिष्‍य-जी हाँ, छुआछूत आदि का बंधन आजकल धीरे-धीरे ढीला होता जा रहा है।

स्‍वामी जी-होगा नहीं ? ब्राह्मणों ने धीरे-धीरे जो घोर अनाचार, अत्‍याचार करना प्रारंभ किया था। स्‍वार्थ के वशीभूत होकर केवल अपनी प्रभुता को ही कायम रखने के लिए कितने ही विचित्र ढंग के अवैदिक, अनैतिक, युक्तिविरुद्ध मतों को चलाया था, उनका फल भी हाथों-हाथ पा रहे हैं।

शिष्‍य-क्‍या फल पा रहे हैं महाराज?

स्‍वामी जी-क्‍या फल, देख नहीं रहा है ? तुम लोगों ने भारत की अन्‍य साधारण जातियों से घृणा की थी, इसीलिए अब तुम लोगों को हज़ार वर्षों से दासता सहनी पड़ रही है और तुम लोग अब विदेशियों की घृणा तथा स्‍वदेश-वासियों की उपेक्षा के पात्र बने हुए हो।

शिष्‍य-परंतु महाराज, अभी तो व्‍यवस्था आदि ब्राह्मणों के मत से ही चल रही है। गर्भाधान से लेकर सभी कर्मकांड की क्रियाएँ-जैसे ब्राह्मण बता रहे हैं, वैसे ही लोग कर रहे हैं तो फिर आप ऐसा क्‍यों कह रहे हैं?

स्‍वामी जी-कहाँ चल रहा है? शास्‍त्रोक्‍त दशविध संस्‍कार कहाँ चल रहा है ? मैंने तो सारा भारत घूमकर देखा है, सभी स्‍थानों में श्रृति और स्‍मृतियों द्वारा निंदित देशाचारों से समाज का शासन चल रहा है। लोक-प्रथा, देश-प्रथा और स्‍त्री-प्रथा ही सर्वत्र स्‍मृति शास्‍त्र बन गए हैं। कौन किसकी बात सुनता है? धन दे सको तो पंडितों का समाज जैसा चाहो विधि-निषेध लिख देने को तैयार है। कितने पुरोहितों ने वैदिक कल्‍प, गृह्य श्रौत सूत्रों को पढ़ा है ? उस पर और देख-यहाँ बंगाल में रघुनंदन का शासन है; जरा आगे बढ़कर देखेगा जो मिताक्षरा का शासन और दूसरी ओर जाकर देखेगा तो मनुस्‍मृति का शासन चल रहा है। तुम लोग समझते हो, शायद सर्वत्र एक ही मत प्रचलित है। इसीलिए मैं चाहता हूँ कि वेद के प्रति लोगों का सम्‍मान बढ़े; सब लोग वेदों की चर्चा करें और इस प्रकार सर्वत्र वेद का शासन फैले।

शिष्‍य-महाराज, क्‍या अब ऐसा चलना संभव है ?

स्‍वामी जी-वेद के सभी प्राचीन नियम चाहे न चलें, परंतु समय के अनुसार काट-छाँट कर नियमों को सजाकर नए साँचे में ढालकर समाज के सामने रखने से वे क्‍यों नहीं चलेंगे?

शिष्‍य-महाराज, मेरा विश्‍वास था, कम से कम मनु का शासन भारत में सभी लोग मानते हैं।

स्‍वामी जी-कहाँ मान रहे हैं ? तुम अपने ही प्रदेश में देखो न, तंत्र का वामाचार तुम्‍हारी नस-नस में प्रविष्‍ट हो गया है, यहाँ तक कि आधुनिक वैष्‍णव धर्म में भी, जो मृत बौद्ध धर्म के कंकाल का अवशेष है, घोर वामाचार प्रविष्‍ट हो गया है। उस अवैदिक वामाचार के प्रभाव को घटाना होगा।

शिष्‍य-महाराज, क्‍या अब इस कीचड़ को साफ करना संभव है ?

स्‍वामी जी-तू क्या कह रहा है ? डरपोक, कापुरुष कहीं का। असंभव कह-कहकर तुम लोगों ने देश को बर्बाद कर डाला है। मनुष्‍य की चेष्‍टा से क्‍या नहीं हो सकता?

शिष्‍य-परंतु महाराज, देश में मनु, याज्ञवल्‍क्य आदि ऋषियों के फिर से पैदा हुए बिना ऐसा होना संभव नहीं जान पड़ता।

स्‍वामी जी-अरे पवित्रता और नि:स्‍वार्थ चेष्‍टा के लिए ही तो वे मनु, याज्ञवल्‍क्‍य बने थे, या और कुछ के लिए ? चेष्‍टा करने पर तो हम मनु या याज्ञवल्‍क्‍य से भी कहीं बड़े बन सकते हैं। उस समय हमारा मत भी क्‍यों नहीं चलेगा?

शिष्‍य-महाराज, थोड़ी देर पहले आप ही ने तो कहा था कि प्राचीन आचारों को देश में चलाना होगा। तो फिर मनु आदि को हमारी ही तरह व्‍यक्ति मानकर उनकी उपेक्षा करने से कैसे होगा ?

स्‍वामी जी-किस बात पर तू किस बात को ला रहा है? तूने मेरी बात ही नहीं समझी। मैंने सिर्फ कहा है कि प्राचीन वैदिक आचारों को समाज और समय के उपुयक्‍त बनाकर नए ढाँचे में गढ़कर नवीन रूप में देश में चलाना होगा।

शिष्‍य-जी हाँ।

स्‍वामी जी-तो फिर क्‍या कह रहा था? तुम लोगों ने शास्‍त्र पढ़ा है। मेरी आशा विश्‍वास तुम्‍हीं लोग हो। मेरी बातों को ठीक-ठीक समझकर उसी के अनुसार काम में लग जा।

शिष्‍य-परंतु महाराज, हमारी बात सुनेगा कौन ? देश के लोग उसे स्‍वीकार क्‍यों करने लगे ?

स्‍वामी जी-यदि तू ठीक-ठीक समझा सके और जो कुछ कहे उसे स्‍वयं करके दिखा सके तो अवश्‍य ही अन्‍य लोग भी उसे स्‍वीकार करेंगे, पर यदि तोते की तरह केवल श्‍लोक रटता हुआ वाक्पटु बनकर कापुरुष की तरह दूसरों की दुहाई देता रहा और कहे हुए को कार्यरूप में परिणत न कर सका तो फिर तेरी बात कौन सुनेगा, बोल ?

शिष्‍य-महाराज, समाज-संस्‍कार के संबंध में अब संक्षेप में कुछ उपदेश दीजिए।

स्‍वामी जी-उपदेश तो तुझे अनेक दिए; कम से कम एक उपदेश को भी तो कार्य रूप में परिणत कर ले। बड़ा कल्‍याण होगा। दुनिया भी देखे कि तेरा शास्‍त्र पढ़ना तथा मेरी बातें सुनना सार्थक हुआ। यह जो मनु आदि का शास्‍त्र पढ़ा है तथा और जो भी पढ़ा है, उस पर अच्‍छी तरह सोचकर देख कि उनकी असली जड़ अथवा उद्देश्‍य क्‍या है ? उसको लक्ष्‍य में रखकर सत्‍य तत्‍वों को प्राचीन ऋषियों की तरह संग्रह कर और समयोपयोगी मतों को उसमें मिला ले। केवल इतना ध्‍यान रखना कि समग्र भारतवर्ष की सभी जातियों तथा संप्रदायों के लोगों का उन सब नियमों के पालन करने से वास्‍तव में कल्‍याण हो। लिख तो वैसी एक स्‍मृति; मैं देखकर उसका संशोधन कर दूँगा।

शिष्‍य-महाराज, यह काम सरल नहीं। और भी इस प्रकार की स्‍मृति लिखने पर क्‍या वह चलेगी?

स्‍वामी जी-क्‍यों नहीं चलेगी? तू लिख न। कालो ह्ययं निरवर्धिर्विंपुला च पृथ्‍वी-तूने यदि ठीक लिखी तो एक न एक दिन चलेगी ही। आत्‍मविश्‍वास रख। तुम्‍हीं लोग तो पूर्व काल में वैदिक ऋषि थे। अब केवल शरीर बदलकर आए हो। मैं दिव्‍य चक्षु से देख रहा हूँ, तुम लोगों में अनंत शक्ति है। उस शक्ति को जगा दे; उठ-उठ, लग जा, कमर कस। क्‍या होगा, दो दिन का धन-मान लेकर ? मेरा भाव जानता है ?-मैं मुक्ति आदि नहीं चाहता। मेरा काम है तुम लोगों में इन्‍हीं भावों को जगा देना। एक मनुष्‍य तैयार करने के लिए लाख जन्‍म भी लेने पड़े तो मैं उसके लिए तैयार हूँ।

शिष्‍य-परंतु महाराज, उस प्रकार काम में लगकर भी क्‍या होगा ? मृत्‍यु तो पीछे लगी ही है।

स्‍वामी जी-धत् छोकरे, मरना हो तो एक ही बार मर जा। कापुरुष की तरह रात-दिन मृत्‍यु की चिंता करके बार-बार क्‍यों करता है?

शिष्‍य-अच्‍छा महाराज, मृत्यु की चिंता यदि न भी की, पर इस अनित्‍य संसार में कर्म करके भी क्‍या लाभ है?

स्‍वामी जी-अरे, मृत्यु जब अवश्‍यंभावी है तो ईंट-पत्‍थरों की तरह मरने के बजाए वीर की तरह मरना अच्‍छा है। इस अनित्‍य संसार में दो दिन अधिक जीवित रहकर भी क्‍या लाभ? It better to wear out than to rust out जराजीर्ण होकर थोड़ा-थोड़ा करके क्षीण होते हुए मरने के बजाए वीर की तरह दूसरों के अल्‍प कल्‍याण के लिए लड़कर उसी समय मर जाना अच्‍छा नहीं?

शिष्य-जी हाँ। आपको आज मैंने बहुत कष्‍ट दिया।

स्‍वामी जी-यथार्थ जिज्ञासु के पास लगातार दो रात बोलते रहने से भी मुझसे श्रम का बोध नहीं होता। मैं आहार, निद्रा आदि को छोड़कर लगातार बोल सकता हूँ, और चाहूँ तो मैं हिमालय की गुफा में समाधिमग्‍न होकर भी बैठा रह सकता हूँ। देख तो रहा है, आजकल माँ की इच्‍छा से मुझे खाने की भी कोई चिंता नहीं। किसी न किसी प्रकार जुट ही जाता है। तो फिर क्‍यों ऐसा न करूँ ? इस देश में रह क्‍यों रहा हूँ? देश की दशा देखकर और परिणाम की चिंता करके स्थिर नहीं रह सकता। समाधि-वमाधि तुच्‍छ लगती है-तुच्‍छं ब्रह्मपदम् हो जाता है। -तुम लोगों के कल्‍याण की कामना ही मेरे जीवन का व्रत है। जिस दिन यह व्रत पूर्ण हो जाएगा, उसी दिन देह छोड़कर सीधा भाग जाऊँगा।

शिष्‍य-मंत्रमुग्‍ध की तरह स्‍वामी जी की इन सब बातों को सुनकर स्तंभित हो उनके मुँह की ओर ताकता हुआ कुछ देर तक बैठा रहा। इसके पश्‍चात् विदा लेने के उद्देश्‍य से भक्ति के साथ उन्हें प्रणाम करके उसने कहा, 'महाराज, तो फिर आज आज्ञा दीजिए।'

स्‍वामी जी-जाएगा, क्‍यों रे ? मठ में ही रह जा न। गृहस्‍थों में जाने पर मन फिर मलिन हो जाएगा। यहाँ पर देख कैसी सुंदर हवा है, गंगाजी का तट, साधुगण साधन-भजन कर रहे हैं, कितनी अच्‍छी बातें हो रही हैं। कलकत्ते में जाकर तो फिर उसी व्‍यर्थ की चिंता में लग जाएगा।

शिष्‍य-आनंदित होकर बोला, 'अच्‍छा महाराज, तो आज यहीं रहूँगा।'

स्‍वामी जी-आज ही क्‍यों रे ? सदैव यहीं नहीं रह सकता? क्‍या होगा फिर संसार में जाकर ?

स्‍वामी जी की वह बात सुनकर शिष्‍य सिर झुकाकर रह गया। मन में एक ही साथ अनेक चिंताओं का उदय होने के कारण वह कोई भी उत्तर न दे सका।

२९

स्थान बेलूड़ मठ (निर्माण के समय)। वर्ष: १८९८ ई।

इधर स्‍वामी जी का शरीर कुछ स्‍वस्थ है। मठ की नई जमीन में जो पुराना मकान था उसके कमरों की मरम्‍मत करके उन्हें रहने योग्‍य बनाया जा रहा है,परंतु अभी तक काम पूरा नहीं हुआ। इसके लिए पहले सारी जमीन पर मिट्टी डालकर उसे समतल बनाया गया। स्‍वामी जी आज दिन के तीसरे पहर शिष्‍य को साथ लेकर मठ के मैदान में घूमने निकले हैं। स्‍वामी जी के हाथ में एक लंबा लट्ठ, बदन पर गेरुए रंग का फलालैन का चोगा और सिर नंगा। शिष्‍य के साथ करते-करते दक्षिण की ओर जाकर फाटक तक पहुँचकर फिर उत्तर की ओर लौट रहे हैं-इसी प्रकार मकान से फाटक तक और फाटक से मकान तक बार-बार चहलकदमी कर रहे हैं। दक्षिण की ओर बेल वृक्ष के मून भाग को पक्‍का करके बँधवाया गया है। उसी बेल वृक्ष के निकट खड़े होकर स्‍वामी जी अब धीरे-धीरे गाना गाने लगे-'हे गिरिराज, गणेश मेरे कल्‍याणकारी हैं' इत्‍यादि।

गाना गाते-गाते शिष्‍य से कहने लगे-'यहाँ पर कितने ही दंडी, योगी, जटा-धारी आएंगे-समझ ? कुछ समय के पश्‍चात् यहाँ कितने ही साधु-संन्‍यासियों का समागम होगा।' यह कहते-कहते वे बिल्व वृक्ष के नीचे बैठ गए और बोले, 'बिल्‍व वृक्ष का तल बहुत ही पवित्र है। यहाँ बैठकर ध्‍यान-धारणा करने पर शीघ्र ही उद्दीपना होती है, श्री रामकृष्‍ण यह बात कहा करते थे।'

शिष्‍य-महाराज, जो लोग आत्‍मा और अनात्‍मा के विचार में मग्‍न हैं उनके लिए स्‍थान-अस्थान, काल-अकाल, शुद्धि-अशुद्धि के विचार की आवश्‍यकता है क्‍या?

स्‍वामी जी-जिनकी आत्‍मज्ञान में निष्‍ठा है, उन्‍हें यह सब विचार करने की आवश्‍यकता सचमुच नहीं, परंतु वह निष्‍ठा क्‍या ऐसे ही होती है? कितनी चेष्‍टा, साधना करनी पड़ती है; तब कहीं होती है। इसलिए पहले-पहल एक आध ब्राह्य अवलंबन लेकर अपने पैरों पर खड़े होने की चेष्‍टा करनी होती है और फिर जब आत्‍मज्ञान में निष्‍ठा प्राप्‍त हो जाती है,तब किसी बाह्य अवलंबन की आवश्‍यकता नहीं रहती।

'शास्‍त्रों में जो नाना प्रकार की साधनाओं का निर्देश है वह सब केवल आत्‍मज्ञान की प्राप्ति के लिए ही है। अधिकारी-भेद से साधनाएँ भिन्‍न-भिन्‍न हैं। पर वे सब साधनाएँ भी एक प्रकारका कर्म हैं और जब तक कर्म है, तब तक आत्‍मा का साक्षात्‍कार नहीं होता। आत्‍मप्रकाश के सभी विघ्‍न शास्‍त्रोक्‍त साधनों रूपी कर्म द्वारा हटा दिए जाते हैं। कर्म की अपनी प्रत्‍यक्ष आत्‍मप्रकाश की शक्ति नहीं; वह कुछ आवरणों को केवल हटा देता है। उसके बाद आत्‍मा अपनी प्रभा से स्‍वयं ही प्रकाशित हो जाती है, समझा ? इसीलिए तेरे भाष्‍यकार कह रहे हैं-'ब्रह्मज्ञान से कर्म का तनिक भी संबंध नहीं।'

शिष्‍य-परंतु महाराज, जब किसी न किसी कर्म के बिना किये आत्‍मप्रकाश के विघ्न दूर नहीं होते, तो परोक्षरूप में कर्म ही तो ज्ञान का कारण बन जाता है।

स्‍वामीजी-कार्य कारण की परंपरा की दृष्टि से पहले वैसा अवश्‍य प्रतीत होता है। मीमांसा शास्‍त्र में वैसे ही दृष्टिकोण के आधार पर कहा गया है-'काम्‍य कर्म अवश्‍य ही फल देता है।' परंतु निर्विशेष आत्‍मा का दर्शन कर्म द्वारा न हो सकेगा, क्‍योंकि आत्‍मज्ञान के इच्‍छुकों के लिए साधना आदि कर्म करने का विधान है,परंतु उसके परिणाम के संबंध में उदासीन रहना आवश्‍यक है। इससे स्‍पष्‍ट है, वे सब साधनाएँ आदि कर्म साधक की चित्तशुद्धि के कारण के अतिरिक्‍त और कुछ भी नहीं, क्‍योंकि यदि उन साधनाओं आदि के परिणाम में ही आत्‍मा का साक्षात् रूप से प्रत्यक्ष करना संभव होता तो फिर शास्‍त्रों में साधकों को उन सब कर्मों के फल त्‍याग देने के लिए नहीं कहा जाता। अत: मीमांसा शास्‍त्र में कहे हुए फलप्रद कर्मवाद के निराकरण के लिए ही गीता में निष्‍काम कर्मयोग की अवतारणा की गई है, समझा।

शिष्‍य-परंतु महाराज, कर्म के फलाफल की ही यदि आशा न रखी, तो फिर कष्‍ट उठाकर कर्म करने में रुचि क्‍यों होगी ?

स्‍वामी जी-देह धारण करके कुछ न कुछ कर्म किये बिना कोई कभी नहीं रह सकता। जीव को जब कर्म करना पड़ता ही है तो जिस प्रकार कर्म करने से आत्‍मा का दर्शन प्राप्‍त कर मुक्ति प्राप्त होती है, उसी कर्म की प्रवृत्ति को निष्‍काम कर्मयोग कहा गया है। और तूने जो कहा, 'प्रवृत्ति क्‍यों होगी ?'-उसका उत्‍तर यह है कि जितने कुछ कर्म किये जाते हैं, वे सभी प्रवृत्तिमूलक है; परंतु कर्म करते-करते जब एक कर्म से दूसरे कर्म में, एक जन्‍म से दूसरे जन्‍म में ही केवल गति होती रहती है तो समय पर लोगों की विचार की प्रवृत्ति स्‍वत: ही जागकर पूछती है-इस कर्म का अंत कहाँ ? उसी समय वह उस बात का मर्म समझ जाता है, जो गीता में भगवान श्री कृष्‍ण ने कहा है-गहना कर्मणो गति:। अत: जब कर्म करके उसे शांति प्राप्‍त नहीं होती, तभी साधक कर्म-त्‍यागी बनता है परंतु देह धारण करके मनुष्‍य को कुछ न कुछ साथ लेकर तो रहना ही होगा। क्‍या लेकर रहेगा, बोले। इसीलिए साधक दो-चार सत्‍कर्म करता जाता है, परंतु उस कर्म के फलाफल की आशा नहीं रखता, क्‍योंकि उस समय उसने जान लिया है कि उस कर्मफल में ही जन्‍म-मृत्‍यु के नाना प्रकार के अंकुर पड़े हैं। इसलिए ब्रह्मज्ञ व्‍यक्ति सारे कर्म त्‍याग देते हैं। दिखाने के दो-चार कर्म करने पर भी उनमें उनके प्रति आकर्षण बिल्‍कुल नहीं रहता। ये ही लोग शास्‍त्र में निष्‍काम कर्मयोगी बताये गए हैं।

शिष्‍य-तो महाराज, क्या निष्‍काम ब्रह्मज्ञ का उद्देश्यवविहीन कर्म उन्मत्त की चेष्टा की तरह है?

स्‍वामी जी-नहीं। अपने लिए, अपने देह-मन के सुख के लिए कर्म न करना ही कर्मफल का त्याग है। ब्रह्मज्ञ अपने सुख की तलाश नहीं करते, परंतु दूसरों के कल्‍याण अथवा यथार्थ सुख की प्राप्ति के लिए क्‍यों कर्म न करेंगे ? वे लोग फल की आकांक्षा न रखते हुए जो कुछ कर्म करते रहते हैं, उससे जगत् का कल्‍याण होता है। वे सब कर्म 'बहुजनहिताय', 'बहुजनसुखाय', होते हैं। श्री रामकृष्‍ण कहा करते थे-'उनके पैर कभी बेताल नहीं पड़ते।' वे जो कुछ करते हैं सभी अर्थपूर्ण होते हैं। 'उत्‍तररामचरित' में नहीं पड़ा है- ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोअनुधावति अर्थात् ऋषियों के वाक्यों का अर्थ है, वे कभी निरर्थक या मिथ्‍या नहीं होते। मन जिस समय आत्‍मा में लीन होकर वृत्तिविहीन बन जाता है, उस समय इहामुत्रफलभोगविराग उत्‍पन्‍न होता है अर्थात् संसार में अथवा मृत्‍यु के पश्‍चात् स्‍वर्ग आदि में किस प्रकार का सुखभोग करने की आकांक्षा नहीं रहती। मन में फिर संकल्‍प-विकल्‍पों की लहर नहीं रहता, परंतु व्‍युत्‍थान काल में अर्थात् समाधि अथवा उस वृत्तिविहीन स्थिति से उतरकर मन जिस समय फिर 'मैं-मेरा' के राज्‍य में आ जाता है, उस समय पूर्वकृत कर्म या अभ्‍यास या प्रारब्‍ध से उत्‍पन्‍न संस्‍कार के अनुसार देह आदि का कर्म चलता रहता है। मन उस समय प्राय: ज्ञानातीत स्थ्‍िाति में रहता है। न खाने से काम नहीं चलता, केवल इसीलिए उस समय खाना-पीना रहता है-देहबुद्धि इतनी क्षीण हो जाती है। इस ज्ञानातीत भूमि में पहुँचकर जो कुछ किया जाता है, वही ठीक-ठीक किया जाता है। वे सब जीव और जगत् के लिए होते हैं; क्‍योंकि उस समय कर्ता का मन फिर स्‍वार्थ बुद्धि द्वारा अथवा अपने लाभ-हानि के विचार द्वारा दूषित नहीं होता। ईश्‍वर ने सदा ज्ञानतीत भूमि में रहकर ही इस जगत्रूपी विचित्र सृष्टि की रचना की है, अत: इस सृष्टि में कुछ भी अपूर्ण नहीं पाया जाता। इसीलिए कह रहा था-आत्‍मज्ञ जीव के, फलकामना से शून्‍य कर्म आदि कभी अंगहीन अथवा असंपूर्ण नहीं होते-उनसे जीव और जगत् का यथार्थ कल्‍याण ही होता है।

शिष्‍य-आपने थोड़ी देर पहले कहा, ज्ञान और कर्म आपस में एक दूसरे के विरोधी हैं। ब्रह्मज्ञान में कर्म का जरा भी स्‍थान नहीं है अथवा कर्म के द्वारा ब्रह्मज्ञान नहीं होता, तो फिर आप बीच-बीच में महा रजोगुण के उद्दीपक उपदेश क्‍यों देते हैं? यही उस दिन आप मुझसे ही कह रहे थे-कर्म-कर्म-कर्म- नान्‍य: पन्‍था विद्यतेअयनाय।

स्‍वामी जी-मैंने दुनिया में घूमकर देखा है कि इस देश की तरह है इतने अधिक तामस प्रकृति के लोग पृथ्‍वी में और कहीं भी नहीं, बाहर सात्तिवकता का ढोंग, पर अंदर बिल्‍कुल ईंट-पत्‍थर की तरह जड़-इनसे जगत् का क्‍या काम होगा? इस प्रकार अकर्मण्‍य, आलसी, घोर विषयी जाति दुनिया में और कितने दिन जीवित रह सकेगी? पाश्‍चात्‍य देशों में घूमकर पहले एक बार देख आ, फिर मेरे इस कथन का प्रतिवाद करना। उनका जीवन कितना उद्यमशील है, उनमें कितनी कर्मत्तपरता है, कितना उत्‍साह है, रजोगुण का कितना विकास है। तुम्‍हारे देश के लोगों का खून मानों ह्दय में जम गया है-नसों में मानों रक्‍त का प्रवाह ही रुक गया है। सर्वाग पक्षाघात के कारण शिथिल सा हो गया है। इसलिए मैं रजोगुण की बुद्धि कर कर्मत्तपरता के द्वारा इस देश के लोगों को पहले इहलौकिक जीवन संग्राम के लिए समर्थ बनाना चाहता हूँ। देह में शक्ति नहीं, हृदय में उत्‍साह नहीं, मस्तिष्‍क में प्रतिभा नहीं। क्या होगा रे इन जड़ पिंडों से? मैं हिला-डुलाकर इनमें स्‍पंदन लाना चाहता हूँ। इसलिए मैंने प्राणांत प्रण किया है-वेदांत के अमोघ मंत्र के बल से इन्हें जगाऊँगा। उत्तिष्‍ठत जाग्रत इस अभय वाणी को सुनाने के लिए ही मेरा जन्‍म हुआ है। तुम लोग इस काम में मेरे सहायक बनो। जा, गाँव-गाँव में, देश-देश में यह अभय वाणी चांडाल से लेकर ब्राह्मण तक सभी को सुना आ। सभी को पकड़-पकड़ कर जाकर कह दे-'तुम लोग अमित वीर्यहीन हो-अमृत के अधिकारी हो।' इसी प्रकार पहले रज: शक्ति की उद्दीपना कर, जीवन संग्राम के लिए सबको कार्यक्षम बना, इसके पश्‍चात् उन्‍हें परजन्‍म में मुक्ति प्राप्‍त करने की बात सुना। पहले भीतर की शक्ति को जाग्रत करके देश के लोगों को अपने पैरों पर खड़ा कर, अच्‍छे भोजन-वस्‍त्र तथा उत्तम भोग आदि करना वे पहले सीखें। इसके बाद उन्‍हें उपाय बता दे कि किस प्रकार सब प्रकार के भोग-बंधनों से वे मुक्‍त हो सकेंगे। निष्क्रियता, हीन बुद्धि और कपट से देश छा गया है। क्‍या बुद्धिमान लोग यह देखकर स्थिर रह सकते हैं? रोना नहीं आता? मद्रास, बंबई, पंजाब, बंगाल-कहीं भी तो जीवनी शक्ति का चिह्न दिखाई नहीं देता। तुम लोग सोच रहे हो-'हम शिक्षित हैं।' क्या खाक सीखा है? दूसरों की कुछ बातों की दूसरी भाषा में रटकर मस्तिष्‍क में भरकर, परीक्षा में उत्तीर्ण होकर सोच रहे हो-हम शिक्षित हो गए, धिक्-धिक्, इसका नाम कहीं शिक्षा है? तुम्‍हारी शिक्षा का उद्देश्‍य क्‍या है ? या तो क्‍लर्क बनना या एक दुष्‍ट वकील बनना, और बहुत हुआ तो क्‍लर्की का ही दूसरा रूप डिप्टी मजिस्‍ट्रेट की नौकरी-यही न ? इससे तुम्‍हें या देश को क्‍या लाभ हुआ? एक बार आँखें खोलकर देख-सोना पैदा करनेवाली भारत-भूमि में अन्‍न के लिए हाहाकार मचा है। तुम्‍हारी इस शिक्षा द्वारा उस न्‍यूनतम की क्‍या पूर्ति हो सकेगी? कभी नहीं। पाश्‍चात्‍य-विज्ञान की सहायता से जमीन खोदने लग जा, अन्‍न की व्‍यवस्‍था कर-नौकरी करके नहीं-अपनी चेष्‍टा द्वारा पाश्चात्‍य विज्ञान की सहायता से नित्‍य नवीन उपाय का आविष्‍कार करके। इसी अन्‍न-वस्‍त्र की व्‍यवस्‍था करने के लिए मैं लोगों को रजोगुण की वृद्धि करने का उपदेश देता हूँ। अन्‍न-वस्‍त्र की कमी और उसकी चिंता से देश बुरी अवस्‍था में चल रहा है-इसके लिए तुम लोग क्‍या कर रहे हो? फेंक दो अपने शास्‍त्र-वास्‍त्र गंगा जी में। देश के लोगों को पहले अन्‍न की व्‍यवस्‍था करने का उपाय सिखा दे। इसके बाद उन्‍हें भागवत का पाठ सुनाना। कर्मतत्‍परता के द्वारा इहलोक का अभाव दूर न होने तक कोई धर्म की कथा ध्‍यान से न सुनेगा। इसलिए कहता हूँ, पहले अपने में अंतर्निहित आत्‍मशक्ति को जाग्रत कर, देश के समस्‍त व्‍यक्तियों में जितना संभव हो, उस शक्ति के प्रति विश्‍वास जमा। पहले अन्‍न की व्‍यवस्था कर, बाद में उन्‍हें धर्म प्राप्‍त करने की शिक्षा दे। अब अधिक बैठे रहने का समय नहीं-कब किसी मृत्यु होगी, कौन कह सकता है?

बात करते-करते भोक्ष, दु:ख और दया के सम्मिलित आवेश से स्‍वामी जी के मुखमंडल पर एक अपूर्वतेज उद्भासित हो उठा है। आँखों से मानो अग्निकण निकलने लगे। उनकी उस समय की दिव्‍य मूर्ति का दर्शनकर भय विस्‍मय के कारण शिष्‍य के मुख से बात न‍ निकल सकी। कुछ समय रुककर स्‍वामी जी फिर कहने लगे, 'यथा समय देश में कर्मतत्परता और आत्‍मनिर्भरता अवश्‍य आ जाएगी-मैं स्‍पष्‍ट देख रहा हूँ-There is no escape-दूसरी गति ही नहीं।'

'श्री रामकृष्‍ण के जन्‍मग्रहण के समय से ही पूर्वाकाश में अरुणोदय हुआ है-समय आते ही दोप‍हर के सूर्य की प्रखर किरणों से देश अवश्‍य आलोकित हो जाएगा।'

३०

स्‍थान बेलूड़ मठ (निर्माण के समय)। वर्ष : १८९८ ई॰

नया मठभवन तैयार हो गया है। जो कुछ कार्य शेष रह गया है, उसे स्‍वामी जी की राय से स्‍वामी विज्ञानानंद समाप्‍त कर रहे हैं। स्‍वामी जी का स्‍वास्थ्‍य आजकल सन्तोषजनक नहीं, इसीलिए डॉक्‍टरों ने उन्‍हें प्रात: एवं सायंकाल नाव पर सवार होकर गंगा का वायु-सेवन करने को कहा हे। स्‍वामी नित्‍यानंद ने नड़ाल के राय बाबुओं का बजरा (नाव) थोड़े दिनों के लिए माँग लिया है। मठ के सामने वह बँधा हुआ है। स्‍वामी जी कभी-कभी अपनी इच्‍छा के अनुसार उस बजरे में सवार हेाकर गंगा-सेवन किया करते हैं।

आज रविवार है; शिष्‍य मठ में आया है और भोजन के पश्‍चात् स्‍वामी जी के कमरे में जाकर बैठकर उनसे वार्तालाप कर रहा है। मठ में स्‍वामी जी ने इसी समय संन्‍यासियों और बाल ब्रह्मचारियों के लिए कुछ नियम तैयार किय हैं। उन नियमों का मुख्‍य उद्देश्‍य है गृहस्‍थों के संग से दूर रहना; जैसे-अलग भोजन का स्‍थान, अलग विश्राम का स्‍थान आदि। उसी विषय पर बातचीत होने लगी।

स्‍वामी जी-गृहस्‍थों के शरीर में, वस्‍त्रों का आजकल मैं कैसी एक प्रकार की संयम हीनता की गंध पाता हूँ; इसीलिए मैंने नियम बना दिया है कि गृहस्‍थ साधुओं के बिस्‍तर पर न बैठे, न सोवे। पहले मैं शास्‍त्रों में पढ़ा करता था कि गृहस्थों में ये बातें पायी जाती हैं और इसीलिए संन्‍यासी गृहस्‍थों की गंध नहीं सह सकते। अब मैं इस सत्‍य को प्रत्‍यक्ष देख रहा हूँ। नियमों को मानकर चलने से ही बाल ब्रह्मचारी समय पर यथार्थ संन्‍यास लेने के योग्‍य हो सकेंगे। संन्‍यास में निष्‍ठा दृढ़ हो जाने पर गृहस्‍थों के साथ मिल-जुलकर रहने से भी फिर हानि न होगी। परंतु प्रारंभ में नियम न होने से संन्‍यासी ब्रह्मचारी सब बिगड़ जाएंगे। यथार्थ ब्रह्माचारी बनने के लिए पहले-पहल संयम के कठोर नियमों का पालन करके चलना पड़ता है। इसके अतिरिक्‍त स्‍त्री संग करनेवालों का संग भी अवश्‍य ही त्‍यागना पड़ता है।

गृहस्‍थाश्रमी शिष्‍य स्‍वामी जी की बात सुनकर दंग रह गया और यह सोचकर कि अब वह मठ के संन्‍यासी ब्रह्मचारियों के साथ पहले के समान सम भाव से न मिल-जुल सकेगा, दु:खी होकर कहने लगा, 'परंतु महाराज, यह मठ और इसके सभी लोग मुझे अपने घर, स्‍त्री-पुत्र आदि सबसे अधिक प्‍यारे लगते हैं; मानो ये सभी कितनी ही दिनों के परिचित हैं। मैं मठ में जिस प्रकार स्‍वाधीनता का उपभोग करता हूँ, दुनिया में और कहीं भी वैसा नहीं करता।

स्‍वामी जी-जितने शुद्ध सत्‍व के लोग हैं, उन सबको यहाँ पर ऐसा ही अनुभव होगा। पर जिसे ऐसा नहीं होता, समझना वह यहाँ का आदमी नहीं। कितने ही लोग जोश में जागकर आते हैं और फिर अल्‍प काल में ही भाग जाते हैं, उसका यही कारण है। ब्रह्मचर्यविहीन, दिन-रात, 'रुपया-रुपया' करके भटकने वाला व्‍यक्ति यहाँ का भाव कभी समझ ही न सकेगा, कभी मठ में लोगों को अपना न मानेगा। यहाँ के संन्‍यासी पुराने जमाने के विभूति रमाये, सिर पर जटा, हाथ में चिमटा धारण किये, दवा देनेवाला बाबा जी की तरह नहीं है। इसीलिए लोग देख सुनकर कुछ समझ नहीं पाते। हमारे श्री रामकृष्‍ण का आचारण, भाव सब कुछ नए प्रकार का है, इसीलिए हम सब भी नए प्रकार के हैं। कभी अच्‍छे वस्‍त्र पहनकर भाषण देते हैं, और सभी 'हर-हर बम-बम कहते हुए भस्‍म रमाये पहाड़-जंगलों में घोर तपस्‍या में तल्‍लीन हो जाते हैं।

आजकल क्‍या पुराने जमाने के पोथी-पत्रों की दुहाई देने से ही काम चलता है रे ? इस समय इस पाश्‍चात्‍य सभ्‍यता का प्रबल प्रवाह अबाध गति से देश भर में प्रवाहित हो रहा है। उसकी उपयोगिता की जरा भी परवाह न करके केवल पहाड़ पर बैठे ध्‍यान में मग्‍न रहने से क्‍या आज काम चल सकता है ? इस समय चाहिए-गीता में भगवान ने जो कहा है-प्रबल कर्मयोग-ह्दय में अमित साहस, अपरिमित शक्ति। तभी तो देश में सब लोग उठेंगे, नहीं तो जिस अंधकार में तुम हो, उसी में भी रहेंगे।

दिन ढलने को है। स्‍वामी जी गंगा में भ्रमण योग्‍य कपड़े पहनकर नीचे उतरे और मठ के मैदान में जाकर पर्व के पक्‍के घाट पर कुछ समय तक टहलते रहे। फिर नाव के घाट में आने पर स्‍वामी निर्भयानंद, नित्‍यानंद तथा शिष्‍य को साथ लेकर उस पर चढ़ गए।

नाव पर चढ़कर स्‍वामी जी जब छत पर बैठे तो शिष्‍य उनके चरणों के पास जा बैठा। गंगा की छोटी-छोटी लहरें नाव से टकराकर कल-कल ध्वनि कर रही हैं, वायु धीरे-धीरे बह रही है, अभी तक आकाश का पश्चिम भाग सांयकालीन लालिमा से लाल नहीं हुआ है, सूर्य भगवान् के अस्‍त होने में अभी लगभग आधा घंटा बाकी है। नाव उत्तर की ओर जा रही है। स्‍वामी जी के मुख से प्रफुल्‍लता, आँखों से कोमलता, बातचीत से गंभीरता और प्रत्‍येक भाव-भंगिमा से जितेंद्रियता व्‍यक्‍त हो रही है। वह एक भावपूर्ण रूप है-जिसने वह नहीं देखा, उसके लिए समझना असंभव है।

अब दक्षिणेश्‍वर छोड़कर अनुकूल वायु के झोकों के साथ नाव उत्तर की ओर आगे बढ़ रही है। दक्षिणेश्‍वर के काली मंदिर को देख शिष्‍य तथा अन्य दोनों संन्‍यासियों ने प्रणाम किया, परंतु स्‍वामी जी एक गंभीर भाव में विभोर होकर खोये-खोये से बैठे रहे। शिष्‍य और संन्‍यासी लोग दक्षिणेश्‍वर की कितनी बातें कहने लगे, पर मानों वे बातें स्‍वामी जी के कानों में प्रविष्‍ट ही नहीं हुई। देखते-देखते नाव पेनेटी की ओर बढ़ी। पेनेटी में स्‍वर्गीय गोविन्द कुमार चौधरी के बगीचे वाले मकान को पहले एक बार मठ के लिए किराये पर लेने का विचार हुआ था। स्‍वामी जी उतरकर बगीचा और मकान देखने गए। फिर-देखकर बोले-'बगीचा बहुत अच्‍छा है, परंतु कलकत्ते से काफी दूर है। श्री रामकृष्‍ण के शिष्‍यों को आने-जाने में कष्‍ट होता। यहाँ पर मठ नहीं बना, यह अच्‍छा ही हुआ।'

अब नाव फिर मठ की ओर चली और लगभग एक घंटे तक रात्रि के अंधकार को चीरती हुई फिर मठ में आ पहुँची।

३१

स्‍थान: बेलूड़ मठ । वर्ष : १८९९ ई॰ के प्रारंभ में।

शिष्‍य आज नाग महाशय को साथ लेकर मठ आया है।

स्‍वामी जी (नाग महाशय का अभिवादन-करक)-कहिए आप अच्‍छे तो है न ?

नाग महाशय-आपका दर्शन करने आया हूँ। जय शंकर। साक्षात् शिवजी का दर्शन हुआ।

यह कहकर दोनों हाथ जोड़कर नाग महाशय खड़े रहे।

स्‍वामी जी-स्वास्थ्य कैसा है?

नाग महाशय-व्‍यर्थ के मांस-हड्डी की बात क्या पूछ रहे हैं? आपके दर्शन से आज मैं धन्‍य हुआ, धन्‍य हुआ।

ऐसा कहकर नाग महाशय ने स्‍वामी जी को साष्‍टांग प्रणाम किया।

स्‍वामी जी-(नाग महाशय को उठाकर)-यह क्या कर रहे हैं?

नाग महाशय-मैं दिव्‍य दृष्टि से देख रहा हूँ-आज मुझे साक्षात् शंकर का दर्शन प्राप्‍त हुआ। जय भगवान श्री रामकृष्‍ण की।

स्‍वामी जी (शिष्‍य की ओर इशारा करके) देख रहा है-यथार्थ भक्ति से मनुष्‍य कैसा बनता है। नाग महाशय तन्‍मय हो गए हैं, देहबुद्धि बिल्‍कुल नहीं रही, ऐसा दूसरा नहीं देखा जाता।

(प्रेमानंद स्‍वामी के प्रति)-नाग महाशय के लिए प्रसाद ला।

नाग महाशय-प्रसाद। प्रसाद। (स्‍वामी जी के प्रति हाथ जोड़कर) आपके दर्शन से आज मेरी भव-क्षुधा मिट गई।

मठ में ब्रह्मचारी और संन्‍यासी उपनिषद् का अध्‍ययन कर रहे थे। स्‍वामी जी उनसे कहा, 'आज श्री रामकृष्ण के एक महाभक्‍त पधारे हैं। नाग महाशय के शुभागमन से आज तुम लोगों का अध्‍ययन बंद रहेगा।' सब लोग पुस्‍तकें बंद करके नाग महाशय के चारों ओर घिर कर बैठ गए। स्‍वामी जी भी नाग महाशय के सामने बैठे।

स्‍वामी जी (सभी को संबोधित कर)-देख रहो हो? नाग महाशय को देखो-गृहस्‍थ हैं, परंतु जगत् है या नहीं, यह भी नहीं जानते। सदा तन्‍मय बने रहते हैं? (नाग महाशय के प्रति) इन सब ब्रह्मचारियों को और हमें श्री रामकृष्‍ण की कुछ बातें सुनाइए।

नाग महाशय-यह क्‍या कहते हैं। यह क्‍या कहते हैं। मैं क्‍या कहूँगा? मैं आपके दर्शन लिए आया हूँ-श्री रामकृष्‍ण की लीला के सहायक महावीर का दर्शन करने आया हूँ। श्री रामकृष्‍ण की बातें लोग अब समझेंगे। जय श्री रामकृष्‍ण। जय हो श्री रामकृष्‍ण।

स्‍वामी जी-आप ही ने वास्‍तव में श्री रामकृष्‍ण देव को पहचाना है। हमारा तो व्‍यर्थ चक्‍कर काटना ही रहा।

नाग महाशय- छि: यह आप क्‍या कह रहे हैं। आप श्री रामकृष्‍ण की छाया हैं-एक ही सिक्‍के के दो पहलू-जिनकी आँखें हैं वे देखें।

स्‍वामी जी-ये जो सब मठ आदि बनवा रहा हूँ, क्‍या यह मठ ठीक हो रहा है?

नाग महाशय- मैं तो छोटा हूँ, मैं क्‍या समझूँ। आप जो कुछ करते हैं, निश्चित जानता हूँ, उससे जगत् का कल्‍याण होगा-कल्‍याण होगा।

अनेक व्‍यक्ति नाग महाशय की पदधूलि लेने में व्‍यस्‍त हो जाने से नाग महाशय संकोच में पड़ गए; स्‍वामी जी ने सबसे कहा, 'जिससे इन्‍हें कष्‍ट हो, वह न करो।' यह सुनकर सब लोग रुक गए।

स्‍वामी जी-आप आकर मठ में रह क्‍यों नहीं जाते? आपको देखकर मठ के सब लड़के सीखेंगे।

नाग महाशय-श्री रामकृष्‍ण से एक बार यही बात पूछी थी। उन्‍होंने कहा, 'घर में ही रहो'-इसीलिए घर में हूँ; बीच-बीच में आप लोगों के दर्शन कर धन्‍य हो जाता हूँ।

स्‍वामी जी-मैं एक बार आपके देश में जाऊँगा।

नाग महाशय- आनंद से अधीर होकर बोले-'क्‍या ऐसा दिन आएगा? देश काशी बन जाएगा। काशी बन जाएगा। क्‍या मेरा ऐसा भाग्‍य होगा।'

स्‍वामी जी-मेरी तो इच्‍छा है, पर जब मैं माँ ले जाए, तब तो हो।

नाग महाशय-आपको कौन समझेगा, कौन समझेगा? दिव्‍य दृष्टि खुले बिना पहचानने का उपाय नहीं। एकमात्र श्री रामकृष्‍ण ने ही आपको पहचाना था। बाकी सभी केवल उनके कहने पर विश्‍वास करते हैं। कोई समझ नहीं सका।

स्‍वामी जी-मेरी अब एकमात्र इच्‍छा यही है कि देश को जगा डालूँ-मानो महावीर आपनी शक्तिमत्ता से विश्‍वास खोकर सो रहे हैं-बेखबर होकर शब्‍द नहीं है। सनातन धर्म के भाव में इसे किसी प्रकार जगा सकने से समझूँगा कि श्री रामकृष्ण तथा हम लोगों का आना सार्थक हुआ। केवल यही इच्‍छा है-मुक्ति उक्ति तुच्‍छ लग रही है। आप आशीर्वाद दीजिए, जिससे सफलता प्राप्‍त हो।

नाग महाशय-श्री रामकृष्ण आशीर्वाद देंगे। आपकी इच्‍छा कही गति को फेरनेवाला कोई भी नहीं दिखता। आप जा चाहेंगे वही होगा।

स्‍वामी जी-कहाँ, कुछ भी नहीं होता। उनकी इच्‍छा के बिना कुछ भी नहीं होता।

नाग महाशय-उनकी इच्छा और आपकी इच्‍छा एक बन गई है। आपकी जो इच्‍छा है, वही श्री रामकृष्‍ण की इच्‍छा है। जय श्री रामकृष्‍ण। जय श्री रामकृष्‍ण।।

स्‍वामी जी-काम करने के लिए दृढ़ शरीर चाहिए। यह देखिए, इस देश में आने के बाद स्‍वास्‍थ्‍य ठीक नहीं रहता; उस देश में (यूरोप अमेरिका में) अच्‍छा था।

नाग महाशय-श्री रामकृष्‍ण कहा करते थे-शरीर धारण करने के 'घर का टैक्‍स देना पड़ता है', रोग-शोक-वही टैक्‍स है। आपका शरीर अशरफिओं का संदूक है, उस संदूक की खूब सेवा होना चाहिए। कौन करेगा ? कौन समझेगा ? एकमात्र श्री रामकृष्‍ण ने ही समझा था। जय श्री रामकृष्‍ण। जय श्री रामकृष्‍ण।।

स्‍वामी जी-मठ के ये लोग मेरी बहुत सेवा करते हैं।

नाग महाशय- जो लोग कर रहे हैं, उन्‍हीं का कल्‍याण है। समझें या न समझें। सेवा में न्‍यूनता होने पर शरीर की रक्षा करना ठीक कठिन होगा।

स्‍वामी जी-नाग महाशय, क्‍या कर रहा हूँ, क्‍या नहीं कर रहा हूँ, कुछ समझ में नहीं आता। एक-एक समय एक-एक दिशा में कार्य करने का प्रबल वेग आता है। बस, उसी के अनुसार काम किये जा रहे हैं। इससे भला हो रहा है या बुरा, कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ।

नाग महाशय-श्री रामकृष्‍ण ने जो कहा था-'कुंजी लगा दी गई।' इसीलिए अब समझने नहीं दे रहे हैं। समझने के साथ ही लीला समाप्‍त हो जाएगी।

स्‍वामी जी ध्‍यानस्‍थ होकर कुछ सोचने लगे। इसी समय स्‍वामी प्रेमानंद श्री रामकृष्‍ण का प्रसाद लेकर आए और नाग महाशय तथा अन्‍य सभी को प्रसाद दिया गया। नाग महाशय दोनों हाथों से प्रसाद को सिर पर रखकर 'जय श्री रामकृष्‍ण' कहते हुए नृत्‍य करने लगे। सभी लोग देखकर दंग रह गए। प्रसाद पाकर सभी लोग बगीचे में टहलने लगे। इस बीच स्‍वामी जी एक कुदाली लेकर धीरे-धीरे मठ के तालाब के पूर्वी तट पर मिट्टी खोदने लगे-नाग महाशय देखते ही उनका हाथ पकड़कर बोले-'हमारे रहते आप यह क्‍या करते हैं?' स्‍वामी जी कुदाली छोड़कर मैदान में टहलते-टहलते बातें करने लगे। स्‍वामी जी एक शिष्‍य से कहने लगे-'श्री रामकृष्‍ण के स्‍वर्गवास के पश्‍चात् एक दिन हम लोगों ने सुना, नाग महाशय चार-पाँच दिनों से उपवास करते हुए अपने कलकत्ते के मकान में पड़े हैं। मैं, हरिभाई और न जाने एक और कौन थे, तीनों मिलकर नाग महाशय की कुटिया में जा पहुँचे। देखते ही वे रजाई छोड़कर उठ खड़े हुए। मैंने कहा, 'आपके यहाँ आज हम लोग भिक्षा पायेंगे।' नाग महाशय ने उसी समय बाजार से चावल, बर्तन, लकड़ी आदि लाकर पकाना शुरू किया। हमने सोचा था, हम भी खायेंगे, नाग महाशय को भी खिलायेंगे। भोजन तैयार होने पर हमें परोसा गया। हम नाग महाशय के लिए सब चीज़ें रखकर भोजन करने बैठे। भोजन के पश्‍चात् जब उनसे खाने के लिए अनुरोध किया गया, वे भात की हाँडी फोड़कर अपना सिर ठोककर बोले, 'जिस शरीर से भगवान् की प्राप्ति नहीं हुई, उस शरीर को फिर भोजन दूँगा?' हम तो यह देखकर दंग रह गए। बहुत कहने-सुनने के बाद उन्‍होंने कुछ भोजन किया और फिर हम लौट आए।'

स्‍वामी जी-नाग महाशय आज क्‍या मठ में ठहरेंगे?

शिष्‍य-नहीं, उन्‍हें कुछ काम है; आज ही जाना होगा।

स्‍वामी जी-तो जा, नाव का प्रबंध कर। संध्या हो रही है।

नाव आने पर शिष्‍य और नाग महाशय स्‍वामी जी को प्रणाम करके नाव पर सवार हो कलकत्ते की ओर रवाना हुए।

३२

[स्‍थान बेलूड़ मठ। वर्ष: १८९९ ई॰ ]

इस समय जी काफी स्‍वस्‍थ हैं। शिष्‍य रविवार को प्रात: काल मठ में आया है। स्‍वामी जी के चरण-कमलों का दर्शन करने के बाद दुमंजिले से समय स्‍वामी जी नीचे उतर आए और शिष्‍य को देखकर कहने लगे 'अरे, तुलसी के साथ क्‍या विचार-विमर्श हो रहा था?'

शिष्‍य-महाराज, तुलसी महाराज कह रहे थे, वेदांत का ब्रह्मवाद केवल तू और तेरे स्‍वामी जी जानते हैं। हम तो जानते हैं-कृष्‍णस्‍तु भगवान स्‍वयम्।

स्‍वामी जी-तूने क्‍या कहा ?

शिष्‍य-मैंने कहा, 'एक आत्‍मा ही सत्य है। कृष्‍ण केवल एक ब्रहमज्ञ पुरूष थे।' तुलसी महाराज भीतर से वदांतवादी हैं, परंतु बाहर द्वैतवादी का पक्ष लेकर तर्क करते हैं, ईश्‍वर व्‍यक्तिविशेष बताकर बात का प्रारंभ करके धीरे-धीरे वेदांतवादी की नींव को सुदृढ़ प्रमाणित करना ही उनका उद्देश्‍य ज्ञात होता है।

परंतु जब वे मुझ 'वैष्‍णव' कहते हैं तो मैं उनके सच्चे इरादे को भूल जाता हूँ और उनके साथ वाद-विवाद करने लग जाता हूँ।

स्‍वामी जी-तुझसे प्रेम करता है न, इसीलिए वैसा कहकर तुझे चिढ़ाता है। तू बिगड़ता क्‍यों है ? तू भी कहना, 'आप शून्‍यवादी नास्तिक हैं।'

शिष्‍य-महाराज, उपनिषद् दर्शन आदि में क्‍या यह बात है कि ईश्‍वर कोई शक्तिमान व्‍यक्तिविशेष है? लोग किंतु वैसे ही ईश्‍वर में विश्‍वास रखते हैं।

स्‍वामी जी-सर्वेश्‍वर कभी भी व्‍यक्ति विशेष नहीं बन सकता। जीव है व्‍यष्टि; और समस्‍त जीवों की समष्टि है ईश्वर। जीव में अविद्या प्रबल है; ईश्‍वर विद्या और अविद्या की समष्टिरूपी माया को वशीभूत करके विराजमान है और स्‍वाधीन भाव से उस स्‍थावर-जंगमात्‍मक जगत् को अपने भीतर से बाहर निकाल रहा है। परंतु ब्रह्म उस व्‍यष्टि-समष्टि से अथवा जीव और ईश्‍वर से परे हैं। ब्रह्म का अंशांश भाग नहीं होता। समझाने के लिए उनके त्रिपा, चतुष्‍पाद आदि की कल्‍पना मात्र की गई। जिस पाद से सृष्टि-स्थिति-लय का अध्‍यास हो रहा है, उसी को शास्‍त्र में 'ईश्‍वर' कहकर निर्देश किया गया है। अपर त्रिपाद कूटस्‍थ है, जिसमें द्वैत कल्‍पना का आभास नहीं, वही ब्रह्म है। इससे तू कहीं ऐसा न मान लेना कि ब्रह्म जीव-जगत् से कोई अलग वस्‍तु है। विशिष्‍टाद्वैतवादी कहते हैं, ब्रह्म ही जीव-जगत् के रूप में परिणत हुआ है। अद्वैतवादी कहते हैं, ऐसा नहीं, ब्रह्म में जीव-जगत अध्‍यस्त मात्र हुआ है। परंतु वास्‍तव में उसमें ब्रह्म की किसी प्रकार की परिणति नहीं हुई।' अद्वैतवादी का कहना है कि जगत् केवल नाम-रूप ही है। जब तक नाम-रूप है, तभी तक जगत्। ध्‍यान-धारणा द्वारा जब नाम-रूप लुप्‍त हो जाता है, उस समय एकमात्र ब्रह्म ही रह जाता है। उस समय तेरी, मेरी अथवा जीव-जगत् की स्वतंत्र सत्ता का अनुभव नहीं होता। उस समय ऐसा लगता है, मैं ही नित्‍य-शुद्ध-बुद्ध प्रत्‍यक चैतन्‍य अथवा ब्रह्म हूँ'-जीव का स्‍वरूप ही ब्रह्म है। ध्‍यान-धारणा द्वारा नाम रूप आवरण हटकर यह भाव प्रत्‍यक्ष होता है, बस इतना ही। यही है शुद्धाद्वैतवाद का असल सार। वेद-वेदांत शास्‍त्र आदि इस बात को नाना प्रकार से बार-बार समझा रहे हैं।

शिष्‍य-तो फिर ईश्‍वर सर्वशक्तिमान व्‍यक्ति विशेष है-यह बात फिर कैसे सत्‍य हो सकती है ?

स्‍वामी जी मनरूपी उपाधि को लेकर ही मनुष्य है। मन के ही द्वारा मनुष्‍य को सभी विषय समझना पड़ रहा है। परंतु मन जो कुछ सोचता है, वह सीमित होगा ही। इसीलिए अपने व्‍यक्तित्‍व से ईश्‍वर के व्‍यक्तित्‍व की कल्‍पना करना जीव का स्‍वत: सिद्ध स्‍वभाव है, मनुष्‍य अपने आदर्श को मनुष्‍य के रूप में ही सोचने में समर्थ है। इस जरा-मृत्‍युपूर्ण जगत् में आकर मनुष्‍य दु:ख की ताड़ना से 'हा हतोअस्मि' करना है और किसी ऐसे व्‍यक्ति का आश्रय लेना चाहता है, जिस पर निर्भर रहकर वह चिंता से मुक्‍त हो सके। परंतु ऐसा आश्रय है कहाँ। निराधार सर्वज्ञ आत्‍मा ही एकमात्र आश्रयस्‍थल है। पहले मनुष्‍य यह बात जान नहीं सकता। विवेक-वैराग्‍य आने पर ध्‍यान-धारण करते-करते धीरे-धीरे यह जाना जाता है। परंतु कोई किसी भी भाव से साधना क्‍यों न करे, सभी अनजान में अपने भीतर स्थित ब्रह्मभाव को जगा रहे हैं। हाँ, आलंबन अलग-अलग को पकड़कर साधना-भजन आदि करना चाहिए। ऐकांतिक भाव आने पर उसी से समय पाकर ब्रह्मरूपी सिंह उसके भीतर से जाग उठता है। ब्रह्मज्ञान ही जीव का एकमात्र प्राप्‍य है। परंतु अनेक पथ-अनेक मत हैं। जीव का पारमार्थिक रूवरूप ब्रह्म होने पर भी मनरूपी उपाधि में अभिमान रहने के कारण, वह तरह-तर‍ह के संदेह, संशय, सुख, दु:ख आदि भोगता है, परंतु अपने स्‍वरूप की प्राप्ति के लिए आब्रह्मस्‍तंब सभी गतिशील हैं। जब तक 'ब्रह्म' यह तत्‍व प्रत्‍यक्ष न होगा, तब तक इस जन्‍म-मृत्‍यु की गति के पंजे से किसी का छुटकारा नहीं है। मनुष्‍य-जन्‍म प्राप्‍त करके मुक्ति की इच्‍छा प्रबल होने तथा महापुरुष की कृपा प्राप्‍त्‍ होने पर ही मनुष्‍य की आत्‍मज्ञान की आकांक्षा बलवती होती है; नहीं तो काम-कांचन में‍ लिप्‍त व्‍यक्त्यिों के मन की उधर प्रवृत्ति ही नहीं होती। जिसके मन में स्‍त्री,पुत्र, धन, मान प्राप्‍त करने का संकल्‍प है, उनके मन में ब्रह्म को जानने की इच्‍छा कैसे हो? जो सर्वस्‍व त्यागने को तैयार है, जो सुख-दु:ख, भले-बुरे के चंचल प्रवाह में धीरे-स्थिर, शांत तथा दृ‍ढ़चित रहता है, वही आत्‍मज्ञान प्राप्‍त करने के लिए सचेष्‍ट होता है। वही, निर्गच्‍छति जगज्‍वालात् पिंजरादिव केसरी-महाबल से जगद्रूपी जाल को तोड़कर माया की सीमा को लाँघ सिंह की तरह बाहर निकल जाता है।

शिष्‍य-क्या महाराज, संन्‍यास के बिना ब्रह्मज्ञान हो ही नहीं सकता ?

स्‍वामी जी-क्‍या यह बात एक बार कहने की है ? अंतर्बाह्य दोनों प्रकार से संन्‍यास का अवलंबन करना चाहिए। आचार्य शंकर ने भी उपनिषद् के तपसो वाप्‍यलिंगात्-इस अंश की व्‍यवस्‍था के प्रसंग में कहा है, 'लिंगहीन अर्थात् संन्‍यास के बाह्य चिन्‍हों के रूप में गेरुआ वस्‍त्र, दण्‍ड, कमंडलु आदि धारण करके तपस्‍या करने का कष्‍ट से प्राप्‍त करने योग्‍य ब्रह्म-तत्‍व प्रत्‍यक्ष नहीं होता।'१ मुंडकोपनिषद् 'वैराग्‍य न जाने पर, त्‍याग न होने पर, भोग-स्‍पृहा का त्याग न होने पर क्‍या कुछ होना संभव है। वह बच्‍चे के हाथ का लड्डू तो है नहीं, जिसे भुलावा देकर छीन कर खा सकते हो।

शिष्‍य-परंतु साधना करते-करते धीरे-धीरे त्‍याग आ सकता है न?

स्‍वामी जी-जिसे धीरे-धीरे आता है, उसे आए। परंतु तुझे क्‍यों बैठे रहना चाहिए ? अभी से नाला काटकर जल लाने में लग जा। श्री रामकृष्‍ण कहा करते थे, 'हो रहा है, होगा, यह सब टालने का ढंग है।' प्‍यास लगने पर क्‍या कोई बैठा रह सकता है ? या जल के लिए दौड़ धूप करता है ? प्‍यास नहीं लगी, इसलिए बैठा है। ज्ञान की इच्‍छा प्रबल नहीं हुई है, इसीलिए स्‍त्री-पुत्र लेकर गृहस्‍थी कर रहा है।

शिष्‍य-वास्तव में मैं यह समझ नहीं सका कि अभी तुम मुझमें उस प्रकार की सर्वस्‍व त्‍यागने की बुद्धि क्‍यों नहीं आ सकी। आप इसका कोई उपाय कर दीजिए।

स्‍वामी जी-उद्देश्‍य और उपाय सभी तेरे हाथ में हैं। मैं केवल उस विषय की इच्‍छा को मन में उत्तेजित कर दे सकता हूँ। तू इन सब सत् शास्‍त्रों का अध्‍ययन कर रहा है-बड़े-बड़े ब्रह्मज्ञ साधुओं की सेवा और सत्‍संग कर रहा है-इतने पर भी यदि त्‍याग का भाव नहीं आता, तो तेरा जीवन ही व्‍यर्थ है। परंतु बिल्‍कुल व्‍यर्थ नहीं होगा-समय पर इसका परिणाम निकलेगा ही।

शिष्‍य सर झुकाये विष्‍ण्‍ण भाव से कुछ समय तक अपने भविष्‍य की चिंता करके फिर स्‍वामी जी से कहने लगा, 'महाराज, मैं आपकी शरण में आया हूँ, मेरी मुक्ति का रास्‍ता खोल दीजिए-मैं इसी जन्‍म में तत्‍वज्ञ बनना चाहता हूँ।'

स्‍वामी जी शिष्‍य को खिन्‍न देखकर कहने लगे, 'भय क्‍या है ? सदा विचार किया कर-यह शरीर, घर, जीव-जगत् सभी संपूर्ण मिथ्‍या है-स्‍वप्‍न की तरह है, सदा सोचा कर कि यह शरीर एक जड़ यंत्र मात्र है। इसमें तो आत्‍माराम पुरुष है, वही तेरा वास्‍तविक स्‍वरूप है। मनरूपी उपाधि ही उनका प्रथम और सूक्ष्‍म आवरण है। उसके बाद देह उसका स्‍थूल आवरण बना हुआ है। निष्‍कल, निर्विकार, स्‍वयंज्‍योति वह पुरुष इन सब मायिक आवरणों से ढका हुआ है, इसलिए तू अपने स्‍वरूप को जान नहीं पाता। रूप-रस की ओर दौड़ने वाले इस मन की गति को अंदर की ओर लौटा देना चाहिए। मन को मारना होगा। देह तो स्‍थूल है। यह मरकर पंचभूतों में मिल जाती है, परंतु संस्‍कारों की गठरी मन शीघ्र नहीं मरता। बीज की भांति कुछ दिन रहकर फिर वृक्ष रूप में परिणम होता है, फिर स्‍थूल शरीर धारण करके जन्‍म-मृत्यु के पथ में आया-जाया करता है। जब तक आत्‍मज्ञान नहीं हो जाता, तब तक यही क्रम चलता रहता है। इसीलिए कहता हूँ-ध्‍यान, धारणा और विचार के बल पर मन को सच्च्दिानंद-समुद्र में डूबा दे। मन के मरते ही सभी समझ। बस फिर तू ब्रह्मसंस्‍थ हो जाएगा।

शिष्‍य-महाराज, इस उद्दाम उन्‍मत मन को ब्रह्म में डुबो देना बहुत ही कठिन है।

स्‍वामी जी-वीर के सामने कठिन नाम की कोई चीज़ क्या? कापुरुष ही ऐसी बातें कहा करते हैं। वीराणामेंव करतलगता मुक्ति:, न पुन: कापुरुषाणाम्। अभ्यास और वैराग्य के बल से मन को संयत कर। गीता में कहा है, अभ्‍यासेन तु कौन्‍तेय वैराग्‍येण च गृह्यते। चित्त मानो एक निर्मल तालाब है। रूप-रस आदि के आघात से उसमें जो तरंग उठ रही है, उसी का नाम है मन। इसीलिए मन का स्‍वरूप संकल्‍प-विकाल्‍पात्‍मक है। उस संकल्‍प से ही वासना उठती है। उसके बाद हम मन ही क्रियाशक्ति के रूप में परिणत होकर स्‍थूल देहरूपी यंत्र के द्वारा कार्य करता है। फिर कर्म भी जिस प्रकार अनंत है, कर्म का फल भी वैसा ही अनंत है। अत: अनंत असंख्‍य कर्मफल रूपी तरंगमें मन सदा झूला करता है। उस मन को वृत्तिशून्‍य बना देना होगा। उसे स्‍वच्‍छ तालाब में परिणत करना होगा, जिससे उसमें फिर वृत्तिरूपी एक भी तरंग न उठ सके। तभी ब्रह्म-तत्व प्रकट होगा। शास्‍त्रकार उसी स्थिति का आभास इस रूप में दे रहे हैं- भिद्यते ह्दयग्रंथि: आदि-समझा ?

शिष्‍य-जी हाँ,परंतु ध्‍यान तो विषयावलंबी होना चाहिए न ?

स्‍वामी जी-तू स्‍वयं अपना विषय बनेगा। तू सर्वव्‍यापी आत्‍मा है, इसी बात का मनन और ध्‍यान किया कर। मैं देह नहीं-मन नहीं-बुद्धि नहीं-स्‍थूल नहीं-सूक्ष्‍म नहीं-इस प्रकार 'नेति' करके प्रतयेक चैतन्‍य रूपी अपने स्‍वरूप में मन को डुबो दे। इस प्रकार मन को बार-बार डुबो-डुबो कर मार डाल। तभी ज्ञानस्‍वरूप का बोध या स्‍व स्‍वरूप में स्थिति होगी। उस समय ध्‍याता-ध्‍येय-ध्‍यान एक बन जाएंगे-ज्ञाता-ज्ञान एक हो जाएंगे। सभी अध्‍यासों की निवृत्ति हो जाएगी। इसी को शास्‍त्र में 'त्रिपुटिभेद' कहा है। इस स्थिति में जानने, न जानने का प्रश्न ही नहीं रह जाता। आत्‍मा ही जब एकमात्र विज्ञाता है, तब उसे फिर जानेगा कैसे ? आत्‍मा ही ज्ञान-आत्‍मा ही चैतन्‍य-आत्‍मा ही सच्चिदानंद है। जिसे सत् या असत् कुछ भी कहकर निर्देश नहीं किया जा सकता, उसी अनिवर्चनीय मायाशक्ति के प्रभाव से जीवरूपी ब्रह्म के भीतर ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान का भाव आ गया है। इसे ही साधारण मनुष्‍य चेतन स्थिति कहते हैं। यहाँ यह द्वैतसंघात शुद्ध ब्रह्म तत्‍व एक बन जाता है, उसे ही शास्‍त्र में समाधि या दिव्‍य चेतन स्थिति कहकर इस प्रकार वर्णन किया गया है- स्तिमितसलिलराशिप्रख्‍यमाख्‍याविहीनम्।

इन बातों को स्‍वामी जी मानो ब्रह्मानुभाव के गंभीर सलिल में मग्‍न होकर ही कहने लगे-इस ज्ञाता-ज्ञेय रूप साक्षेप भूमिका से ही दर्शन, शास्‍त्र-विज्ञान आदि निकले हैं; परंतु मानव का कोई भी भाव या भाषा जानने या न जानने के परे की वस्‍तु को संपूर्ण रूप से प्रकट नहीं कर सकती। दर्शन, विज्ञान आदि आंशिक रूप से सत्‍य है; इसलिए वे किसी भी तरह परमार्थ तत्व के संपूर्ण प्रकाशक नहीं बन सकते। अतएव परमार्थ की दृष्टि से देखने पर सभी मिथ्‍या है, जगत् मिथ्‍या है। उसी समय देखता है कि मैं ही सब कुछ हूँ; सर्वगत आत्‍मा हूँ; मेरा प्रणाम मैं ही हूँ। मेरे अस्तित्‍व के प्रमाण के लिए फिर दूसरे प्रमाण की आवश्‍यकता कहाँ ? मैं-जैसा कि शास्‍त्रों ने कहा है- नित्‍यमस्‍मत्‍प्रसिद्धम् हूँ। मैंने वास्‍तव में ऐसी स्थिति को प्रत्‍यक्ष किया है-उसका अनुभव किया है। तुम लोग भी देखो-अनुभव करो और जाकर जीव को यह ब्रह्म-तत्‍व सुनाओ। तब तो शांति पायेगा।'

ऐसा कहते-कहते स्‍वामी जी का मुख गंभीर बन गया और उनका मन मानो किसी एक अज्ञात राज्‍य में जाकर थोड़ी देर के लिए स्थिर हो गया। कुछ समय के बाद वे फिर कहने लगे-'इस सर्वमतग्रासिनी, सर्वमतसमजसा ब्रह्म विद्या का स्‍वयं अनुभव कर-और जगत् में प्रचार कर, उससे अपना कल्‍याण होगा, जीव का भी कल्‍याण होगा। तुझे आज सारी बात बता दी। इससे बढ़कर बात और दूसरी कोई नहीं।'

शिष्‍य-महाराज, आप इस समय ज्ञान की बात कह रहे हैं; कभी भक्ति पुरुषार्थ है। परंतु मनुष्‍य तो हर समय ब्रह्म में स्थित नहीं रह सकता ? व्‍युत्‍थान के समय कुछ लेकर तो रहना होगा? उस समय ऐसा कर्म करना चाहिए, जिससे लोगों का कल्याण हो। इसीलिए तुम लोगों से कहता हूँ, अभेदबुद्धि से जीव की सेवा के भाव से कर्म करो। परंतु भैया, कर्म के ऐसे दाँव-घात हैं कि बड़े-बड़े साधु भी इसमें आबद्ध हो जाते हैं। इसीलिए फल की आकांक्षा से शून्‍य होकर कर्म करना चाहिए। गीता में यही बात कही गई है। परंतु यह समझ ले कि ब्रह्मज्ञान में कर्म का अनुप्रवेश भी नहीं है। सत्‍कर्म के द्वारा बहुत तो चित्त-शुद्धि होती है। इसीलिए भाष्‍यकार ने ज्ञान-कर्म समुच्‍चय के प्रति इतना तीव्र कटाक्ष-इतना दोषारोपण किया है। निष्‍काम कर्म से किसी को ब्रह्मज्ञान हो सकता है। यह भी एक उपाय अवश्‍य है, परंतु उद्देश्‍य है ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति। इस बात को भली भांति जान ले-विचार-मार्ग तथा अन्य सभी प्रकार की साधना का फल है, ब्रह्मज्ञाता प्राप्‍त करना।

शिष्‍य-महाराज, अब भक्ति और राजयोग की उपयोगिता बताकर मेरी जिज्ञासा शांत कीजिए।

स्‍वामी जी-उन सब पंथों में साधना करते-करते भी किसी-किसी को ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। भक्ति मार्ग के द्वारा धीरे-धीरे उन्‍नति होकर फल देर में प्राप्‍त होता है-परंतु मार्ग है सरल। योग में अनेक विघ्न हैं। संभव है कि मन सिद्धियों में चला जाए और असली स्‍वरूप में पहुँच न सके। एकमात्र ज्ञान-मार्ग ही आशुफलदायक है और सभी मतों का संस्‍थापक होने के कारण सर्व काल में सभी देशों में समान रूप से सम्‍मानित है। परंतु विचार-पथ में चलते भी मन ऐसे तर्क-जाल में बद्ध हो सकता है, जिससे निकलना कठिन हो। इसलिए साथ ही साथ ध्‍यान भी करते जाना चाहिए। विचार और ध्‍यान के बल पर उद्देश्‍य त‍क अथवा ब्रह्म-तत्व में पहुँचना होगा। इस प्राकर साधना करने से गंतव्‍य स्‍थल पर ठीक-ठीक पहुँचा जा सकता है। यही मेरी सम्‍मति में सरल तथा शीघ्र फलदायक मार्ग है।

शिष्‍य-अब मुझे अवतारवाद के संबंध में कुछ बतलाइए।

स्‍वामी जी-जान पड़ता है, तू एक ही दिन में सभी कुछ मार लेना चाहता है।

शिष्‍य-महाराज, मन का संदेह एक ही दिन में मिट जाए तो बार-बार फिर आपको तंग न करना पड़ेगा।

स्‍वामी जी-जिस आत्‍मा की इतनी महिमा शास्‍त्रों से जानी जाती है, उस आत्‍मा का ज्ञान जिनकी कृपा से एक मु‍हूर्त में प्राप्‍त होता है, वे ही हैं सचल तीर्थ-अवतार पुरुष। वे जन्‍म से ही ब्रह्मज्ञ में कुछ भी अंतर नहीं-ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति ( ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म हो जाता है) आत्मा को तो फिर जाना नहीं जाता, क्‍योंकि यह आत्‍मा ही ज्ञाता और मननशील उसी अवतार तक है-जो आत्मसंस्‍थ है। मानव बुद्धि ईश्‍वर के संबंध में जो सबसे उच्‍च भाव ग्रहण कर सकती है, वह वहीं तक हैं। उसके बाद और जानने का प्रश्‍न नहीं रहता। उस प्रकार के ब्रह्मज्ञ कभी-कभी ही जगत् में पैदा होते हैं। उन्‍हें कम लोग ही समझ पाते हैं। वे ही शास्‍त्र-वचनों के प्रमाण-स्‍थल हैं-भवसागर के आलोकस्तंभ हैं-इन अवतारों के सत्संग तथा कृपादृष्टि से एक क्षण में ही हृदय का अंधकार दूर हो जाता है-एकाएक ब्रह्ज्ञान का स्‍फुरण हो जाता है। क्‍यों होता है अथवा किस उपाय से होता है, इसका निर्णय नहीं किया जा सकता, परंतु होता अवश्‍य है। मैंने होते देखा है। श्री कृष्‍ण ने आत्‍संस्‍थ होकर गीता कही थी। गीता में जिन-जिन स्‍थानों में 'अहम' शब्‍द का उल्‍लेख है-वह 'आत्‍मपर' जानना। मामेकं शरणं व्रज अर्थात् 'आत्‍मसंस्‍थ' बनो। यह आत्‍मज्ञान ही गीता कर अंतिम लक्ष्‍य है। योग आदि का उल्‍लेख उसी आत्‍म-तत्‍व की प्राप्ति की आनुषंगिक अवतारणा है। जिन्‍हें यह आत्‍मज्ञान नहीं होता वे आत्‍मघाती हैं- विनिहन्‍त्‍यसद्ग्रहात्। रूस-रूस आदि‍ की फाँसी लगकर उनके प्राण निकल जाते हैं। तू भी तो मनुष्‍य है-दो दिनों के तुच्‍छ भोग की उपेक्षा नहीं कर सकता ? जाएस्‍व म्रियस्‍व के दल में जाएगा ? 'श्रेय' को ग्रहण कर-'प्रेय' का त्‍याग कर। यह आत्‍म-तत्‍व चांडाल आदि सभी को सुना। सुनाते-सुनाते तेरी बुद्धि भी निर्मल हो जाएगी। तत्‍वमसि सोअहमस्मि, सर्व खल्विदं ब्रह्म आदि महामंत्र का सदा उच्‍चारण कर और ह्दय में सिंह की तरह बल रख। भय क्‍या है? भय ही मृत्‍यु है-भय महापातक है। नररूपी अर्जुन को भय हुआ था-इसलिए आत्‍मसंस्‍थ होकर भगवानश्री कृष्‍ण ने उन्हें गीता कर उपदेश दिया; फिर भी क्‍या उसका भय चला गया था? अर्जुन जब विश्‍वरूप का दर्शन कर आत्‍मसंस्‍थ हुए तभी वे ज्ञानाग्नि-दग्‍धकर्मा बने और उन्‍होंने युद्ध किया।

शिष्‍य-महाराज, आत्‍मज्ञान की प्राप्ति होने पर भी क्‍या कर्म रह जाता है।

स्‍वामी जी-ज्ञान-प्राप्ति के बाद साधारण लोग जिसे कर्म कहते हैं, वैसा कर्म नहीं रहता। उस समय कर्म 'जगद्धिताय' हो जाता है। आत्‍मज्ञानी का सभी बातें जीव के कल्‍याण के लिए होती हैं। श्री रामकृष्‍ण को देखा है- देहस्‍थोअपि न देहस्‍थ: (देह में रहते हुए भी देह में न रहना) यह भाव। वैसे पुरुषों के कर्म के उद्देश्‍य के संबंध में केवल यही कहा जा सकता है-लोकवत्तु लीला कैवल्‍यम् (जो कुछ वे करते हैं, वे लोक में लीला रूप में है)।

३३

स्‍थान :बेलूड़ मठ। वर्ष: १९०१ ई॰

कलकत्ता जुबिली आर्ट अकादमी के अध्‍यापक और संस्‍थापक बाबू रणदाप्रसाद दास गुप्‍त महाशय को साथ लेकर शिष्‍य बेलूड़ मठ में आया है। रणदा बाबू शिल्‍प कला में निपुण, सपुण्डित तथा स्‍वामी के गुणग्राही हैं। परिचय के बाद स्‍वामी जी रणदा बाबू के साथ शिल्‍पविज्ञान के संबंध में बातें करने लगे। रणदा बाबू को प्रोत्‍साहित करने के लिए एक दिन जुबिल आर्ट अकादमी में जाने की इच्‍छा भी प्रकट की, परंतु कई असुविधाओं के कारण स्‍वामी जी वहाँ नहीं जा सके। स्‍वामी जी रणदा बाबू से कहने लगे,' पृथ्वी के प्राय: सभी सभ्य देशों का शिल्‍प-सौंदर्य देख आया, परंतु बौद्ध धर्म के प्रादुर्भाव के समय इस देश में शिल्‍पकला का जैसा विकास देखा जाता है, वैसा और कहीं भी नहीं देखा। मुगल बादशाहों के समय में भी इस विद्या का विशेष विकास हुआ था। उस विद्या के कीर्तिस्तंभ के रूप में आज भी ताजमहल, जामा मस्जिद आदि भारतवर्ष के वक्ष पर खड़े हैं।

'मनुष्‍य जिस चीज़ का निर्माण करता है, उससे किसी एक मनोभाव को व्‍यक्‍त करने का नाम ही शिल्‍प है। जिसमें भाव की अभिव्‍यक्ति नहीं, उसमें रंग-विरंगी चकाचौंध रहने पर भी उसे वास्‍तव में शिल्‍प नहीं कहा जा सकता। लोटा, कटोरे प्याली आदि नित्‍य व्‍यवहार की चीज़ें भ उसी प्रकार कोई विशेष भाव व्‍यक्‍त करते हुए तैयार करनी चाहिए। पेरिस प्रदर्शनी में पत्‍थर को बनी हुई एक विचित्र मूर्ति देखी थी। मूर्ति के परिचय के रूप में उसके नीचे ये शब्‍द लिखे हुए थे-'प्रकृति का अनावरण करती हुई कला' अर्थात् शिल्‍पी किसी प्रकार प्रकृति के घूँघट को अपने हाथ से हटाकर भीतर के रूप-सौंदर्य को देखता है। मूर्ति का निर्माण इस प्रकार किया है, मानो प्रकृति देवी के रूप का चित्र अभी स्‍पष्‍ट चित्रित नहीं हुआ, पर जितना हुआ है, उतने के ही सौंदर्य को देखकर मानो शिल्‍पी मुग्ध हो गया है। जिस शिल्‍पी ने इस भाव को व्‍यक्त करने की चेष्‍टा की है, उसकी प्रशंसा किये बिना नहीं रह जात। आप ऐसा ही कुछ मौलिक भाव व्‍यक्‍त करने की चेष्‍टा कीजिएगा।'

रणदा बाबू-समय आने पर मौलिक भावयुक्‍त मूर्ति तैयार करने की मेरी भी इच्‍छा है। परंतु इस देश में उत्‍साह नहीं पाता। धन की कमी, उस पर फिर हमारे देश के निवासी गुणग्राही नहीं।

स्‍वामी जी-आप यदि दिल से एक भी नई वस्‍तु तैयार कर सके, यदि शिल्‍प में एक भी भाव ठीक-ठीक व्‍यक्‍त कर सकें तो समय पर अवश्‍य ही उसका मूल्‍य होगा। जगत् में कभी भी सच्‍ची वस्‍तु का अपमान नहीं हुआ। ऐसा सुना है कि किसी-किसी शिल्‍पी के मरने के हज़ार वर्ष बाद उसकी कला का सम्‍मान हुआ।

रणदा बाब-यह ठीक है। परंतु हममें जो अकर्मण्‍यता आ गई है, इससे घर का खाकर जंगल की भैस चराने का साहस नहीं होता। इन पाँच वर्षों की चेष्‍टा से फिर भी मुझे कुछ सफलता मिली है। आशीर्वाद दीजिए कि प्रयत्‍न व्‍यर्थ न हो।

स्‍वामी जी-आप यदि ह्दय से काम में लग जायँ तो सफलता अवश्‍य ही प्राप्‍त होगी। जो जिस संबंध में मन लगाकर ह्दय से परिश्रम करता है, उसमें उसकी सफलता तो होती ही है, पर उसके पश्‍चात् ऐसा भी हो सकता है कि उस कार्य को तन्‍मयता से करने पर ब्रह्मविद्या तक की प्राप्ति हो जाए। जिस कार्य में मन लगाकर परिश्रम किया जाता है, उसमें भगवान् भी सहायकता करते हैं।

रणदा बाबू-पश्चिम के देशों तथा भारत के शिल्‍प में क्‍या आपने कुछ अंतर देखा ?

स्‍वामी जी-प्राय: सभी स्‍थानों में वह एक सा ही है; नवीनता का बहुधा अभाव रहता है। उन सब देशों में कैमरे की सहायता से आजकल अनेक प्रकार के चित्र खींचकर तस्‍वीरें तैयार कर रहे हैं। परंतु यंत्र की सहायता लेते ही नए-नए भावों को व्‍यक्‍त करने की शक्ति लुप्‍त हो जाती है। अपने मन के भाव को व्‍यक्‍त नहीं किया जा सकता। पूर्व काल के शिल्‍पकार अपने-अपने मस्तिष्‍क से नए-नए भाव निकालने तथा उन्हीं भावों को चित्रों के द्वारा व्‍यक्त करने का प्रयत्न किया करते थे। आजकल फोटो जैसे चित्र होने के कारा मस्तिष्‍क के प्रयोग की शक्ति और प्रयत्न लुप्‍त होते जा रहे हैं। परंतु प्रत्‍येक जाति की एक-एक विशेषता है। आचरण में, व्‍यवहार में, आहार में, विहार में, चित्र में, शिल्प में उस विशेष भाव का विकास देखा जाता है। उदाहरण के रूप में देखिए-उस देश के संगीत और नृत्‍य सभी में एक अजीब मर्मस्‍पर्शिता (pointedness) है। नृत्‍य में ऐसा जान पड़ता है मानो वे हाथ-पैर झटक रहे हैं। वाद्यों की आवाज ऐसी है मानो कानों में संगीत झोंकी जा रही हो। गायन का भी यही हाल है। इधर इस देश का नृत्‍य मानो सजीव लहरों की थिरकन है। इसी प्रकार गीतों की स्‍वर-तान में भी स्‍वरों का चक्रवात आलोड़न दिखायी पड़ता है। वाद्य में भी वही बात है। तात्‍पर्य यह है कि कला का पृथक पृथक जातियों में पृथक रूपों में विकास हुआ जान पड़ता है। जो जातियाँ बहुत ही जड़वादी तथा इकहाल को ही सब कुछ मानती हैं, वे प्रकृति के नाम-रूप को ही अपना परम उद्देश्य मान लेती हैं और शिल्‍प में भी उसी के अनुसार भाव को प्रकट करने की चेष्‍टा करती है। प्रथमोक्‍त जातियों की कला का प्राकृतिगत सांसारिक भावों तथा पदार्थसमूह का चित्रण ही मूलाधार है और परोक्‍त जातियों की कला के विकास का मूल कारण है, प्रकृति के अतीत किसी भाव को व्‍यक्‍त करना। इसी प्रकार दो भिन्न-भिन्‍न उद्देश्‍यों के आधार पर कला के विकास में अग्रसर होने पर भी, दोनों का परिणाम प्राय: एक ही हुआ है। दोनों ने ही अपने-अपने भावानुसार कला में उन्‍नति की है। उन सब देशों का एक-एक चित्र देखकर आपको वास्‍तविक प्राकृतिक दृश्‍य का भ्रम होगा। इसी प्रकार इस देश में भी, प्राचीन काल में स्‍थापित-विद्या का जिस समय बहुत विकास हुआ था, उस समय की एक-एक मूर्ति देखने से ऐसा प्रतीत होता है मानो वह आपको इस जड़ प्राकृतिक राज्‍य से उठाकर एक नवीन भावलोक में ले जाएगी। जिस प्रकार आजकल उस देश में पहले जैसे चित्र नहीं बनते, उसी प्रकार इस देश में भी नए-नए भावों के विकास के लिए कलाकार प्रयत्‍नशील नहीं देखे जाते। यह देखिए न, आप लोगों के आर्ट स्‍कूल के चित्रों में मानो किसी भाव का विकास नहीं। यदि आप लोग हिंदुओं के प्रतिदिन के ध्‍यान करने योग्‍य मूर्तियों में प्राचीन भावों की उद्दीपक भावना को चित्रित करने का प्रयत्‍न करें तो अच्‍छा हो।

रणदा बाबू-आपकी बातों से मैं बहुत ही उत्‍साहित हुआ हूँ। प्रयत्‍न करके देखूँगा-आपके कथानुसार कार्य करने की चेष्‍टा करूँगा।

स्‍वामी जी फिर कहने लगे-उदाहरणार्थ, माँ काली का चित्र ही ले लीजिए। इसमें एक साथ ही कल्‍याणकारी तथा भयावह भावों का समावेश है, पर प्रचलित चित्रों में इन दोनों भावों का यथार्थ विकास कहीं भी नहीं देखा जाता। इतना ही नहीं, इन दोनों भावों में से किसी एक को भी चित्रित करने का कोई प्रयत्‍न नहीं कर रहा है। मैंने माँ काली की भीषण मूर्ति का कुछ भाव 'जगंन्‍माता काली' (Kali the Mother) नामक अपनी अंग्रेज़ी कविता में व्‍यक्त करने की चेष्टा की है। क्या आप उस भाव को किसी चित्र में व्‍यक्‍त कर सकते हैं ?

रणदा बाबू-किस भाव को?

स्‍वामी जी ने शिष्‍य की ओर देखकर अपनी उस कविता को ऊपर से ले आने को कहा। शिष्‍य के ले आने पर स्‍वामी जी उसे (The stars are blotted out etc.) पढ़कर रणदा बाबू को सुनाने लगे। स्‍वामी जी जब उस कविता का पाठ कर रहे थे, उस समय शिष्‍य को ऐसा लगा, मानो महाप्रलय की संहारकारी मूर्ति उनके कल्‍पना-वृक्ष के सामने नृत्‍य कर रही है। रणदा बाबू भी उस कविता को सुनकर कुछ समय के लिए स्‍तब्‍ध हो गए। दूसरे ही क्षण उस चित्र को अपनी कल्‍पना की आँखों से देखकर रणदा बाबू 'बाप रे' कहकर भयचकित दृष्टि से स्‍वामी जी के मुख की ओर ताकने लगे।

स्‍वामी जी-क्‍यों, क्‍या इस भाव को चित्र में व्‍यक्‍त कर सकेंगे?

रणदा बाबू-जी, प्रयत्‍न करूँगा परंतु इस भाव की कल्‍पना से ही मेरा सिर चकरा जाता है।

1. शिष्‍य उस समय रणदा बाबू के साथ ही रहता था। उसे ज्ञात था कि रणदा बाबू ने घर पर लौटकर दूसरे ही दिन से प्रलय तांडव में उन्‍मत चंडी की मूर्ति चित्रित करनी आरंभ कर दी थी। आज भी वह अर्धचित्रित मूर्ति रणदा बाबू के आर्ट स्‍कूल में मौजूद है, परंतु स्‍वामी जी को वह फिर दिखायी नहीं गई।

स्‍वामी जी-चित्र तैयार करके मुझे दिखाइएगा, उसके बाद उसे सर्वांग सुंदर बनाने के लिए जो चाहिए, मैं आपको बता दूँगा।

इसके बाद स्‍वामी जी ने श्री रामकृष्‍ण मिशन की मुहर के लिए साँप द्वारा घेरे हुए कमलनंद विकसित ह्लद के बीच में हंस का जो छोटा सा चित्र तैयार किया था, उसे मँगवाकर रणदा बाबू को दिखाया और उसके संबंध में उनसे अपनी राय व्‍यक्‍त करने के लिए कहा। रणदा बाबू पहले उसका भाव ग्रहण करने में असमर्थ होकर स्‍वामी जी से ही उसका अर्थ पूछने लगे। स्‍वामी जी ने समझा दिया कि चित्र का प्रतीक है। चित्र में जो साँप का घेरा है-वह योग और जाग्रत कुंडलिनी शक्ति का द्योतक है और चित्र के मध्‍य में जो हंस की मूर्ति है उसका अर्थ है परमात्‍मा। अत: कर्म, भक्ति, ज्ञान और योग के साथ सम्मिलित होने से ही परमात्‍मा का दर्शन प्राप्‍त होता है-य‍ही चित्र का तात्‍पर्य है।

रणदा बाबू चित्र का यह तात्‍पर्य सुनकर स्‍तब्‍ध हो गए। उसके बाद उन्होंने कहा, 'यदि मैं आपसे कुछ समय शिल्‍पकला सीख सकता तो मेरी वास्‍तव में कुछ उन्‍नति हो जाती।'

इसके बाद स्‍वामी जी ने भविष्‍य में श्री रामकृष्‍ण-मंदिर और मठ को जिस प्रकार तैयार करने की उनकी इच्‍छा है, उसका एक खाका। (कच्‍चा नक्शा) मँगवाया। इस खाके को स्‍वामी जी के परामर्श से स्‍वामी विज्ञानानंद ने तैयार किया था। यह खाका रणदा बाबू को दिखाते हुए वे कहने लगे-'इस भावी मठ-मंदिर के निमार्ण में प्राच्‍य तथा पाश्‍चात्‍य सभी शिल्‍पकलाओं का संबंध करने की मेरी इच्छा है। मैं पृथ्‍वी भर में घूमकर स्‍थापत्‍य के संबंध में जितने भाव लाया हूँ, उन सभी को इस मंदिर के निर्माण में विकसित करने की चेष्‍टा करुँगा। बहुत से सटे हुए स्तंभों पर एक विराट प्रार्थनागृह तैयार होगा। उसकी दीवालों पर सैकड़ों खिले हुए कमल प्रस्‍फुटित होंगे। प्रार्थनागृह इतना बड़ा बनाना होगा कि उसमें बैठकर हज़ार व्‍यक्ति एक साथ जप-ध्‍यान कर सकें। श्री रामकृष्‍ण-मंदिर तथा प्रार्थनागृह को इस प्रकार एक साथ तैयार करना होगा कि दूर से देखने पर ठीक ओंकार की धारणा हो। मंदिर के बीच में एक राजहंस पर श्री रामकृष्‍ण की मूर्ति रहेगी। द्वार पर दोनों ओर दो मूर्तियाँ इस प्रकार रहेंगी-एक सिंह और एक भेड़ मित्रता से एक दूसरे को चाट रहे हैं-अर्थात् महाशक्ति और महानम्रता मानों प्रेम से एक हो गए हैं। मन में ये सब भाव हैं। अब यदि जीवन रहा तो उन्‍हें कार्य में परिणत कर जाऊँगा। नहीं तो भविष्‍य की पीढ़ी के लोग उसको धीरे-धीरे कार्यरूप में परिणत कर सके तो करेंगे। मुझे ऐसा लगता है कि श्री रामकृष्‍ण देश की सभी प्रकार की विद्या और भाव में संचारित करने के लिए ही आए थे। इसलिए श्री रामकृष्‍ण के इस मठ को इस प्रकार संगठित करना होगा कि इस मठ-केंद्र से धर्म, कर्म, विद्या, ज्ञान तथा भक्ति का संचार समस्‍त संसार में हो जाए। इस विषय में आप लोग मेरे सहायक बनें।

रणदा बाबू तथा उपस्थित संन्‍यासी और ब्रह्मचारी स्‍वामी जी की बात सुनकर विस्मित होकर बैठे रहे। जिनका महान् एवं उदार मन सभी विषयों के सभी प्रकार के महान् भावसमूह की अदृक्ष्‍ष्‍टपूर्व क्रीड़ाभूमि था, उन स्‍वामी जी की महिमा को हृदयंगम कर सब लोग एक अव्‍य‍क्‍त भाव में मग्‍न हो गए। कुछ समय के बाद स्‍वामी जी फिर बोले, 'आप शिल्‍पविद्या की यथार्थ आलोचना करते हैं, इसलिए आज उस विषय पर चर्चा हो रही है। शिल्‍प के संबंध में इतने दिन चर्चा करके आपने उस विषयका जो कुछ सार तथा उच्‍च भाव प्राप्‍त किया है, वह अब मुझे सुनाइए।'

रणदा बाबू-महाराज, मैं आपको नई बात सुनाऊँगा ? आपने ही आज उस विषय में मेरी आँखें खोल दी हैं। शिल्‍प के संबंध में इस प्रकार का ज्ञानपूर्ण बातें इस जीवन में इससे पूर्व कभी नहीं सुनी थीं। आशीर्वाद दीजिए कि आपसे जो भाव प्राप्‍त किये हैं, उन्‍हें कार्यरूप में परिणत कर सकूँ।

स्‍वामी जी आसन से उठकर मैदान में इधर-उधर टहलते हुए शिष्‍य से कहने लगे, 'यह युवक बड़ा तेजस्‍वी है।'

शिष्‍य-महाराज, आपकी बात सुनकर यह विस्मित हो गया है।

स्‍वामी जी शिष्‍य की इस बात का कोई उत्‍तर न देकर मन ही मन गुनगुनाते हुए श्री रामकृष्‍ण का एक गीत गाने लगे-'परम धन वह परश मणि' (संयत मन परम धन है जो अपनी सब इच्‍छाएँ पूर्ण करता है, इत्‍यादि।)

इस प्रकार कुछ समय तक टहलने के बाद स्‍वामी जी हाथ-मुँह धोकर शिष्‍य के साथ दुमंजिले के अपने कमरे में आए और उन्‍होंने अंग्रेज़ी विश्‍वकोश के शिल्‍प संबंधी अध्‍याय का कुछ समय तक अध्‍ययन किया। अध्‍ययन समाप्‍त करने पर पूर्व बंगाल की भाषा तथा उच्‍चारण-प्रणाली के विषय शिष्‍य के साथ साधारण रूप से हँसी करने लगे।

३४

[स्‍थान: बेलूड़ मठ। वर्ष : १९०१ ई॰]

स्‍वामी जी कुछ दिन हुए, पूर्वी बंगाल और आसाम की यात्रा से लौट आए हैं। शरीर अस्‍वस्‍थ है, पैर सूज गया है। शिष्‍य ने आकर मठ की ऊपरी मंजिल में स्‍वामी जी के पास जाकर उन्‍हें प्रणाम किया। शारीरिक अस्‍वस्‍थता के होते हुए भी स्‍वामी जी के मुखमंडल पर मुस्‍कुराहट और दृष्टि से स्‍नेह झलक रहा था, जो देखने-वालों के सब प्रकार के दु:खों को भूलाकर उन्‍हें आत्‍मविस्‍मृत कर देता था।

शिष्‍य-महाराज, आपका स्वास्थ्य कैसा है ?

स्‍वामी जी-मेरे बच्‍चे, मैं अपने स्‍वास्‍थ्‍य के संबंध में क्‍या कहूँ? शरीर तो दिनोदिन कार्य के लिए अक्षम बनता जा रहा है। बंगाल प्रांत में आकर शरीर धारण करना पड़ा, शरीर में रोग लगा ही है। इस देश का स्‍वास्थ्‍य बिल्‍कुल अच्‍छा नहीं। अधिक कार्यभार सहन नहीं कर सकता। फिर भी जब तक शरीर है, तुम लोगों के लिए परिश्रम करूँगा। परिश्रम करते हुए ही शरीर त्‍याग करूँगा।

शिष्‍य-आप अब कुछ दिन काम करना बंद कर विश्राम कीजिए, तभी शरीर स्‍वस्थ होगा। इस शरीर की रक्षा से जगत् का कल्‍याण होगा।

स्‍वामी जी-विश्राम करने को अवकाश कहाँ, भाई ? श्री रामकृष्‍ण जिसे 'काली' 'काली' कहकर पुकारा करते थे, वही उनके शरीर त्‍याग के दो-तीन दिन पहले से ही इस शरीर में प्रविष्ट हो गई है। वही मुझे इधर-उधर काम करते हुए घुमा रही है-स्थिर होकर रहने नहीं देती, अपने सुख की ओर देखने नहीं देती।

शिष्‍य-शक्ति-प्रवेश की बात क्‍या किसी रूपक के अर्थ में कह रहे हैं?

स्‍वामी जी-नहीं रहे-श्री रामकृष्‍ण के देह-त्‍याग के तीन-चार दिन पहले, उन्‍होंने मुझे एकांत में बुलाया, और मुझे सामने बैठाकर मेरी ओर एक दृष्टि से एकटक देखते हुए समाधिमग्‍न हो गए। मैं उस समय अनुभव करने लगा कि उनके शरीर से एक सूक्ष्‍म तेज बिजली के कंपन की तरह आकर मेरे शरीर में प्रविष्ट हो रहा है। धीरे-धीरे मैं भी बाह्य ज्ञान खोकर निश्‍चल हो गया। कितनी देर तक ऐसे भाव में रहा, मुझे कुछ भी याद नहीं जब बाहर की चेतना हुई तो देखा, श्री रामकृष्‍ण रो रहे हैं। पूछने पर उन्‍होंने स्‍नेह के साथ कहा, आज सभी कुछ तुझे देकर मैं फकीर बन गया। तू इस शक्ति के द्वारा संसार का बहुत कल्‍याण करके लौट जाएगा। मुझे ऐसा लगता है, वह शक्ति ही मुझे इस काम से उस काम में घुमाती रहती है। बैठे रहने के लिए मेरा यह शरीर बना ही नहीं।

शिष्‍य विस्मित होकर सुनते-सुनते सोचने लगा-इन सब बातों को साधारण व्‍यक्ति कैसे समझेंगे, कौन जाने ? इसके बाद उसने दूसरा प्रसंग उठाकर कहा-

'महाराजा, हमारा बंगाल देश (पूर्वी बंगाल) आपको कैसेा लगा ?

स्‍वामी जी-देश कोई बुरा नहीं है। मैदानी भाग में देखा, पर्याप्‍त अन्‍न उत्‍पन्‍न होता है। जलवायु भी बुरी नहीं। पहाड़ी भाग का दृश्‍य भी बहुत सुंदर है। ब्रह्मपुत्र की घाटी की शोभा अतुलनीय है। हमारी इस ओर की तुलना में लोग कुछ मज़बूत और परिश्रमी हैं। इसका कारण, संभव है, यह हो कि वे मछली-मांस अधिक खाते हैं। जो कुछ करते हैं, अच्‍छे ढंग से करते हैं। खाद्य सामग्री में तेल-चर्बी का उपयोग अधिक करते हैं, वह ठीक नहीं है। तेल-चर्बी अधिक खाने से शरीर मोटा हो जाता है।

शिष्‍य-धर्म भाव कैसा देखा?

स्‍वामी जी-धर्म भाव के संबंध में देखा, देश के लोग बहुत अनुदार हैं। प्राचीन प्रथा के अनुगामी हैं। अनेक उदार भाव से धर्म प्रारंभ करके फिर हठधर्मी बन गए हैं। ढाका में मोहिनी बाबू के मकान पर एक दिन एक लड़के ने न जाने किसका एक फोटो लाकर मुझे दिखाया और कहा, 'महाराज, कहिए तो ये कौन है? अवतार हैं या नहीं' ? मैंने उसे बहुत समझाकर कहा,' भाई, यह मैं क्‍या जानूँ ? तीन-चार बार कहने पर भी देखा, वह लड़का किसी भी तरह जिद नहीं छोड़ रहा है, अंत में मुझे बाध्‍य होकर कहना पड़ा-'भाई, आज से अच्‍छी तरह खाया पिया करो; तुम मस्तिष्‍क का विकास होगा-पुष्टिकर खाद्य के अभाव से तुम्‍हारा मस्तिष्‍क सूख जो गया है।' यह बात सुनकर, संभव है, वह लड़का असंतुष्ट हुआ हो। सो क्‍या करूँ भाई बच्‍चों का ऐसा न कहने से वे तो धीरे-धीरे पागल हो जाएंगे।

शिष्‍य-हमारे पूर्वी बंगाल में आजकल अनेक अवतारों का उदय हो रहा है।

स्‍वामी जी-गुरु को लोग अवतार कह सकते हैं अथवा जो चाहें मानकर धारण करने की चेष्‍टा कर सकते हैं। परंतु भगवान का अवतार कहीं भी तथा किसी भी समय नहीं होता। एक डाका में ही सुना है, तीन-चार अवतार पैदा हो गए हैं।

शिष्‍य-वहाँ की महिलाएँ कैसी हैं ?

स्‍वामी जी-महिलाएँ सर्वत्र प्राय: एक सी होती हैं। वैष्‍णव भाव ढाका से अधिक देखा। यहां की स्‍त्री बहुत बुद्धिमती जान पड़ी। वह बहुत आदर के साथ भोजन तैयार करके मेरे पास भेज देती थी।

शिष्‍य-सुना, आप नाग महाशय के घर पर गए थे?

स्‍वामी जी-हाँ, इतनी दूर जाकर भला मैं उन महापुरुष का जन्‍मस्‍थान न देखूँगा? नाग महाशस की स्‍त्री ने मुझे कितनी ही स्‍वादिष्ट वस्‍तुएँ बनाकर खिलायीं। मकान उनका कैसा सुंदर है। मानो शांति का आश्रम है। वहाँ जाकर एक तालाब में तैरा भी था। उसके बाद आकर ऐसी नींद लगी कि दिन के ढाई बज गए। मेरे जीवन में जितने बार गाढ़ी निद्रा लगी है, नाग महाशय के मकान की नींद उनमें से एक है। फिर नाग महाशय की स्‍त्री ने प्रचुर स्‍वादिष्‍ट भोजन कराया तथा एक वस्‍त्र दिया। उसे सिर पर लपेटकर ढाका की ओर रवाना हुआ। देखा, नाग महाशय के चित्र की पूजा होती है। उनकी समाधि के स्‍थान को भली-भाँति रखना चाहिए। जैसा होना चाहिए, अभी वैसा नहीं हुआ।

शिष्‍य-महाराज, नाग महाशय को वहाँ के लोग ठीक तरह समझ नहीं सके।

स्‍वामी जी-उनके समान महापुरुष को साधारण लोग क्‍या समझ सकते हैं? जिन्‍हें उनका सहवास प्राप्‍त हुआ, वे धन्‍य हैं।

शिष्‍य-महाराज, कामाख्‍या में जाकर आपने क्‍या देखा ?

स्‍वामी जी-शिलड् पहाड़ बहुत ही सुंदर है। वहाँ पर चीफ कमिश्‍नर मिस्‍टर कॉटन के साथ साक्षात्‍कार हुआ था। उन्‍होंने मुझसे पूछा-स्‍वामी जी, यूरोप और अमेरिका धूमकर इस दूरवर्ती पर्वत प्रांत में आप क्‍या देखने आए हैं ? कॉटन साहब जैसे सज्‍जन व्‍यक्ति प्राय: देखने में नहीं आते। उन्‍होंने मेरी अस्‍वस्‍था की बात सुनकर सरकारी डॉक्‍टर भिजवाया था। सायं-प्रात: दोनों समय मेरी खबर लेते थे। वहाँ पर अधिक व्‍याख्‍यानादि न दे सका। शरीर बहुत ही अस्‍वस्‍थ हो गया था। रास्‍ते में निताई ने बहुत सेवा की।

शिष्‍य-वहाँ आपने धर्म-भावना कैसी देखी ?

स्‍वामी जी-तंत्र-प्रधान देश है; एक 'हंकर' देव का नाम सुना जो उस अंचल में अवतार मानकर पूजे जाते हैं। सुना है, उनका संप्रदाय बहुत व्‍यापक है। वह 'हंकर' देव शंकराचार्य का ही दूसरा नाम है या और कोई, समझ न सका। वे लोग विरक्‍त हैं। संभव है, तां‍त्रिक संन्‍यासी हों अथवा शंकराचार्य का ही कोई संप्रदाय विशेष हो।

इसके बाद शिष्‍य ने कहा, 'महाराज, उस देश के लोग, संभव है, नाग महाशय की तरह, आपको भी ठीक ठीक समझ न सके हों।'

स्‍वामी जी-समझें या न समझें, इस अंचल के लोगों की तुलना में उनका रजोगुण अवश्‍य प्रबल हे। आगे चलकर उसका और भी विकास होगा। जिस प्रकार के चाल-चलन को इस समय सभ्‍यता या शिष्‍टाचार कहते हैं, वह अभी तक किसी प्रांत में भली भाँति प्रविष्‍ट नहीं हुआ। ऐसा धीरे-धीरे होगा। सदैव राजधानी से ही क्रमश: अन्‍य प्रांतों में धीरे-धीरे चाल-चलन, अदब-कायदा, आचार-विचार आदि का विस्‍तार होता है। वहाँ भी ऐसा ही हो रहा है। जहाँ नाग महाशय जैसे महापुरुष जन्‍म ग्रहण करते हैं, वहाँ की फिर क्‍या चिंता। उनके प्रकाश से ही पूर्व बंगाल प्रकाशित हो रहा है।

शिष्‍य-परंतु महाराज, साधारण लोग उन्‍हें उतना ही नहीं जानते थे। वे तो बहुत ही गुप्‍त रूप से रहते थे।

स्‍वामी जी-उस देश में लोग मेरे खाने-पीने के प्रश्‍न को लेकर बड़ी चर्चा किया करते थे। कहते थे-'वह क्‍यों खायेंगे; अमुक के हाथ का का क्‍यों खायेंगे, आदि-आदि। इसलिए कहना पड़ता था-'मैं तो संन्‍यासी फकीर हूँ-मेरा नियम क्‍या? तुम्‍हारे शास्‍त्र में ही कहा है- परेन्‍मधुकरीं वृत्तिमपि म्‍लेच्‍छकुलादपि (भिक्षा-वृत्ति के लिए निकलने पर म्‍लेच्‍छ-कुल से भी भिक्षा ग्रहण की जाती है) परंतु भीतर धर्म की अनुभूति के लिए पहले-पहल बाहर की नियम-निष्‍ठा आवश्‍यक है। शास्‍त्र का ज्ञान की वह पात्र निचोड़े हुए जल की कहानी सुनी है न ? नियम-निष्ठा केवल मनुष्‍य के भीतर की महाशक्ति के स्‍फुरण का उपाय मात्र है। जिससे भीतर की वह शक्ति जाग उठे और मनुष्‍य अपने स्‍वरूप को ठीक-ठीक समझ सके, यही है सब शास्‍त्रों का उद्देश्‍य। सभी उपाय विधि-निषेध रूप हैं। उद्देश्‍य को भूलकर केवल उपाय लेकर लड़ने से क्‍या होगा ? जिस देश में भी जाता हूँ, देखता हूँ, उपाय लेकर ही लट्ठबाजी चल रही है; उद्देश्‍य की ओर लोगों की दृष्टि नहीं। श्री रामकृष्‍ण यही दिखाने के लिए आए थे कि अनुभूति ही सार वस्‍तु है। हज़ार वर्ष गंगा-स्‍नान कर और हज़ार वर्ष निरामिष भोजन कर भी यदि आत्‍मविकास नहीं होता तो सब जानना व्‍यर्थ। और नियम-निष्‍ठा पर ध्‍यान न रखकर यदि कोई आत्‍मदर्शन कर सके; तो वह अनाचार भी श्रेष्‍ठ नियम-निष्‍ठा है। परंतु आत्‍मदर्शन होने पर भी, लोकसंस्थिति के लिए कुछ नियम-निष्‍ठा मानना है ही उचित है। मुख्‍य बात है मन को एकनिष्‍ठ बनाना। एक विषय में निष्‍ठा होने से मन की एकाग्रता होती है। अर्थात् मन की अन्‍य वृत्तियाँ शांत होकर एक विषय में ही केंद्रित हो जाती हैं। बहुतों का बाहर की नियम-निष्‍ठा या विधि-निषेध के झंझट में ही सारा समय बीत जाता है,

1. पत्रा में लिखा रहता है-'इस वर्ष बीस इंच जल बरसेगा' परंतु पत्रा को निचोड़ने पर एक बूँद जल भी नहीं निकलता। इसी तरह शास्‍त्र में लिखा है, ऐसा-ऐसा करने से ईश्‍वर का दर्शन होता है; वैसा न करके केवल शास्‍त्र के पन्‍ने उलटने से कुछ फल प्राप्‍त नहीं किया जा सकता।

फिर उसके बाद आत्‍म-चिंतन करना नहीं होता। दिन-रात विधि-निषेधों की सीमा से आबद्ध रहने से आत्‍मा का प्रकाश कैसे होगा? जो आत्‍मा का जितना अनुभव कर सका, उसके विधि-निषेध उतने ही शिथिल हो जाते हैं। आचार्य ने भी कहा है, निस्‍त्रैगुण्‍ये पथि विचरतां को विधि: को निषेध: ( तीन गुणों से भिन्‍न मार्ग पर विचरण करने वाले के लिए विधि क्‍या है और निषेध क्‍या है?) अत: मूल वस्‍तु है अनुभूति। उसे ही उद्देश्‍य या लक्ष्‍य जानना मत-पथ रास्‍ता मात्र है। त्‍याग को ही उन्‍नति की कसौटी जानना। जहाँ पर काम-कांचन की आसक्ति कम देखो, वह किसी भी मत या पथ का अनुगामी क्‍यों न हो, जान लो, उसकी आत्‍मानुभूति का द्वार खुल गया है। दूसरी ओर हज़ार नियम-निष्‍ठा मानकर चले, हज़ार श्‍लोक सुने, फिर भी यदि त्‍याग का भाव न आया हो तो जानना जीवन व्‍यर्थ है। अतएव यही अनुभूति प्राप्‍त करने के लिए तैयार हो जा; शास्‍त्र तो बहुत पढ़ा; बोल तो उसमें क्‍या हुआ ? कोई धन की चिंता करते-करते धनकुबेर बन जाता है, और कोई शास्‍त्र-चिंतन करते-करते विद्वान। पर दोनों ही बंधन हैं। परा विद्या प्राप्‍त करके विद्या और अविद्या से परे चला जा।

शिष्‍य-महाराज, आपकी कृपा से मैं सब समझता हूँ; परंतु कर्म के चक्‍कर में पड़कर धारणा नहीं कर सकता।

स्‍वामी जी-कर्म-वर्म छोड़ दे। तूने ही पूर्व जन्‍म में कर्म करके इस देह को प्राप्‍त किया है, यह बात यदि सत्‍य है तो कर्म द्वारा कर्म को कटकर, तू ही फिर इसी देह में जीवन्‍मुक्‍त बनने का प्रयत्‍न क्‍यों नहीं करता ? निश्‍चय जान ले मुक्ति और आत्‍मज्ञान तेरे अपने ही हाथ में हैं। ज्ञान में कर्म का लवलेश भी नहीं, परंतु जो जीवन्मुक्त होकर भी काम करते हैं, समझ लेना, वे दूसरों के हित के लिए ही कर्म करते हैं। वे भले-बुरे परिणाम की ओर नहीं देखते। किसी वासना का बीज उनके मन में नहीं रहता। गृहस्‍थाश्रम में रहकर इस प्रकार यथार्थ परहित के कर्म करना, एक प्रकार से असंभव समझना। समस्‍त हिंदू-शास्त्रों में उस विषय में जनक राजा का ही एक नाम है, परंतु तुम लोग अब प्रतिवर्ष बच्‍चों को जन्‍म देकर घर-घर में विद्रोह 'जनक' बनना चाहते हो।

शिष्‍य-आप ऐसी कृपा कीजिए जिससे आत्‍मानुभूति की प्राप्ति इसी शरीर में हो जाए।

स्‍वामी जी-भय क्‍या है ? मन में अनन्‍या आने पर, मैं निश्चित रूप से कहता हूँ, इस जन्‍म में ही आत्‍मानुभूति हो जाएगी। परंतु पुरुषकार चाहिए क्‍या है, जानता है ? आत्‍मज्ञान प्राप्‍त करके ही रहूँगा; इससे जो बाधा-विपत्ति सामने आएगी, उस पर अवश्‍य ही विजय प्राप्‍त करुँगा-इस प्रकार के दृढ़ संकल्‍प का नाम ही पुरुषकार है। माँ, बाप, भाई, मित्र, स्‍त्री, पुत्र मरते हैं तो मरें, यह देह रहे तो रहे, न रहे तो न सही, मैं किसी भी तरह पीछे न देखूँगा। जब तक आत्‍मदर्शन नहीं होता, तब तक इस प्रकार सभी विषयों की उपेक्षा कर, एक मन से अपने उद्देश्‍य की ओर अग्रसर होने की चेष्टा करने का नाम है पुरुषकार; नहीं है तो दूसरे पुरुषकार तो पशु-पक्षी भी कर रहे हैं। मनुष्‍य ने इस देह को प्राप्‍त किया है केवल उसी आत्‍मज्ञान को प्राप्‍त करने के लिए। संसार में सभी लोग जिस रास्‍ते से जा रहे हैं, क्‍या तू भी उसी स्‍त्रोत में बहकर चला जाएगा? तो फिर तेरे पुरुषकार का मूल्‍य क्‍या ? सब लोग तो मरने बैठे हैं, पर तू तो मृत्‍यु को जीतने आया है। महावीर की तरह अग्रसर हो जा। किसी को परवाह न कर। कितने दिनों के लिए है यह शरीर ? कितने दिनों के लिए यह हैं ये सुख-दु:ख ? यदि मानव शरीर को ही प्राप्‍त किया है तो भीतर की आत्‍मा को जगा और बोल-मैंने अभयपद प्राप्‍त कर लिया है। बोल-मैं वही आत्‍मा हूँ, जिसमें मेरा क्षुद्र 'अहं भाव' डूब गया है। इसी तरह सिद्ध बन जा। उसके बाद जितने दिन यह देह रहे, उतने दिन दूसरों को यह महावीर्यप्रद अभय वाणी सुना-तत्त्वमसि, उत्तिष्‍ठत जाग्रत प्राप्‍य वरान् निबोधत ('तू वही है', उठो जागो और उद्देश्‍य प्राप्‍त करने तक रूको नहीं')। यह होने पर तब जानूँगा कि तू वास्‍तव में एक सच्‍चा 'पूर्वी बंगाली' है।

३५

स्‍थान : बेलूड़ मठ। वर्ष : १९०१ ई॰

शनिवार सायंकाल शिष्‍य मठ में आया है। स्‍वामी जी का शरीर पूर्ण स्‍वस्‍थ नहीं है। वे शिलांग पहाड़ से अस्‍वस्‍थ होकर थोड़े दिन हुए लौटे हैं। उनके पैरों में सूजन आ गई है, और समस्‍त शरीर में मानो जल भर आया है; इसलिए स्‍वामी जी के गुरुभाई बहुत ही चिंतित हैं। बहूबाजार के श्री महानंद वैद्य स्‍वामी जी का इलाज कर रहे हैं। स्‍वामी निरंजनानंद के अनुरोध से स्‍वामी जी ने वैद्य की दवा लेना स्‍वीकार किया है। आगामी मंगलवार से नमक और जल लेना बंद करके नियमित दवा लेनी है-आज रविवार है।

शिष्‍य-ने पूछा-'महाराज, यह विकट गर्मी का मौसम है। इस पार आप प्रति घंटे ४-५ बार जल पीते हैं; जल पीना बंद करके दवा लेना आपके लिए कठिन तो न होगा?'

स्‍वामी जी-तू क्‍या कह रहा है ? दवा लेने के दिन प्रात:काल जल पीने का दृढ़ संकल्‍प करूँगा; उसके बाद क्‍या मजाल है कि जल फिर कण्‍ठ से नीचे उतरे। मेरे संकल्‍प के कारण इक्‍कीस दिन जल फिर नीचे नहीं उतर सकेगा। शरीर तो मन का ही आवरण है। मन जो कहेगा, उसी के अनुसार तो उसे चलना होगा। फिर बात क्‍या है ? निरंजन के अनुरोध से मुझे ऐसा करना पड़ा। उन लोगों का (गुरुभाइयों का) अनुरोध तो मैं टाल नहीं सकता।

दिन के लगभग दस बजे का समय है। स्‍वामी जी ऊपर ही बैठे हैं। स्त्रियों के लिए जो भविष्‍य में मठ तैयार करेंगे, उसके संबंध में शिष्‍य के साथ बातचीत कर रहे हैं। कह रहे हैं, 'माता जी को केंद्र मानकर गंगा के पूर्व तट पर स्त्रियों के मठ की स्‍थापना करनी होगी। इस मठ में भी ब्रह्मचारिणी और साध्‍वी स्त्रियाँ तैयार होंगी।'

शिष्‍य-महाराज, भारत के इतिहास में बहुत प्राचीन काल से भी स्त्रियों के लिए तो किसी मठ की बात नहीं मिलती। बौद्ध युग में ही स्‍त्री-मठों की बात सुनी जाती है। परंतु उसके परिणास्‍वरूप अनेक प्रकार के व्‍यभिचार होने लगे थे। घोर वामाचार से देश भर गया था।

स्‍वामी जी-इस देश में पुरुष और स्त्रियों में इतना अंतर क्‍यों समझा जाता है, यह समझाना कठिन है। वेदांत शास्‍त्र में तो कहा है, एक ही चित् सत्ता सर्वभूत में विद्यमान है। तुम लोग स्त्रियों की निंदा ही करते हो। उनकी उन्‍नति के लिए तुमने क्‍या किया, बोलो तो? स्‍मृति आदि लिखकर, नियम-नीति में आबद्ध करके इस देश के पुरुषों ने स्त्रियों को एकदम बच्‍चा पैदा करने की मशीन बना डाला है। महामाया की साक्षात् मूर्ति-इन स्त्रियों का उत्‍थान न होने से क्‍या तुम लोगों की उन्‍नति संभव है ?

शिष्‍य-महाराज, स्‍त्री-जाति साक्षात् माया की मूर्ति है। मनुष्‍य के अधपतन के लिए ही मानो उनकी सृष्टि हुई है। स्‍त्री-जाति ही माया के द्वारा मनुष्‍य के ज्ञान-वैराग्‍य को आवृत कर देती है। संभव है, इसलिए शास्‍त्रों ने कहा कि उन्‍हें ज्ञान-भक्ति का कभी लाभ न होगा।

स्‍वामी जी-किस शास्त्र में ऐसी बात है कि स्त्रियाँ ज्ञान-भक्ति की अधिक कारिणी नहीं होगी? भारत का अध:पतन उसी समय से हुआ जब ब्राह्मण पंडितों ने ब्राह्मणेतर जातियों को वेदपाठ का अनधिकारी घोषित किया, और साथ ही स्त्रियों के भी सभी अधिकार छीन लिए। नहीं तो, वैदिक युग में, उननिषद् युग में, तू देख कि मैत्रेयी, गार्गी आदि प्रात: स्‍मरणीय स्त्रियाँ ब्रह्म विचार में ऋषितुल्‍य हो गई हैं। हज़ार वेदज्ञ ब्राह्मणों की सभा में गार्गी ने गर्व के साथ याज्ञवल्‍क्‍य को ब्रह्माज्ञान के शास्‍त्रार्थ के लिए आह्वान किया था। इस सब आदर्श विदुषी स्त्रियों को जब उस समय अध्‍यात्‍म ज्ञान का अधिकार था, तब फिर भी स्त्रियों को वह अधिकार क्‍यों न रहेगा? एक बार जो हुआ है, वह फिर अवश्‍य ही हो सकता है। इतिहास की पुनरावृत्ति हुआ करती है। स्त्रियों की पूजा करके सभी जातियाँ बड़ी बनी हैं। जिस देश में, जिस जाति में स्त्रियों की पूजा नहीं, वह देश, वह जाति न कभी बड़ी बन सकी और न कभी बन ही सकेगी। तुम्‍हारी जाति का जो इतना अध:पतन हुआ, उसका प्रधान कारण है इन सब शक्ति-मूर्तियों का अपमान। मनु ने कहा है,यत्र नार्यस्‍तु पूज्‍यस्‍तु रमन्‍ते पत्र देवता: । यत्रैतास्‍तु न पूज्‍यंते सर्वास्‍तत्राफला: क्रिया:।। (जहाँ स्त्रियों का आदर होता है, वहाँ देवता प्रसन्‍न होते है और जहाँ उनका सम्‍मान नहीं होता है, वहाँ समस्‍त कार्य और प्रयत्‍न असफल हो जाते हैं)। जहाँ पर स्त्रियों का सम्‍मान नहीं होता, वे दु:खी रहती हैं; उस परिवार की, उस देश की उन्‍नति की आशा नहीं की जा सकती। इसलिए इन्‍हें पहले उठाना होगा। इनके लिए आदर्श मठ को स्‍थापना करनी होगी।

शिष्‍य-महाराज, प्रथम बार देश से लौट कर आपने स्‍टार थियेटर में भाषण देते हुए तंत्र की कितनी निंदा की थी। अब फिर तंत्रों द्वारा प्रतिपादित स्‍त्री पूजा का समर्थन कर आप अपनी ही बात बदल रहे हैं।

स्‍वामी जी-तंत्र का वामाचार मत बदलकर इस समय उसका जो रूप हो गया है, उसी की मैंने निंदा की थी। तंत्रोक्त मातृभाव की अथवा यथार्थ वामाचार की मैंने निंदा नहीं की। भगवती मानकर स्त्रियों की पूजा करना ही तंत्र का उद्देश्‍य है। बौद्ध धर्म के अध: पतन के समय वामाचार घोर दूषित हो गया है। वही दूषित भाव आजकल के वामाचार में विद्यमान है। अब भी भारत के तंत्रशास्‍त्र उसी भाव से प्रभावित हैं। उन सब वीभत्‍स प्रथाओं की ही मैंने निंदा की थी, अब भी करता हूँ। जिस महामाया का रूपरसात्‍मक बाह्य विकास मनुष्‍य को पागल बनाये रखता है, जिस माया का ज्ञान-भक्ति विवेक वैराग्‍यात्मक अंतर्विकास मनुष्‍य को सर्वज्ञ, सिद्धसंकल्‍प, ब्रह्मज्ञ बना देता है-उन प्रत्यक्ष मातृरूपा स्त्रियों की पूजा करने का निषेध मैंने कभी नहीं किया। सैषा प्रसन्‍ना वरदा नृणां भवति मुक्‍तये-(प्रसन्‍न होने पर वह वर देनेवाली तथा मनुष्‍यों की मुक्ति का कारण होती है)-इस महामाया को पूजा, प्रमाण द्वारा प्रसन्‍न न कर सकने पर क्या मजाल है कि ब्रह्मा, विष्‍णु तक उनके पंजे से छूटकर मुक्‍त हो जायँ? गृहलक्ष्मियों की पूजा के उद्देश्‍य से, उनमें ब्रह्मविद्या के विकास के निमित्त उनके लिए मठ बनवाकर जाऊँगा।

शिष्‍य-हो सकता है कि आपका यह संकल्‍प अच्‍छा है, परंतु स्त्रियाँ कहाँ से मिलेंगी ? समाज के बड़े बंधन के रहते कौन कुलवधुओं को स्‍त्री-मठ में जाने की अनुमति देगा ?

स्‍वामी जी-क्‍यों रे? अभी भी श्री रामकृष्‍ण की कितनी ही भक्तिमती लड़कियाँ हैं। उनमें स्‍त्री-मठ का प्रारंभ करके जाऊँगा। श्री माता जी उनका केंद्र बनेंगी। श्री रामकृष्‍ण देव के भक्तों की स्‍त्री-कन्‍याएँ आदि उसमें पहले-पहल निवास करेंगी, क्‍योंकि वे उस प्रकार के स्‍त्री-मठ की उपकारिता आसानी से समझ सकेंगी। उसके बाद उन्‍हें देखकर अन्‍य गृहस्‍थ लोग भी इस महत्‍कार्य के सहायक बनेंगे।

शिष्‍य-श्री रामकृष्‍ण ने भक्तगण इस कार्य में अवश्‍य ही सम्मिलित होंगे; परंतु साधारण लोग इस कार्य में सहायक बनेंगे, ऐसा सरल प्रतीत नहीं होता।

स्‍वामी जी-जगत् का कोइ भी महान् कार्य त्याग के बिना नहीं हुआ। वट वृक्ष का अंकुर देखकर कौन समझ सकता है कि समय आने पर वह एक विराट वृक्ष बनेगा ? अब तो इसी रूप में मठ की स्‍थापना करूँगा। फिर देखना, एकाध पीढ़ी के बाद दूसरे सभी देशवासी इस मठ की कद्र करने लगेंगे। ये जो विदेशी स्त्रियाँ मेरी शिष्‍या बनी हैं, ये ही इस कार्य में जीवन उत्‍सर्ग करेंगी। तुम लोग भय और कापुरुषता छोड़कर इस कार्य में लग जाओ और इस उच्‍च आदर्श को सभी के सामने रख दो। देखना, समय पर इसकी प्रभा से देश उज्‍ज्‍वल हो उठेगा।

शिष्‍य-महाराज, स्त्रियों के लिए किस प्रकार मठ का बनाना चाहते हैं, कृपया विस्‍तार के साथ मुझे बतलाइए। मैं सुनने के लिए विशेष उत्‍कंठित हूँ। स्‍वामी जी-गंगा के उस पर एक विस्‍तृत भूमिखंड लिया जाएगा। उसमें अविवाहित कुमारियाँ रहेंगी। तथा विधवा ब्रह्मचारिणी भी रहेंगी। साथ ही गृहस्थ घर की भक्तिमती स्त्रियाँ भी बीच-बीच में आकर ठहर सकेंगी। इस मठ से पुरुषों का किसी प्रकार संबंध नहीं रहेगा। पुरुष मठ के वृद्ध साधुगण दूर से स्त्री मठ का काम चलायेंगे। स्‍त्री मठ में लड़कियों का एक स्‍कूल रहेगा। उसमें धर्मशास्‍त्र, साहित्‍य, संस्‍कृत, व्‍याकरण और साथ ही थोडुी बहुत अंग्रेज़ी भी सिखायी जाएगी। सिलाई का काम, रसोई बनाना, घर-गृहस्‍थी के सभी नियम तथा शिशु पालने के मोटे-मोटे विषयों की शिक्षा भी दी जाएगी। साथ ही जप, ध्‍यान, पूजा ये सब तो शिक्षा के अंग रहेंगे ही। जो स्त्रियाँ घर छोड़कर हमेंशा के लिए यहीं रह सकेंगी, उनके भोजन-वस्‍त्र का प्रबंध मठ की ओर से किया जाएगा। जो ऐसा नहीं कर सकेंगी, वे इस मठ में दैनिक छात्राओं के रूप में आकर अध्‍ययन कर सेंगी। यदि संभव होगा तो मठ के अध्‍यक्ष की अनुमति से वे यहाँ पर रहेंगी और जितने दिन रहेंगी, भोजन भी पा सकेंगी। स्त्रियों से ब्रह्मचर्य का पालन कराने के लिए वृद्धा ब्रह्मचारिणी छात्राओं की शिक्षा का भार लेंगी। इस मठ में ५-७ वर्ष तक शिक्षा प्राप्‍त करने के उप्रांत लड़कियों का विवाह उनके अभिभावक कर सकेंगे। यदि कोई अधिकारिणी समझी जाएगी तो अपनी अभिभावकों की सम्‍मति लेकर वह वहाँ पर चिर कौमार्यव्रत का पालन करती हुई ठहर सकेगी। जो स्त्रियाँ चिर कौमार्य व्रत का अवलंबन करेंगी, वे ही समय पर मठ की शिक्षिकाएँ तथा प्रचारिकाएँ बन जायँगी और गाँव-गाँव, नगर-नगर में शिक्षा केंद्र खोलकर स्त्रियों की शिक्षा के विस्‍तार की चेष्‍टा करेंगी। चरित्रशीला एवं धर्मभावापन्‍ना प्रचारिकाओं द्वारा देश में यथार्थ स्‍त्री-शिक्षा का प्रसार होगा। वे स्‍त्री-मठ के सम्पर्क में जितने दिन रहेंगी, उतने दिन तक ब्रह्मचर्य की रक्षा करना इस मठ का अनिवार्य नियम होगा। धर्मपरायणता, त्‍याग और संयम यहाँ की छात्राओं के अलंकार होंगे और सेवा-धर्म उनके जीवन का व्रत होगा। इस प्रकार आदर्श जीवन को देखकर कौन उनका सम्‍मान न करेगा ? और कौन उन पर अविश्‍वास करेगा? देश की स्त्रियों का जीवन इस प्रकार गठित हो जाने पर ही तो तुम्‍हारे देश में सीता, सावित्री, गार्गी का फिर से आविर्भाव हो सकेगा ? देशाचार के घोर बंधन से प्राणहीन, स्पंदनहीन बनकर तुम्‍हारी लड़कियाँ कितनी दयनीय बन गई हैं, यह तू एक बार पाश्‍चात्‍य देशों की यात्रा करने पर ही समझ सकेगा। स्त्रियों की इस दुर्दशा के लिए तुम्‍हीं लोग जिम्‍मेदार हो। देश की स्त्रियों को फिर से जाग्रत करने का भार भी तुम्‍ही पर है। इसलिए तो मैं कह रहा हूँ कि बस काम में लग जा; क्‍या होगा व्‍यर्थ में केवल कुल-वेदांत को रट कर?

शिष्‍य-महाराज, यहाँ पर शिक्षा प्राप्‍त करने के बाद भी यदि लड़कियाँ विवाह कर लेंगी तो फिर उनमें लोग आदर्श जीवन कैसे देख सकेंगे? क्‍या यह नियम अच्‍छा न होगा कि जो छात्राएँ इस मठ में शिक्षा प्राप्‍त करेंगी, वे फिर विवाह न कर सकेंगी? स्‍वामी जी-ऐसा एक कदम ही होता है रे? शिक्षा देकर छोड़ देना होगा। उसके पश्‍चात् वे स्‍वयं ही सोच-समझकर जो उचित होगा, करेंगी। विवाह करके गृहस्‍थी में लग जाने पर भी वैसी लड़कियाँ अपने पतियों को उच्‍च भाव की प्रेरणा देंगी और वीर पुत्रों की जननी बनेंगी। परंतु यह नियम रखना होगा कि स्‍त्री मठ की छात्राओं के अभिभावक १५ वर्ष की अवस्‍था के पूर्व उनके विवाह का नाम नहीं लेंगे। शिष्‍य-महाराज, फिर तो समाज उन सब लड़कियों की निंदा करने लगेगा। उनसे कोई भी विवाह करना न चाहेगा।

स्‍वामी जी-क्‍यों नहीं ? तू समाज की गति को अभी तक समझ नहीं सका। इन सब विदुषी और कुशल लड़कियों को वरों की कमी न होगी। दशमें कन्‍यका-प्राप्ति इन सब वचनों पर आजकल समाज नहीं चल रहा है-चलेगा भी नहीं। आज भी देख नहीं रहा है ?

शिष्‍य-आप चाहें जो कहें, परंतु पहले-पहल इनके विरुद्ध एक प्रबल आंदोलन अवश्‍य होगा।

स्‍वामी जी-आंदोलन का क्‍या भय? सात्विक साहस से किये गए सत्‍कर्म में बाधा आने पर कार्य करनेवालों की शक्ति और भी जाग उठेगी। जिसमें बाधा नहीं, विरोध नहीं, वह मनुष्‍य को मृत्‍यु-पथ पर ले जाता है। संघर्ष ही जीवन का चिह्न है, समझा?

शिष्‍य-जी हाँ।

स्‍वामी जी-परब्रह्म तत्‍व में लिंगभेद नहीं। हमें 'मैं-तुम' की भूमि में लिंग-भेद दिखायी देता है। फिर मन जितना ही अंतर्मुख हो जाता है, उतना ही वह भेदज्ञान लुप्‍त हो जाता है। अंत में, जब मन एकरस ब्रह्म-तत्‍व में डूब जाता है, तब फिर यह स्‍त्री, वह पुरुष-आदि का ज्ञान बिल्‍कुल नहीं रह जाता। हमने श्री रामकृष्‍ण में यह भाव प्रत्यक्ष देखा। इसलिए मैं कहता हूँ कि स्‍त्री-पुरुषों में ब्रह्म भेद रहने पर भी स्‍वरूप में कोई भेद नहीं। अत: यदि पुरुष ब्रह्ज्ञन बन सके तो स्त्रियाँ क्‍यों न ब्रह्मज्ञ बन सकेंगी? इसलिए कहा रहा था, स्त्रियों में समय आने पर यदि एक भी ब्रह्मज्ञ बन सकी तो उसकी प्रतिभा से हज़ारों स्त्रियाँ जाग उठेगी और देश तथा समाज का कल्‍याण होना, समझा?

शिष्‍य-महाराज, आपके उपदेश से आज मेरी आँखें खुल गई हैं।

स्‍वामी जी-अभी क्‍या खुली हैं। आज सब कुछ उद्भासित करनेवाले आत्‍मतत्‍व को प्रत्‍यक्ष करेगा, तब देखेगा, यह स्‍त्री-पुरुष भेद ज्ञान एकदम लुप्‍त हो गया है। तभी‍ स्त्रियाँ ब्रह्मरूपिणी ज्ञात होंगी। श्री रामकृष्‍ण को देखा है-सभी स्त्रियों के प्रति मातृभाव, फिर वह किसी भी जाति की कैसी भी स्‍त्री न हों। मैंने देखा है न, इसीलिए इतना समझाकर तुम लोगों को वैसा ही बनने को कहता हूँ और लड़कियों के लिए गाँव-गाँव में पाठशालाएँ खोलकर उन्‍हें शिक्षित बनाने के लिए कहता हूँ। स्त्रियाँ जब शिक्षित होंगी तभी तो उनकी संतानों द्वारा देश का मुख उज्‍ज्‍वल होगा और देश में विद्या, ज्ञान, शक्ति, भक्ति जाग उठेगी।

शिष्‍य-परंतु हमारे मैं जहाँ तक समझता हूँ आधुनिक शिक्षा का ही विपरीत फल हो रहा है। लड़कियाँ थोड़ा-बहुत पढ़ लेती हैं और बस, कमीज गाऊन पहनना सीख जाती हैं। त्‍याग, संयम, तपस्‍या ब्रह्मचर्य आदि ब्रह्मविद्या प्राप्‍त करने योग्‍य विषयों में क्‍या उन्‍नति हो रही है, यह समझ में नहीं आता।

स्‍वामी जी-पहले-पहल ऐसा हुआ करता है। देश में नए भाव का पहले-पहल प्रचार करते समय कुछ लोग उस भाव को ठीक ग्रहण नहीं कर सकते। इससे विराट समाज का कुछ नहीं बिगड़ता; परंतु जिन लोगों ने आधुनिक साधारण स्‍त्री-शिक्षा के लिए प्रारंभ में प्रयत्‍न किया था, उनकी महानता में क्‍या संदेह। असल बात है, शिक्षा हो अथवा दीक्षा, धर्महीन होने पर उसमें त्रुटि रह जाती है। अब धर्म को केंद्र बनाकर स्‍त्री-शिक्षा का प्रचार करना होगा धर्म के अतिरिक्‍त दूसरी शिक्षाएँ गौण होंगी। धर्मशिक्षा, चरिद्ध-गठन तथा ब्रह्मचर्य पालन इन्‍हीं के लिए तो शिक्षा की आवश्‍यकता है। वर्तमान काल में आज तक भारत में स्‍त्री-शिक्षा का जो प्रचार हुआ है, उसमें धर्म की ही गौण बनाकर रखा गया है। तूने जिन सब दोषों का उल्‍लेख किया, वे इसी कारण उत्पन्न हुए। परंतु इसमें स्त्रियों का क्‍या दोष है,? संस्‍कार स्‍वयं ब्रह्मज्ञ न बनकर स्‍त्री-शिक्षा देने के लिए अग्रसर हुए थे, इसीलिए उसमें इस प्रकार की त्रुटियाँ रह गयीं। सभी सत्कार्यों के प्रवर्तकों को अभीप्सित कार्य के अनुष्‍ठान के पूर्व कठोर तपस्‍या की सहायता से आत्‍मज्ञ हो जाना चाहिए, नहीं तो उनके काम में गलतियाँ निकलेंगी ही। समझा?

शिष्‍य-जी हाँ। देखा जाता है, अनेक शिक्षित लड़कियाँ केवल नाटक, उपन्‍यास पढ़कर ही समय बिताया करती हैं; परंतु पूर्व बंग में लड़कियाँ शिक्षा प्राप्‍त करके भी नाना व्रतों का अनुष्‍ठान करती हैं। इस भाग में भी क्‍या वैसा ही करती हैं ?स्‍वामी जी-भले-बुरे लोग तो सभी देशों तथा सभी जातियों में हैं। हमारा काम है, अपने जीवन में अच्‍छे काम करके लोगों के सामने उदाहरण रखना। निंदा करके कोई काम सफल नहीं होता। केवल लोग बहक जाते हैं। लोग तो चाहे कहें, विरूद्ध तर्क किसी को हराने की चेष्‍टा न करना। इस माया के जगत् में जो कुछ करेगा, उसमें दोष रहेगा ही-सर्वारम्‍भा हि दोषेण धूमेनाग्नि-रिवावृता: (धुआँ से आवृत अग्नि के समान सभी कार्य दोषु युक्‍त होते हैं)-आग रहने से ही धुआँ उठेगा। परंतु क्‍या इसीलिए निश्‍चेष्‍ट होकर बैठे रहना चाहिए? नहीं, शक्ति भर सत्‍कार्य करते ही रहना होगा।

शिष्य-महाराज, अच्‍छा काम है ?

स्‍वामी जी-जिससे ब्रह्म के विकास में सहायता मिलती है, वही अच्‍छा काम है। प्रत्‍येक कार्य से प्रत्‍यक्ष न हो, परोक्ष रूप से आत्‍म-तत्‍व के विकास के सहायक रूप में किया जाता है। परंतु ऋषियों द्वारा चलाये हुए पथ पर चलने से वह आत्‍मज्ञान शीघ्र ही प्रकट हो जाता है और जिन कार्यों को शास्‍त्रों ने अन्‍याय कहा है, उन्‍हें करने से आत्‍मा के लिए बंधन होता है, जिससे कभी-कभी तो जन्‍म-जन्मांतर में भी वह मोह नहीं कटता। परंतु यह स्‍मरण रखना चाहिए कि जीव की मुक्ति सभी देशों तथा कालों में अवश्यंभावी है, क्‍योंकि आत्‍मा ही जीव का वास्‍तविक स्‍वरूप है। अपना स्‍वरूप क्‍या कोई स्‍वयं छोड़ सकता है ? अपनी छाया के साथ तू हज़ार वर्ष लड़कर भी क्या उसको भगा सकता है? वह तेरे साथ रहेगी ही।

शिष्‍य-परंतु महाराज, आचार्य शंकर के मतानुसार कर्म भी ज्ञान का विरोधी है-उन्‍होंने ज्ञान-कर्म समुच्‍चय का बार-बार खंडन किया है। अत: कर्म ज्ञान का प्रकाश कैसे बन सकता है।

स्‍वामी जी-आचार्य शंकर ने वैसा कहकर फिर ज्ञान के विकास के लिए कर्म को आपेक्षिक सहायक तथा चित्तशुद्धि का उपाय बताया है, परंतु विशुद्ध ज्ञान में कर्म का प्रवेश नहीं है। मैं भाष्‍यकर के इस सिद्धांत का प्रतिवाद नहीं कर रहा हूँ। जितने दिन मनुष्‍य को क्रिया, कर्ता और कर्म का ज्ञान रहेगा, उतने दिन क्‍या मजाल कि वह काम न करते हुए बैठा रहे ? अत: जब कर्म ही जीव का सहायक सिद्ध हो रहा है तो जो सब कर्म इस आत्‍मज्ञान के विकास के लिए सहायक हैं, उन्‍हें क्‍यों नहीं नहीं करता रहे? कर्म मात्र ही भ्रमात्‍मक है-यह बात पारमार्थिक रूप से यथार्थ होने पर भी व्‍यावहारिक रूप से कर्म की विशेष उपयोगिता रही है। तू जब आत्‍म-तत्‍व को प्रत्यक्ष कर लेगा, तब कर्म करना या न करना तेरी इच्‍छा के अधीन बन जाएगा। उस स्थिति में तू जो कुछ करेगा, वही सत्‍कर्म बन जाएगा। इससे जीव और जगत् दोनों का कल्‍याण होगा। ब्रह्म का विकास होन पर तेरे श्‍वास प्रश्‍वास की तरंगे तक जीव की सहायक हो जाएंगे। उस समय फिर किसी विशेष योजना पूर्वक कर्म करना नहीं पड़ेगा, समझा ?

शिष्य-अहा। यह तो वेदांत के कर्म और ज्ञान का समन्‍वय करने वाली बड़ी सुंदर मीमांसा है।

इसके पश्‍चात् नीचे प्रसाद पाने की घंटी बजी और स्‍वामी जी ने शिष्‍य को प्रसाद पाने के लिए जाने को कहा। शिष्‍य ने भी स्‍वामी जी के चरण-कमलों में प्रणाम करके जाने के पूर्व हाथ जोड़कर कहा, 'महाराज, आपके स्‍नेहाशीर्वाद से इसी जन्‍म में मुझे ब्रह्मज्ञान हो जाए।' स्‍वामी जी ने शिष्‍य के मस्‍तक पर हाथ रखकर कहा, 'भय क्या बेटे ? तुम लोग क्‍या अब भी इस जगत् के रह गए हो ?-न गृहस्‍थ, न संन्‍यासी-यह एक नया ही रूप हो।'

 

३६

[स्‍थान : बेलूड़ मठ। वर्ष : १९०१ ई॰]

स्‍वामी जी का शरीर कुछ अस्‍वस्थ है। स्‍वामी निरंजनानंद के विशेष अनुरोध से स्‍वामी जी आज ५-७ दिन से वैद्य की दवा ले रहे हैं; इस दवा में जल पीना बिल्‍कुल मना है। केवल दूध पीकर प्‍यास बुझानी पड़ रही है।

शिष्‍य-प्रात: काल ही मठ में आया है। स्‍वामी जी के चरण-कमलों के दर्शन की इच्‍छा से वह ऊपर गया। वे उसे देखकर स्‍नेहपूर्वक बोले, 'आ गया। अच्‍छा हुआ; मेरी ही बात सोच रहा था।'

शिष्‍य-महाराज, सुना है, आप पाँच-सात दिनों से केवल दूध पीकर ही रहते हैं?

स्‍वामी जी-हाँ, निरंजन के प्रबल आग्रह से वैद्य की दवा लेनी पड़ी। उनकी बात तो मैं टाल नहीं सकता।

शिष्‍य-आप तो घंटे में पाँच छ: बार जल पिया करते थे, उसे एकदम कैसे त्‍याग दिए?

स्‍वामी जी-जब मैंने सुना कि इस दवा का सेवन करने से जल बंद कर देना होगा, तब दृढ़ संकल्‍प कर लिया कि जल न पिऊँगा। अब फिर जल की बात मन में भी नहीं आती।

शिष्‍य-दवा से रोग की शांति तो हो रही है न?

स्‍वामी जी-शांति आदि तो नहीं जानता। गुरुभाइयों की आज्ञा का पालन किये जा रहा हूँ।

शिष्‍य-संभव है, देशी आयुर्वेदिक दवाएँ हमारे शरीर के लिए अधिक उपयोगी होती हों।

स्‍वामी जी-परंतु मेरी राय है कि किसी आधुनिक चिकित्‍सा-विशारद के हाथ से मरना भी अच्‍छा है। अनाड़ी लोग, जो वर्तमान शरीर-विज्ञान का कुछ भी ज्ञान नहीं रखते, केवल प्राचीन काल के पोथी-पत्रों की दुहाई देकर अँधेरे में दाँव लगा रहे है, यदि उन्‍होंने दो-चार रोगियों को अच्‍छा कर भी दिया तो भी उसके हाथ से रोगमुक्‍त होने की आशा करना व्‍यर्थ है।

इसके पश्चात स्‍वामी जी ने अपने हाथ से कुछ खाद्य द्रव्‍य पकाये। उसमें से एक सेमई थी। शिष्‍य ने इस जन्‍म में कभी सेमई नहीं खायी थी। पूछने पर स्‍वामी जी ने कहा, 'वे विलायती केचुवे हैं। मैं लन्दन से सुखाकर लाया हूँ।' मठ के संन्‍यासी हँस पड़े। शिष्‍य यह हँसी न समझ कुछ झेंपा हुआ सा बैठा रहा। वैद्यराज की दवा के साथ नियमों का पालन करने के लिए अब स्‍वामी जी का आहार अत्यंत अल्‍प हो गया था और नींद तो बहुत दिनों से उन्‍हें एक प्रकार से छोड़ ही बैठी थी; परंतु इस अनाहार, अनिद्रा में भी स्‍वामी जी को विश्राम नहीं है। कुछ दिन हुए मठ में नया अंग्रेज़ी विश्‍वकोष (Encyclopedia Britannica) खरीदा गया है। नई चमकीली पुस्‍तकों को देखकर शिष्‍य ने स्‍वामी जी से कहा, 'इतनी पुस्तकें एक जीवन में पढ़ना तो कठिन है।' उस समय शिष्‍य नहीं जानता था कि स्‍वामी जी ने उन पुस्‍तकों के दस खंडों का इसी बीच में अध्‍ययन समाप्‍त करके ग्‍यारहवाँ खंड प्रारंभ कर दिया है।

स्‍वामी जी-क्‍या कहता है? इस दस पुस्‍तकों में से मुझसे जो चाहे पूछ ले-सब बता दूँगा।

शिष्‍य ने विस्मित होकर पूछा, 'क्‍या आपने इन सभी पुस्‍तकों को पढ़ लिया है?'

स्‍वामी जी-क्‍या बिना पढ़े ही कह रहा हूँ ?

इसके अनंतर स्‍वामी जी का आदेश पाकर शिष्‍य उन सब पुस्‍तकों से चुन-चुनकर कठिन विषयों को पूछने लगा। आश्‍चर्य है-स्‍वामी जी ने उन सब विषयों का मर्म तो कहा ही, पर स्‍थान-स्‍थान पर पुस्‍तक की भाषा तक उद्धृत की। शिष्‍य ने उस विराट दस खंड की पुस्‍तकों में से प्रत्येक खंड से दो-एक विषय पूछे और सभी स्‍वामी जी की असाधारण बुद्धि तथा स्‍मरण-शक्ति देख विस्मित होकर पुस्‍तकों को उठाकर रखते हुए उसने कहा, 'यह मनुष्‍य की शक्ति नहीं।'

स्‍वामी जी-देखा, एकमात्र ब्रह्मचर्य का ठीक-ठीक पालन कर सकने पर सभी विद्याएँ क्षण भर में याद हो जाती हैं-मनुष्‍य श्रुतिधर, स्‍मृतिधर बन जाता है। ब्रह्मचर्य के अभाव से ही हमारे देश का सब कुछ नष्‍ट हो गया।

शिष्‍य-महाराज, आप जो भी कहें, केवल ब्रह्मचर्य रक्षा के परिणाम से इस प्रकार अलौकिक शक्ति का स्‍फुरण कभी संभव नहीं, इसके लिए और भी कुछ चाहिए।

उत्तर में स्‍वामी जी ने कुछ नहीं कहा।

इसके बाद स्‍वामी जी सब दर्शनों के कठिन विषयों के विचार और सिद्धांत शिष्‍य को सुनाने लगे। ह्दय में उन सिद्धांतों को प्रविष्‍ट करा देने के ही लिए मानो आज वे इस सिद्धांतों की उस प्रकार विशद व्‍याख्‍या करके समझाने लगे। यह वार्तालाप हो ही रहा था कि स्‍वामी ब्रह्मानंद ने स्‍वामी जी के कमरे में प्रवेश करके शिष्‍य से कहा, 'तू तो अच्‍छा आदमी है। स्‍वामी जी का शरीर अस्‍वस्‍थ है; अपने संभाषण द्वारा स्‍वामी जी के मन को प्रफुल्लित करने के बदल, तू उन सब कठिन प्रसंगों को उठाकर स्‍वामी जी से व्‍यर्थ की बात कर रहा है।' शिष्‍य लज्जित होकर अपनी भूल समझ गया। परंतु स्‍वामी जी ने ब्रह्मानंद महाराज से कहा, 'ले रख दे अलग अपने वैद्य के नियम। ये लोग मेरी संतान हैं। इन्‍हें सदुपदेश देते-देते यदि मेरी देह भी चली जाए तो क्‍या हानि।' परंतु शिष्‍य उसके पश्‍चात फिर कोई दार्शनिक प्रश्‍न करके, पूर्व बंग की भाषा पर हँसी करने लगा। स्‍वामी जी भी शिष्य के साथ उसमें सम्मिलित हो गए। थोड़ी देर तक यही हुआ और फिर बंग साहित्य में भारतचन्द्र के स्‍थान के संबंध में चर्चा शुरू हुई। उस संबंध में थोड़ा-बहुत जो कुछ याद है, उसका यहाँ पर उल्‍लेख कर रहा हूँ।

पहले स्‍वामी जी ने भारतचन्द्र को लेकर हँसी करना शुरू की और उस समय के सामाजिक आचार, व्‍यवहार, विवाह-संस्‍कार आदि की भी अनेक प्रकार से हँसी उड़ाने लगे। उन्‍होंने कहा कि समाज में बाल-विवाह प्रथा को चलाने के पक्षपाती भारतचन्द्र की कुरुचि तथा उनके अश्‍लीलतापूर्ण काव्‍य आदि बंगदेश के सिवाय अन्‍य किसी देश के सभ्‍य समाज में ऐसे मान्‍य नहीं हुए। कहा कि लड़कों के हाथ में यह पुस्‍तक न पहुँचे, ऐसा प्रयत्‍न करना चाहिए। फिर माइकेल मधुसूदन दत्त की बात चलाकर कहने लगे, 'वह एक अपूर्व मनस्‍वी व्‍यक्ति तुम्हारे देश में पैदा हुए थे। 'मेघनाद-वध' की तरह दूसरा काव्‍य बांग्ला भाषा में तो है ही नहीं, समस्‍त यूरोप में भी वैसा कोई काव्‍य आजकल मिलना कठिन है।'

शिष्य ने कहा, 'परंतु महाराज , माइकेल को शायद शब्‍दाडंबर बहुत प्रिय है।'

स्‍वामी जी-तुम्हारे देश में कोई कुछ नई बात करें तो तुम लोग उसके पीछे पड़ जाते हैं। पहले अच्‍छी तरह देखो कि वह आदमी क्‍या कर रहा है। पर ऐसा न करके ज्‍यों ही किसी में कोई नई बात दिखायी दी कि लोग उसके पीछे पड़ गए। वह 'मेंघनाद-वध' जो तुम्‍हारी बांग्ला भाषा का मुकुटमणि है, उसे नीचा दिखाने के लिए एक 'छछूंदर-वध' काव्‍य लिखा गया। पर इससे हुआ क्‍या? करता रहे जो कोई जा कुछ चाहे? वही 'मेघनाद-वध' काव्‍य अब हिमालय की तरह अटल होकर खड़ा है; परंतु उसमें दोष निकालने में जो लोग व्‍यस्‍त थे, उन सब समालोचकों के मत और लेख अब न जाने कहाँ बह गए, उसे साधारण लोग क्‍या समझेंगे। इसी प्रकार यह जो जी.सी. आजकल नए छंदों में अनेकानेक उत्‍कृष्‍ट पुस्‍तकें लिख रहा है, उनकी भी तो तुम्‍हारे बुद्धिमान पंडितगण कितनी समालोचना कर रहे हैं-दोष निकाल रहे हैं पर क्या जी.सी. उसकी परवाह करता है? समय आने पर ही लोग उन सब पुस्‍तकों को मूल्‍य समझेंगे।

इस प्रकार माइकेल की बात चलते-चलते उन्‍होंने कहा-, 'जा, नीचे लाइब्रेरी से 'मेघनाद-वध' काव्‍य तो ल आ।' शिष्‍य मठ की लाइब्रेरी से 'मेंघनाद-वध' काव्‍य ले आया और उसे लेकर स्‍वामी जी ने कहा, 'पढ़ा देखूँ तो कैसा पढ़ता है।'

शिष्‍य पुस्‍तक लेकर प्रथम सर्ग का कुछ अंश यथासमय पढ़ने लगा, परंतु उसका पढ़ना स्‍वामी जी को रुचिकर न लगा। अतएव उन्‍होंने उस अंश को स्‍वयं पढ़कर बताया और शिष्‍य से फिर उसे पढ़ने के लिए कहा। अब शिष्‍य को बहुत कुछ सफल होते देख उन्होंने प्रसन्‍न होकर पूछा, 'बोल तो, इस काव्‍य का कौन अंश सर्वोत्‍कृष्‍ट है?'

शिष्य उत्तर देने में असमर्थ होकर चुपचाप बैठा है, यह देखकर स्‍वामी जी ने कहा, 'जहाँ पर इंद्रजित युद्ध में निहित हुआ है-मंदोदरी शोक से कातर होकर रावण को युद्ध में जाने से रोक रही है, परंतु रावण पुत्र-शोक को मन से जबरदस्‍ती हटाकर महावीर की तरह युद्ध में जाना निश्‍चय कर प्रतिहिंसा और क्रोध की आग में स्‍त्री-पुत्र सब भूलकर युद्ध के लिए बाहर जाने को तैयार है-वही है काव्‍य की श्रेष्‍ठ कल्‍पना। चाहे जो हो, पर मैं अपना कर्तव्‍य नहीं भूल सकता; फिर दुनिया रहे या जाल-यही है महावीर का वाक्‍य। माइकेल ने इसी भाव से अनुप्राणित होकर काव्‍य के उस अंश को लिखा था।'

ऐसा कहकर स्‍वामी जी ग्रंथ खोलकर उस अंश को पढ़ने लगे। स्‍वामी जी की वह वीर-दर्प व्‍यंजक पाठ-शैली आज भी शिष्‍य के मन में ज्‍वलंत रूप में प्रत्‍यक्ष है।

३७

स्‍थान : बेलूड़ मठ। वर्ष: १९०१ ई॰

स्‍वामी जी अभी कुछ अस्‍वस्‍थ हैं। कविराज की दवा से काफी लाभ हुआ है। एक मास से अधिक समय तक केवल दूध पीकर रहने के कारण स्‍वामी जी के शरीर से आजकल मानो चन्दमा की सी कान्ति प्रस्‍फुटित हो रही है और उनके बड़े-बड़े नेत्रों की ज्‍योति और भी अधिक बढ़ गई है।

आज दो दिन से शिष्‍य मठ में ही है और शक्ति भर स्‍वामी जी की सेवा कर रहा है। आज अमावस्या है। निश्चित हुआ है कि शिष्‍य और स्‍वामी निर्भयानंद जी रात को बारी-बारी से स्‍वामी जी की सेवा का भार लेंगे। संध्‍या हो रही है, स्‍वामी जी की चरण-सेवा करते-करते शिष्‍य ने पूछा-'महाराज,जो आत्‍मा सर्वज्ञ सर्वव्‍यापी, अणु-परमाणु में विद्यमान रहकर तथा जीव के प्राणों का प्राण बनकर उसके इतने निकट है, उसका अनुभव क्‍यों नहीं होता?'

स्‍वामी जी-क्‍या तू जानता है कि तेरी आँखें है? जब कोई आँख की बात करता है उस समय 'मेरी आँख है' इस प्रकार की कोई धारणा होती है; परंतु आँख में धूल पड़ने पर जब आँख किरकिराती है, तब यह ठीक ठीक समझा जाता है कि हाँ, आँख है। इसी प्रकार निकट से निकट होने पर भी यह विराट आत्‍म सरलता से समझ में नहीं आती। शास्‍त्र या गुरु के मुख से सुनकर कुछ-कुछ धारणा अवश्‍य होती है। परंतु जब संसार के तीव्र शोक-दु:ख के कठोर आघात से ह्दय व्‍यथित होता है, जब स्‍वजनों के वियोग द्वारा जीव अपने को अवलंबन शून्‍य अनुभव करता है, जब भविष्‍य जीवन के अलंध्‍य, दूर्भेद्य अंधकार में उसका प्राण घबड़ा उठता है, उसी समय जी इस आत्‍मा के दर्शन के लिए उन्मुख होता है। दु:ख आत्‍म-ज्ञान का सहायक इसीलिए है; परंतु धारणा रहनी चाहिए। दु:ख पाते-पाते कुत्ते-बिल्लियों की तरह जो लोग मरते हैं, क्‍या वे भी मनुष्‍य हैं? सच्‍चे मनुष्‍य वहीं हैं जो इस सुख-दु:ख के द्वंद्व-प्रतिघातों तंग आकर भी विवेक के बल पर उन सभी को क्षणिक मान आत्‍-प्रेम में मग्‍न रहते हैं। मनुष्‍य तथा दूसरे जीव-जानवरों में यही भेद हैं। जो चीज़ जितनी निकट होती है, उसकी उतनी ही कम अनुभूति होती है। आत्‍मा निकट से निकट है, इसीलिए असंयत चंचलचित्त जीव उसे समझ नहीं पाते। परंतु जिनका मन वश में है, ऐसे शांत और जितेंद्रिय विचारशील पर इस आत्‍मा की महिमा की उपलब्धि कर गौरवान्वित हो जाते हैं। उसी समय वे आत्‍म-ज्ञान प्राप्‍त करते हैं और 'मैं ही वह आत्‍मा हूँ', तत्‍त्मसि श्‍वेतकेतो आदि वेद के महावाक्‍यों का प्रत्‍यक्ष अनुभव कर लेते हैं। समझा?

शिष्‍य-जी हाँ। परंतु महाराज, इन दु:ख, क्‍लेश और वेदनाओं के मार्ग से आत्‍म-ज्ञान को प्राप्‍त करने की व्‍यवस्‍था क्‍यों है? इससे दृष्टि न होती, तभी अच्छा था। हम सभी तो एक समय ब्रह्म में लीन थे। ब्रह्म की इस प्रकार सृष्टि करने की इच्‍छा ही क्‍यों होती है ? और इस द्वंद्वात्‍मक घात-प्रतिघात में साक्षात् ब्रह्मरूपी जीव का इस जन्‍म-मृत्यु के पथ से आना-जाना ही क्‍यों होता है?

स्‍वामी जी-मतवाले बन जाने पर लोग कितनी बातें देखते हैं, परंतु नशा दूर होते ही उन्हें मस्तिष्‍क का भ्रम समझ में आ जाता है। तू अनादि परंतु सान्त सृष्टि के ये जो माया-प्रसूत खेल देख रहा है, वह तेरी मतवाली अवस्‍था के कारण है। इस मतवालेपन के दूर होते ही तेरे ये सब प्रश्‍न नहीं रहेंगे।

शिष्‍य-महाराज, तो क्‍या सृष्टि, स्थिति आदि कुछ भी नहीं हैं?

स्‍वामी जी-हाँ क्‍यों नहीं? जब तक तू इस देहबुद्धि को पकड़कर 'मैं मैं' कर रहा है, तब तक ये सभी कुछ हैं; और जब तू विदेह, आत्‍मरत और आत्‍मक्रीड़ बन जाएगा-तब तेरे लिए ये सब कुछ भी नहीं रहेंगे। सृष्टि, जन्‍म, मृत्‍यु आदि हैं या नहीं-इस प्रश्‍न का भी उस समय फिर अवसर नहीं रहेगा। उस समय तुझे कहना होगा-

क्‍व गतं केन वा नीतं कुत्र लीनमिदं जगत्।

अधुनैव मया दृष्‍यं नास्ति किं महदद्भुतम्।।

शिष्‍य-जगत् का ज्ञान यदि बिल्‍कुल न रहे तो 'कुत्रलीनदिं जगत्' यह बात फिर कैसे कही जा सकती है?

स्‍वामी जी-भाषा में उस भाव को व्‍यक्‍त करने समझाना पड़ रहा है, इसीलिए वैसा कहा गया है। जहाँ पर भाव और भाषा के प्रवेश का अधिकार नहीं है, उस स्थिति को भाव और भाषा में व्‍यक्‍त करने की चेष्टा ग्रंथ कार ने की है। इसीलिए यह जगत् बिल्‍कुल मिथ्‍या है, इस बात को व्‍यावहारिक रूप में कहा है; पारमार्थिक सत्ता जगत् की नहीं है। वह केवल 'अवाड़्मनसगोचरम्' ब्रह्म की ही है। बोल, तेरा और क्‍या कहना है। आज तेरा तर्क शांत कर दूँगा।

मंदिर में आरती की घंटी बजी। मठ के सभी लोग मंदिर में चले। शिष्‍य को उसी कमरे में बैठे रहते देख स्‍वामी जी बोले, 'मंदिर में नहीं गया?'

शिष्‍य-मुझे यहीं रहना अच्‍छा लग रहा है।

स्‍वामी जी-तो रहने दे।

कुछ समय के बाद शिष्‍य ने कमरे के बाहर देखकर कहा, 'आज अमावस्‍या है। चारों ओर अन्धकार छा गया है। आज काली-पूजा का दिन है।'

स्‍वामी जी शिष्‍य की उस बात पर कुछ न कहकर, खिड़की से पूर्वाकाश की ओर एकटक कुछ समय देखते रहे और बोले, 'देख रहा है, अन्धकार की कैसी अद्भुत गंभीर शोभा है।' और यह कहकर उस गंभीर तिमिर-राशि के भेदन करती हुई दृष्टि से देखते स्तंभित होकर खड़े रहे। अब सब कुछ शांत है, केवल दूर मंदिर के भक्‍तों का श्री रामकृष्‍ण-स्‍तव-पाठ शिष्‍य को सुनाई दे रहा है। शिष्‍य का मन एक अपूर्व भय से आकुल हो उठा। इस प्रकार कुछ समय व्‍यतीत होने पर स्‍वामी जी धीरे-धीरे गाने लगे, 'निबिड़ आँधारे माँ, तोर चमके अरूपराशि' इत्‍यादि।

गीत समाप्‍त होने पर स्‍वामी जी कमरे के भीतर जाकर बैठ गए और बीच बीच में 'माँ', 'काली-काली' कहने लगे। उस समय कमरे में और कोई न था केवल शिष्‍य स्‍वामी जी की आज्ञा का पालन करने के लिए प्रस्‍तुत खड़ा था।

स्‍वामी जी का उस समय का मुख देख शिष्‍य को ऐसा लगा मानो वे किसी एक दूसरे में निवास कर रहे हैं। चंचल शिष्‍य ने उनका उस प्रकार भाव देख व्‍यथित होकर कहा, 'महाराज अब बातचीत कीजिए।'

स्‍वामी जी मानो उसके मन के भाव को समझकर ही मृदु हास्‍य करते हुए बोले, 'जिसकी लीला इतनी मधुर है, उस आत्‍मा की सुंदरता और गंभीरता कैसी होगी, सोच तो।' उनका वह गंभीर भाव अभी भी उस प्रकार देखकर शिष्य ने कहा, 'महाराज, उन सब बातों की अब और आवश्‍यकता नहीं। मैंने भी न जाने क्‍यों आपसे अमावस्‍या और काली-पूजा की बात की? उस समय से आप में न जाने कैसा परिवर्तन हो गया है।' स्‍वामी जी शिष्‍य की मानसिक स्थिति को समझकर गाना गाने लगे-'कखन कि रंगे थाको माँ श्‍यामा सुधा-तरंगिणी' इत्‍यादि।

गाना समाप्‍त होने पर स्‍वामी जी ने कहा, 'यह काली हीं लीला रूपी ब्रह्मा है। श्री रामकृष्‍ण का 'साँप का चलना और साँप का स्थिर भाव'-नहीं सुना?'

शिष्‍य-जी हाँ।

स्‍वामी जी-अबकी बार स्‍वस्थ होने पर ह्दय का रक्‍त देकर माँ की पूजा करूँगा। रघुनंदन ने कहा है, नवम्‍यां पूजयेत् देवीं कृत्‍वा रुधिकरर्दमम्-अब मैं वही करूँगा। माँ की पूजा छाती का रक्‍त देकर करनी पड़ती है, तभी वह प्रसन्‍न होती है और तभी माँ के पुत्र वीर होंगे-महावीर होंगे। निरानंद में, दु:ख में, प्रलय में, महाप्रलय में माँ के लड़के निडर बने रहेगे।

यह बातचीत चल रही थी कि इसी समय नीचे प्रसाद पाने की घंटी बजी। घंटी सुनकर स्‍वामी जी बोले, 'जा नीचे प्रसाद पाकर जल्‍दी आना।' शिष्‍य नीचे उतर गया।

 

३८

स्‍थान : बेलूड़ मठ। वर्ष: १९०१ ई॰

स्‍वामी जी आजकल मठ में ही ठहरे हुए हैं। शरीर अधिक स्‍वस्‍थ नहीं; परंतु प्रात:काल और सायंकाल घूमते निकलते हैं। आज शनिवार; शिष्‍य मठ में आया है। स्‍वामी जी के चरण-कमलों में प्रणाम करके कुशल-प्रश्‍न पूछ रहा है।

स्‍वामी जी-इस शरीर की तो यही स्थिति है। तुममें से तो कोई भी मेरे काम में हाथ बँटाने के लिए अग्रसर नहीं हो रहा है। मैं अकेला क्‍या करूँगा, बोल? बंगाल की भूमि में यह शरीर जन्मा है। इस अस्‍वस्‍थ शरीर से क्‍या और अधिक काम-काज चल सकता है? तुम लोग सब यहाँ पर आते हो-शुद्ध पात्र हो-तुम लोग यदि मेरे इस काम में सहायक न बनोगे तो मैं अकेला क्या करूंगा, बोलो?

शिष्‍य-महाराज, ये सब ब्रह्मचारी, त्‍यागी पुरुष आपके पीछे खड़े हैं। मैं समझता हूँ, आपके काम में इनमें से प्रत्‍येक जीवन देने को भी तैयार है, फिर भी आप ऐसी बात क्‍यों कर रहे हैं?

स्‍वामी जी-वास्‍तव में मैं चाहता हूँ-युव‍क बंगालियों का एक दल। वे ही देश की आशा हैं। चरित्रवान, बुद्धिमान, दूसरों के लिए सर्वस्‍व त्‍यागी तथा आज्ञाकारी युवकों पर ही मेरा भविष्‍य का कार्य निर्भर है। उन्‍हीं पर मुझे भरोसा है जो मेरे भावों को जीवन में परिणत कर अपना और देश का कल्‍याण करने में जीवनदान कर सकेंगे। नहीं तो, झुंड के झुंड कितने ही लड़के आ रहे हैं और आएंगे, पर उनके मुख का भाव तमोपूर्ण है। इन्‍हें लेकर क्‍या काम होगा? नचिकेता की तरह श्रद्धावान दस-बारह लड़के पाने पर मैं देश की चिंतन-धारा और प्रयत्‍न को नवीन पथ पर परिचालित कर सकता हूँ।

शिष्‍य-महाराज, इतने युवक आपके पास आ रहे हैं, उनमें से आप क्या इस प्रकार किसी को भी नहीं देख रहे हैं?

स्‍वामी जी-जिन्हें अच्‍छे आधार समझता हूँ, उनमें से किसी ने विवाह कर लिया है, या कोई संसार में मान, यश, धन कमाने की इच्‍छा पर बिक गया है। किसी का शरीर ही कमजोर है। इसके अतिरिक्‍त अधिकांश युवक उच्‍च भाव ग्रहण करने में ही असमर्थ हैं। तुम लोग मेरा भाव ग्रहण करने योग्‍य हो अवश्‍य, परंतु तुम लोग भी कार्यक्षेत्र में उस योग्‍यता को अभी प्रकट नहीं कर सक रहे हो। इन सब कारणों से समय-समय पर मन में बड़ा दु:ख होता है; ऐसा लगता है-दैव-विडंबना से शरीर धारण कर कुछ भी कार्य न कर सका। अभी भी बिल्‍कुल निराश तो नहीं हुआ हूँ, क्‍योंकि श्रीरामकृष्‍ण की इच्‍छा होने पर इन सब लड़कों में से ही समय पर ऐसे धर्मवीर और कर्मवीर निकल सकते हैं, जो भविष्‍य में मेरा अनुसरण कर कार्य कर सकेंगे।

शिष्‍य-मैं समझता हूँ, सभी को एक न एक दिन आपके उदार भावों को ग्रहण करना ही होगा। यह मेरा दृढ़ विश्‍वास है, क्योंकि साफ देख रहा हूँ-सभी ओर, सभी विषयों में आप की ही भावधारा प्रवाहित हो रही है। क्‍या जीव-सेवा, क्‍या देश-कल्‍याण व्रत, क्‍या ब्रह्मविद्या की चर्चा, क्‍या ब्रह्मचर्य, सभी क्षेत्रों में आपका भाव प्रविष्‍ट होकर सभी में कुछ नवीनता का संचार कर रहा है और देशवासियों में से कोई प्रकट में आपका नाम लेकर और कोई आपका नाम छिपाकर अपने नाम से आप के ही उस भाव और मत का सभी विषयों में सर्वसाधारण में प्रचार कर रहे हैं।

स्‍वामी जी-मेरा नाम न भी लें, मेरा भाव लेना ही पर्याप्‍त होगा। काम-कांचन त्‍याग करके भी निन्‍यानबे प्रतिशत साधु नाम-यश के मोह में आबद्ध हो जाते हैं। 'नाम की आकांक्षा की उच्‍च अंत:करण की अंतिम दुर्बलता है', पढ़ा है न ? फल की कामना बिल्‍कुल छोड़कर काम किये जाना होगा। भला-बुरा तेा लोग कहेंगे ही, परंतु उच्‍च आदर्श को सामने रखकर हमें सिंह की तरह काम करना होगा। इस पर निन्‍दन्‍तु नीतिनिपुणा: यदि वा स्‍तुवन्‍तु-विद्वान लोग निंदा या स्‍तुति कुछ भी क्‍यों न करें।

शिष्‍य-हमारे लिए इस समय किस आदर्श को ग्रहण करना उचित है?

स्‍वामी जी-महावीर के चरित्र को तुम्‍हें इस समय आदर्श मानना पड़ेगा। देखो न, वे राम की आज्ञा से समुद्र लाँघकर चले गए। जीवन-मृत्यु की परवाह कहाँ? महाजितेंद्रिय, महाबुद्धिमान, दास्‍य भाव के उस महान् आदर्श से तुम्हें अपना जीवन गठित करना होगा। वैसा करने पर दूसरे भावों का विकास स्‍वयं ही हो जाएगा। दुविधा छोड़कर गुरु की आज्ञा का पालन और ब्रह्मचर्य की रक्षा-यही है सफलता का रहस्‍य। नान्थ पन्‍था: विद्यतेअयनाय अवलंबन करने योग्‍य और दूसरा पथ नहीं। एक ओर हनुमान जी के जैसा सेवाभाव और दूसरी ओर उसी प्रकार त्रैलोक्‍य को भयभीत कर देने वाला सिंह जैसा सेवाभाव विक्रम। राम के हित के लिए उन्‍होंने जीवन तक विसर्जन कर देने में कभी जरा भी संकोच नहीं किया। राम की सेवा के अतिरिक्‍त अन्‍य सभी विषयों के प्रति उपेक्षा, यहाँ तक कि ब्रह्मत्‍व, शिवत्‍व प्राप्ति के प्रति उपेक्षा। केवल रघुनाथ के उपदेश का पालन ही जीवन का एकमात्र व्रत-उसी प्रकार एकनिष्‍ठ होना चाहिए। खोल, मृदंग, करताल बजाकर उछल-कूद मचाने से देश पतन के गर्त में जा रहा है। एक तो यह पेट के रोगी मरीजों का दल और उस पर इतनी उछल-कूद ? भला कैसे सहन होगी? कामगंधविहीन उच्‍च साधना का अनुकरण करने जाकर देश घोर तमोगुण से भर गया है। देश-‍देश में, गाँव-गाँव में-जहाँ भी जाएगा, देखेगा ढोल-करताल ही बज रहे हैं। दुंदुभी-नगाड़े क्‍या देश में तैयार नहीं होते ? तुरही-भेरी क्‍या भारत में नहीं मिलती? वही सब गुरु गंभीर ध्‍वनि लड़कों को सुना बचपन से जनाने बाजे सुनकर, कीर्तन सुन-सुनकर, देश स्त्रियों का देश बन गया है। इससे अधिक और क्‍या अध:पतन होगा। कवि कल्‍पना भी इस चित्र को चित्रित करने में हार मान गई है। डमरू-श्रृंग बजाना होगा, नगाड़े में ब्रह्मरूद्र ताल का दुंदुभी नाद उठाना होगा, 'महावीर', 'महावीर', की ध्‍वनि तथा 'हर हर बम बम' शब्‍द से दिग्दिगन्‍त कम्पित कर देना होगा। जिन सब गीत-वाद्यों से मनुष्‍य के ह्दय के कोमल भाव-समूह उद्दीप्‍त जाते हैं, उन सबको थोड़े दिनों के लिए अब बंद रखना होगा। ख्‍याल टप्‍पा बंद करके ध्रुपद का गाना सुनने का अभ्‍यास लोगों को कराना होगा। वैदिक छंदों के उच्‍चारण से देश में प्राण-संचार कर देना होगा। सभी विषयों में वीरता की कठोर महाप्राणता लानी होगी। इस प्रकार आदर्श का अनुसरण करने पर ही इस समय जीव का तथा देश का कल्‍याण होगा। यदि तू ही अकेला इस भाव के अनुसार अपने जीवन को तैयार कर सका तो तुझे देखकर हज़ारों लोग वैसा करना सीख जाएंगे। परंतु देखना, आदर्श से कभी एक पग भी न हटना। कभी साहस न छोड़ा। खाते, सोते, पहनते, गाते, बजाते, भोग में, रोग में सदैव तीव्र उत्‍साह एवं साहस का ही परिचय देना होगा, तभी तो महाशक्ति की कृपा होगी?

शिष्‍य-महाराज, कभी-कभी न जाने कैसा साहसशून्‍य बन जाता हूँ।

स्‍वामी जी-उस समय ऐसा सोचकर-'मैं किसकी संतान हूँ-उनका आश्रय लेकर भी मेरी ऐसी दुर्बलता तथा साहसहीनता ?' उस दुर्बलता और साहसहीनता के मस्‍तक पर लाल मारकर, मैं वीर्यवान हूँ-मैं मेधावान हूँ-मैं ब्रह्मविद् हूँ-मैं प्रज्ञावान हूँ' कहता-कहता उठ खड़ा हो। 'मैं अमुक का शिष्‍य हूँ-कामकांचन जयी श्री रामकृष्‍ण के साथी का साथी हूँ'-इस प्रकार का अभिमान रखेगा तभी कल्‍याण होगा। जिसे यह अभिमान नहीं, उसके भीतर ब्रह्म नहीं जागता। रामप्रसाद का गाना नहीं सुना ? वे कहा करते थे, 'मैं-जिसकी स्‍वामिनी हैं माँ महेश्‍वरी-वह मैं इस संसार में भला किससे डर सकता हूँ?' इस प्रकार अभिमान सदा मन में जाग्रत रखना होगा। तब फिर दुर्बलता, साहस-हीनता पास न आयेंगी। कभी भी मन में दुर्बलता न आने देना। महावीर का स्मरण किया कर, महामाया का स्‍मरण किया कर; देखेगा, सब दुर्बलता,सारी कापुरुषता उसी समय चली जाएगी।

ऐसा कहते-कहते स्‍वामी जी नीचे आ गए। मठ के विस्‍तीर्ण आँगन में जो आम का वृक्ष है, उसी के नीचे एक छोटी सी खटिया पर वे अक्‍सर बैठा करते थे, आज भी वहाँ आकर पश्चिम की ओर मुँह करके बैठ गए। उनका आँखों से उस समय भी महावीर का भाव फूट रहा था। वहीं बैठे-बैठे उन्‍होंने शिष्‍य से उपस्थित संन्‍यासियों तथा ब्रह्मचारियों को दिखाकर कहा-

'यह देख प्रत्‍यक्ष ब्रह्म। इसकी उपेक्षा करके जो लोग दूसरे विषय में मन लगाते हैं, उन्हें धिक्कार। हाथ पर रखे हुए आँवले की तरह यह देख ब्रह्म। देख नहीं रहा है?-यही,यही।'

स्‍वामी जी ने ये बातें ऐसे ह्दयस्‍पर्शी भाव से कहीं कि सुनते ही उपस्थित सभी लोग, चित्रार्पितारम्‍भ इवावतस्‍थे-तस्‍वीर की तरह स्थिर खड़े रह गए। स्‍वामी जी भी एकाएक गंभीर ध्‍यान में मग्‍न हो गए। अन्‍य सब लोग भी बिल्‍कुल शांत है; किसी के मुँह से कोई बात नहीं निकलती। स्‍वामी प्रेमानंद उस समय गंगा जी से कमंडल में जल भरकर मंदिर में आ रहे थे। उन्‍हें देखकर भी स्‍वामी जी 'यही प्रत्‍यक्ष ब्रह्म-यही प्रत्‍यक्ष ब्रह्म' कहने लगे। यह बात सुनकर उस समय उनके हाथ का कमंडल हाथ में ही रह गया-एक गहरे नशे में डूबकर वे भी उसी समय ध्‍यानावस्थित हो गए। इस प्रकार करीब पंद्रह-बीस मिनट व्‍यतीत हो गए। तब स्‍वामी जी ने प्रेमानंद जी को बुलाकर कहा, 'जा अब श्री रामकृष्‍ण की पूजा में जा।'स्‍वामी प्रेमानंद को तब चेतना हुई। धीरे-धीरे सभी का मन फिर 'मैं-मेरे' के राज्य में उतर आया और सभी अपने-अपने कार्य में लग गए।

उस दिन का वह दृश्‍य शिष्‍य अपने जीवन में कभी भूल न सका। स्‍वामी जी की कृपा से और शक्ति के बल से उसका चंचल मन भी उस दिन अनुभूति-राज्य के अत्यंत निकट आ गया था। इस घटना के साक्षी रूप में बेलूड़ मठ के संन्‍यासी अभी भी मौजूद हैं। स्‍वामी जी की उस दिन की वह अपूर्व क्ष्‍ामता देखकर उपस्थित सभी लोग विस्मित हो गए थे। क्षण भर में उन्‍होंने सभी के मन को समाधि के अतल जल में डुबो दिया था।

उस शुभ दिन का स्‍मरण कर शिष्‍य अभी भी भावाष्टि हो जाता है और उसे ऐसा लगता है, पूज्‍यपाद आचार्य की कृपा से उसे भी एक दिन के लिए ब्रह्मभाव को प्रत्‍यक्ष करने का सौभाग्‍य प्राप्‍त हुआ था।

थोड़ी देर बाद शिष्‍य के साथ स्‍वामी जी टहलते चले। जाते-जाते शिष्‍य से बोले, 'देखो आज कैसा हुआ ? सभी को ध्‍यानस्‍थ होना पड़ा। वे सब श्री रामकृष्‍ण की संतान हैं न, इसीलिए कहने के साथ ही उन्‍हें अनुभूति से मानो मेरा ह्दय फटा जा रहा था। परंतु अब उस भाव का कुछ भी स्‍मरण नहीं-मानो वह सत्‍य स्‍वप्‍न ही था।

स्‍वामी जी-समय पर सब हो जाएगा; इस समय काम कर। इस महा-मोहग्रस्‍त जीवों के कल्‍याण के लिए किसी न किसी काम में लग जा। फिर तू देखेगा, वह समय अपने आप हो जाएगा।

शिष्य-महाराज, इतने कर्मों में प्रवेश करते भय होता है, उतना सामर्थ्‍य भी नहीं। शास्‍त्र में भी कहा है, गहना कर्मणो गति:।

स्वामी जी-तुझे क्या अच्छा लगता है ?

शिष्य-आप जैसे सर्वशास्त्र के ज्ञाता के साथ निवास तथा तत्त्व-विचार करना और श्रवण, मनन, निदिध्यासन द्वारा इसी शरीर में ब्रह्म-तत्त्व को प्रत्यक्ष करना। इसके अतिरिक्त किसी भी बात में मेरा मन नहीं लगता। ऐसा लगता है, मानो और दूसरा कुछ करने का सामर्थ्‍य ही मुझमें नहीं।

स्वामी-जी अच्छा लगे, वही करता जा। अपने सभी शास्त्र-सिद्धांत लोगों को बता दे। इसीसे बहुतों का उपकार होगा। शरीर जितने दिन है, उतने दिन काम किये बिना तो कोई रह ही नहीं सकता। अतः जिस काम से दूसरों का उपकार हो, वही करना उचित है। तेरे अपने अनुभवों तथा शास्त्र के सिद्धांत वाक्‍्यों से अनेक जिज्ञासुओं का उपकार हो सकता है और हो सके तो यह सब लिखता भी जा। उससे अनेक का कल्याण हो सकेगा।

शिष्य-पहले मुझे ही अनुभव हो, तब तो लिखूँगा। श्री रामकृष्ण कहा करते थे, "चपरास हुए बिना कोई किसी की बात नहीं सुनता।'

स्वामी जी-तू जिन सब साधनाओं तथा विचार-भूमिकाओं में होकर अग्रसर हो रहा है, जगत्‌ में ऐसे अनेक व्यक्ति हैं, जो अभी उन्हीं स्थितियों में पड़े हैं, उन्हें पार कर वे अग्रसर नहीं हो पा रहे हैं। तेरे अनुभव और विचार-प्रणाली लिखे होने पर उनका भी तो उपकार होगा। मठ में साधुओं के साथ जो 'चर्चा' करता है, उन विषयों को सरल भाषा में लिखकर रखने से बहुतों का उपकार हो सकता है।

शिष्य-आप जब आदेश दे रहे हैं तो चेष्टा करूँगा।

स्वामी जी-जिस साधन-भजन या अनुभूति से दूसरों का उपकार नहीं होता, महा-मोह में फंसे हुएँ जीवों का कल्याण नहीं होता, काम-कांचन की सीमा से मनुष्य को बाहर निकलने में सहायता नहीं मिलती, ऐसे साधन-भजन से क्या लाभ? क्‍या तू समझता है कि एक भी जीव के बंधन में रहते हुए तेरी मुक्ति होगी? जितने दिन, जितने जन्म तक उसका उद्धार नहीं होगा, उतनी बार तुझे भी जन्म लेना पड़ेगा-उसकी सहायता करने तथा उसे ब्रह्म का अनुभव कराने के लिए। प्रत्येक जीव तो तेरा ही अंग है। इसीलिए दूसरों के लिए कर्म कर। अपने स्त्री-पुत्रों को अपना जातकर जिम प्रकार तू उतके सभी प्रकार के मंगल की कामना करता है, उसी प्रकार प्रत्येक जीव के प्रति जब तेरा वैसा ही आकर्षण होगा, तब समझूंगा, तेरे भीतर ब्रह्म जाग्रत हो रहा है-उससे एक मिनट भी पहले नहीं। जाति-वर्ण का विचार छोड़कर इसी विहव के मंगल की कामना जाग्रत होने पर ही समझूंगा कि तू आदर्श की ओर अग्रसर हो रहा है।

शिष्य-यह तो महाराज, बड़ी कठिन बात है कि सभी की मुक्ति हुए बिना व्यक्तिगत मुक्ति नहीं होगी। ऐसा विचित्र सिद्धांत तो कभी नहीं सुना।

स्वामी जी-एक श्रेणी के वेदांतियों का ऐसा ही मत है-वे कहते हैं, व्यष्टि की मुक्ति, मुक्ति का वास्तव स्वरूप नहीं है। समष्टि की मुक्ति ही मुक्ति है।' हाँ, इस मत के दोषगुण अवश्य दिखाये जा सकते हैं।

शिष्य-वेदांत मत में व्यष्टि भाव ही तो बंधन का कारण है। वही उपाधिगत चित्त सत्ता काम्य कर्म आदि के कारण बद्ध सी प्रतीत होती है। विचार-बल से उपाधिरहित होने पर-निर्विषय हो जाने पर प्रत्यक्ष चिन्मय आत्मा का बंधन रहेगा कैसे? जिसकी जीव-जगत्‌ आदि की बुद्धि है, उसे ऐसा लग सकता है कि सभी की मुक्ति हुए बिना उसकी मुक्ति नहीं है; परंतु श्रवण आदि के बल पर मन निरुपाधिक होकर जब प्रत्यक्‌-ब्रह्ममय होता है, उस समय उसकी दृष्टि में जीव ही कहाँ और जगत्‌ ही कहाँ-कुछ भी नहीं रहता। उसके मुक्ति-तत्त्व की रोकने वाला कोई नहीं हो सकता।

स्वामी जी-हाँ, तू जो कह रहा हैं, वह अधिकांश वेदांत वादियों का सिद्धांत है। यह निर्दोष भी है। उससे व्यक्तिगत मुक्ति रुकती नहीं, परंतु जो व्यक्ति सोचता है कि मैं आब्रह्म समस्त जगत्‌ को अपने साथ लेकर एक ही साथ मुक्त होऊँगा, उसकी महाप्राणता का एक बार चिंतन तो कर! शिष्य-महाराज, वह उदार भाव का परिचायक अवश्य है, परंतु शास्त्र-विरुद्ध लगता है।

स्वामी जी शिष्य की बातें सुन न सके। ऐसा प्रतीत हुआ कि पहले से ही थे अन्यमनस्क हो किसी दूसरी बात को सोच रहे थे। कुछ समय बाद बोल उठे, अरे हाँ, तो हम लोग क्या बात कर रहे थे ? मैं तो मानो बिल्कुल भूल ही गया। शिष्य ने जब उस विषय की फिर याद दिला दी तो स्वामी जी ने कहा, "दिन-रात अह्य-विषय का अनुसंधान किया कर। एकाग्र मन से ध्यान किया कर और शेष समय में या तो कोई लोकहितकर काम किया कर या मन ही मन सोचा कर कि "जीवों का-जगत्‌ का उपकार हो। सभी की दृष्टि ब्रह्म की ओर लगी रहे।" इस प्रकार लगातार चिंता की लहरों के द्वारा ही जगत्‌ का उपकार होगा। जगत्‌ का कोई भी सदनुष्ठान व्यर्थ नहीं जाता, चाहे वह कार्य हो या चिंतन। तेरे चिंतन से ही प्रभावित होकर संभव है कि अमेरिका के किसी व्यक्ति को ज्ञान-प्राप्ति हो।"

शिष्य-महाराज, मेरा मत जिससे वास्तव में निर्विषय बने, मुझे ऐसा आशीर्वाद दीजिए-और इसी जन्म में ऐसा हो!

स्वामी जी-ऐंसा होगा क्‍यों नहीं? तन्‍मयता रहने पर अवश्य होगा।

शिष्य-आप मन कौ तन्‍मय बना सकते हैं-आप में वह शक्ति है, मैं जानता हूँ! पर महाराज,-मुझे भी वैसा कर दीजिए, यही प्रार्थना है।

इस प्रकार वार्तालाप होते होते शिष्य के साथ स्वामी जी मठ में आकर उपस्थित हुएँ। उस समय दशमी की चाँदनी में मठ का बगीचा मानो चाँदी के प्रवाह में स्नान कर रहा था। शिष्य उल्लसित मन से स्वामी जी के पीछे पीछे मठ मंदिर में उपस्थित होकर आनंद से टहलने लगा। स्वामी जी ऊपर विश्राम करने चले गए।

 

३९

[स्थान: बेलूड़ मठ। वर्ष: १९९१ ई०]

बेलूड़ मठ स्थापित होते समय निष्ठावान हिंदुओं में से अनेक व्यक्ति मठ के आचार-व्यवहार की तीत्र आलोचना किया करते थे। प्रधानतः इसी विषय पर कि विदेश से लौटे हुए स्वामी जा द्वारा स्थापित मठ में हिंदुओं के आचार-नियमों का उचित रूप से पालन नहीं होता अथवा वहाँ खाद्य-अखाद्य का विचार नहीं। अनेकानेक स्थानों में चर्चा चलती थी और इस बात पर विश्वास करते हुए शास्त्र को न जानने वाले हिंदू नामधारी छोटे-बड़े अनेक लोग उस समय सर्वे-त्यागी संन्यासियों के कार्यों की व्यर्थ निंदा किया करते थे। गंगा जी में नाव पर सैर करने वाले अनेक लोग भी बेलूड़ मठ को देखकर अनेक प्रकार से व्यंग किया करते थे और कभी कभी तो मिथ्या अश्‍लील बातें करते हुए निष्कलंक स्वामी जी के स्वच्छ शुभ चरित्र की आलोचना करने से भी बाज़ न आते थे। नाव पर चढ़कर मठ में आते समय शिष्य ने कभी कभी ऐसी आलोचना अपने कानों से सुनी है। उसके मुख से उन सबको सुनकर स्वामी जी कभी कभी कहा करते थे, हाथी चले बाजार, कुत्ते भोंके हज़ार । साधुन को दुर्भाव नहीं, चाहे निन्दे संसार। कभी कहते थे, "देश में किसी नवीन भाव के प्रचार के समय उसके विरुद्ध प्राचीन पंथियों का मोर्चा स्वभावतः ही रहता है। जगत्‌ के सभी धर्मंसंस्थापकों को इस परीक्षा में उत्तीर्ण होना पड़ा है।' फिर कभी कहा करते थे, "अन्यायपूर्ण अत्याचार न होने पर जगत्‌ के कल्याणकारी भावसमूह समाज के हृदय में आसानी से प्रविष्ट नहीं हो सकते।" अतः समाज के तीव्र कटाक्ष और समालोचना को स्वामी जी अपने नव भाव के प्रचार के लिए सहायक मानते थे-उसके विरुद्ध कभी प्रतिवाद न करते थे और न अपने शरणागत गृही तथा संन्यासियों को ही प्रतिवाद करने देते थे। सभी से कहते थे, "फल की आकांक्षा छोड़कर काम करता जा, एक दिन उसका फल अवश्य ही मिलेगा।" स्वामी जी के श्रीमुख से यह वचन सदा ही सुना जाता था, न हि कल्याणकृत्‌ कश्चित् दुर्गेर्तिं तात गच्छति-हे पुत्र, कल्याण करनेवाला व्यक्ति कभी दुःख का भागी नहीं होता)।

हिंदू समाज की यह तीन आलोचना स्वामी जी के लीला संवरण से पूर्व किस प्रकार मिट गई, आज उसी विषय में कुछ लिखा जा रहा है। १९०१ई० के मई या जून मास में एक दिन शिष्य मठ में आया। स्वामी जी ने शिष्य को देखते ही कहा, "अरे, एक रघुनंदन रचित "अष्टाविंशति-तत्त्व" की प्रति मेरे लिए ले आना।"

शिष्य-बहुत अच्छा महाराज! परंतु रघुनंदन की स्मृति-से आज-कल का शिक्षित समाज कुसंस्कार की टोकरी बताया करता है, उसे लेकर आप क्या करेंगे?

स्वामी जी-क्यों? रघुनंदन अपने समय के एक प्रकांड विद्वान्‌ थे। वे प्राचीन स्मृतियों का संग्रह करके हिंदुओं के लिए कालोपयोगी नित्यनैमित्तिक क्रियाओं को लिपिबद्ध कर गए हैं। इस समय सारा बंगाल प्रांत तो उन्हीं के अनुशासन पर चल रहा है। यह बात अवश्‍य है कि उनके रचित हिंदू जीवन के गर्भाधान से लेकर श्मशान तक के आचार-नियमों के कठोर बंधन से समाज उत्पीड़ित हो गया था। अन्य विषयों की तो बात ही कया, शौच-पेशाब के लिए जाते, खाते-पीते, सोते-जागते, प्रत्येक समय, सभी को नियमबद्ध कर डालने की चेष्टा उन्होंने की थी। समय के परिवर्तन से वह बंधन दीर्घ काल तक स्थायी न रह सका। सभी देशों में, सभी काल में कमंकांड, सामाजिक रीति-नीति सदा ही परिवर्तित होते रहते हैं। एकमात्र ज्ञानकांड ही परिवर्तित नहीं होता। वैदिक युग में भी देख, कर्मकांड धीरे-धीरे परिवर्तित हो गया, परंतु उपनिषद्‌ का ज्ञानप्रकरण आज तक भी एक ही रूप में मौजूद है-सिर्फ उनकी व्याख्या करने-वाले अनेक हो गए हैं।

शिष्य-आप रघुनंदन की स्मृति लेकर क्या करेंगे ?

स्वामी जी-इस बार मठ में दुर्गा-पूजा करने की इच्छा हो रही है। यदि खर्च की व्यवस्था हो जाए तो महामाया की पूजा करूँगा। इसीलिए दुर्गोत्सव-विधि पढ़ने की इच्छा हुई है। तू अगले रविवार को जब आएगा तो उस पुस्तक की एक प्रति लेते आना।

शिष्य-बहुत अच्छा।

दूसरे रविवार को शिष्य रघुनंदनकृत 'अष्टाविंशति-तत्त्व' खरीद कर स्वामी जी के लिए मठ में ले आया। वह ग्रंथ आज भी मठ के पुस्तकालय में मौजूद है। स्वामी जी पुस्तक को पाकर बहुत ही खुश हुए और उसी दिन से उसे पढ़ना प्रारंभ करके चार-पाँच दिनों में उसे उन्होंने पूरा कर डाला। एक सप्ताह के बाद शिष्य के साथ साक्षात्कार होने पर कहने लगे, "मैंने तेरी दी हुई रघुनंदन की स्मृति पूरी पढ़ डाली है। यदि हो सका तो इस बार माँ की पूजा करूँगा।"

शिष्य के साथ स्वामी जी की उपर्युक्त बातें दुर्गा-पूजा के दो-तीन मास पहले हुई थी। उसके बाद उन्होंने उस संबंध में और कोई भी बात मठ के किसी भी व्यक्ति के साथ नहीं की। उनके उस समय के आचरण को देखकर शिष्य को ऐसा लगता था कि उन्होंने उस विषय में और कुछ भी नहीं सोचा। पूजा के १०-१२ दिन पहले तक शिष्य ने मठ में इस बात की कोई चर्चा नहीं सुनी कि इस वर्ष मठ में प्रतिमा लाकर पूजा होगी और न पूजा के संबंध में कोई आयोजन ही मठ में देखा। स्वामी जी के एक गुरुभाई ने इसो बीच एक दिन स्वप्न में देखा कि माँ दशभुजा दुर्गा गंगा जी के ऊपर से दक्षिणेश्वर की ओर से मठ की ओर चली आ रही हैं। दूसरे दित प्रात:काल जब स्वामी जी ने मठ के सब लोगों के सामने पूजा करने का संकल्प व्यक्त किया, तब उन्होंने भी अपने स्वप्न की बात प्रकट की। स्वामी जी ने इस पर आनंदित होकर कहा, "जैसे भी हो, इस बार मठ में पूजा करनी होगी।" पूजा करने का निश्चय हुआ और उसी दिन एक नाव किराये पर लेकर स्वामी जी, स्वामी प्रेभानंद एवं ब्रह्मचारी कृष्णलाल बागबाज़ार चले आए। उनके यहाँ आने का उद्देश्य यह था कि बागबाजार में ठहरी हुई श्री रामकृष्ण-भक्तों की जननी श्री माता जी के पास कृष्‍णलाल ब्रह्मचारी को भेजकर उस विषय में उनकी अनुमति ले लेना तथा उन्हें यह सूचित कर देना कि उन्हीं के नाम पर संकल्प करके वह पूजा संपन्न होगी, क्योंकि सर्वत्यागी संन्यासियों को किसी प्रकार पूजा या अनुष्ठान 'संकल्पपूर्वक' करने का अधिकार नहीं है।

श्री माता जी ने स्वीकृति दे दी और ऐसा निश्‍चय हुआ कि 'माँ' की पूजा का "संकल्प' उन्हीं के नाम पर होगा। स्वामी जी इस पर विशेष आनंदित हुए और उसी दिन कुम्हार टोली में जाकर प्रतिमा बनाने के लिए पेशगी देकर मठ में लौट आए। स्वामी जी की यह पूजा करने की बात सत्र फैल गई और श्री रामकृष्ण के गृही भक्तगण उस बात को सुनकर उस विषय में आनंद के साथ सम्मिलित हुए।

स्वामी ब्रह्मानंद को पूजा की सामग्री का संग्रह करने का भार सौंपा गया। निदिचत हुआ कि कृष्णलाल ब्रह्मचारी पुजारी बनेंगे। स्वामी रामकृष्णानंद के पिता साधकश्रेष्ठ श्री ईश्वरचन्द्र भट्टाचार्य महाशय तन्‍त्रधारक के पद पर नियुक्त हुए। मठ में आनंद समाता नहीं था। जिस स्थान पर आजकल श्री रामकृष्ण का जन्म-महोत्सव होता है, उसी स्थान के उत्तर में मंडप तैयार हुआ। षष्ठी के बोधन के दो-एक दिन पहले कृष्णलाल, निर्भयानंद आदि संन्यासी तथा ब्रह्मचारीगण नाव पर माँ की मूर्ति मठ में ले आए। ठाकुर-घर के निचले मंजिले में माँ की मूर्ति को रखने के साथ ही मानो आकाश टूट पड़ा-मूसलाधार पानी बरसने लगा। स्वामी जी यह सोचकर निश्चिंत हुए कि माँ की प्रतिमा निर्विघ्न मठ में पहुँच गई है। अब पानी बरसने से भी कोई हानि नहीं।

इधर स्वामी ब्रह्मानंद के प्रयत्न से मठ द्रव्य-सामग्री से भर गया। यह देखकर कि पूजा की सामग्री में कोई कमी नहीं है, स्वामी जी स्वामी ब्रह्मानंद आदि की प्रशंसा करने लगे। मठ के दक्षिण की ओर जो बगीचेवाला मकान है, जो पहले नीलाम्बर बाबू का था, वह एक महीने के लिए किराये पर ले लिया गया और पूजा के दिन से उसमें श्री माता जी को लाकर रखा गया। अधिवास की सायंकालीन पूजा स्वामी जी के समाधि-मंदिर के सामने वाले बिल्व वृक्ष के नीचे संपन्न हुई। उन्होंने उसी बिल्व वृक्ष के नीचे बेठकर एक दिन जो गाना गाया था, 'बिल्व वृक्ष के नीचे बोधन बिछाकर गणेश के लिए गौरी का आगमन' आदि, वह आज अक्षरश: पूर्ण हुआ।

श्री माता जी की अनुमति लेकर ब्रह्मचारी कृष्णलाल महाराज सप्तमी के दिन पुजारी के आसन पर विराजे। कौलाग्रणी तंत्र एवं मंत्रों के विद्वान ईश्वरचन्द्र भट्टाचार्य महाशय ने भी श्री माता जी के आदेशानुसार देवगुरु वृहस्पति की तरह तंत्रधारक का आसन ग्रहण किया। यथाविधि 'माँ' की पूजा समाप्त हुई। केवल श्री माता जी की अनिच्छा के कारण मठ में पशुबलि नहीं हुई। बली के रूप में शक्कर का नैवेद्य तथा मिठाइयों की ढेरियाँ प्रतिमा के दोनों ओर शोभायमान हुईं।

ग़रीब-दुःखी दरिद्रों को साकार ईश्वर मानकर तृष्तिकर भोजन कराना इस पूजा का प्रधान अंग माना गया था। इसके अतिरिक्त बेलूड़, बालि और उत्तर-पाड़ा के परिचित तथा अपरिचित अनेक ब्राह्मण पंडितों को भी आमंत्रित किया गया था, जो आनंद के साथ सम्मिलित भी हुए थे। तब से मठ के प्रति उन लोगों का पूर्व विद्वेष दूर हो गया और उन्हें ऐसा विश्वास हुआ कि मठ कें संन्यासी वास्तव में हिंदू संन्यासी हैं।

कुछ भी हो, महासमारोह के साथ तीन दिनों तक महोत्सव के कलरव से मठ गूँज उठा। नौबत की सुरीली तान गंगा जी के दूसरे तट पर प्रतिध्वनित होने लगी। नगाड़े के रुद्रताल के साथ कलनादिनी भागीरथी नृत्य करने लगी। दीयतां नौयतां भुज्यताम्‌-इन बातों के अतिरिक्त मठ के संन्यासियों के मुख से उन तीनों दिनों तक अन्य कोई बात सुनने में नहीं आयी। जिस पूजा में साक्षात्‌ श्री माता जी स्वयं उपस्थित हैं, जो स्वामी जी की संकल्पित है, देहधारी देवतुल्य महापुरुषगण जिसके संपादक हैं, उस पूजा के निर्दोष होने में आश्चर्य की कौन सी बात ! तीन दिनों की पूजा निर्विघ्‍न संपन्न हुई। गरीब-दुःखियों के भोजन-तृप्तिसूचक कलरव से मठ तीन दिन परिपूर्ण रहा।

महाष्टमी की पूर्व रात्रि में स्वामी जी को ज्वर आ गया था। इसलिए वे दूसरे दिन पूजा में सम्मिलित नहीं हो सके। वे संधिक्षण में उठकर बिल्वपत्र द्वारा महामाया के श्री चरणों में तीन बार अंजलि देकर अपने कमरे में लौट आए थे। नवमी के दिन वे स्वस्थ हुए और उन्होंने, श्री रामकृष्ण देव नवमी की रात में जो अनेक गीत गाया करते थे, उनमें से दो-एक गीत स्वयं भी गाये। मठ में उस रात्रि आनंद मानो उमड़ा पड़ता था।

नवमी के दिन पूजा के बाद श्री माता जी के द्वारा यज्ञ का दक्षिणांत कराया गया। यज्ञ का तिलक धारण कर तथा संकल्पित पूजा समाप्त कर स्वामी जी का मुखमण्डल दिव्य भाव से परिपूर्ण हो उठा था। दशमी के दिन सायंकाल के बाद 'माँ' की प्रतिमा का गंगा जी में विसर्जन किया गया और उसके दूसरे दिन श्री माता जी भी स्वामी जी तथा संन्यासियों को आशीर्वाद देकर बागबाजार में अपने निवास-स्थान पर लौट गयीं।

दुर्गा-पूजा के बाद उसी वर्ष स्वामी जी ने मठ में प्रतिमा में मंगवाकर श्री लक्ष्मी-पूजन तथा श्यामा-पूजन भी शास्त्र-विधि के अनुसार करवाया था। उन पूजाओं में भी श्री ईश्वरचन्द्र भट्टाचार्य महाशय तंत्रधारक तथा कृष्णलाल महाराज पुजारी थे।

श्‍यामा-पूज़ा के अनंतर स्वामी जी की जननी ने एक दिन मठ में कहला भेजा 'मैंने बहुत दिन पहले एक समय 'मनौती' की थी कि एक दिन स्वामी जी को साथ लेकर कालीघाट में जाकर मैं महामाया की पूजा करूँगी, अतएव उसे पूरा करना बहुत ही आवश्यक है।' जननी के आग्रहवश स्वामी जी मार्ग शीर्ष मास के अंत में शरीर अस्वस्थ होते हुए भी एक दिन कालीघाट गए थे। उस दिन कालीघाट में पूजा करके मठ में लौटते समय शिष्य के साथ उनका साक्षात्कार हुआ था और वहाँ पर किस प्रकार पूजा आदि की गई, यह वृत्तांत शिष्य को रास्ते भर सुनाते आए थे। वही वृत्तांत यहाँ पर पाठकों की जानकारी के लिए उद्धृत किया जाता है।

बचपन में एक बार स्वामी जो बहुत अस्वस्थ हो गए थे। उस समय उनकी जननी ने 'मनौती' की थी कि पुत्र के रोगमुक्त होने पर वे उसे कालीघाट में ले जाकर 'माँ' की विशेष रूप से पूजा करेंगी और श्रीमंदिर में उसे 'लोट-पोट' कराकर लायेंगी। उस 'मनौती' की बात इतने दिनों तक उन्हें भी याद न थी। इस समय स्वामी जी का शरीर अस्वस्थ होने से उनकी माता को उस बात का स्मरण हुआ; और वह उन्हें उसी भाव से कालीघांट में ले गयीं। कालीघाट में जाकर स्वामी जी काली गंगा में स्तान करके जननी के आदेशानुसार भीगे वस्त्रों को पहले ही 'माँ' के मंदिर में प्रविष्ठ हुए और मंदिर में श्री काली माता के चरण-कमलों के सामने तीन बार लोट-पोट हुए। उसके बाद मंदिर के बाहर निकलकर उन्होंने सात बार मंदिर की प्रदक्षिणा की। फिर सभा-मंडप के पश्चिम ओर खुले चबूतरे पर बैठकर स्वयं ही हवन किया। अमित-बलशाली तेजस्वी संन्यासी के यश-संपादन को देखने के लिए 'माँ' के मंदिर में उस दिन बड़ी भीड़ हुई थी। शिष्य के मित्र कालीघाट निवासी श्री गिरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय भी, जो शिष्य के साथ अनेक बार स्वामी जी के पास आए थे, उस दिन वहाँ गए थे, तथा उन्होंने उस यज्ञ को स्वयं देखा था। गिरीन्द्र बाबू आज भी उस घटना का वर्णन करते हुए कहा करते हैं कि जलते हुए अग्निकुण्ड में बार बार घृताहुति देते हुए उस दिन स्वामी जी दूसरे ब्रह्मा की तरह प्रतीत होते थे। जो भी हो, पूर्वोक्त रूप से शिष्‍य को घटना सुनाकर अंत में स्वामी जी ने कहा, 'कालीघाट में अभी भी कैसा उदार भाव देखा-मुझे विलायत से लौटा हुआ 'विवेकानंद' जानकर भी मंदिर के अध्यक्षों ने मंदिर-प्रवेश में किसी प्रकार की आपत्ति नहीं की, बल्कि उन्होंने बड़े आदर के साथ मंदिर के भीतर ले जाकर इच्छानुसार पूजा करने में सहायता की।

इसी प्रकार जीवन के अंतिम भाग में भी स्वामी जी ने हिंदुओं की अनुष्ठेय पूजा-पद्धति के प्रति आंतरिक एवं बाह्य विशेष सम्मान प्रदर्शित किया था। जो लोग उन्हें केवल वेदांतवादी या ब्रह्मज्ञानी बताया करते हैं, उन्हें स्वामी जी के इन पूजानुष्ठान आदि पर विशेष रूप से चिंतन कराना चाहिए। 'मैं शास्त्र मर्यादा को विनष्ठ करने नहीं, पूर्ण करने के लिए ही आया हूँ-कथन की सार्थकता को स्वामी जी इस प्रकार अपने जीवन में अनेक बार. प्रतिपादित कर गए हैं। वेदांत केसरी श्री शंकराचार्य ने वेदांत के घोष से पृथ्वी को कम्पित करके भी जिस प्रकार हिंदुओं के देव-देवियों के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने में कमी नहीं की, वरत्‌ भक्ति से प्रेरित होकर नाना स्त्रोत एवं स्तुतियों की रचना की थी, उसी प्रकार स्वामी जी भी सत्य तथा कतंव्य को समझकर ही पूर्वोक्त अनुष्ठानों के द्वारा हिंदू धर्म के प्रति विशेष सम्मान प्रदर्शित कर गए हैं। रूप, गुण तथा विद्या में, भाषण-पदुता, शास्त्रों की व्याख्या, लोक-कल्याण-कारी कामना में तथा साधना एवं जितेन्द्रियता में स्वामी जी के समान सर्वज्ञ, सर्वदर्शी महापुरुष वतंमान शताब्दी में और कोई भी पैदा नहीं हुआ। भारत के भावी वंशधर इस वात को धीरे घीरे समझ सकेंगे। उनकी संगति प्राप्त करके हम धन्य एवं मुग्ध हुए हैं। इसीलिए इस शंकरतुल्य महापुरुष को समझने के लिए तथा उनके आदर्श पर जीवन को गठित करने के लिए जाति-विचार छोड़कर हम भारत के सभी नर-नारियों का आह्वान कर रहे हैं। ज्ञान में शंकर, सहृदयता में बुद्ध, भक्ति में नारद, ब्रह्मज्ञतः में शुकदेव, तर्क में बृहस्पति, रूप में कामदेव, साहस में अर्जुन और शास्त्रज्ञान में व्यास जैसे स्वामी जी को संपूर्ण रूप से समझने का समय उपस्थित हुआ है। इसमें अब संदेह नहीं कि सर्वतोमुखी प्रतिभा संपन्न श्री स्वामी जी का जीवन ही वर्तमान युग में आदर्श के रूप में एकमात्र अनुकरणीय है। इस महासमन्वय के आचार्य की सभी मतों में समता करा देनेवाली ब्रह्मविद्या के तमोविनाशक किरणसमूह द्वारा समस्त पृथ्वी आलोकित हुई है। बंधुओं, पूर्वाकाश में इस तरुण अरुण छटा का दर्शन कर उठो, नवजीवन के प्राणस्पंदन का अनुभव करो।

 

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[स्थान : बेलूड़ मठ। वर्ष : १९०२ ई०]

आज श्री रामकृष्ण देव का महामहोत्सव है-जिस उत्सव को स्वामी विवेकानंद जी अंतिम बार देख गए हैं। इस उत्सव के बाद बांग्ला आषाढ़ मास के २०वें दिन रात्रि के लगभग ९ बजे, उन्होंने इहलौकिक लीला समाप्त की। उत्सव के कुछ पहले से स्वामी जी का शरीर अस्वस्थ है। ऊपर से नीचे नहीं उतरते, चल नहीं सकते, पैर सूज गए हैं। डॉक्टरों ने अधिक बातचीत करने की मनाही की है।

शिष्य श्री रामकृष्ण के संबंध में संस्कृत भाषा में एक स्त्रोत की रचना करके उसे छपवाकर लाया है। आते ही स्वामी जी के पादपद्म का दर्शन करने के लिए ऊपर गया। स्वामी जी फ़र्श पर अर्द्धशायित स्थिति में बैठे थे। शिष्य ने आते ही स्वामी जी के पादपद्म पर अपना मस्तक रखा और धीरे-धीरे पैरों पर हाथ फेरने लगा। स्वामी जी शिष्य रचित स्तव का पाठ करने के पूर्व उससे बोले, "बहुत धीरे धीरे पैरों पर हाथ फेर तो, पैरों में बहुत दर्द हो रहा है।" शिष्य वैसा ही करने लगा।

स्तव-पाठ से स्वामी जी ने प्रसन्न होकर कहा, "बहुत अच्छा बना है।"

हाय! शिष्य उस समय क्‍या जानता था कि उसकी रचना की प्रशंसा स्वामी जी इस जन्म में फिर न कर सकेंगे।

स्वामी जी की शारीरिक अस्वस्थता इतनी बढ़ी हुई जानकर शिष्य का मुखम्लान हो गया और वह रुआँसा हो आया।

स्वामी जी शिष्य के मन की बात समझकर बोले, "क्या सोच रहा हैं ? शरीर धारण किया है तो नष्ट भी हो जाएगा। तू यदि लोगों में मेरे भावों को कुछ-कुछ भी प्रविष्ट करा सका तो समझूँगा कि मेरा शरीर धारण करना सार्थक हुआ।'

शिष्य-हम क्या आपकी दया के योग्य हैं ? अपने गुणों के कारण आपने स्वयं दया करके जो कर दिया है, उसी से अपने को सौभाग्यशाली मानता हूँ।

स्वामी जी-सदा याद रखना, 'त्याग' ही है मूल मंत्र! इस मंत्र में दीक्षा प्राप्त किये बिना, ब्रह्मा आदि की भी मुक्ति का उपाय नहीं।

शिष्य-महाराज, आपके श्रीमुख से यह बात प्रतिदिन सुनकर इतने दिनों में भी उसकी धारणा नहीं हुई। संसार के प्रति आसक्ति न गई। क्या यह कम खेद की बात है ? आश्रित दीन सन्‍्तान को आशीर्वाद दीजिए, जिससे शीघ्र ही हृदय में उसकी धारणा हो जाए।

स्वामी जी-त्याग अवश्य आएगा, परंतु जानता है न- कालेनात्मनि विन्‍दति-समय आए बिना नहीं आता। पूर्व जन्म के संस्कार कट जाने पर ही त्याग प्रकट होगा।

इन बातों को सुनकर शिष्य बड़े कातर भाव से स्वामी जी के चरण-कमल पकड़कर कहने लगा, "महाराज, इस दीन दास को जन्म-जन्म में अपने चरण-कमलों में शरण दें-यही ऐकांतिक प्रार्थना है। आपके साथ रहने पर ब्रह्मज्ञान की भी मेरी इच्छा नहीं होती।"

उत्तर में स्वामी जी कुछ भी न कहकर, अन्यमनस्क होकर न जाने क्‍या सोचने लगे। मानो वे सुदूर भविष्य में अपने जोवन के चित्र को देखने लगे। कुछ समय के बाद फिर उन्होंने कहा, "लोगों की भीड़ देखकर क्या होगा? आज मेरे पास ही ठहर। और निरंजन को बुलाकर द्वार पर बैठा दे ताकि कोई मेरे पास आकर मुझे तंग न करें।" शिष्य ने दौड़कर स्वामी निरंजनानंद को स्वामी जी का आदेश बतला दिया। स्वामी निरंजनानंद भी सभी काम छोड़, सिर पर पगड़ी बाँध हाथ में डंडा लेकर स्वामी जी के कमरे के दरवाज़े के सामने आकर बैठ गए।

इसके बाद कमरे का दरवाज़ा बंद करके शिष्य फिर स्वामी जी के पास आया। जी भर स्वामी जी की सेवा कर सकेगा-ऐसा सोचकर आज उसका मन आनंदित है। स्वामी जी की चरण-सेवा करते करते वह बालक की तरह मन की सभी बातें स्वामी जी के पास खोलकर कहने लगा। स्वामी जी भी हँसते हुए उसके प्रश्‍नों का उत्तर धीरे-धीरे देने लगे।

स्वामी जी-मैं समझता हूँ, अब श्री रामकृष्ण का उत्सव आगे इस प्रकार न होकर दूसरे रूप में हो तो अच्छा होगा-एक ही दिन नहीं, बल्कि चार-पाँच दिन तक उत्सव रहे। पहले दिन शास्त्र आदि का पाठ तथा प्रवचन हो। दूसरे दिन वेद-वेदांत आदि पर विचार एवं मीमांसा हो। तीसरे दिन प्रश्‍नोत्तर की बैठक हो। उसके पश्चात्‌ चौथे दिन संभव हो तो व्याख्यान आदि हों और फिर अंतिम दिन ऐसा ही महोत्सव हो। दुर्गा-पूजा जैसे चार दिन तक होती है, वैसे ही हो। वैसा उत्सव करने पर अंतिम दिन को छोड़कर अन्य चार दिन संभव है, श्री रामकृष्ण की भक्तमंडली के अतिरिक्त दूसरे लोग अधिक संख्या में न आयें। सो न भी आयें तो क्‍या! बहुत लोगों की भीड़ होने पर ही श्री रामकृष्ण के मत का प्रचार होगा, ऐसी बात तो है नहीं।

शिष्य-महाराज, आपकी यह बहुत अच्छी कल्पना है, अगले साल वैसा ही किया जाएगा। आपकी इच्छा है तो सब हो जाएगा।

स्वामी जी-अरे भाई, यह सब करने में मन नहीं लगता। अब से तुम लोग यह सब किया करो।

शिष्य-महाराज, इस बार कीर्तन के अनेक दल आए हैं।

यह बात सुनकर स्वामी जी उन्हें देखने के लिए कमरे के दक्षिण वाली खिड़की की रेलिंग पकड़कर उठ खड़े हुए और आए हुए अगणित भक्तों की ओर देखने लगे। थोड़ी देर देखकर वे फिर बैठ गए। शिष्य समझ गया कि खड़े होने से उन्हें कष्ट हुआ है। अतः वह उसके मस्तक पर घीरे धीरे पंखा झलने लगा।

स्वामी जी-तुम लोग श्री रामकृष्ण की लीला के अभिनेता हो ! इसके बाद-हमारी बात तो छोड़ ही दो-तुम लोगों का भी संसार नाम लेगा। ये जो सब स्तव-स्त्रोत लिख रहा है, इसके बाद लोग भक्ति-मुक्ति प्राप्त क्रने के लिए इन्हीं सब स्तवों का पाठ करेगे। याद रखना, आत्म-ज्ञान की प्राप्ति ही परम साध्य है। अवतारी पुरुषरूपी जगद्गुरु के प्रति भक्ति होने पर समय आते ही वह ज्ञान स्वयं ही प्रकट हो जाता है।

शिष्य विस्मित होकर सुनने लगा।

शिष्य-तो महाराज, क्या मुझे भी उस ज्ञान की प्राप्ति हो सकेगी ?

स्वामी जी-श्री रामकृष्ण के आशीर्वाद से तुझे अवश्य ज्ञान-भक्ति प्राप्त होगी। परंतु गृहस्थाश्रम में तुझे कोई विशेष सुख न होगा।

शिष्य- स्वामी जी की इस बात पर दुःखी हुआ और यह सोचने लगा कि फिर स्त्री-पुत्रों की क्या दशा होगी।

शिष्य-यदि आप दया करके मन के बंधनों को काट दें तो उपाय है ; नहीं तो इस दास के उद्धार का दूसरा कोई उपाय नहीं। आप श्री मुख से कह दीजिए, ताकि इसी जन्म में मुक्त हो जाऊँ।

स्वामी जी-भय क्‍या है? जब यहाँ पर आ गया है, तो अवश्य हो जाएगा।

शिष्य स्वामी जी के चरण-कमलों को पकड़कर रोता हुआ कहने लगा, "प्रभो, अब मेरा उद्धार करना ही होगा।"

स्वामी जी-कौन किसका उद्धार कर सक्रता है, बोल? गुरु केवल कुछ आवरणों को हटा सकते हैं। उन आवरणों के हटते ही आत्मा अपनी महिमा में स्वयं ज्योतिष्मान होकर सूर्य की तरह प्रकट हो जाती है।

शिष्य-तो फिर शास्त्रों में कृपा की बात क्‍यों सुनते हैं ?

स्वामी जी-कृपा का मतलब क्या है, जानता है? जिन्होंने आत्म-साक्षात्कार किया है, उनके भीतर एक महाशक्ति खेलने लगती है। ऐसे महापुरुष को केंद्र बनाकर थोड़ी दूर तक व्यासार्द्ध लेकर जो एक वृत्त बन जाता है, उस वृत्त के भीतर जो लोग आ पड़ते हैं, वे उनके भाव से अनुप्राणित हो जाते हैं। अर्थात्‌ वे उस महापुरुष के भाव में अभिभूत हो जाते हैं। अतः साधन-भजन न करके भी वे अपूर्व आध्यात्मिक फल के अधिकारी बन जाते हैं। इसे यदि कृपा कहता है तो कह ले।

शिष्य-महाराज, क्या इसके अतिरिक्त और किसी प्रकार कृपा नहीं होती ?

स्वामी जी-वह भी है। जब अवतार आते हैं, तब उनकी लीला के साथ मुक्त एवं मुमुक्षु पुरुषगण उनकी लीला में भाग लेने के लिए देह धारण करके आते हैं। करोड़ों जन्मों का अंधकार हटाकर अवतार केवल एक ही जन्म में मुक्त कर दे सकते हैं-इसी का अर्थ है कृपा। समझा?

शिष्य-जी हाँ; परंतु जिन्हें उनका दर्शन प्राप्त नहीं हुआ, उनके उद्धार का क्‍या उपाय है ?

स्वामी जी-उनका उपाय है-उन्हें पुकारता। पुकार-पुकारकर अनेक लोग उनका दर्शन पाते हैं-ठीक हमारे जैसे शरीर में उनका दर्शन करते हैं और उनकी हूपा प्राप्त करते हैं।

शिष्य-महाराज, श्री रामकृष्ण के शरीर छूट जाने के बाद क्या आपको उनका दर्शन प्राप्त हुआ था ?

स्वामी जी-श्री रामकृष्ण के देह-त्याग के बाद मैंने कुछ दिन गाजीपुर में पवहारी बाबा का संग किया था। उस समय पवहारी बाबा के आश्रम के निकट एक बगीचे में मैं रहता था। लोग उसे भूत का बगीचा कहा करते थे, परंतु मुझे भय नहीं लगता था। जानता तो है कि मैं ब्रह्मदैत्य, भूत-फूत से नहीं डरता। उस बगीचे में नींबू के अनेक पेड़ थे और वे फलते भी खूब थे। मुझे उस समय पेट की सख्त बीमारी थी, और इस पर वहाँ रोटी के अतिरिक्त और कुछ भिक्षा में भी नहीं मिलता था। इसलिए हाजमे के लिए नींबू का रस खूब पीता था। पवहारी बाबा के पास आता-जाना बहुत ही अच्छा लगता था। वे भी मुझे बहुत प्यार करने लगे। एक दिन मन में आया, श्री रामकृष्ण देव के पास इतने दिन रहकर भी मैंने इस रुग्ण शरीर को दृढ़ बनाने का कोई उपाय तो नहीं पाया। सुना है,पवहारी बाबा हठयोग जानते हैं। उनसे हठयोग की क्रिया सीज़ कर देह को दृढ़ बनाने के लिए अब कुछ दिन साधना करूँगा। जानता तो है, मेरा पूर्व-बंगाली हठ-जो मन में आएगा, उसे करूँगा ही। जिस दिन मैंने पवहारी बाबा से दीक्षा लेने का इरादा किया, उसकी पहली रात एक खटिया पर सोकर पड़ा-पड़ा सोच ही रहा था कि देखता हूँ, श्री रामकृष्ण मेरी दाहिनी ओर खड़े होकर एक दृष्टि से मेरी ओर टकटकी लगाये हैं; मानो वे विशेष दुःखी हो रहे हैं। जब मैंने उनके चरणों में सर्वस्व समर्पण कर दिया है तो फिर किसी दूसरे को गुरु बनाऊं ? यह बात मन में आते ही लज्जित होकर मैं उनकी ओर ताकता रह गया। इसी प्रकार शायद दो-तीन घंटे बीत गए। परंतु उस समय मेरे मुख से कोई भी बात नहीं निकली। उसके बाद एकाएक वे अंतर्हित हो गए। श्री रामकृष्ण को देखकर मन न जाने कैसा हो गया! इसीलिए उस दिन के लिए दीक्षा लेने का संकल्प स्थगित रखना पड़ा। दो-एक दिन बाद फिर पवहारी बाबा से मंत्र लेने का संकल्प उठा। उस दिन भी रात को फिर श्री रामकृष्ण प्रकट हुए-ठीक पहले दिन की ही तरह। इस प्रकार लगातार इक्कीस दिन तक उनका दर्शन पाने के बाद दीक्षा लेने का संकल्प एकदम त्याग दिया। मन में सोचा, जब भी मंत्र लेने का विचार करता हूँ, तभी इस प्रकार दर्शन होता है, तब मंत्र लेने पर तो इष्ट के बदले अनिष्ट ही हो जाएगा।

शिष्य-महाराज, श्री रामकृष्ण के देह-त्याग के बाद क्या उनके साथ आपका कोई वार्तालाप भी हुआ था ?

स्वामी जी इस प्रश्न का कोई उत्तर न देकर चुपचाप बैठे रहे। थोड़ी देर बाद शिष्य से बोले, "श्री रामकृष्ण का दर्शन जिन लोगों को प्राप्त हुआ है, वे धन्य हैं। कुल पवित्र जननी इतार्था। तुम लोग भी उनका दर्शन प्राप्त करोगे। अब जब तुम लोग यहाँ आ गए हो तो तुम लोग भी यहीं के आदमी हो गए हो! 'रामकृष्ण' नाम धारण करके कौन आया था, कोई नहीं जानता। ये जो उनके अंतरंग-संगी-साथी हैं-इन्होंने भी उनका पता नहीं पाया। किसी किसी ने कुछ पाया है, पर बाद में सभी समझेंगे। ये राखाल आदि जो लोग उनके साथ आए हैं, इनसे भी कभी-कभी भूल हो जाती है। दूसरों की फिर क्या कहूँ? "

इस प्रकार बात चल रही थी। इसी समय स्वामी निरंजनानंद ने दरवाज़ा खटखटाया। शिष्य ने उठकर निरंजनानंद स्वामी से पूछा, कौन आया है ? स्वामी निरंजनानंद ने कहा, भगिनी निवेदिता और अन्य दो अंग्रेज़ महिलाएँ। शिष्य ने स्वामी जी से यह बात कही। स्वामी जी ने कहा, वह अलखल्ला दे तो। जब शिष्य ने वह उन्हें ला दिया, तो वे सारा शरीर ढककर बैठे और शिष्य ने दरवाज़ा खोल दिया। भगिनी निवेदिता तथा अन्य अंग्रेज़ महिलाएँ प्रवेश करके फर्श पर ही बैठ गयीं और स्वामी जी का कुशल-समाचार आदि पूछकर साधारण वार्तालाप करके ही चली गयीं। स्वामी जी ने शिष्य से कहा, "देखा, ये लोग कैसे सभ्य हैं? बंगाली होते तो अस्वस्थ देखकर भी कम से कम आधा घंटा मुझे बकवाते!"

दिन के क़रीब ढाई बजे का समय है, लोगों की बड़ी भीड़ है। मठ की जमीन में तिल रखने का स्थान नहीं। कितना कीर्तन हो रहा है, कितना प्रसाद बाँटा जा रहा है-कुछ कहा नहीं जाता! स्वामी जी ने शिष्य के मन की बात समझकर कहा, "नहीं तो एक बार जाकर देख आ-बहुत जल्द लौटना मगर!" शिष्य भी आनंद के साथ बाहर जाकर उत्सव देखने लगा। स्वामी निरंजनानंद द्वार पर पहले की तरह बैठे रहे। लगभग दस मिनट के बाद शिष्य लौटकर स्वामी जी को उत्सव की भीड़ की बातें सुनाने लगा।

स्वामी जी-कितने आदमी होंगे ?

शिष्य-कोई पचास हज़ार!

शिष्य की बात सुनकर, स्वामी जो उठकर खड़े हुए और उस जन-समूह को देखकर बोले, "नहीं बहुत होंगे तो करीब तीस हज़ार !"

उत्सव की भीड़ धीरे धीरे कम होने लगी। दिन के साढ़े चार बजे के करीब स्वामी जी के दरवाज़े खिड़कियाँ आदि सब खोल दिए गए। परंतु उनका शरीर अस्वस्थ होने के कारण उनके पास किसी को जाने नहीं दिया गया।

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[स्थान : बेलूड़ मठ। वर्ष: १९०२ ई०]

पूर्व बंग से लौटने के बाद स्वामी जी मठ में ही रहा करते थे और मठ के घरू कार्यों की देख-रेख.करते तथा कभी-कभी कोई कोई काम अपने हाथ से ही करते हुए समय बिताते थे। वे कभी अपने हाथ से मठ की ज़मीन खोदते, कभी पेड़, बेल, फल-फूलों के बीज बोया करते, और कभी कभी यदि कोई नौकर-चाकर अस्वस्थ हो जाने के कारण किसी कमरे में फाड़ न लगा सका तो वे अपने हाथ से ही झाड़ू लेकर उस कमरे की झाड़-बुहार करने लगते थे। यदि कोई यह देखकर कहता, "महाराज, आप क्‍यों? "-तो उसके उत्तर में कहा करते थे, "इससे क्या-गंदगी रहने पर मठ के सभी लोगों को रोग हो जाएगा।" उस समय उन्होंने मठ में कुछ गाय, हंस, कुत्ते और बकरियाँ पाल रखी थीं। एक बड़ी बकरी को 'हंसी' कहकर पुकारा करते और उसी के दूध से प्रात:काल चाय पीते। बकरी के एक छोटे बच्चे को 'मठरू' कहकर पुकारते। उन्होंने प्रेम से उसके गले में घुँघरू पहना दिए थे। बकरी का वह बच्चा प्यार पाकर स्वामी जी के पीछे पीछे घूमा करता और स्वामी जी उसके साथ पाँच वर्ष के बच्चे की तरह दौड़-दौड़कर खेला करते थे। मठ देखने के लिए नए-नए आए हुए व्यक्ति विस्मित होकर कहा करते थे, 'क्या ये ही विश्व-विजयी स्वामी विवेकानंद है!' कुछ दिन बाद 'मटरू' के मर जाने पर स्वामी जी ने दुःखी होकर शिष्य से कहा था, 'देख, मैं जिससे भी ज़रा प्यार करने जाता हूँ, वही मर जाता है। मठ की ज़मीन की सफाई तथा मिट्टी खोदने और बराबर करने के लिए प्रति वर्ष ही कुछ संथाल स्त्री-पुरुष कुली आया करते थे। स्वामी जी, उनके साथ कितना हँसते-खेलते रहते और डनके सुख-दुःख की बातें सुना करते थे। एक दिन कलकत्ते से कुछ विख्यात व्यक्ति मठ में स्वामी जी के दर्शन करने के लिए आए। उस दिन स्वामी जी उन संथालों के साथ बातचीत में ऐसे मग्न थे कि स्वामी सुबोधानंद ने जब आकर उन्हें उन सब व्यक्तियों के आने का समाचार दिया, तब उन्होंने कहा, "मैं इस समय मिल न सकूँगा, इनके साथ बड़े मज़े में हूँ।" और वास्तव में उस दिन स्वामी जी उन सब दीन-दुःखी संथालों को छोड़कर उन व्यक्तियों के साथ मिलने न गए।

संथालों में एक व्यक्ति का नाम था 'केष्टा'। स्वामी जी केष्टा को बड़ा प्यार करते थे। बात करने के लिए आने पर केष्टा कभी कभी स्वामी जी से कहा करता था, "अरे स्वामी बाप, तू हमारे काम के समय यहाँ पर न आया कर-तेरे साथ बात करने से हमारा काम बंद हो जाता है और बूढ़ा बाबा आकर फटकार बताता है।" यह सुनकर स्वामी जी की आँखें भर आती थीं और वे कहा करते थे, "नहीं, बूढ़ा बाबा (स्वामी अद्वैतानंद) फटकार नहीं बतायेगा, तू अपने देश की दो बातें बता।" और यह कहकर उसके पारिवारिक सुख-दु:खों की बातें छेड़ देते थे।

एक दिन स्वामी जी ने केष्टा से कहा, "अरे, तुम लोग हमारे यहाँ खाना खाओगे?" केष्टा बोला, "हम अब और तुम लोगों का छुआ नहीं खाते, ब्याह जो हो गया है। तुम्हारा छुआ नमक खाने से जात जाएगी रे बाप।" स्वामी जी ने कहा, "नमक क्यों खायगा रे ? बिना नमक डालकर तरकारी पका देंगे, तब तो खायेगा न?" केष्टा उस बात पर राजी हो गया। इसके बाद स्वामी जी के आदेश से मठ में उन सब संथालों के लिए लुची, तरकारी, मिठाई, दही आदि का प्रबंध किया गया और वे उन्हें बिठाकर खिलाने लगे। खाते खाते केष्टा बोला, हाँ रे, स्वामी बाप, तुमने ऐसी चीज़ें कहाँ से पायी हैं--हम लोगों ने कभी ऐसा नहीं खाया।" स्वामी जी ने उन्हें तृप्ति भर भोजन कराकर कहा, "तुम लोग तो नारायण हो-आज मैंने नारायण को भोग दिया।" स्वामी जी जो दरिद्र-नारायण की सेवा की बात कहा करते थे, उसे वे इसी प्रकार स्वयं करके दिखा गए हैं।

भोजन के बाद जब संथाल लोग आराम करने गए, तब स्वामी जी ने शिष्य से कहा, "इन्हें देखा, मानो साक्षात्‌ नारायण हैं-ऐसा सरल चित्त-ऐसा निष्कपट सच्चा प्रेम कभी नहीं देखा था।"

इसके बाद मठ में संन्यासियों को संबोधित कर कहने लगे, "देखो, ये लोग कैसे सरल हैं। इनका दुःख थोड़ा-बहुत दूर कर सकोगे? नहीं तो भगवे वस्‍त्र पहनने से फिर क्या हुआ? परहित के लिए सर्वस्व अर्पण-इसी का नाम वास्तविक संन्यास है। इन्हें कभी अच्छी चीज़ें खाने को नहीं मिलीं। मन में आता है-मठ आदि सब बेच दूँ, इन सब ग़रीब-दुःखी दरिद्र-नारायणों में बाँट दूँ। हमने वृक्षतल को ही तो आश्रय-स्थान बना रखा है। हाय! देश के लोग पेट भर भोजन भी नहीं पा रहे हैं, फिर हम किस मुंह से अन्न खाते हैं ? उस देश में जब गया था तो माँ से कितना कहा, "माँ यहाँ पर लोग फूलों की सेज पर सो रहे हैं, तरह तरह्‌ के खाद्य-पेयों का उपभोग कर रहे हैं, इन्होंने कौन सा भाग बाक़ी रखा है! और हमारे देश के लोग भूखों मर रहे हैं। माँ, उनके उद्धार को कोई उपाय न होगा?" उस देश में घर्म-प्रचारार्थ जाने का मेरा एक यह भी उद्देश्य था कि मैं इस देश के लिए अन्न का प्रबंध कर सकूँ।

"देश के लोग दो वक्‍त दो दाने खाने को नहीं पाते, यह देखकर कभी कभी मन में आता है, छोड़ दे शंख बजाना, घंटी हिलाना, छोड़ दे लिखना-पढ़ना और स्वयं मुक्ति की चेष्टाएँ-हम सब मिलकर गाँव गाँव में घूमकर चरित्र और साधना के बल पर धनिकों को समझाकर, धन संग्रह करके ले आयें और दरिद्र-नारायण की सेवा करके जीवन बिता दें।

"देश इन गरीब-दुःखियों के लिए कुछ नहीं सोचता है रे! जो लोग हमारे राष्ट्र की रीढ़ हैं, जिनके परिश्रम से अन्न पैदा हो रहा है, जिन मेहतर डोमों के, एक दिन के लिए भी, काम बंद करने पर शहर भर में हाहाकार मच जाता है-हाय! हम क्‍यों न उनके साथ सहानुभूति करें, सुख-दुःख में उन्हें सांत्वना दें! क्या वेश में ऐसा कोई भी नहीं है रे! यह देखो न-हिंदुओं की सहानुभूति न पाकर मद्रास प्रांत में हज़ारों पैरिया ईसाई बने जा रहे हैं, पर ऐसा न समझता कि केवल पेट के लिए ईसाई बनते हैं। असल में हमारी सहानुभूति न पाते के कारण वे ईसाई बनते हैं। हम दिन-रात उनसे केवल यही कहते रहे हैं, 'छूओ मत, छूओ मत। देश में क्या अब दया-धर्म है भाई ? केवल छूआछूत-पंथियों का दल रह गया है! ऐसे आचार के मुख पर मार भाडू, मार लात! इच्छा होती है-तेरे छूआछूत-पंथ की सीमा के तोड़कर अभी चला जाऊँ-जहाँ कही भी पतित, ग़रीब, दीन, दरिद्र हो, आ जाओ' यह कह कहकर, उन सभी को श्री रामकृष्ण के नाम पर बुला लाऊँ। इन लोगों के बिना उठे माँ नहीं जागेगी। हम यदि इनके लिए अन्न-वस्त्र की सुविधा न कर सके, तो फिर हमने क्या किया? हाय! ये लोग दुनियादारी कुछ भी नहीं जानते, इसीलिए तो दिन-रांत परिश्रम करके भी अन्न-वस्त्र का प्रबंध नहीं कर पाते। आओ, हम सब मिलकर इनकी आँखें खोल दें-मैं दिव्य दृष्टि से देख रहा हैं, इनके और मेरे भीतर एक ही ब्रह्म-एक ही शक्ति विद्यमान है, केवल विकास की न्यूनाधिकता है। सभी अंगों में रक्त का संचार हुए बिना किसी भी देश को कभी उठते देखा है? एक अंग के दुर्बल हो जाने पर, दूसरे अंग के सबल होने से भी उस देह से कोई बड़ा काम फिर नहीं होता, इस बात को निश्चित जान लेना।"

शिष्य-महाराज, इस देश के लोगों में कितने भिन्न-भिन्न धर्म हैं, कितने विभिन्न भाव हैं-इन सबका आपस में मेल हो जाना तो बड़ा ही कठिन प्रतीत होता है।

स्वामी जी (कुछ रोषपूर्वक)-यदि किसी काम को कठिन मान लेगा तो फिर यहाँ न आना। श्री रामकृष्ण की इच्छा से सब कुछ ठीक हो जाएगा। तेरा काम है-जाति-वर्ण का विचार छोड़कर दीन-दु:खियों का सेवा करना। उसका परिणाम क्या होगा, क्या न होगा, यह सोचना तेरा काम नहीं है। तेरा काम है, सिर्फ काम करते जाना-फिर सब अपने आप ही हो जाएगा। मेरे काम की पद्धति है, गढ़कर खड़ा करना; जो है, उसे तोड़ना नहीं। जगत्‌ का इतिहास पढ़कर देख, एक-एक महापुरुष एक-एक समय में एक-एक देश के मानो केंद्र के रूप में खड़े हुए थे। उनके भाव से अभिभूत होकर सैकड़ों-हजारों लोग जगत्‌ का कल्याण कर गए हैं। तुम बुद्धिमान लड़के हो। यहाँ पर इतने दिनों से आ रहे हो, इतने दिन-क्या किया, बोलो तो? दूसरों के लिए क्या एक जन्म भी नहीं दे सकते ? दूसरे जन्म में आकर फिर वेदांत आदि पढ़ लेना। इस जन्म में दूसरों की सेवा में यह देह दे जा, तब जानूँगा-मेरे पास आना सफल हुआ।

इन बातों को कहकर स्वामी जी फिर गंभीर चिंता में मग्न हो गए। थोड़ा समय बीतने के बाद वे बोले, "मैंने इतनी तपस्या करके यही सार समझा है कि जीव-जीव में वे अधिष्ठित हैं; इसके अतिरिक्त ईश्वर और कुछ भी नहीं। जो जीवों पर दया करता है, वही व्यक्ति ईश्वर की सेवा कर रहा है।"

अब संध्या हुई। स्वामी जी दूसरी मंजिल पर थे और बिस्तर पर लेटकर शिष्य से कहने लगे, "दोनों पैरों को जरा दबा तो दे" शिष्य आज की बातचीत से भयभीत और स्तंभित होकर स्वयं आगे नहीं बढ़ रहा था। अतएव अब साहस पाकर बड़ी खुशी से स्वामी जी की चरण-सेवा करने बैठा। थोड़ी देर बाद स्वामी जी ने उसे संबोधित कर कहा, "आज मैंने जो कुछ कहा है, उन बातों, को मन में गूंथकर रखना; कहीं भूल न जाना।"

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[स्थान : बेलूड़ मठ। बर्ष : १९०२ ई० का प्रारंभ]

आज शनिवार है। शिष्य संध्या के पहले ही मठ में आ गया है। मठ में आजकल साधन-भजन, जप-तप का बहुत ज़ोर है। स्वामी जी ने आज्ञा दी है कि बह्मचारी और संन्‍यासी सभी को खूब,सबेरे उठकर मंदिर में जाकर जप-ध्यान करना होगा। स्वामी जी की निद्रा तो एक प्रकार नहीं के ही बराबर है, प्रात:काल २१७ वार्ता एवं संलाप तीन बजे से ही बिस्तर से उठकर बैठे रहते हैं। एक घंटा खरीदा गया है-तड़के सभी को जगाने के लिए। मठ के प्रत्येक कमरे के पास जाकर जोर-जोर से वह घंटा बजाया जाता है।

शिष्य ने मठ में आकर स्वामी जी को प्रणाम किया। प्रणाम स्वीकार करते ही वे बोले, "ओ रे, मठ में आजकल कैसा साधन-भजन हो रहा है; सभी लोग तड़के और सायंकाल बहुत देर तक जप-ध्यान करते हैं। वह देख, घंटा लाया गया है, उसी से सबको जगाया जाता है। अरुणोदय से पहले सभी को नींद छोड़कर उठना पड़ता है। श्री रामकृष्ण कहा करते थे, 'प्रात:काल और सायंकाल मन सात्तविक भावों से पूर्ण रहता है; उसी समय एकाग्र मन से ध्यान करना चाहिए।"

"श्री रामकृष्ण के देह-त्याग के बाद हम वराहनगर के मठ में कितना जप-ध्‍यान किया करते थे। सुबह तीन बजे सब जाग उठते थे। शौच आदि के बाद कोई स्नान करके और कोई कपड़े बदलकर मंदिर में जाकर जप-ध्यान में डूब जाया करता था। उस समय हम लोगों में क्या वैराग्य का भाव था-दुनिया है या नहीं, इसका पता ही न था। शशि (स्वामी रामकृष्णानंद) चौबीस घंटे श्री रामकृष्ण की सेवा करता रहता था-घर की गृहिणी की तरह। भिक्षा माँगकर श्री रामकृष्ण के भोग आदि की और हम लोगों के खिलाने-पिलाने की सारी व्यवस्था वह स्वयं करता था। ऐसे दिन भी गए हैं, जब सबेरे से चार-पाँच बजे शाम तक जप-ध्यान चलता रहता था। शशि फिर खाना लेकर बहुत देर तक बैठा रहता और अंत में किसी तरह से घसीटकर हमें जप-ध्यान से उठा दिया करता था। अहा, शशि की कैसी निष्ठा देखी है!"

शिष्य-महाराज, मठ का खर्च उत दिनों कैसे चलता था ?

स्वामी जी-कैसे चलता था, क्या प्रश्न किया तूने? हम ठहरे साधु-संन्यासी! भिक्षा माँगकर जो आता था, उसीसे सब चला करता था। आज सुरेश बाबू, बलराम बाबू नहीं हैं। वे दो व्यक्ति आज होते तो इस मठ को देखकर कितने आनंदित होते। सुरेश बाबू का नाम सुना है न? उन्हें एक प्रकार से इस मठ का संस्थापक ही कहना चाहिए। वे ही वराहनगर मठ का सारा ख़र्च चलाते थे। सुरेश मित्र इस समय हम लोगों के लिए बहुत सोचा करते थे। उनकी भक्ति और विश्वास की तुलना नहीं।

शिष्य-महाराज, सुना है, उनकी मृत्यु के समय आप लोग उनसे मिलने के लिए विशेष नहीं जाया करते थे।

स्वामी जी-उनके रिश्‍तेदार जाने देते, तब न? जाने दे, उसमें अनेक बातें हैं। परंतु इतना जान लेना, संसार में तू जीवित है या मर गया है, इससे तेरे स्वजनों को कोई विशेष हानि-लाभ नहीं। तू यदि कुछ धन-संपत्ति छोड़कर जा सका तो देखना तेरी मृत्यु से पहले ही उसे लेकर घर में डंडेबाजी शुरू हो जाएगी। तेरी मृत्यु-शैय्या पर तुझे सांत्वना देनेवाला कोई नहीं होगा-स्त्री-पुत्र तक नहीं। इसी का नाम संसार है।

मठ की पूर्व स्थिति के संबंध में स्वामी जी फिर कहने लगे-"पैसे की कमी के कारण कभी कभी तो मैं मठ उठा देने के लिए कगड़ा किया करता था; परंतु शशि को इस विषय में किसी भी तरह सहमत न करा सकता था। शशि को हमारे मठ का केंद्रस्वरूप समझना। एक दिन मठ में ऐसा अभाव हुआ कि कुछ भी नहीं रहा। भिक्षा माँगकर चावल लाया यया, तो नमक नहीं। कभी केवल नमक और चावल था, फिर भी कुछ परवाह नहीं, जप-ध्यान के प्रबल वेग में उस समय हम सब बह रहे थे। कुंदरू का पत्ता उबाला हुआ और नमक-भात, यही लगातार महीनों तक चला-ओह। वे कैसे दिन थे! परंतु यह बात ध्रुव सत्य है कि तेरे अंदर यदि कुछ तत्त्व रहे तो बाह्य परिस्थिति जितनी ही विपरीत होगी, भीतर की शक्ति का उतना ही उन्मेष होगा। परंतु अब जो मठ में खाट, बिछौना, खाने-पीने आदि की अच्छी व्यवस्था की गई है, इसका कारण है। उन दिनों हम लोग जितना सहन कर सके हैं, उतना क्या आजकल के लोग, जो संन्यासी बनकर यहाँ आ रहे हैं, सहन कर सकेंगे? हमने श्री रामकृष्ण का जीवन देखा है, इसी लिए हम दुःख या कष्ट की विशेष परवाह नहीं किया करते थे। आजकल के लड़के उतनी कठोर साधना नहीं कर सकेंगे। इसीलिए रहने के लिए थोड़ा स्थान और दो दाने अन्न की व्यवस्था की गई है। मोटा भात, मोटा वस्त्र पाने पर लड़के सारा मन साधन-भजन में लगायेंगे और जीव के हित के लिए जीवनोत्सर्ग करना सीखेंगे।"

शिष्य-महाराज, मठ के ये सब खाट-बिछौने देखकर बाहर के लोग अनेक विरुद्ध बातें करते हैं।

स्वामी जी-करने दे न। हँसी उड़ाने के बहाने ही सही, यहाँ की बात एक बार मन में तो लायेंगे! शत्रुभाव से जल्द मुक्ति होती है। श्री रामकृष्ण कहा करते थे, 'लोग तो कीड़े-मकोड़े हैं। इसने क्या कहा, उसने क्या कहा, क्‍या यही सुनकर चलना होगा? छि: छि:।

शिष्य-महाराज, आप कभी कहते हैं, सब नारायण हैं, दीन-दुःखी मेरे नारायण हैं! और फिर कभी कहते हैं, 'लोग तो कीड़े-मकोड़े हैं।' इसका मतलब मैं नहीं समझ पाता।

स्वामी जी-सभी जो नारायण हैं, इसमें रत्ती भर भी संदेह नहीं, परंतु सभी नारायण तो बदनाम नहीं करते न ? बेचारे गरीब-दुःखी लोग मठ का इंतजाम आदि देखकर तो कभी बदनाम नहीं करते? हम सत्कार्य करते जाएंगे-जो बदनाम करेंगे, उन्हें करने दो। हम उनकी ओर देखेंगे भी नहीं-इसी भाव से कहा गया है, 'लोग कीड़े-मकोड़े हैं।' जिसकी ऐसी उदासीन वृत्ति है, उसका सब कुछ सिद्ध हो जाता है-हाँ, किसी किसी का जरा विलंब से होता है, परंतु होता है निश्चित! हम लोगों की ऐसी ही उदासीन वृत्ति थी, इसीलिए थोड़ा बहुत हो पाया। नहीं तो देखते ही हो, हमारे कैसे दुःख के दिन बाते हैं! एक बार तो ऐसा हुआ कि भोजन न पाकर रास्ते के किनारे एक मकान के बरामदे में बेहोश होकर पड़ा था। सिर पर थोड़ी देर वर्षा का जल गिरता रहा, तब होश में आया। एक दूसरे अवसर पर दिन भर खाने को न पाकर कलकत्ते में यह काम, वह काम करता हुआ घूम-घामकर रात को दस-ग्यारह बजे मठ में आया, तब कुछ खा सका और ऐसा सिर्फ एक दिन ही नहीं हुआ!

इन बातों को कहकर स्वामी जा अन्यमनस्क होकर थोड़ा देर बैठे रहे। बाद में फिर कहने लगे-"ठीक-ठीक संन्यास क्या आसानी से होता है रे? ऐसा कठिन आश्रम और दूसरा नहीं। ज़रा भी नीति-विरुद्ध पैर पड़े कि पहाड़ से एकदम गड्ड़े में गिरे-हाथ-पैर सब टकराकर चकनाचूर! एक दिन मैं आगरे से वृंदावन पैदल जा रहा था। पास में एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी। वृंदावन से क़रीब एक कोस की दूरी पर था-देखा, रास्ते के किनारे एक व्यक्ति बैठकर तंबाकू पी रहा है। उसे देखकर मुझे भी तंबाकू पीने की इच्छा हुई। मैंने उससे कहा, अरे भाई, जरा मुझे भी चिलम देगा? वह मानो सकुचाता हुआ बोला, "महाराज, हम भंगी हैं।' संस्कार तो है ही।-यह सुनकर मैं पीछे हट गया, और बिना तंबाकू पिये ही फिर रास्ता चलने लगा। पर थोड़ी दूर जाकर मन में विचार आया, भरे, मैंने तो संन्यास लिया है; जाति, कुल, मान सब कुछ छोड़ दिया है, फिर भी उस व्यक्ति ने जब अपने को भंगी बताया तो मैं पीछे क्यों हट गया? उसका छुआ हुआ तंबाकू भी न पी सका!' ऐसा सोचकर मन व्याकुल हो उठा। उस समय क़रीब दो फ़्लाँग रास्ता चल आया था। पर फिर लौटकर डसी मेंहतर के पास आया, देखता हूँ, अब भी वह व्यक्ति वहीं पर बैठा है। मैंने आकर जल्दी से कहा-'अरे भैया, एक चिलम तंबाकू भरकर ले आ।" उसने फिर कहा कि वह मेंहतर है। पर मैंने उसकी मनाही की कोई परवाह न की और कहा, "चिलम में तंबाकू देना ही पड़ेगा।' वह फिर क्या करता? -अंत में उसने चिलम भरकर मुझे दे दी। फिर आनंद से तंबाकू पीकर मैं वृंदावन आया। अतएव संन्यास लेने पर इस बात की परीक्षा लेनी होती है कि वह व्यक्ति स्वयं जाति-वर्ण के परे चला गया है या नहीं। ठीक-ठीक संन्यास-व्रत की रक्षा करना बड़ा ही कठिन है, कहने और करने में ज़रा भी फर्क होने की गुंजाइश नहीं है।"

शिष्य-महाराज, आप हमारे सामने कभी गृहस्थ का आदर्श और कभी त्यागी का आदर्श रखते हैं; हम जैसों को उनमें से किसका अवलंबन करना उचित है ?

स्वामी जी-सब सुनता जा, उसके बाद जो अच्छा लगे उसीमें चिपट जाना-फिर बुलडॉग की तरह दृढ़ता के साथ पकड़े पड़े रहना।

इस प्रकार वार्तालाप करते स्वामी जी शिष्य के साथ नीचे उतर आए और कभी बीच-बीच में 'शिव-शिव' कहते और फिर कभी गुनगुनाकर "कब किस रंग में रहती हो माँ तुम श्‍यामा सुधातरंगिनी'-आदि गीत गाते हुए टहलने लगे |

 

४३

[स्थान : बेलूड़ मठ। वर्ष : १९०२ ई०]

शिष्य पिछली रात को स्वामी जी के कमरे ही में सो गया था। रात्रि के चार बजे स्वामी जी शिष्य को जगाकर बोले, जा, घंटा लेकर सब साधु-ब्रह्मचारियों को जगा दे।" आदेश के अनुसार शिष्य ने पहले ऊपरवाले साधुओं के पास घंटा बजाया। फिर उन्हें उठते देख नीचे जाकर घंटा बजाकर सब साधु-ब्रह्मचारियों को जगाया। साधुगण जल्दी ही शौच आदि से निवृत्त होकर, कोई-कोई स्नान करके अथवा कोई कपड़ा बदलकर मंदिर में जप-अध्य्यन करने के लिए प्रविष्ट हुए।

स्वामी जी के निर्देश से स्वामी ब्रह्मनंद के कानों के पास बहुत जोर से घंटा बजाने से वे बोल उठे, "इस 'बांगाल' की शरारत के कारण मठ में रहता कठिन हो गया है।" शिष्‍य ने जब स्वामी जी से यह बात कही तो स्वामी जी खूब हँसते हुए बोले, "तूने ठीक किया।"

इसके बाद स्वामी जी भी मूँह-हाथ धोकर शिष्य के साथ मंदिर में प्रविष्ट हुए।

स्वामी ब्रह्मानंद आदि संन्‍यासी-गण मंदिर में ध्यानस्थ बैठे थे। स्वामी जी के लिए अलग आसन रखा हुआ था। वे उत्तर की ओर मुँह करके उस पर बैठते हुए सामने एक आसन दिखाकर शिष्य से बोले, "जा, वहाँ पर बैठकर ध्यान कर।" कोई ध्यान के लिए बैठकर मंत्र जपने लगे, तो कोई अंतर्मुख होकर शांत भाव से बैठे रहे। मठ का वातावरण मानो स्तब्ध हो गया। अभी तक अरुणोदय नहीं हुआ। आकाश में तारे चमक रहे थे।

स्वामी जी आसन पर बैठने के थोड़ी ही देर बाद एकदम स्थिर, शांत, निःस्पंद होकर सुमेरु की तरह निश्चल हो गए और उनका वास बहुत धीरे धीरे चलने लगा। शिष्य विस्मित होकर स्वामी जी की वह निश्चल निवात-निष्कंप दीप-शिखा की तरह स्थिति को एकटक देखने लगा। जब तक स्वामी जी न उठेंगे, तब तक किसी को आसन छोड़कर उठने की आज्ञा नहीं है। इसलिए थोड़ी देर बाद पैर में झुनझुनी आने पर तथा उठने की इच्छा होने पर भी वह स्थिर होकर बैठा रहा। लगभग डेढ़ घंटे के बाद स्वामी 'शिव हर" कहकर ध्यान समाप्त कर उठ गए। उस समय उनकी आँखें आरक्त हो उठी थीं, मुख गंभीर, शांत एवं स्थिर था। श्री रामकृष्ण को प्रणाम करके स्वामी जी नीचे उतरे और मठ के आँगन में टहलने लगे। थोड़ी देर बाद शिष्य से बोले, "देखा, साधुगण आजकल कैसा जप-ध्यान करते हैं? ध्यान गंभीर होने पर कितने ही आश्‍चर्यजनक अनुभव होते हैं। मैंने वराहनगर के मठ में ध्यान करते करते एक दिन इड़ा-पिंगला नाड़ी देखी थी। ज़रा चेष्टा करने से ही देखा जा सकता। उसके बाद सुषुम्ना का दर्शन पाने पर जो कुछ देखना चाहेगा, वही देखा जा सकता है। दृढ़ गुरुभक्ति होने पर साधन, भजन, ध्यान, जप सब स्वयं ही आ जाते हैं, चेष्टा की आवश्यकता नहीं होती- गुरुर्ब्रह्मा गुरुविष्णु: गुरुर्देवो महेश्‍वर:।

"भीतर नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त आत्मारूपी सिंह विद्यमान है; ध्यान-धारणा करके उसका दर्शन पाते ही माया की दुनिया उड़ जाती है। सभी के भीतर वह समभाव से विद्यमान है। जो जितना साधन-भजन करता है उसके भीतर उतनी ही जल्द कुण्डलिनी शक्ति जाग उठती है। वह शक्ति मस्तक में उठते ही दृष्टि खुल जाती है-आत्मदर्शन हो जाता है।"

शिष्य-महाराज, शास्त्र में उन बातों को केवल पढ़ा ही है। प्रत्यक्ष तो कुछ भी नहीं हुआ!

स्वामी जी-कालेनात्मनि विन्दति-समय पर अवश्य ही होगा। अंतर इतना ही है कि किसी का जल्द और किसी का जरा देर में होता है। लगे रहना चाहिए-चिपके रहना चाहिए | इसीका नाम यथार्थ पुरुषकार है। तेल की धार की तरह मन को एक ओर लगाये रखना चाहिए। जीव का मन अनेकानेक विषयों से विक्षिप्त हो रहा है। ध्यान के समय भी पहले-पहल मन विक्षिप्त होता है। मन में जो चाहे भाव उठें, उन्हें उस समय स्थिर हो बैठकर देखना चाहिए। देखते-देखते मन स्थिर हो जाता है और फिर मन में चिंतन की तरंगें नहीं रहतीं। वह तरंग-समूह ही है, मत की संकल्प-वृत्ति। इससे पूर्व जिन विषयों का तीव्र भाव से चिंतन किया है, उनका एक मानसिक प्रवाह रहता है। इसीलिए वे विषय-ध्यान के समय मन में उठते हैं। साधक का मन धीरे-धीरे स्थिरता की ओर जा रहा है, उनका उठना या ध्यान के समय स्मरण होना ही उसका प्रमाण है कि मत कभी-कभी किसी भाव को लेकर एक वृत्तिस्थ हो जाता है-उसी का नाम है सविकल्प ध्यान। और मन जिस समय सभी वृत्तियों से शून्य होकर निराधार एक अखंड बोधरूपी प्रत्येक चैतन्य में लीन हो जाता है, उसका नाम है वृत्तिशून्य निर्विकल्प समाधि। हमने श्री रामकृष्ण में ये दोनों समाधियाँ बार बार देखी हैं। उन्हें ऐसी स्थितियों को कोशिश करके लाना नहीं पड़ता था। बल्कि अपने आप ही एकाएक वैसा हो जाया करता था। वह एक आश्‍चर्य जनक घटना होती थी! उन्हें देखकर ही तो यह सब ठीक समझ सका था। प्रतिदिन अकेले ध्यान करना, सब रहस्य स्वयं ही खुल जाएगा। विद्यारूपिणी महामाया भीतर सो रही है, इसीलिए कुछ जान नहीं सक रहा है। यह कुण्डलिनी ही है वह शक्ति। ध्यान करने के पूर्व जब नाड़ी शुद्ध करेगा, तब मन ही मत मूलाघार स्थित कुण्डलिनी पर ज़ोर-ज़ोर से आघात करना और कहना, जागो माँ! जागो माँ!" धीरे धीरे इन सबका अभ्यास करना होगा। भावप्रवणता को ध्यान के समय एकदम दबा देना। वही बड़ा भय है। जो लोग अधिक भावप्रवण हैं, उनकी कुंडलिनी फड़फड़ाती हुई ऊपर तो उठ जाती है, परंतु वह जितने शीघ्र ऊपर जाती है, उतने ही शीघ्र नीचे भी उतर जाती है। जब उतरती है तो साधक को एकदम गर्त में ले जाकर छोड़ती है। भाव-साधना के सहायक कीर्तन आदि में यही एक बड़ा दोष है। नाच-कूदकर सामयिक उत्तेजना से उस शक्ति की ऊध्वर्गति अवश्य हो जाती है। परंतु स्थायी नहीं होती। निम्नगामी होते समय जीव में प्रबल काम-प्रवृत्ति की वृद्धि होती है। मेरे अमेरिका के भाषण सुनकर सामयिक उत्तेजना से स्त्री-पुरुषों में अनेक का यही भाव हुआ करता था। कोई तो जड़ की तरह बन जाते थे। मैंने पीछे पता लगाया था, उस स्थिति के बाद ही कई लोगों की काम-प्रवृत्ति की अधिकता होती थी। स्थिर ध्यान-धारणा का अभ्यास न होने के कारण ही वैसा होता है।

शिष्य-महाराज, ये सब गुप्त साधन-रहस्य किसी शास्त्र में मैंने नहीं पढ़े। आज नई बात सुनी।

स्वामी जी-सभी साधन-रहस्य क्या शास्त्र में है! वे सब गुप्तभाव से गुरु-शिष्य परंपरागत चले आ रहे हैं। खूब सावधानी के साथ ध्यान करना, सामने सुगंधित फूल रखना, धूप जलाना। जिससे मन पवित्र हो, पहले-पहल वही करना। गुरु-इष्ट का नाम लेते लेते कहा कर, 'जीव जगत्‌ सभी का मंगल हो।" उत्तर-दक्षिण, पूर्व, पश्चिम, ऊर्ध्‍व, अधः सभी दिशाओं में शुभ संकल्प के विचारों को बिखेरकर ध्यान में बैठा कर। ऐसा पहले-पहल करना चाहिए। उसके बाद स्थिर बैठकर (किसी भी ओर मुंह करके बैठने से कार्य हो सकता है) मंत्र देते समय जैसा मैंने कहा है, उस प्रकार ध्यात किया कर। एक दिन भी क्रम न तोड़ना। काम-काज की झंझट रहे तो कम से कम पंद्रह मिनट तो अवश्य ही कर लेना। एकनिष्ठ न रहने से कुछ नहीं होता।

स्वामी जी ऊपर जाते-जाते कहने लगे-"अब तुम लोगों की थोड़े ही में आत्मदृष्टि खुल जाएगी। जब तू यहाँ पर आ पड़ा है, तो मुक्ति-उक्ति तो तेरी मुट्ठी में है। इस समय ध्यान आदि करने के अतिरिक्‍त इस दुःखपूर्ण संसार के कष्टों को दूर करने के लिए भी कमर कसकर काम में लग जा। कठोर साधना करते करते मैंने इस शरीर का मानो नाश कर डाला है। इस हाड़-मांस के पिजड़े में अब कुछ नहीं रहा। तुम लोग अब काम में लग जाओ मैं जरा विश्राम करूँ। और कुछ नहीं कर सकता है तो ये सब जितने शास्त्र आदि पढ़े हैं, उन्हीं की बातें जीव को जाकर सुना। इससे बढ़कर ओर कोई दान नहीं। ज्ञान-दान हा सर्वश्रेष्ठ दान है।"

४४

[स्थान : बेलूड़ मठ। वर्ष : १९०२ ई॰]

स्वामी जी अभी मठ में ही ठहरे हैं। शास्त्र-चर्चा के लिए मठ में प्रतिदिन प्रश्‍नोत्तर-कक्षा चल रही है। इस कक्षा में स्वामी शुद्धानंद, विरजानंद तथा स्वरूपानंद प्रधान जिज्ञासु हैं। इस प्रकार शास्त्रालोचना का निर्देश स्वामी जी 'चर्चा' शब्द द्वारा किया करते थे और संन्यासियों तथा ब्रह्मचारियों को सदैव यह 'चर्चा' करने के लिए उत्साहित करते थे। किसी दिन गीता, किसी दिन भागवत, तो किसी दिन उपनिषद्‌ तथा ब्रह्मसूत्र भाष्य की चर्चा हो रही है। स्वामी जी भी प्रायः प्रतिदिन वहाँ पर उपस्थित रहकर प्रश्नों की मीमांसा कर रहे हैं। स्वामी जी के आदेश पर एक ओर जैसी कठोर नियम के साथ ध्यान-धारणा चल रही है, दूसरी ओर उसी प्रकार शास्‍त्र-चर्चा के लिए प्रतिदिन उक्त कक्षा चल रही है। उनकी आज्ञा को मानते हुए सभी उनके चलाये हुए नियमों का पालन करके चला करते थे। मठवासियों के भोजन-शयन, पाठ, ध्यान आदि सभी इस समय कठोर नियम द्वारा शासित हैं। कभी किसी दिन उस नियम का यदि कोई जरा भी उल्लंघन करता, तो नियम की मर्यादा तोड़ने की सजा में उस दिन के लिए उसे मठ में भिक्षा नहीं दी जाती थी। उस दिन उसे गाँव से स्वयं भिक्षा माँगकर लानी पड़ती और भिक्षा में प्राप्त अन्न को मठभूमि में स्वयं ही पकाकर खाना पड़ता था। फिर संघ-निर्माण के लिए स्वामी जी की दूरदृष्टि केवल मठवासियों के लिए दैनिक नियम बनाकर ही नहीं रुक गई थी। बल्कि उन्होंने भविष्य में मठ में जो रीति-नीति तथा कार्यप्रणाली जारी रहेगी, उस पर भी भली भाँति विचार किया और उस संबंध में विस्तार के साथ अनुशासन-संहिता भी तैयार की थी। उसकी पांडुलिपि आज भी बेलूड़ मठ में यत्नपूर्वक रखी गई है।

प्रतिदिन स्नान के बाद स्वामी जी मंदिर में जाते हैं; श्री रामकृष्ण का चरणामृत पान करते हैं; उनकी श्री पादुकाओं को मस्तक से स्पर्श करते हैं और श्री रामकृष्ण की भस्मास्थिपूर्ण मंजूषा के सामने साष्टांग प्रणाम करते हैं। इस मंजूषा को वे बहुधा 'आत्माराम की मंजूषा' कहा करते थे। इसके कुछ दिन पूर्व उस आत्माराम की मंजूषा को लेकर एक विशेष घटना घटी है। एक दिन स्वामी जी उसे मस्तक से स्पर्श करके ठाकुर-घर से बाहर आ रहे थे। इसी समय एकाएक उनके मन में आया, वास्तव में क्‍या इसमें आत्माराम श्री रामकृष्ण का वास है ? परीक्षा करके देखूँगा। सोचकर मन ही मन उन्होंने प्रार्थना की, "हे प्रभो, यदि तुम राजधानी में उपस्थित अमुक महाराजा को आज से तीन दिन के भीतर आकृति करके मठ में ला सको तो समझूंगा कि तुम वास्तव में यहाँ पर हो।" मन ही मन ऐसा कहकर वे ठाकुर-घर से बाहर निकल आए और इस विषय में किसी से कुछ भी न कहा। थोड़ी देर बाद वे उस बात को बिल्कुल भूल गए। दूसरे दित वे किसी काम से थोड़े समय के लिए कलकत्ता गए। तीसरे प्रहर मठ में लौटकर उन्होंने सुना कि सचमुच ही उन महाराजा ने मठ के निकटवर्ती ग्रैंड ट्रंक रोड पर से जाते-जाते रास्ते में गाड़ी रोककर स्वामी जी की तलाश में मठ में आदमी भेजा था और यह जानकर कि वे मठ में उपस्थित नहीं हैं, मठ दर्शन के लिए वे नहीं आए। यह समाचार सुनते ही स्वामी जी को अपने संकल्प की याद जा गई और बड़े विस्मय से अपने गुरुभाइयों के पास उस घटना का वर्णन कर उन्होंने "आत्माराम की मंजूषा" की विशेष यत्न के साथ पूजा करने का उन्हें आदेश दिया।

आज शनिवार है। शिष्य तीमरे मठ में आते ही इस घटना के बारे में जान गया है। स्वामी जी प्रणाम करके बैठते ही उसे ज्ञात हुआ कि वे उसी 'समय घूमने निकलेंगे-स्वामी प्रेमानंद को साथ चलने के लिए तैयार होने का कहा है। शिष्य की बहुत इच्छा है कि वह स्वामी जी के साथ जाए, परंतु स्वामी जी की अनुमति पाये बिना जाना उचित नहीं है। यह सोचकर वह बैठा रहा। स्वामी जी अलखल्ला तथा गेरुआ कनटोप पहनकर एक मोटा डंडा हाथ में लेकर बाहर निकले। पीछे स्वामी प्रेमानंद चले। जाने के पहले शिष्य की ओर ताककर कहने लगे, 'चल, चलेगा?' शिष्य कृतत्‍य होकर स्वामी प्रेमानंद के पीछे-पीछे चल दिया।

न जाने क्‍या सोचते सोचते स्वामी जी कुछ अनमने से होकर चलने लगे। धीरे-धीरे ग्रांड ट्रंक रोड पर आ पहुँचे। शिष्य ने स्वामी जी का उक्त प्रकार का भाव देखकर कुछ बातचीत आरंभ करके उनकी चिंता को भंग करने का साहस किया; पर उसमें सफलता न पाकर वह प्रेमानंद महाराज के साथ अनेक प्रकार से वार्तालाप करते करते उनसे पूछने लगा, 'महाराज, स्वामी जी के महत्त्व के बारे में श्री रामकृष्ण आप लोगों से क्या कहा करते थे-कृपया बतलाइए।'उस समय स्वामी जी थोड़ा आगे आगे चल रहे थे।

स्वामी प्रेमानंद-बहुत कुछ कहा करते थे; तुझे एक दिन में क्या बताऊं ? कभी कहा करते थे, 'नरेन अखंड के घर से आया है।' कभी कहा करते थे, नरेन मेरी ससुराल है। फिर कभी कहा करते थे, 'ऐसा व्यक्ति जगत्‌ में न कभी आया है, न आएगा।' एक दिन बोले, 'महामाया उनके पास जाते डरती है।' वास्तव में वे उस समय किसी देवी-देवता के सामने सिर न भुकाते थे। श्री रामकृष्ण ने एक दिन उन्हें सन्देश (एक प्रकार की मिठाई) के भीतर भरकर श्री जगन्नाथ देव का प्रसाद खिला दिया था। बाद में श्री रामकृष्ण की कृपा से सब देख सुनकर धीरे घीरे उन्होंने सब माना।

शिष्य-मेरे साथ रोज़ कितनी हँसी करते हैं, परंतु इस समय ऐसे गंभीर बने हैं कि बात करने में भी भय हो रहा है।

स्वामी प्रेमानंद-असली बात तो यह है कि महापुरुष कब किस भाव में रहते हैं, यह समझना हमारी मन-बुद्धि के परे है। श्री रामकृष्ण के जीवित काल में देखा है, नरेन को दूर से देखकर वे समाधिमग्न हो जाते थे। जिन लोगों की छुई हुई चीज़ों को खाने से वे दूसरों को मना करते थे, उनकी छुई हुई चीज़ें अगर नरेन खा लेता तो कुछ न कहते थे। कभी कहा करते थे, 'माँ, उसके अद्वैत ज्ञान को दबाकर रख-मेरा बहुत काम है।' इन सब बातों को अब कौन सम-झेगा-और किससे कहूँ?

शिष्य-महाराज, वास्तव में कभी-कभी ऐसा मालूम होता है कि नहीं हैं, परंतु फिर बातचीत, युक्ति-विचार करते समय मनुष्य जैसे लगते हैं। ऐसा प्रतीत होता है, मानों किसी आवरण द्वारा उस समय वे अपने स्वरूप को समझने नहीं देते!

स्वामी प्रेमानंद-श्री रामकष्ण कहा करते थे, वह (नरेन) जब जान जाएगा कि वह स्वयं कौन है, तो फिर इस शरीर में नहीं रहेगा, चला जाएगा | इसीलिए काम-काज में नरेन का मन लगा रहने पर हम निश्चिंत रहते हैं। उसे अधिक ध्यान-धारणा करते देखकर हमें भय लगता है!

अब स्वामी जी मठ की ओर लौटने लगे। उस समय स्वामी प्रेमानंद और शिष्य को पास पास देखकर उन्होंने पूछा, 'क्यों रे, तुम दोनों की आपस में क्या बातचीत हो रही थी?' शिष्य ने कहा, "यही सब श्री रामकृष्ण के संबंध में नाना प्रकार की बातें हो रही थी।' उत्तर सुनकर ही स्वामी जी फिर अनमने होकर चलते-चलते मठ में लौट आए और मठ के आम के पेड़ के नीचे जो कैंप खटिया उनके बैठने के लिए बिछी हुई थी, उस पर आकर बैठ गए। थोड़ी देर विश्राम करने के वाद हाथ-मुँह धोकर वे ऊपर के बरामदे में गए और टहलते हुए शिष्य से कहने लगे, 'तू अपने देश में वेदांत का प्रचार क्यों नहीं करते लग जाता ? वहाँ पर तांत्रिक मत का बड़ा जोर है। अद्वैतवाद के सिंहनाद से पूर्व बंगाल को हिला दे तो देखूँ। तब जानूँगा कि तू वेदांतवादी है। उस देश में पहले-पहल एक वेदांत की संस्कृत पाठशाला खोल दे-उसमें उपनिषद्‌, बह्मसूत्र आदि सब पढ़ा। लड़कों को ब्रह्मचर्य की शिक्षा दे और शास्त्रार्थ करके तांत्रिक पंडितों को हरा दे! सुना है, तुम्हारे देश में लोग केवल न्याय शास्‍त्र की किटिर-मिटिर पढ़ते हैं। उसमें है क्या? व्याप्ति-ज्ञान और अनुमान इसी पर तो नैयायिक पंडितों का महीनों तक शास्त्रार्थ चलता है। उससे आत्मज्ञान-प्राप्ति में क्या कोई विशेष सहायता मिलती है, बोल? वेदांत द्वारा प्रतिपादित बह्म-तत्त्व का पठन-पाठन हुए बिना क्या देश के उद्धार का कोई उपाय है रे ? तू अपने ही देश में या नाग महाशय के मकान पर ही सही एक चतुष्पाठी (पाठ-शाला) खोल दे। उसमें इन सब सत्‌ शास्त्रों का पठत-पाठन होगा और श्री रामकृष्ण के जीवन-चरित्र की चर्चा होगी। ऐसा करने पर तेरे अपने कल्याण के साथ ही साथ कितने दूसरे लोगों का भी कल्याण होगा। तुझे कीर्ति लाभ भी होगा।

शिष्य-महाराज, मैं नाम-यश की आकांक्षा नहीं रखता। फिर भी आप जैसा कर रहे हैं, कभी कभी मेरी भी वैसी इच्छा अवश्य होती है परंतु विवाह करके घर-गृहस्थी में ऐसा जकड़ गया हूँ कि कहीं मन की बात मन ही में न रह जाए।

स्वामी जी-विवाह किया है तो क्‍या हुआ? माँ-बाप, भाई-बहन को अन्न-वस्त्र देकर जैसे पाल रहा है, वेसे ही स्त्री का पालन भी कर, बस। धर्मोंपदेश देकर उसे भी अपने पथ में खींच ले। महामाया की विभूति मानकर उसे सम्मान की दृष्टि से देखा कर। धर्म-पालन में 'सहधर्मिणी' मानकर और दूसरे समय जैसे अन्य दस व्यक्ति देखते हैं, वैसे ही तू भी देखा कर। इस प्रकार सोचते-सोचते देखेगा कि मन की चंचलता एकदम मिट जाएगी। भय क्या है ?

स्वामी जी की अभयवाणी सुनकर शिष्य को कुछ विश्वास हुआ।

भोजन के बाद स्वामी जी अपने बिस्तर पर जा बैठे। अन्य सब लोगों का अभी प्रसाद पाने का समय नहीं हुआ था; इसलिए शिष्य को स्वामी जी की चरण-सेवा करने का अवसर मिल गया।

स्वामी जी भी उसे मठ के सब निवासियों के प्रति श्रद्धावान बनने का आदेश देने के सिलसिले में कहने लगे, 'ये जो सब श्रो रामकृष्ण की संतानों को देख रहा है, वे सब अद्भुत त्यागी हैं। इनकी सेवा करके लोगों की चित्त-शुद्धि होगी-आत्म-तत्त्व प्रत्यक्ष होगा। परिप्रश्‍नेन सेवया-गीता का कथन सुना है न ?

इनकी सेवा किया कर। उससे ही सब कुछ हो जाएगा। तुझ पर इनका कितना प्रेम है, जानता है?

शिष्य-परंतु महाराज, इन लोगों को समझना बहुत ही कठिन मालूम होता है-एक-एक व्यक्ति का एक-एक भाव।

स्वामी जी-श्री रामकृष्ण कुशल बाग़बान थे न! इसीलिए तरह तरह के फूलों से संघरूपी गुलदस्ते को तैयार कर गए हैं। जहाँ का जो कुछ अच्छा है, सब इसमें आ गया है-समय पर और भी कितने आएंगे। श्री रामकृष्ण कहा करते थे, 'जिसने एक दिन के लिए भी निष्कपट चित्त से ईश्वर को पुकारा है,उसे यहाँ पर आना ही पड़ेगा।' जो लोग यहाँ पर हैं, वे एक-एक महान्‌ सिंह हैं। ये मेरे पास दबकर रहते हैं, इसीलिए कहीं इन्हें मामूली आदमी तू समझ लेना। ये ही लोग जब निकलेंगे तो इन्हें देखकर लोगों को चैतन्य प्राप्त होगा | इन्हें अनंत भावमय श्री रामकृष्ण के शरीर का अंश जानना। मैं उन्हें उसी भाव से देखता हूँ। वह जो राखाल है, उसके सदृश धम्मभाव मेरा भी नहीं है। श्री राम्कृष्ण उसे मानस-पुत्र मानकर गोदी में लेते थे, खिलाते थे-एक साथ सोते थे। वह हमारे मठ की शोभा है-हमारा बादशाह है। बाबूराम, हरि, सारदा, गंगाघर, शरद, शशि, सुबोध आदि की तरह ईश्‍वर-पद विश्वासी लोग पृथ्वी भर में ढूँढने पर भी शायद न पा सकेगा। इनमें से प्रत्येक व्यक्ति धर्म-शक्ति का मानो एक-एक केंद्र है। समय आते पर उन सबकी शक्ति का विकास होगा।

शिष्य विस्मित होकर सुनने लगा। स्वामी जी ने फिर कहा, 'परंतु तुम्हारे देश से नाग महाशय के अतिरिक्त और कोई न आया। और दो एक ने श्री रामकृष्ण को देखा था, पर वे उन्हें समझ न सके।' नाग महाशय की बात याद करके स्वामी जी थोड़ी देर के लिए स्थिर रह गए। स्वामी जी ने सुना था, एक समय नाग महाशय के घर में गंगा जी का फ़व्वारा निकल पड़ा था। उस बात का स्मरण कर वे शिष्य से कहने लगे, "अरे, वह घटना क्‍या थी, बोल तो?"

शिष्य-महाराज, मैंने भी उस घटना के बारे में सुना है-पर आँखों नहीं देखी। सुना है, एक बार महावारुणी योग में अपने पिता जी को साथ लेकर नाग महाशय कलकत्ता आने के लिए तैयार हुए। परंतु भीड़ में गाड़ी न पाकर तीन-चार दिन नारायणगंज में ही रहकर घर लौट आए। लाचार होकर नाग महाशय ने कलकत्ता जाने का इरादा छोड़ दिया और अपने पिता जी से कहा, 'यदि मन शुद्ध हो तो माँ गंगा यहीं पर आ जायेगी। इसके बाद योग" के समय पर एक दिल मकान के आँगन की ज़मीन फोड़कर एक जल का फव्वारा फूट निकला था-ऐसा सुना है। जिन्होंने देखा था, उनमें से अनेक व्यक्ति अभी तक जीवित हैं। मुझे उनका: संग प्राप्त होने के बहुत दिन पहले यह घटना हुई थी।

स्वामी जी-इसमें फिर आश्चर्य की क्‍या बात है? वे सिद्धसंकल्प महापुरुष थे-उनके लिए वैसा होने में मैं कुछ भी आश्चर्य नहीं मानता।

यह कहते कहते स्वामी जी ने करवट बदली और उन्हें नींद आने लगी।

यह देख शिष्य प्रसाद पाने के लिए उठकर चला गया।

४५

[स्थान : कलकत्ते से सठ में जाते हुए नाव पर।]

वर्ष : १९०२ ई॰

शिष्य ने आज तीसरे प्रहर कलकत्ते के गंगा तट पर टहलते टहलते देखा कि थोड़ी दूरी पर, एक संन्‍यासी आहीरी टोला घाट की ओर अग्रसर हो रहे हैं। वे जब पास आए तो देखा, वे साधु और कोई नहीं-उसी के गुरुदेव श्री स्वामी विवेकानंद ही हैं।

स्वामी जी के बाँयें हाथ में शाल के पत्ते के दोने में भुना हुआ चनाचूर है बालक को तरह खाते खाते वे आनंद से चले आ. रहे हैं। जगद्विख्यात स्वामी जी को उस रूप में रास्ते पर चनाचूर खाते हुए आते देख शिष्य विस्मित होकर उनकी अहंकारशून्‍यता की बात सोचने लगा। वे जब समीप आए तो शिष्य ने उनके चरणों में प्रणत होकर उनके एकाएक कलकत्ता आने का कारण पूछा।

स्वामी जी-एक काम से आया था। चल, तू मठ में चलेगा! थोड़ा भुना हुआ चना खा न? अच्छा नमक-मसालेदार है।

शिष्य ने हँसते-हँसते प्रसाद लिया और मठ में जाना स्वीकार किया।

स्वामी जी-तो फिर एक नाव देख।

शिष्‍य भागता हुआ किराये पर नाव लेने दौड़ा। किराये के संबंध में माझियों के साथ बातचीत चल रही है, इसी समय स्वामी जी भी वहाँ पर आ पहुँचे। नाववाले ने मठ पर पहुँचा देने के लिए आठ आने माँगे, शिष्य ने दो आने कहा। 'इन लोगों के साथ क्या किराये के बारे में लड़ रहा है ?' यह कहकर स्वामी जी ने शिष्य को चुप किया और मारी से कहा, 'चल, आठ आने ही दूंगा' और नाव पर चढ़े। भाटे के प्रबल वेग के कारण नाव बहुत धीरे-धीरे चलने लगी और मठ तक पहुँचते-पहुँचते क़रीब डेढ़ घंटा लग गया। नाव में स्वामी जी को अकेला पाकर शिष्य को निःसंकोच होकर सारी बातें उनसे पूछ लेने का अच्छा अवसर मिल गया। इसी वर्ष के २० आषाढ़ (बांग्ला) को स्वामी जी ने देहत्याग किया था। उस दिन गंगा जी पर स्वामी जी के साथ शिष्य का जो वार्तालाप हुआ, वही यहाँ पाठकों को उपहार के रूप में दिया जाता है।

श्री रामकृष्ण के गत जन्मोत्सव में शिष्य ने उनके भक्तों का 'महिमाकीर्तन-स्तव' छपवाया था, उसका प्रसंग उठाकर स्वामीजी ने उससे पूछा, "तूने अपने रचित स्तव में जिन जिन का नाम लिया है, कैसे जाना कि वे सभी श्री रामकृष्ण के लीला-सहचर हैं ?"

शिष्य-महाराज! श्री रामकृष्ण के संन्यासी और गृही भक्तों के पास इतने दिनों से आता-जाता रहा हूँ, उन्हीं के मुख से सुना है कि वे सभी श्री राम-कृष्ण के भक्त हैं।

स्वामी जी-श्री रामकृष्ण के भक्त हो सकते हैं, परंतु सभी भक्त तो उनके लीला-सहचरों के अंतर्गत नहीं। उन्होंने काशीपुर के बगीचे में हम लोगों से कहा था, माँ ने दिखा दिया, ये सभी लोग यहाँ के (मेरे) अंतरंग नहीं हैं।' स्त्री तथा पुरुष दोनों प्रकार के भक्तों के संबंध में उन्होंने उस दिन ऐसा कहा था।

उसके बाद वे अपने भक्तों के संबंध में जिस प्रकार उच्च तथा इतर कोटि का निर्देश किया करते थे, वह बात कहते हुए धीरे-धीरे स्वामी जी शिष्य को भली-भाँति समझाने लगे कि गृहस्थ और संन्यासी जीवन में कितना अंतर है।

स्वामी जी-कामिनी-कांचन का सेवन भी करेगा और श्री रामकृष्ण को भी समझेगा-ऐसा न कभी हुआ, न हो सकता है। इस बात पर कभी विश्वास न करना। श्री रामकृष्ण के भक्तों में से अनेक व्यक्ति इस समय अपने को 'ईश्वर कोटि', 'अंतरंग' आदि कहकर प्रचार कर रहे हैं। उनका त्याग-वैराग्य तो कुछ भी न ले सके, और कहते क्या है कि वे सब श्री रामकृष्ण के अंतरंग भक्त हैं। उन सब बातों को झाड़ू मारकर दूर किया कर। जो त्यागियों के बादशाह हैं, उनकी कृपा प्राप्त करके क्या कोई कभी काम-कांचन के सेवन में जीवन व्यतीत कर सकता है?

शिष्य-तो क्या महाराज, जो लोग दक्षिणेश्वर में श्री रामकृष्ण के पास उपस्थित हुए थे, उनमें से सभी लोग उनके भक्त नहीं: ?

स्वामी जी-यह कौन कहता है? सभी लोग उनके पास आना-जाना करके धर्म की अनुभूति की ओर अग्रसर हुए हैं, हो रहे हैं और होंगे। वे सभी उनके भक्‍त हैं परंतु असली बात यह है कि सभी लोग उनके अंतरंग नहीं। श्री रामकृष्ण कहा करते थे, अवतार के साथ दूसरे कल्पों के सिद्ध ऋषिगण देह धारण कर जगत्‌ में पधारते हैं। वे ही भगवान्‌ के साक्षात्‌ पार्षद हैं। उन्हीं के द्वारा भगवान्‌ कार्य करते हैं या जगत्‌ में धर्मभाव का प्रचार करते हैं।" यह्‌ जान ले कि अवतार के संगी-साथी एकमात्र वे लोग हैं जो दूसरों के लिए सर्वत्यागी हैं-जो भोग-सुख को काक-विष्ठा की तरह छोड़कर जगद्धिताय', 'जीवहिताय' आत्मोत्सर्ग करते हैं। भगवान ईसा के शिष्यगण सभी संन्यासी हैं। शंकर, रामानुज, श्री चैतन्य तथा बुद्धदेव की साक्षात्‌ कृपा प्राप्त करनेवाले सभी साथी सर्वत्यागी संन्यासी हैं। ये सर्वत्यागी ही गुरु-परंपरा के अनुसार जगत में ब्रह्म-विद्या का प्रचार करने आए हैं। कहीं कभी सुना है-काम-कांचन के दास बने रहकर भी कोई मनुष्य जनता का उद्धार करने या ईश्‍वर-प्राप्ति का उपाय बताने में समर्थ हुआ है? स्वयं मुक्त न होने पर दूसरों को कैसे मुक्त किया जा सकता है? वेद, वेदांत, इतिहास, पुराण सर्वत्र देख सकेगा-संन्यासी-गण ही सर्व काल में सभी देशों में लोक-गुरु के रूप में धर्म का उपदेश देते रहे हैं। यही इतिहास भी बतलाता है। इतिहास अपने को दुहराता है-यथा पूर्व तथा परम्‌। अब भी वही होगा। महासमन्वयाचार्य श्री रामकृष्ण की संन्यासी संतान ही लोकगुरु के रूप में जगत्‌ में सर्वत्र पूजित हो रही है और होगी। त्यागी के अतिरिक्त दूसरों की बात कोरी आवाज़ की तरह शून्य में विलीन हो जाएगी। मठ के यथार्थ त्यागी संन्यासीगण ही धर्मभाव की रक्षा और प्रचार के महा केंद्रस्वरूप बनेंगे। समझा ?

शिष्य-तो फिर क्या श्री रामकृष्ण के गृहस्थ भक्तगण उनकी बातों का भिन्न-भिन्न प्रकार से जो प्रचार कर रहे हैं, वह सत्य नहीं?

स्वामी जी-एकदम झूठा नहीं कहा जा सकता; परंतु वे श्री रामकृष्ण के संबंध में जो कुछ कहते हैं, वह सब आंशिक सत्य है। जिसमें जितनी क्षमता है, वह श्री रामकृष्ण का उतना अंश ही लेकर चर्चा कर रहा है। वैसा करना बुरा नहीं; परंतु उनके भक्तों में यदि ऐसा किसी ने समझा हो कि वह जो समझा है अथवा कह रहा है, वही एकमात्र सत्य है, तो वह बेचारा दया का पात्र है। श्री रामकृष्ण को कोई कह रहे हैं-तांत्रिक कौल; कोई कहते हैं-चैतन्य देव नारदीय भवित का प्रचार करने के लिए पैदा हुए थे; कोई कहते हैं-श्री रामकृष्ण की साधना उनके अवतारत्व में विश्वास की विरोधी है; कोई कहते हैं-संन्यासी बनना श्री रामकृष्ण की राय में ठीक नहीं-आदि आदि। इसी प्रकार की कितनी ही बातें गृही भक्तों के मुख से सुनेगा। उन सब बातों पर ध्यान न देना। श्री रामकृष्ण क्या हैं, वे कितने पूर्व अवतारों के जमें हुए भाव-राज्य के अधिराज हैं-इस बात को प्राण-पण से तपस्या करके भी मैं रत्ती भर नहीं समझ सका। इसलिए उनके संबंध में संयत होकर ही बात करना उचित है। जो जैसा पात्र है, उसे वे उतना ही देकर पूर्ण कर गए हैं। उनके भाव-समुद्र की एक बूंद को भी यदि धारण कर सके तो मनुष्य देवता बन सकता हैं। सब भावों का इस प्रकार का समन्वय, जगत्‌ के इतिहास में क्या और कहीं भी ढूँढने पर मिल सकता है ? इसी से समझ ले, उनके रूप में कौन देह धारण कर आए थे। अवतार कहने से तो उन्हें छोटा कर दिया जाता है। जब वे अपने संन्यासी संतानों को उपदेश दिया करते थे, तब बहुधा वे स्वयं उठकर चारों ओर खोज करके देख लेते थे कि वहाँ पर कोई गृहस्थ तो नहीं है। और जब देख लेते कि कोई नहीं है, तभी ज्वलन्त भाषा में त्याग और तपस्या की महिमा का वर्णन करते थे। उसी संसार-वैराग्य की प्रचंड उद्दीपना से ही तो हम संसार-त्यागी उदासीन हैं।

शिष्‍य-महाराज, वे गृहस्थ और संन्यासियों के बोच इतना अंतर रखते थे ?

स्वामी जी-यह उनके गृही भक्तों से पूछकर देख। देखकर समझ क्यों नहीं लेता-उनकी जो सब संतान ईश्वर-प्राप्ति के लिए ऐहिक जीवन के सभी भोगों का त्याग करके पहाड़, पर्वत, तीर्थ तथा आश्रम आदि में तपस्या करते हुए देह-क्षय कर रही हैं वे बड़ी हैं, अथवा वे लोग जो उनकी सेवा, वंदना, स्मरण, मनन कर रहे हैं ओर साथ ही संसार के माया-मोह में भी ग्रस्त हैं ? जो लोग आत्मज्ञान में, जीव-सेवा में जीवन देने को अग्रसर हैं, जो बचपन से ऊर्ध्‍वरेता हैं, जो त्याग, वैराग्य के मूर्तिमान चल विग्रह हैं वे बड़े हैं, अथवा वे, जो मक्खी की तरह एक बार फूल पर बैठते हैं और दूसरे ही क्षण विष्ठा पर बैठ जाते हैं? यह सब स्वयं ही समझकर देख।

शिष्य-परंतु महाराज, जिन्होंने उनकी (श्री रामकृष्ण की) कृपा प्राप्त कर ली है, उनकी फिर गृहस्थी कैसी? वे घर पर रहें या संन्यास ले लें-दोनों ही बराबर हैं। मुझे तो ऐसा ही लगता है।

स्वामी जी-जिन्‍हें उनकी कृपा प्राप्त हुई है, उनकी मन-बुद्धि फिर किसी भी तरह संसार में आसक्त नहीं हो सकती। कृपा की परीक्षा तो है, काम-कांचन में अनासक्ति। वही यदि किसी की न हुई तो उसने श्री रामकृष्ण की कृपा कभी ठीक-ठीक प्राप्त नहीं की।

पूर्व प्रसंग इसी प्रकार समाप्त होने पर शिष्य ने दूसरी बात उठाकर स्वामी जी से पूछा, "महाराज, आपने जो देश-विदेश में इतना परिश्रम किया, उसका क्या परिणाम हुआ ?"

स्वामी जी-क्या हुआ? इसका केवल थोड़ा ही भाग तुम लोग देख सकोगे। समय पर समस्त संसार को श्री रामकृष्ण का उदार भाव ग्रहण करना पड़ेगा। इसका अभी प्रारंभ मात्र हुआ है। इस प्रबल बाढ़ के वेग में सभी को बह जाना पड़ेगा। शिष्य-आप श्री रामकृष्ण के बारे में और कुछ कहिए। उनका प्रसंग आपके मुख से सुनने अच्छा लगता है।

स्वामी जी-यही तो कितना दिन-रात सुन रहा है। उनकी उपमा वे ही हैं। उनकी तुलना का क्‍या कोई है रे?

शिष्य-महाराज, हम तो उन्हें देख नहीं सकते। हमारे उद्धार का क्या उपाय है ?

स्वामी जी-साक्षात्‌ उनकी कृपा-प्राप्त इन सब साधुओं का सत्संग कर रहा है, तो फिर उन्हें कैसे नहीं देखा, बोल? वे अपनी त्यागी संतानों में विराजमान हैं। उनकी सेवा-वंदना करने पर, वे कभी न कभी अवश्य प्रकट होंगे। समय आने पर सब देख सकेगा।

शिष्य-अच्छा महाराज, आप श्री रामकृष्ण की कृपा-प्राप्त दूसरे सभी की बात कहते हैं, परंतु आपके संबंध में वे जो कुछ कहा करते थे, वह तो कभी भी नहीं कहते ?

स्वामी जी-अपनी बात और क्‍या कहूँगा ? देख तो रहा है-मैं उनके दैत्य-दानवों में से कोई एक होऊँगा। उनके सामने ही कभी कभी उन्हें भला-बुरा कह देता था। वे सुनकर हँस देते थे।

यह कहते कहते स्वामी जी का मुखमंडल गंभीर हो गया। गंगा जी की ओर शून्य मन से देखते हुए कुछ देर तक स्थिर होकर बैठे रहे। धीरे-धीरे शाम हो गई। नाव भी धीरे-धीरे मठ पर आ गई। स्वामी जी उस समय एकाग्रचित्त हो गाना गा रहे थे-(केवल) आशार आशा भवे आसा, आसा मात्र सार हल। एखन संध्यावेलाय घरेर छेले घरे निये चल।' (केवल आशा की आशा में दुनिया में आना हुआ, (और) आना भर ही सार हुआ। अब साँझ के समय (मुझे) घर के लड़के को घर ले चलो।)

गाना सुनकर शिष्य स्तंभित होकर स्वामी जी के मुख की ओर देखता रह गया।

गाना समाप्त होने पर स्वामी जी कहने लगे, 'तुम्हारे पूर्वी बंगाल में सुकंठ गायक पैदा नहीं होते। माँ गंगा का जल पेट में गए बिना कोई सुकंठ गायक नहीं होता।'

किराया चुकाकर स्वामी जी नाव से उतरे और कुरता उतारकर मठ के पश्‍चिमी बरामदे में बैठ गए। स्वामी जी के गोर वर्ण और गेरुए वस्त्र ने सायंकाल के दीपों के आलोक में अपूर्व शोभा धारण का है।

 

४६

[स्थान : बलूड़ मठ। वर्ष : १९०२ ई॰]

आज १३ आषाढ़ (बंगाल सौर) है। शिष्य बाली से सायंकाल के पूर्वे मठ में आ गया है। उस समय उसके कार्य का स्थान बाली में ही है। आज वह ऑफ़िसवाली पोशाक पहनकर ही आया है, कपड़ा बदलने का समय उसे नहीं मिला। आते ही स्वामी जी के श्री चरणों में प्रणाम करके उसने उनका कुशल-समाचार पूछा। स्वामी जी बोले-अच्छा हूँ। (शिष्य की पोशाक देखकर) तू कोट-पैण्ट पहनता है, कॉलर क्‍यों नहीं लगाया? ऐसा कहने के बाद पास में खड़े स्वामी सारदानंद को बुलाकर कहा, "मेरे जो कॉलर हैं, उनमें से दो कॉलर कल (प्रातःकाल) इसे दे देना तो।" स्वामी सारदानंद जी ने उनके आदेश को शिरोधार्य कर लिया।

उसके पश्चात्‌ शिष्य मठ के एक दूसरे कमरे में उस पोशाक को उतारकर मुँह-हाथ घोकर स्वामी जी के पास आया। स्वामी जी ने उस समय उससे कहा, "आहार, पोशाक और जातीयः आचार-व्यवहार का परित्याग करने पर, धीरे-धीरे जातीयता लुप्त हो जाती है। विद्या सभी से सीखी जा सकती है, परंतु जिस विद्या की प्राप्ति से जातीयता का लोप होता है, उससे उन्नति नहीं होती-अध: पतन ही होता है।

शिष्य-महाराज, ऑफ़िस में आजकल अधिकारियों द्वारा निश्चित पोशाक आदि न पहनने से काम नहीं चलता।

स्वामी जी-इसे कौन रोकता है? ऑफिस में काम करने के लिए वैसी पोशाक तो पहननी ही पड़ेगी परंतु घर जाकर ठीक बंगाली बाबू बन जा, वही धोती, बदन पर कमीज़ या कुरता ओर कंधे पर चादर। समझा?

शिष्य-जी हाँ!

स्वामी जी-तुम लोग केवल शर्ट (कमीज) पहनकर ही इसके-उसके घर चले जाते हो-उस (पाश्‍चात्य) देश में वैसी पोशाक पहनकर लोगों के घर जाना बड़ी असभ्यता समझी जाती है। बिना कोट पहने कोई सभ्य व्यक्ति अपने घर में घुसने ही न देगा। उस पोशाक के बारे में तुम लोगों ने क्या अधूरा अनुकरण करना सीखा है! आजकल के लड़के जो पोशाक पहनते हैं, वह न तो देशी है और न विलायती, एक अजीब मिलावट है।

इस प्रकार बातचीत के बाद स्वामी जी गंगा जी के किनारे थोड़ी देर टहलने लगे। साथ में केवल शिष्य ही था। वह स्वामी जी से साधना के संबंध में एक प्रइन पूछने में संकोच कर रहा था।

स्वामी जी-क्या सोच रहा है? कह डाल न। (मानो मन की बात ताड़ गए हों!)

शिष्य लज्जित भाव से कहने लगा, "महाराज, सोच रहा था कि यदि आप ऐसा कोई उपाय सिखा दें, जिससे मन बहुत जल्द स्थिर हो जाए-जिससे बहुत जल्द ध्यान-मग्न हो सकूं-तो बड़ा ही उपकार हो। संसार के चक्र में पड़कर साधन-भजन के समय मन स्थिर करना बड़ा कठिन होता है।"

ऐसा मालूम हुआ कि शिष्य की उस प्रकार की दीनता को देख स्वामी जी बहुत ही प्रसन्न हुए। उत्तर में वे स्नेहपूर्वक शिष्य से बोले, "थोड़ी देर बाद जब ऊपर मैं अकेला रहूँगा, तब आना। तब उस विषय पर बातचीत होगी।"

शिष्य आनंद से-अधीर होकर बार बार स्वामी जी को प्रणाम करने लगा। स्वामी जी "रहने दे, रहने दे कहने लगे। थोड़ी देर बाद स्वामी जी ऊपर चले गए।

शिष्य इस बीच नीचे एक साधु के साथ वेदांत की चर्चा करने लगा और धीरे-धीरे द्वैताद्वैत मत के वितंडावाद से मठ कोलाहलपूर्ण हो गया। हल्ला सुनकर शिवानंद महाराज ने उससे कहा, "अरे, धीरे-धीरे चर्चा कर, ऐसा चिल्लाने से स्वामी जी के ध्यान में विघ्न होगा।" उस बात को सुनकर शिष्य शांत हुआ और चर्चा समाप्त कर ऊपर स्वामी जी के पास चला गया।

शिष्य ने ऊपर पहुँचते ही देखा, स्वामी जी पश्चिम की ओर मुँह करके फर्श पर बैठे हुए ध्यान-मग्न हैं। मुख अपूर्व भाव से पूर्ण है, मानो चंद्रमा की कांति फूटकर निकल रही है। उनके सभी अंग एकदम स्थिर- मानो चित्रार्पितारम्‍भ इवावतस्थे। स्वामी जी की वह ध्यानमग्न मूर्ति देखकर वह विस्मित हो पास ही खड़ा रहा और बहुत देर तक खड़े रहकर भी स्वामी जी के बाह्य ज्ञान का कोई चिह्न न देख चुपचाप उसी स्थान पर बैठ गया। करीब आध घंटा बीत जाने पर स्वामी जी के पार्थिव राज्य के संबंध में ज्ञान का मानो थोड़ा-थोड़ा आभास दीखने लगा। शिष्य ने देखा, उनका मुट्ठीबंद हाथ काँप रहा है। उसके पाँच-सात मिनट बाद ही स्वामी जी ने आँखें खोलकर शिष्य से कहा, "यहाँ पर कब आया?"

शिष्य-यही थोड़ी देर पहले।

स्वामी जी-अच्छा, एक गिलास जल तो ले आ।

शिष्य तुरंत स्वामी जी के लिए रखी हुई खास सुराही से जल ले आया। स्वामी जी ने थोड़ा जल पीकर गिलास जगह पर रखने के लिए शिष्य से कहा। शिष्य ने गिलास रख दिया और स्वामी जी के पास आकर बैठ गया।

स्वामी जी-आज ध्यान बहुत जमा था।

शिष्य-महाराज, ध्यान करते समय बैठने पर मन जिससे पूर्ण रूप से डूब जाए, वह मुझे सिखा दीजिए।

स्वामी जी-तुझे सब उपाय तो पहले ही बता दिए हैं; प्रतिदिन उसी प्रकार ध्यान किया कर। समय पर सब मालूम होगा। अच्छा, बोल तो तुझे क्या अच्छा लगता है ?

शिष्य-महाराज, आपने जैसा कहा था, वैसा करता हूँ, परंतु फिर भी मेरा अभी तक अच्छी तरह से ध्यान नहीं जमता। फिर कभी कभी मन में आता है-ध्यान करके क्‍या होगा? इसलिए, ऐसा लगता है कि मेरा ध्यान नहीं जमेगा। अब हमेशा आपके पास रहता ही मेरा एकमात्र इच्छा है |

स्वामी जी-यह सब मानसिक दुर्बलता का चिह्न है। सदा नित्य प्रत्यक्ष आत्मा में तन्‍मय हो जाने की चेष्टा किया कर। आत्मदर्शन एक बार होने पर, सब कुछ हुआ ही समझना; जन्म-मृत्यु का जाल तोड़कर चला जाएगा।

शिष्य-आप कृपा करके वही कर दीजिए। आपने आज एकान्त में आने के लिए कहा था, इसलिए आया हूँ। जिससे मेरा मन स्थिर हो, ऐसा कुछ कर दीजिए।

स्वामी जी-समय पाते ही ध्यान किया कर। सुषुम्‍ना के पथ पर मन यदि एक बार चला जाए, तो अपने आप ही सब कुछ ठीक हो जाएगा। फिर अधिक कुछ करना न होगा।

शिष्य-आप तो कितना उत्साह देते हैं; परंतु मुझे सत्य वस्तु प्रत्यक्ष होगी क्या? यथार्थ ज्ञान प्राप्त करके मुक्त हो सकूँगा क्‍या ?

स्वामी जी-अवश्य होगा! समय पर कीट से ब्रह्मा तक सभी मुक्त हो जाएंगे-और तू नहीं होगा? उन सब दुर्बलताओं को मन में स्थान न दिया कर।

इसके बाद स्वामी जी ने कहा, "श्रद्धावान बन, वीर्यवान बन, आत्मज्ञान प्राप्त कर-और परहित के लिए जीवन का उत्सर्ग कर दे-यही मेरी इच्छा और आशीर्वाद है।"

इसके बाद प्रसाद की घंटी बजने पर स्वामी जी ने शिष्य से कहा-"जा, प्रसाद की घंटी बज गई है।"

शिष्य ने स्वामी जी के चरणों में प्रणाम करके कृपा की भिक्षा माँगी। स्वामी जी ने शिष्य के मस्तक पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और कहा, "मेरे आशीर्वाद से तेरा यदि कोई उपकार है तो कहता हूँ, "भगवान्‌ श्री रामकृष्ण तुझ पर कृपा करें।' इससे बढ़कर आशीर्वाद और मैं तुझे क्या दूँ।"

शिष्य ने आनंदित होकर, नीचे उतरकर शिवानंदजी महाराज से स्वामी जी के आशीर्वाद की बात कही। शिवानंद स्वामी ने उस बात को सुनकर कहा, "जा बंगाल! तेरा सब कुछ बन गया। इसके बाद स्वामी जी के आशीर्वाद का परिणाम जान सकेगा ?"

भोजन के बाद शिष्य उस रात्रि को फिर ऊपर न गया, क्योंकि आज स्वामी जी जल्दी सोने के लिए लेट गए थे।

दूसरे दिन प्रातःकाल ही शिष्य को कार्यवश कलकत्ता लौटना था। अतः जल्द हाथ-मुँह घोकर वह ऊपर स्वामी जी के पास पहुँचा।

स्वामी जी-अभी जाएगा ?

शिष्य-जी हाँ।

स्वामी जी-अगले रविवार को आएगा न ?

शिष्य-अवश्य महाराज।

स्वामी जी-तो जा, वह एक नाव आ रही है, उसी पर चला जा।

शिष्य ने स्वामी जी के चरण-कमलों से इस जन्म के लिए विदा ली। वह उस समय भी नहीं जानता था कि इष्टदेव के साथ स्थूल शरीर में उसका यही वार्ता एवं संलाप अंतिम साक्षात्कार था। स्वामी जी प्रसन्न मुख से उसे विदा देकर फिर बोले, "रविवार को आना।" शिष्य भी 'आऊँगा" कहकर नीचे उतर गया।

स्वामी सारदानंद जी ने उसे जाते देखकर कहा "अरे, वे दो कॉलर तो लेता जा। नहीं तो मुझे स्वामी जी की बात सुननी पड़ेगी।"

शिष्‍य ने कहा, "आज बहुत जल्दी है-और किसी दिन ले जाऊँगा। आप स्वामी जी से कह दीजिएगा।"

नाव का मल्लाह पुकार रहा था। इसलिए शिष्य उन बातों को कहते कहते नाव की ओर भागा। शिष्य ने नाव पर से ही देखा, स्वामी जी ऊपर के बरामदे में धीरे-धीरे टहल रहे हैं। वह उन्हें वहीं से प्रणाम करके नाव के भीतर जाकर बैठ गया। नाव भाटे के जोर से आध घंटे में ही अहीरीटोला के घाट पर आ पहुँची।

इसके सात दिन बाद ही स्वामी जी ने अपना पांचभौतिक शरीर त्याग दिया। शिष्य को उस घटना से पूर्व कुछ भी मालूम नहीं हुआ। उनकी महा-समाधि के दूसरे दिन समाचार पाकर, वह मठ में आया, पर स्थूल शरीर में स्वामी जा का दर्शन फिर उसके भाग्य में नहीं था।



[1] 'शिष्य से वार्तालाप' के शिष्य शरत् चन्द्र चक्रवर्ती हैं, जिन्होंने दो भागो में अपनी बंगाली पुस्तक 'स्वामी-शिष्य संवाद' प्रकाशित की थी। चक्रवर्ती महोदय ने प्रस्तुत वार्तालाप क्रम में 'शिष्य' रूप में अपने को सदा अन्य पुरुष मे उल्लेखित किया है।

[2] अभिज्ञानशाकुंतलम्

[3] बंगाल के एक सुविख्यात नाटककार, नट एवं श्री रामकृष्ण के एक परम भक्त।

[4] इस बगीचे में रहते समय स्वामी जी ने एक छिन्नमुंड प्रेत देखा था। वह मानो करुण स्वर से उस दारुण यंत्रणा से मुक्त होने के लिए प्रार्थना कर रहा था। अनुसंधान से स्वामी जी को मालूम हुआ कि वास्तव में उस बगीचे में किसी आकस्मिक घटना से एक ब्रामहन कि मृत्यु हुई थी। स्वामी जी ने यह घटना बाद में अपने गुरूभाइयों को बतलायी थी।

[5] स्वामी जी का यह विचार आधुनिक ऐतिहासिक अध्ययन पर आधारित था । उस समय इन नवीन प्रयत्नों और शोधों को वे प्रोत्साहित करते थे। परन्तु बाद में इन विद्वानों से उनका मतभेद हुआ और उन्होने बुद्धदेव के पूर्व धर्म के इन स्रोतों को माना है।

[6] श्री रामकृष्‍ण के एक अंतरंग लीलासहचर। इनहोंने मुर्शिदाबाद के अंतर्गत सारगाछी में अनाथाश्रम, शिल्‍पविद्यालय और दातव्‍य चिकित्‍सालय स्‍थापित किए हैं। यहाँ बिना जात-पाँत के विचार सबकी सेवा की जाती है और उनका कुल व्‍यय उदार सज्‍जनों की सहायता पर निर्भर है।

[7] स्‍वामी जी कृत 'रामकृष्‍ण-स्त्रोतम्'

[8] एक पंडित जी किसी गाँव को जा रहे थे। उन्‍हें कोई नौकर नहीं मिला, इसलिए उन्‍होंने रास्‍ते के चमार को ही अपने साथ ले लिया और उसे सिखा दिया कि वह अपनी जात-पांत गुप्‍त रखे और किसी से कुछ भी न बोले। गाँव पहुँचकर एक दिन पंडित जी अपने नित्‍यक्रम अनुसार संध्‍या-वंदन कर रहे थे। वह नौकर भी उनके पास बैठा था। इतने में ही वहाँ एक दूसरे पंडित जी आए। अपने जूते कहीं छोड़ आए थे वे। उन्‍होंने इस नौकर को हुक्‍म दिया, 'अरे जा, वहाँ से मेरे जूते ले आ।' पर नौकर नहीं और न कुछ बोला ही। पंडित जी ने फिर कहा, पर वह फिर भी नहीं उठा। इस पर उन्‍हें बड़ा क्रोध आया और उन्‍होंने उसे डाँटकर कहा, 'तू बड़ा चमार है, कहने से भी नहीं उठता।' अब तो नौकर बड़ा घबड़ाया, वह सचमुच चमार था। वह सोचने लगा, 'अरे मेरी जात तो शायद इन्‍होंने जान ली।' बस वह भागा, और ऐसा भागा कि उसका पता ही न चला। ठीक इसी प्रकार जब माया पहचान ली जाती है तो वह भी भाग् जाती है, एक क्षण भी नहीं टिकती।

[9] शिव और राम में युद्ध हुआ था। उधर राम के गुरु हैं शिव और शिव के गुरु हैं राम; अंत: युद्ध के बाद दोनों में मेल भी हो गया। परन्तु शिव के चेले भूत-प्रेत तथा राम के चेले बन्‍दरों का आपस का झगड़ा- झंझट उस दिन से लेकर आज तक न मिटा।

 


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हिंदी समय में स्वामी विवेकानंद की रचनाएँ